Thursday, July 13, 2023

कोलाहल के विरुद्ध कविता के पक्ष में

 

       

                                   

युवा कवि अच्युतानंद मिश्र की कविता केंद्रित इस किताब में पंद्रह लेख और कविता केंद्रित एक साक्षात्कार संकलित हैं । इनका मूल स्वर बहस का है । यह बहस कविता की ओर से समूचे वातावरण से तो की ही गयी है, वातावरण की विशेषता को भी दर्ज किया गया है लेखक ने इसी बहाने समाज में कविता की हैसियत और उसकी भूमिका को भी दर्ज किया है इस काम को शुरू में ही लेखक ने संपन्न कर लिया है इससे आगामी विवेचन की सुपुष्ट पृष्ठभूमि बन गयी है

लेखक विज्ञान के भी सुधी अध्येता हैं इसलिए एकाधिक जगहों पर उसकी अंतर्दृष्टि का सहारा विषय की प्रकृति को समझाने के लिए किया है । इसका भी उदाहरण पहले ही लेख से लिया जा सकता है जहां वे कविता की द्वैध स्थिति को समझाने के लिए रसायन विज्ञान का उल्लेख करते हैं जिसमें दो या दो से अधिक भिन्न गुण वाली वस्तु मिलकर तीसरी चीज बनाती हैं । इस नयी वस्तु में दोनों शामिल रहते हैं लेकिन एक दूसरे से मिले हुए । इसे कविता की प्रकृति के समान बताने के लिए वे कविता को ‘दृश्य-अदृश्य, अन्तर-बाह्य, मनुष्य-प्रकृति के संयोग से बनती हुई’ कहते हैं । इसको थोड़ा और साफ करने के लिए वे आग का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि ‘जब आग पैदा होती है तो हर पत्थर का अस्तित्व दूसरे के महत्त्व को स्थापित करता है । किसी एक को अधिक महत्त्वपूर्ण और दूसरे को कम महत्त्वपूर्ण नहीं माना जा सकता ।’ इस तरह कविता की प्रकृति में निहित जटिलता को वे वर्ण्य वस्तु की जटिलता के तुल्य बताते हैं ।

कविता के बारे में शुरू के दो सैद्धांतिक लेखों के बाद किताब हिंदी की आधुनिक दुनिया में प्रवेश करती है । इन लेखों में लेखक ने कविता की बहुत ही व्यापक धारणा बनायी है । लेखक के समूचे व्यक्तित्व को तो वह निचोड़ती ही है, समूची कायनात में व्याप्त है । भाषा में उसकी अलहदगी बाद की घटना है । उसमें भी काव्य की भाषा का विशेष हो जाना और भी आगे के विलगाव का द्योतक है । इस आरम्भिक समझ के बाद जब वे आधुनिक हिंदी कविता में घुसते हैं तो उनका यह प्रवेश इतना भव्य हो जाता है कि लगता है, लेखक पाठक की उंगली पकड़कर किसी कुशल पथ प्रदर्शक की तरह कविता की दुनिया में उसका प्रवेश करा रहा हो । असल में आधुनिक हिंदी कविता की दुनिया इतनी उलझी हुई है कि बहुतेरे सिद्ध लोग भी उसके नाम पर आंय-बांय बोलने लगते हैं । लेखक के कवि होने के कारण इस कविता की संवेदना और शिल्प पर उनकी पकड़ अचूक है । आलोचना लिखने के नाम पर वे कविता की भाषा से होड़ नहीं करते जैसा अधिकांश लोग करते हैं बल्कि कविता को समझने के लिए उत्सुक पाठक उनके दिमाग में मौजूद रहता है जिसके लिए वे इन कवियों और उनके लेखन का ताला खोलना चाहते हैं इसलिए बहुधा वे अबूझ होने से बच जाते हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे पाठक के आलोचनात्मक विवेक का सरलीकरण करते हैं । प्रसंगवश यह जानना दिलचस्प होगा कि लेखक ने आधुनिकता की पहचान और उसकी आलोचना करने वाली वैचारिकी का गहन अध्ययन किया है इसलिए वे हिंदी कविता की इस दुनिया को खोलने और देखने की बहुत ही परिष्कृत भाषा को अर्जित और इस्तेमाल करते हैं । सरलीकरण से बचने की जगह लेखक का प्रयास जटिल को साधने का रहा है । इसके लिए उन्होंने अंतर्बाह्य या रूप-अंतर्वस्तु संबंधी द्वैत को सिरे से नकारा है और इनके घनिष्ठ संगुम्फन को व्यक्त करने लायक विवेक को कायम रखने का खतरा उठाया है । स्वाभाविक है कि ऐसी किताब को पढ़ना किसी भी समझदार पाठक के लिए आह्लादकारी साबित होगा ।  

