बीसवीं सदी की इस महान कृति को पढ़ते
हुए आज भी सबसे बड़ी समस्या इसके कथानक में गांव और शहर की कहानी में संबंध की खोज
लगती है । इसलिए इस लेख में मैं इसी समस्या को समझने का प्रयास करूंगा ।
गोदान के प्रकाशित होने के कुछ ही
समय बाद नंददुलारे वाजपेयी ने इसके कथानक की समस्या को प्रस्तुत करते हुए लिखा
‘शास्त्रीय शब्दावली के अनुसार गोदान में आधिकारिक और प्रासंगिक दो कथाएं पायी
जाती हैं । ग्रामीण पात्रों से संबंध रखनेवाली कथा आधिकारिक या मुख्य कथा है ।
नागरिक पात्रों को उपस्थित करने वाली कथा प्रासगिक या गौण है । गोदान में इन दोनों
कथाओं को एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया गया है ।’ प्रश्न है कि प्रेमचंद
क्या इस प्रयत्न में सफल हो पाये । वाजपेयी जी के अनुसार उपन्यास में ऐसा नहीं हो
सका है । कारण बताते हुए वाजपेयी जी ने एक रूपक गढ़ा जो तब से आज तक की ऐसी समस्त
आलोचनाओं के मूल में है । ‘गोदान उपन्यास के नागरिक और ग्रामीण पात्र एक बड़े मकान
के दो खंडों में रहने वाले दो परिवारों के समान हैं जिनका एक-दूसरे के जीवनक्रम से
बहुत कम सम्पर्क है । वे कभी-कभी आते-जाते मिल लेते हैं और कभी किसी बात पर झगड़ा
भी कर लेते हैं परंतु न तो उनके मिलने में और न उनके झगड़े में ही कोई ऐसा संबंध
स्थापित होता है जिसे स्थायी कहा जा सके ।’ अपने इस तर्क के एक सम्भावित विरोध की
वे कल्पना करते हैं । कोई कह सकता है कि ‘गोदान उपन्यास भारतीय जीवन के सम्पूर्ण
स्वरूप को हमारे दृष्टिपथ पर लाना चाहता है अतएव उसमें ग्राम के साथ-साथ नगरों और
उनके निवासियों की दिनचर्या भी दी गयी है । ग्राम्य जीवन को नागरिक जीवन से नितांत
पृथक रखा भी नहीं जा सकता क्योंकि आज की भारतीय स्थिति में वे दोनों एक-दूसरे से
एकदम अलग हैं नहीं । अतएव यथार्थ की रक्षा के लिए भी यह योजना आवश्यक थी ।’ फिर
तुरंत ही उसे खारिज करते हुए कहते हैं ‘जो लक्ष्य उस कृति का नहीं है, उसे उस पर
आरोपित करना व्यर्थ है, गोदान नाम से यही भासित होता है कि इसका संबंध कृषकों के
जीवन के किसी मार्मिक पहलू से है ।’ यह बात उन्होंने ‘प्रेमचंद: एक साहित्यिक
विवेचन’ में कही है ।
बात कथानक से शुरू हुई और नाम तक जा
पहुंची । शेक्सपीयर की चेतावनी (नाम में क्या रखा है) के बावजूद लोग नाम को महत्व
देते हैं । तुलसीदास ने तो राम से अधिक उनके नाम को महत्व दिया है । गोदान के नाम
के कारण ही स्वर्गीय निर्मल वर्मा को यह संदेह बना रहा कि इसमें किसानों की
धर्मप्राण भावना, गोदान की प्रथा की कहानी कही गयी है । ऐसा अक्सर प्रेमचंद के
व्यंग्य की क्षमता को न समझने के कारण भी होता है । गोदान में ही प्रेमचंद की इस
क्षमता का प्रमाण है । मातादीन को प्रायश्चित कर लेने पर धर्म का सारतत्व समझ में
आ गया ।
‘---इस प्रायश्चित ने उसे सचमुच
पवित्र कर दिया । हवन के प्रचंड अग्निकुंड में उसकी मानवता निखर गयी और हवन की
ज्वाला के प्रकाश से उसने धर्म स्तंभों को अच्छी तरह परख लिया । उस दिन से उसे धर्म
के नाम से चिढ़ हो गयी । उसने जनेऊ उतार फेंका और पुरोहिती को गंगा में डुबा दिया
।’
इन पंक्तियों में व्यंग्य स्पष्ट है
अत: निवेदन है कि इस उपन्यास के नाम को थोड़ा व्यंग्य और थोड़ी करुणा का बोधक समझना
चाहिए । खासकर इसलिए कि उपन्यास के अंत में गोदान का पूरा प्रकरण एक करुण व्यंग्य
