2023 में परिकल्पना से प्रकाशित
बजरंग बिहारी तिवारी की किताब ‘हिंसा की जाति: जातिवादी हिंसा का सिलसिला’ किसी के
भी रोंगटे खड़े करने में सक्षम है । किताब को पढ़ते हुए पूरब से पश्चिम और उत्तर से
दक्षिण तक समूचा देश दलितों के साथ हिंसा के मामले में एक नजर आता है । जिन
प्रांतों में घटित घटनाओं की रपटें किताब में शामिल हैं वे हैं- मध्य प्रदेश,
उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, तमिलनाडु, ओडिशा और महाराष्ट्र ।
इनकी सूची से साफ है कि तमिलनाडु, महाराष्ट्र, ओडिसा और पंजाब की कुछेक घटनाओं को
छोड़ दें तो देश की राजनीतिक केंद्र के रूप में चिन्हित हिंदी भाषी
क्षेत्र इस मामले में बिना किसी शक के अगुआ बना हुआ है । इस मामले में सचमुच हमारे
राष्ट्र की एकता है और यह एकता तथा इसकी अगुआई भारी विडम्बना का
सूचक है । लगता है जैसे हम लम्बे दिनों से खून की एक नदी में तैर रहे हों और इस
भयानक यात्रा का कोई अंत नजर ही नहीं आता हो ।
इन रपटों को पढ़ते हुए साफ नजर आता है
कि नवउदारवाद के आगमन के बाद हिंसा के मामलों में बढ़ोत्तरी हुई है । हिंसा की दो
नयी वजहें लक्षित की जा सकती हैं । एक तो प्रेम और दूसरा संपत्ति । इन दोनों
मामलों में दलित समुदाय अपनी थोपी हुई सीमा का उल्लंघन करता प्रतीत होता है । प्रेम का यह पहलू विशेष रूप से ध्यान देने की मांग करता है । हम सभी जानते हैं कि एंटी-रोमियो गैंग बनाकर शासक पार्टी ने युवकों के सहज आकर्षण को आपराधिक बनाया था । समाज में व्याप्त स्त्री की स्वतंत्रता विरोधी मानस को राजनीतिक रूप से संगठित करने का सचेत अभियान शासक दल और उसके वैचारिक नेतृत्व की ओर से संचालित किया गया था । प्रेम के विरोध के लिए अंग्रेजी साहित्य के पाठ्यक्रमों के अनिवार्य अंग शेक्सपीयर के एक पात्र को बदनाम होना पड़ा । नतीजे के तौर पर स्त्री विशेष रूप से युवतियों को मनोबल तोड़ देने वाली हिंसा का शिकार होना पड़ता है । किताब में दर्ज अनेक घटनाओं में हिंसा की शिकार पर यह आसान आरोप लगाया भी गया है । इस विशेष संदर्भ में यह भी याद रखना होगा कि अंबेडकर अंतर्जातीय विवाह
को जातिभेद के उन्मूलन का उपाय मानते थे और कहने की जरूरत नहीं कि ऐसा विवाह प्रेम
से ही सम्भव है । विवाह तय करने के पारम्परिक तरीके से अंतर्जातीय विवाह होने से
रहा । लगता है सौ साल से भारतीय समाज एक ही जगह पर खड़ा है । बीच में अगर थोड़ा
आगे गये थे तो पूरी ताकत से वापस लौट रहे हैं । सचमुच एक कदम आगे तो दो कदम पीछे! इसी तरह एकाधिक घटनाओं में हमलावरों ने संपत्ति को ही
निशाना बनाया । इससे दलित समुदाय की दावेदारी के नये धरातल का पता तो मिलता ही है, उनके विरुद्ध हिंसा के नये इलाके का भी अंदाजा होता है ।
रपटों को पढ़ते हुए हिंसा की भयावहता
को दर्ज करने की लेखक की खास तकनीक के रूप में गंध का जिक्र बहुधा हुआ है । हिंसा
का स्वरूप नया है जिसमें आगजनी की बहुतायत है । आग और राख की गंध घटना के बहुत बाद
तक वातावरण में कायम रहती है । बजरंग के वर्णन में इतनी ताकत है कि पाठक इस गंध को
सूंघ सकता है । इसके अतिरिक्त भी इन रपटों में एक खास बात देखने में आती है । लगभग
सभी मामलों में जगहों का उल्लेख डाक के पते की तरह हुआ है । इतना ही नहीं, लेखक ने
वहां तक पहुंचने की प्रक्रिया और मुश्किलों का जिक्र किया है । इसका कारण रपटों को
निजी स्पर्श देना हो सकता है हालांकि वर्ण्य घटना की भयावहता इसमें किसी साहित्यिक
कौशल को बरतने की गुंजाइश नहीं छोड़ती । दूसरा कारण अधिक गहरा हो सकता है । सम्भव
है वर्तमान उत्पीड़कों के वर्चस्व का हो लेकिन ऐसा हमेशा नहीं रहेगा । सम्भव है कभी
आगे चलकर उत्पीड़ितों को दर्ज करने वालों का समय आये तो उन जगहों तक पहुंचने का