इन कवियों पर लेखन के साथ लेखक का खुद का कविता लेखन और पाश्चात्य वैचारिकी पर लेखन भी चलता रहा इसलिए इन लेखों में विशेष तरह की समृद्धि आयी है । इन लेखों में रचनात्मक संवेदनशीलता के साथ ही वैचारिक विश्लेषण आपस में रासायनिक योग की तरह घुले मिले हैं । लम्बी सांस की तरह लेखक ने दीर्घावधि में ये लेख लिखे हैं । शुरू के सैद्धांतिक लेखों के बाद जिन कवियों के बारे में भी लिखा गया, केंद्र में आधुनिक हिंदी कविता के दो महापुरुष रहे हैं । निराला और मुक्तिबोध पूरी किताब के आस्वाद को तय करने में लगभग केंद्रीय भूमिका निभाते हैं । बात किसी भी कवि की हो रही हो लेखक के लिए ये दोनों कवि प्रतिमान की तरह मौजूद रहते हैं । लगता है लेखक को यकीन है कि इन दोनों की कविता आपस में भिन्न होने से आधुनिक हिंदी कविता के समूचे विस्तार को इन दोनों ही की चर्चा के सहारे समेटा जा सकता है ।       

कहने की जरूरत नहीं कि छायावादी रचनाकारों में निराला के साथ ही परवर्ती लेखन का सबसे अधिक संवाद दिखायी देता है । थे भी वे छायावाद में थोड़ा अलग । वैसे इस पर विचार किया जाना चाहिए कि निराला की जगह छायावाद में कहीं इस वजह से तो नहीं रही कि छायावाद को जितना समझा जाता है उससे अधिक ही क्रांतिकारी धारा मौजूद रही हो । इस नाते लेखक ने जिस तरह परवर्ती कविता को छायावाद से दूर जाते हुए देखा है उस पर विचार की जरूरत है । न केवल निराला बल्कि समूचे छायावाद के प्रकृति वर्णन को लेखक ने जिस निगाह से देखा है वह बहुत ही नया है और छायावाद के पुन:पाठ की प्रेरणा देता है । इसके बावजूद वे इस रूढ़ मान्यता के कहीं कहीं शिकार हो गये प्रतीत होते हैं कि छायावाद को तोड़कर ही नये कवि अपनी जगह बना सके थे । नयी कविता की मुक्तिबोधीय समझ को लेखक ने पुष्ट और परिवर्धित किया है तथा उसकी प्रतिध्वनि परवर्ती कवियों के सोच विचार में पायी है ।

परवर्ती लेखकों में जिन पर लेखक की निगाह ठहरी है उनमें रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा उल्लेखनीय हैं । अच्युतानंद मिश्र की इस किताब की एक खूबी यह भी है कि इससे पाठक को आधुनिक हिंदी कविता की पर्याप्त विविधता के दर्शन हो जाते हैं । इस विविधता के तहत ऊपर जिन कवियों का जिक्र हो चुका है उनके अतिरिक्त लीलाधर जगूड़ी को भी लेखक ने अपने समय को समझने के लिहाज से महत्वपूर्ण माना है । अरुण कमल को भी लेखक ने हमारे समय की निशानदेही करने के लिए जरूरी समझा है । कुछ अन्य कवियों में विजय कुमार, नरेंद्र जैन और अनामिका की कविताओं पर स्वतंत्र लेख के अलावे संग्रह में दो लेख अपने समय से जुड़े सवालों पर हैं । कोई भी समय केवल वर्तमान से निर्मित नहीं होता बल्कि अतीत को भी अपने साथ संस्कारित करता है । इसके सबूत के बतौर इस किताब में एक लेख कबीर की समकालीनता पर भी है । कहने की जरूरत नहीं कि कविता के बहाने अपने समय की गुत्थियों को समझने का गहन प्रयास लेखक ने इस किताब में किया है ।