में बदल जाता है ।
अब सवाल रहा रूपक का । सो रूपक का
जवाब रूपक से ही देते हुए आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा ‘हिंदी के आलोचकों ने
एक स्वर से गोदान की यह आलोचना की है कि उसकी कथावस्तु असंबद्ध है । वस्तुत: यही
गोदान के स्थापत्य की वह विशेषता है जिसके कारण उसमें महाकाव्यात्मक गरिमा आ जाती
है । नदी के दो तट असंबद्ध दिखते हैं, पर वे वस्तुत: असंबद्ध नहीं रहते- उन्हीं के
बीच से जलधारा बहती है । इसी तरह गोदान की असंबद्ध सी दीख पड़ने वाली दोनों
कहानियों के बीच से भारतीय जीवन की विशाल धारा बहती चली जाती है ।’ इसी प्रसंग में
उन्होंने प्रेमाश्रम और रंगभूमि का भी नाम लिया । मेरा निवेदन मात्र इतना है कि
मात्र उक्त दोनों उपन्यास नहीं बल्कि उनके सभी उपन्यासों की कथाभूमि ऐसा स्थान है
जो गांव और शहर का संधिस्थल है । क्योंकि उन्हें गांव अथवा शहर का वर्णन नहीं
करना था । प्रेमचंद का लेखन उद्देश्यपरक लेखन है । उन्होंने समस्त साहित्य का
स्वरूप निश्चित करते हुए कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल है
। उनके इस कथन को अक्सर साहित्यकार की कुंठित महत्वाकांक्षा की तरह देखा और उद्धृत
किया जाता है । प्रेमचंद राजनीति के प्रचलित रूप की सीमाओं को उजागर करना साहित्य
का कर्तव्य समझते थे । इस दृष्टि से उनका ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ अंतत:
‘आलोचनात्मक यथार्थवाद’ नजर आता है । सकारात्मक राजनीति का चित्र गोदान में
रामसेवक के प्रतिरोधी आचरण में देखा जा सकता है ।
वैसे भी उपन्यास रचना पर विचार करते
हुए वर्जीनिया वुल्फ़ ने कहा था कि महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि उसमें कितनी कथाएं
अथवा पात्र हैं बल्कि महत्वपूर्ण बात यह है कि लेखक उन सबको एक ही नाव में बैठा
पाता है या नहीं ।
इस नजरिए से अगर उपन्यास को देखा जाय
तो पूरा उपन्यास होरी द्वारा जीवित बने रहने की जद्दोजहद है । उपन्यास की शुरुआत
ही होरी के मरने की चर्चा से होती है । किसी भी अन्य उपन्यास में मृत्यु की छाया
इतनी करीब नहीं थी । शुरू ही धनिया के छह संतानों के जिक्र से जिनमें से अब केवल
तीन जिंदा हैं- तीन लड़के बचपन में ही मर गये । पैदा होने के बाद! कारण? ‘उसका मन
आज भी कहता था, अगर उनकी दवा-दारू होती तो वे बच जाते पर वह एक धेले की दवा भी न
मंगवा सकी थी ।’ धनिया कुल छत्तीस की है, होरी चालीस से कम ही है । फिर भी मृत्यु
का जिक्र! उपन्यास के अंत में पुन: ‘धनिया ने मौत की सूरत देखी थी । उसे पहचानती
थी । उसे दबे पांव आते भी देखा था । आंधी की तरह भी देखा था । उसके सामने सास मरी,
ससुर मरा, अपने दो बालक मरे, गांव के पचासों आदमी मरे ।’ पूरा उपन्यास होरी द्वारा
इसी मृत्यु से बचने की चेष्टा की कहानी है । अंतत: वह बच नहीं ही पाता । एक न एक
उपाय करते-करते अंतत: मर ही जाता है । उसकी इसी नियति की ओर क्रमश: बढ़ना वह सूत्र
है जो पूरे उपन्यास को संभाले रहता है । कुल कथाओं-उपकथाओं और पात्रों की भीड़ के
बावजूद । अपनी नियति से संघर्ष करने के क्रम में वह खन्ना की चीनी मिल में गन्ना
बेचता है । बेटा गोबर शहर में नौकरी करने जाता है । उसके आने पर उसे बचने की आशा
बंधती है । इतना प्रत्यक्ष संबंध सूत्र आखिर क्यों नहीं दिखायी देता ?