रास्ता दर्ज रहना इस इतिहास को सुरक्षित कर लेने में काम आयेगा । वजह जो भी हो रपट
लेखन की यह नवीनता ध्यानाकर्षक है ।
ध्यान देने की बात है कि लेखक दलित
साहित्य के अध्येता हैं और इसी वजह से उन्हें साहित्य को प्रभावित करने वाले
साहित्येतर को दर्ज करने की इच्छा थी । इस साहित्येतर को दलित विमर्श कहा जाता है
। लेखक ने इस विमर्श के संदर्भों के रूप में हिंसा, राजनीति और शक्ति (पावर) को
पहचाना है । दलितों के साथ होने वाली हिंसा की खूबी यह है कि ‘स्मृतिग्रंथ दलितों
पर हिंसा को धार्मिक वैधता देते हैं’ । नतीजतन सामूहिक मानस में यह हिंसा ‘सहज
गतिविधि’ मान ली जाती है । अकारण नहीं कि अंबेडकर ने जातिभेद की धार्मिक मान्यता पर सबसे अधिक प्रहार किया । शक्ति या लेखक ने जिसे पावर का सवाल कहा है वह भी बहुधा हिंसक टकराव का कारण बना है । नवउदारवाद के साथ ही राजनीति में हिंदू श्रेष्ठता का विमर्श बढ़ता गया और उसके साथ ही जातिभेद का आग्रह भी लगातार उफान मारने लगा । इस वैचारिकी के सत्ता केंद्र में प्रतिष्ठित होते ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता तेज होती गयी । हाल के दिनों में इस मामले में निम्न जातियों के राजनीतिक हक की दावेदारी के साथ जातिभेद के आग्रही समुदाय का टकराव समाज में बड़े पैमाने पर फैलता गया है । इसी कारण हिंसा के वर्तमान उभार को जातिगत श्रेष्ठता के समर्थकों की हताश प्रतिक्रिया भी समझा जा सकता है । हताशा में ही इस प्रतिक्रिया ने स्त्री मुक्ति और जातिभेद के खात्मे की संयुक्त दावेदारी को तोड़ने के लिए संगठित हिंसा का रूप ग्रहण कर लिया है ।
हाल के दिनों में दलितों पर हिंसा के
प्रसंग में कुछ नयी बातें नजर आ रही हैं । इनका जिक्र लेखक ने भूमिका में ही कर
दिया है । सबसे पहली बात कि हमलावर समूह की सामाजिक संरचना बदली है । इसे लक्षित करते हुए लेखक कहते हैं कि नये हमलावर समूह उच्च सवर्ण जातियों के न होकर ब्राह्मण सर्वोच्चता के विरोधी हैं । यह नयी परिघटना भी अखिल भारतीय है । दूसरी बात हिंसा से उदारीकरण का रिश्ता है । वर्तमान आर्थिकी के कारण होने वाली हिंसा को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि बहुराष्ट्रीय निगम दलितों के हाथ का हुनर छीनकर उन्हें बेरोजगार बना रहे हैं । सरकारी उपक्रमों में आरक्षण के कारण जो रोजगार मिला था उस पर भी निजी पूंजी के बोलबाले के कारण संकट आया हुआ है । इन उपक्रमों के अधिकाधिक आक्रामक निजीकरण से आरक्षण का दायरा सिमटता जा रहा है । नवउदारवाद ने जिस तरह के नागरिक सौंदर्य को जन्म दिया है उसमें इनकी बस्ती और रोजगार गंदगी और बदनुमा धब्बे की तरह पेश किये जा रहे हैं । इस किताब का सबसे महत्वपूर्ण योगदान दलित हिंसा के इन नये रूपों की पहचान कराने और उनके प्रति पाठकों को संवेदनशील बनाने में ही निहित है । इस अकेले वजह से इसे रपटों का संग्रह मात्र समझना भारी भूल होगी ।
इन
रपटों से दलित प्रतिरोध की वे जमीनी आवाजें भी सुनायी देती हैं जिन्हें वर्तमान
शासकीय हिंसक वातावरण में सुनने के लिए खास संवेदना की जरूरत है । स्थानीय स्तर पर
बने सम्पर्कों के जाल का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है जिनके चलते
घटनाओं को दबा देना आसान नहीं रह गया है । प्रशासन और अदालत से लेकर सोशल मीडिया
तक अपनी पहुंच कायम कर लेने वाली नयी पीढ़ी सामने आ चुकी है जिसका गला घोंटने के
मकसद से ही दमन और उत्पीड़न के इस नये दौर का आगाज हुआ है । लोकतंत्र के मतदान और
संविधान तथा कानून जैसे आयामों को इस टकराव में नया रूप प्राप्त हो रहा है । इन
सारी रपटों को ध्यान से देखने पर दलित उत्पीड़न से अधिक मजबूत आवाज इस नये प्रतिरोध
की नजर आयेगी ।
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