हिंदी में आलोचना लिखने वालों का एक संप्रदाय अगर भाषा और अभिव्यक्ति में कविता से होड़ लेता है तो एक और लेखक समूह ऐसा भी है जिसकी किसी भी टिप्पणी में विचारणीय रचनाकार का नाम हटा दीजिए तो किसी भी दूसरे रचनाकार पर नया नाम डालकर इसे लागू कर सकते हैं । इस तरह की प्रचलित समीक्षकीय आलोचना से दूर अलग किस्म की आलोचना लिखने का साहस अच्युतानंद मिश्र ने किया है कदाचित इसलिए भी इस किताब को पाठक कम ही मिले । ध्यान देने की बात है कि किताब में सरोकार की एकता के बावजूद एक कवि के सिलसिले में कही गयी बात को दूसरे कवि के बारे में बात करते हुए दोहराया नहीं गया है । सभी कवियों के प्रसंग में उनकी काव्य संवेदना को सूत्र रूप में जिस तरह व्यक्त किया गया है उसके उदाहरण देने में इस लेख की सीमा से बाधा पैदा होती है । पाठक को निश्चय ही लेखक की विश्लेषण क्षमता का सबूत देने वाली यह बात प्रत्येक कवि के संदर्भ में नजर आयेगी । नमूने के तौर पर केवल कुछेक वाक्यांश उद्धृत किये गये हैं । यह किताब न केवल वर्तमान कविता विरोधी शोरगुल से भरे समय में कविता को जीवित रखने की कोशिश है बल्कि कविता की आलोचना के छिछलेपन को चुनौती देने का गम्भीर प्रयास भी करती है । किसी भी सार्थक विचार विमर्श के लिए इसे पढ़ा जाना चाहिए । गहन और दीर्घ चिंतन से निकले इन लेखों में ढेर सारे वाक्य सूक्तियों की तरह चमक उठते हैं ।

उदाहरण के लिए किताब का पहला ही वाक्य देखा जा सकता है कविता का सम्बन्ध समय से है, समाज से है, मनुष्य से है, लेकिन कविताएँ अपनी प्रकृति में, अपनी संरचना में, अपनी बुनावट में स्वायत्त होती हैं इस सीधे सादे वाक्य से पता चलता है कि लेखक को वर्ण्य विषय की जटिलता का पता है पूरी किताब में लेखक ने इस जटिलता का निर्वाह किया है तो उन्होंने अपने समय से मुख मोड़ा है, समाज को अपनी निगाह से ओझल होने दिया है और ही कविता की स्वायत्त बुनावट को कहीं क्षति पहुंचाई है मनुष्य के मामले में उन्होंने उसकी शाश्वत धारणा के मुकाबले कालबद्ध किया है और पचास के दशक के ठोस मनुष्य की विशेषता को बारम्बार रेखांकित किया है इसी मनुष्य की नवीनता को उजागर करने के कारण वे छायावाद के निषेध को इस समय की मनोवृत्ति से जोड़ते हैं इस विशेषता को रेखांकित करने की सायास कोशिश पर यूरोपीय सोच में मौजूद युद्धोत्तर मनुष्य की विशेषता की छाया को लक्षित करना बहुत मुश्किल नहीं है कदाचित इसलिए भी उनके विचार जगत में प्रगतिशील कविता और उससे निर्मित परवर्ती विरासत की मौजूदगी कम है कह सकते हैं कि उनके विवेचन में नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल या वीरेन डंगवाल की अनुपस्थिति अनायास नहीं है । इसका अपवाद अरुण कमल ही हैं जिनके प्रसंग में केदारनाथ सिंह, नागार्जुन और त्रिलोचन का जिक्र आया है और सभी जानते हैं कि अपवाद से नियम की पुष्टि ही होती है ।         