मृत्यु की इस काली छाया के दबे पांव
करीब सरकते आने के कारण पूरे उपन्यास में भयानक तनाव है । इसीलिए प्रेमचंद ने
बीच-बीच में तनाव से राहत देने-लेने के लिए मनोरंजक प्रसंग डाल रखे हैं । उनकी
उपन्यास कला ऐसी नहीं है जो ऊपर से प्रत्यक्ष दिखायी पड़ जाये । संक्षेप इतना कि
आश्चर्य होता है । सेवासदन में कई जगहों पर विस्तृत प्रकृति चित्र थे । पात्रों की
मन:स्थिति को प्रकृति में विस्तारित करते हुए । यहां तक आते-आते संक्षेप में
वातावरण पैदा करने की कला सध गयी है । सुंदरी गाय मर गयी है । ‘चारों ओर नीरव
अंधकार छाया हुआ था । दोनों बैलों के गले की घंटियां कभी-कभी बज उठती थीं । दस कदम
पर मृतक गाय पड़ी हुई थी और होरी घोर पश्चाताप में करवटें बदल रहा था । अंधकार में
प्रकाश की रेखा कहीं नजर न आती थी ।’ इसी तरह जब गोबर दूसरी बार गांव आया तो ‘घर
का एक हिस्सा गिरने-गिरने को हो गया था । द्वार पर केवल एक बैल बंधा हुआ था, वह भी
नीमजान ।’ जब मृत्यु की, जीवन से निराशा की ऐसी स्थितियां आठों पहर मौजूद हों तो
मनुष्य के तनाव की कल्पना की जा सकती है । फिर भी एक बार ही धनिया और होरी का
विवाद मारपीट तक पहुंचता है । अन्य अनेक अवसरों पर उनका विवाद परिहास की सीमा में
चला जाता है । ऐसे ही प्रसंग उपन्यास में कई जगहों पर हैं । शायद किसी अन्य
उपन्यास में तनाव का यह स्तर नहीं था इसीलिए इस प्रविधि के इस्तेमाल की जरूरत भी
नहीं थी । ऐसा धीरज अनुकूल स्थितियों में भी सहज सुलभ नहीं होता, होरी के जीवन
जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों में पत्नी का यह पहाड़ जैसा धीरज होरी और धनिया को इतनी
ऊंचाई पर खड़ा कर देता है कि सचमुच वे वीर योद्धा प्रतीत होते हैं । यहीं प्रेमचंद
सामान्य मनुष्यों में महानायकत्व पैदा करने में समर्थ लेखक बन जाते हैं । यह भी एक
वजह है कि आज भी वे न सिर्फ़ प्रासंगिक हैं बल्कि अतुलनीय हैं ।
होरी-धनिया की आपसी बातचीत के
अतिरिक्त गोदान प्रेमचंद के अन्य उपन्यासों से इस मामले में भी विशिष्ट है कि
बच्चों की जितनी सक्रिय उपस्थिति इस उपन्यास में है उतनी शायद ही उनके किसी और
उपन्यास में हो । रूपा और सोना की उपस्थिति शुरू से ही होरी धनिया के जीवन में
प्रसन्नता पैदा करने का बहाना बन जाती है । लेकिन इन सुखद प्रसंगों में भी स्थापित
मान्यताओं को उलट देने की प्रेमचंद की अदा देखी जा सकती है । मतलब सोना और रूपा
में सोना-चांदी के बड़े-छोटे होने को लेकर विवाद हो रहा है । अनेक तर्कों से जब
सोना छोटा नहीं सिद्ध हो पाता तो होरी कहता है ‘सोना बड़े आदमियों के लिए है । हम
गरीबों के लिए तो रूपा ही है । जैसे जौ को राजा कहते हैं, गेहूं को चमार; इसलिए न
कि गेहूं बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं ।’ मूलत: सोना चमार, रूपा राजा ।
इसे कहते हैं मान्यताओं की दुनिया को सिर के बल खड़ा कर देना । सोना के बड़ा होते ही
झुनिया का बेटा होरी के जीवन में आ जाता है । उसके लखनऊ जाने के बाद सिलिया का
बेटा । इस बेटे के मुख से तो प्रेमचंद ने वह करवाया है जिसके सामने कथाशिल्प के
बड़े जानकार पानी भरें ।
‘कोई पूछता- तुम्हारा नाम क्या है?
चटपट कहता- लामू ।
तुम्हारे बाप का क्या नाम है?
मातादीन ।
और तुम्हारी मां का?
छिलिया ।’
यहां तक आप बच्चे की तोतली बोली का
आनंद ले रहे हैं । इसके बाद प्रेमचंद का कलाकार-
‘और दातादीन कौन?
वह अमाला छाला है ।’
अब भी आप तोतली बोली का ही आनंद ले
रहे हैं । सहसा प्रेमचंद की टिप्पणी ‘न जाने किसने दातादीन से उसका यह नाता बता
दिया था ।’
आप सहज ढंग से स्वीकार कर लेते हैं
कि गांव में किसी ने मजाक में सिखा दिया होगा । लेकिन थोड़ा ठहरिए और सोचिए । किसने
सिखाया होगा? और किसने, स्वयं प्रेमचंद ने । क्योंकि पात्रों के मुख से लेखक ही तो
बोलता है । यह है प्रेमचंद की सहज कला । मजाक-मजाक में चुटीली हंसी ले गये ।
संभवत: लिखते हुए वे भी हंस पड़े होंगे! झुनिया और सिलिया दोनों के बच्चे मरकर जिस
तरह अपनी माताओं की स्मृति के अभिन्न अंग बन जाते हैं और अपनी अनुपस्थिति में भी
माताओं के हृदय का संताप हरते रहते हैं उसका अंकन प्रेमचंद की एक और सिद्धि है ।
ये सारे बच्चे बहुत ही सक्रिय ढंग से कथा में मौजूद रहते हैं ।
छोटे-छोटे वाक्यों के जरिए समूचा
वातावरण खड़ा करने और एक ही संवाद के जरिए मनुष्य की सजीव छवि निर्मित कर देने के
मामले में उस प्रसंग को देखा जा सकता है जब दारोगा गाय के मरने के बाद गांव में
आता है और होरी से रुपये पाने में असफल रहने के बाद मुखिया लोगों से रुपया वसूल
लेता है ।
‘दारोगा जी घोड़े पर सवार होकर चले,
तो चारों नेता दौड़ रहे थे । घोड़ा दूर निकल गया तो चारों सज्जन लौटे; इस
तरह मानो किसी प्रियजन का संस्कार करके श्मशान से लौट रहे हों ।
सहसा मातादीन बोले- मेरा सराप न पड़े
तो मुंह न दिखाऊं ।
नोखेराम ने समर्थन किया- ऐसा धन कभी
फलते नहीं देखा ।
पटेश्वरी ने भविष्यवाणी की- हराम की
कमाई हराम में जाएगी ।
झिंगुरी सिंह को आज ईश्वर की
न्यायपरता में संदेह हो गया था । भगवान न जाने कहां हैं कि यह अंधेर देखकर भी
पापियों को दंड नहीं देते ।’
ध्यान दीजिए कि इन सारे वाक्यों में
धर्म और नीतिशास्त्र से संबंधित शब्दों की भरमार है जो इन सज्जनों को तब याद नहीं
आते जब वे स्वयं अन्याय करते हैं । तभी तो स्वयं प्रेमचंद को इतना मजा आया कि ‘इस
वक्त इन सज्जनों (?) की तस्वीर खींचने लायक थी’ । यहां एक और बात गौर करने लायक है
। ये चारों चंडाल चौकड़ी की तरह उपन्यास में आते हैं । दातादीन ब्राह्मण हैं और
धर्म की आड़ लेते रहते हैं । उनका धर्म कर्मकांड पर टिका हुआ है यह दीगर बात है ।
नोखेराम भी पंडित हैं और रायसाहब के कर्मचारी हैं । लाला पटेश्वरी कायस्थ हैं और
पटवारी हैं मतलब सरकारी नौकर । झिंगुरी सिंह ठाकुर हैं और रायसाहब के नौकर नहीं
हैं । लेकिन ये चारों एक साथ मिलकर गांव के लोगों को चूसते हैं । सरकार और
जमींदार, धर्म और लाठी- सब एक साथ मिले हुए । ये सहानुभूति प्रकट करने, मजा लेने,
दंड जुरमाना वसूल करने और फैसला करने में एक साथ रहते हैं । सचमुच चंडाल चौकड़ी । गांव