अपने समय को लेखक जिस निगाह से देखना चाहता है सम्भवत: उस निगाह के लिए इनकी उपस्थिति किंचित असुविधाजनक है इसलिए उन्हें इस आधुनिकता के आंगन से बाहर रखना ही उनको जायज लगा होगा सम्भव है लेखक ने इन कवियों की संवेदना को छायावादी काव्य संवेदना का ही विस्तार मान रखा हो इस सचेतन बहिष्करण से और कुछ हो या न हो छायावादी काव्य संवेदना की जीवन क्षमता का पता लगता है । असल में स्वाधीनता के बाद आजादी की लड़ाई के दौर के साहित्य की विरासत का सवाल बेहद महत्व का बन गया । इसके मूल में देश की हकदारी का सवाल भी परोक्ष रूप से जुड़ा था । माना जाये या न माना जाये साहित्य की दुनिया से प्रगतिशील धारा को बाहर करने का प्रयास देश पर किसानों और कामगारों के अधिकार को नकारने से जुड़ा हुआ था । मुक्तिबोध को प्रगतिशील साहित्य से अलगाकर नयी कविता के खित्ते में डालने का अभियान इसी प्रयास का अंग था ।

जिस तरह अरुण कमल की कविता के प्रसंग में वे प्रगतिशील कविता की याद करते हुए वर्तमान परिदृश्य को भरा पूरा बनाना चाहते हैं उसी तरह अनामिका के बारे में लिखकर वर्तमान की एक बड़ी परिघटना को रेखांकित करते हैं । उन पर विचार करते हुए लेखक ने स्त्री लेखन के बहाने कविता की भाषा के बारे में बेहद महत्त्वपूर्ण बातें दर्ज की हैं । वे कहते हैं ‘सत्ता और ताकत की भाषा, विरुद्धों के सामंजस्य पर टिकी हुई है । हाँ और नहीं का युग्म उनकी टकराहट और गर्जना दरअसल उसके होने को प्रमाणित करता है । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नकार में भी एक तरह का स्वीकार मौजूद रहता है । स्त्री काव्यभाषा के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस बाइनरी से निकलने की है क्योंकि चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक, दोनों ही रास्ते से ताकत को ही वैधानिक बनाया जाता है ।’ अच्युतानंद मिश्र की आलोचना में इस तरह की सूझभरी बातें सर्वत्र बिखरी हुई हैं ।                                      

इस बेहद महत्त्वपूर्ण किताब के सिलसिले में उद्दात की जगह उदात्त का प्रयोग करने की सलाह देना अनधिकार चेष्टा नहीं समझा जाना चाहिए । एकाध अन्य जगहों पर भी प्रूफ़ की गलतियां खीर में कंकड़ की तरह खटकती हैं । इसका कारण हिंदी के प्रकाशकों की एक खराब आदत है । वे प्रूफ़ पढ़ने का खर्च बचाने के लिए लेखक से ही प्रूफ़ पढ़वाते हैं । असल में लेखक जब भी गलत टंकित देखता है तो उसका दिमाग उसे सही पढ़ता है । इस कारण शुद्ध छपाई के लिए लेखक से भिन्न व्यक्ति को प्रूफ़ दिखाना ठीक होता है ।

इस किताब को असहमति के लिए भी अवश्य पढ़ा जाना चाहिए । अपने समय को देखने के लिए उन्होंने जिन उत्तर आधुनिक चिंतकों का सहारा लिया है उनकी सोच पर विवाद रहे हैं लेकिन उन्हें खारिज करने के लिए भी हत्या, हिंसा, नफ़रत और लोभ तथा अनिश्चय से बने इस समय को देखने के उपकरणों को टटोलना तो चाहिए ही ताकि बची खुची संवेदना की नमी के सहारे सार्थक प्रतिरोध खड़ा किया जा सके । लेखक ने इसी वजह से बहुधा संवेदना का न केवल उल्लेख किया है बल्कि उसे कविता का आधार भी माना है । इस संवेदना का मूल उन्होंने मनुष्य की सामाजिकता में देखा है जिस पर हमला उन्हें वर्तमान की क्रूर सचाई लगता है ।          

 

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