के शोषकों में मंगरू साहू और दुलारी सहुआइन की मौजूदगी उपन्यास में कभी-कभी ही
होती है । मुख्यत: ये चार ही ‘सज्जन’ मिलकर तमाम काम करते हैं । अब एक फ़र्क पर
ध्यान देना जरूरी है । जहां शहरी पात्रों में से हरेक का स्वतंत्र व्यक्तित्व है
वहां इन चारों का अलग-अलग व्यक्तित्व नहीं है । संभवत: इन चारों के संश्रय की
घनिष्ठता प्रकट करना प्रेमचंद का अभीष्ट रहा हो ।
इस चंडाल चौकड़ी के फंदे में गांव के
तकरीबन सभी लोगों की गरदन फंसी हुई है । फिर भी गांव के लोग अवसर आने पर मनोरंजन
का साधन जुटा लेते हैं । इनमें से एक तो उपन्यास के शुरू में ही धनुष यज्ञ का
प्रसंग है जिसमें होरी न सिर्फ़ राजा जनक के माली के रूप में रामलीला में सफल हुआ
बल्कि मेहता द्वारा पठान का रूप धरकर शहराती बाबुओं को धमकाने पर हिलती-कांपती
मंडली के बरक्स निर्भय होकर मेहता को पटककर इस प्रसंग का भी नायक सिद्ध हुआ ।
दूसरा अवसर होली का है जिसमें दमा का मरीज शोभा अपने अनुकरण की कला से गांव भर को
न सिर्फ़ हंसाता है बल्कि उस अवसर पर ऐसे स्वांग को मंचित करता है जिसके कारण अनेक
दिनों तक गांव की चंडाल चौकड़ी का गांव में निकलना मुश्किल हो जाता है । अन्यथा
सामंती आचरण से ग्रस्त त्यौहार होली को इस स्वांग के जरिए प्रेमचंद नया ही रूप दे
देते हैं । साथ ही इसके माध्यम से शहर से लौटे हुए गोबर का प्रतिरोधी आचरण हमारे
सामने शहर का एक और रूप उपस्थित करता है जो गांव से निकले हुए नौजवानों की बढ़ती
हुई अधिकार चेतना के कारण किंचित परिवर्तन का वाहक भी बनता है ।
ग्रामीणों के इस सहज मनोरंजन के
मुकाबले शहरी लोगों के मनोरंजन के लिए मिर्ज़ा खुर्शेद द्वारा प्रायोजित बूढ़ों की
कबड्डी कितना क्रूर है । उनके जीवन में मनोरंजन का इतना अभाव है कि पिकनिक की तरह
वे धनुष यज्ञ के अवसर पर
गांव पहुंच जाते हैं । धनुष यज्ञ तो वे देख नहीं पाते । वहां भी ओंकारनाथ को शराब पिलाकर वे जो खुशी हासिल करते हैं वह पैशाचिक ही है । लेकिन शहर का यही एकमात्र रूप प्रेमचंद को नहीं दिखायी देता । सेवासदन में ही उन्होंने शहर का वह रूप चित्रित किया था जिसमें वह एक ग्रामीण नौजवान के मन में नये विचार रोपता है । यहां भी गोबर पर शहर का यह असर प्रत्यक्ष है ।
यहां आकर हम अपनी मूल समस्या की ओर फिर लौट सकते हैं । पहले उपन्यास से लेकर आखिरी उपन्यास तक तकरीबन प्रत्येक उपन्यास में गांव और शहर के अंतस्संबंध को देखने की प्रेमचंद ने कोशिश की है । वे उभरने वाली राजनीति और भविष्य में बनने वाले भारत के जन्मचिन्ह देखना चाहते थे । इस क्रम में गांव और शहर के परस्पर संपर्क के अनेक रूप उनके उपन्यासों में हैं । सभी जानते हैं कि तत्कालीन भारत में चलने वाले स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व इसी नवोदित मध्य वर्ग के हाथों में था । इस उदीयमान शासक समुदाय के हाथों भारत के ग्रामीण समाज की क्या हालत होने वाली है यह उनकी छानबीन का प्रमुख विषय था । और हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि तस्वीर उन्हें निराशाजनक नजर आयी । अन्य उपन्यासों के उदाहरण से इस विषय पर विस्तार से बातचीत की जा सकती है लेकिन हम अपना विश्लेषण गोदान तक ही सीमित रखेंगे ।
ध्यान रखिए कि गोदान, गबन के बाद का उपन्यास है । गबन में वे देवीदीन के मुख से सुराजियों के बारे में अपनी राय जाहिर करा चुके थे । इस उपन्यास में जेल जाने वाले कौन लोग हैं? जमींदार रायसाहब, मिल मालिक खन्ना और इन्हीं के साथ आप बिजली संपादक ओंकारनाथ को भी रख सकते हैं । मालती तो स्त्री मुक्ति के बुर्जुआ प्रयासों की दुविधा का मूर्तिमान रूप है । राजनीति और सामाजिक उद्धार से बाहर उद्योग ऐसा क्षेत्र था जिससे घाटे में जा रही कृषि की मुक्ति की कुछ उम्मीद हो सकती थी ।
उद्योग का एक रूप वे रंगभूमि में दिखला चुके थे । उसके मुकाबले इस उपन्यास में खन्ना की मिल ग्रामीणों को बेदखल तो नहीं करती लेकिन मुक्त भी नहीं कर पाती । कर्ज के फंदे में होरी का गला धीरे-धीरे फंसता जा रहा है । खन्ना की चीनी मिल उसे और उसके पुत्र गोबर दोनों को आशा की अंतिम किरण नजर आती है । खन्ना की मिल ही वह विंदु है जिसकी व्याख्या के लिए उन्हें समूची शहरी कथा का विस्तार करना पड़ा था । समूची शहरी कथा धीरे-धीरे उस मिल की बर्बादी की नियति की ओर बढ़ती जा रही है जिसके साथ ही होरी और गोबर दोनों का भाग्य तय हो जाता है । इस बर्बादी के पीछे बैंकरों, मिल मालिकों, मिल के हिस्सेदारों के स्वार्थ हैं ।
खन्ना के चरित्र पर विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है । रंगभूमि के सिगरेट के मिल मालिक सेवक साहब उनके पूर्वज हैं । खन्ना साहब बैंकर हैं, मिल के हिस्सेदार, प्रबंधक और मालिक हैं । इंश्योरेंस का काम भी करते हैं और कभी-कभार सट्टा बाजार में भी दांव लगा लेते हैं । क्या बाद के किसी हिंदी उपन्यास में उद्योग जगत के चित्रण में सफलता की तो बात ही छोड़िए, इस तरह के चरित्रांकन की चेष्टा भी हुई है? उनकी मिल में किसान के गन्ना बेचने के बाद भी उसकी समूची आमदनी झिंगुरी सिंह रखवाने में कामयाब हो जाते हैं ।
उद्योग जगत के साथ ही शहरी जीवन के अनेक अन्य चित्र भी प्रामाणिक ढंग से इस उपन्यास में पहली और अंतिम बार अंकित हुए हैं । यह अवश्य कहा जा सकता है कि विश्वविद्यालयों के अध्यापकों का समुदाय उनका जाना-समझा नहीं था । अन्यथा मेहता के खुलेआम एक अविवाहिता के घर में रहने पर इस समुदाय की हलचल उन्होंने जरूर अंकित की होती! ओंकारनाथ के रूप में पत्रकारिता का भविष्य के गर्भ में छुपा हुआ वह रूप भ्रूणावस्था में अंकित हुआ है जो विरोध की मुद्रा रखते हुए भी स्वतंत्र स्वार्थ साधन से संचालित होता है । मालती के जमींदारों और धनी लोगों की कृपा से चलने वाले सामाजिक उत्थान के प्रयासों के बरक्स आप रायसाहब की कन्या का प्रतिरोध देख सकते हैं । सरोज और रायसाहब के बेटे का प्रेम भी युवा पीढ़ी की दस्तक सरीखा है । तत्कालीन स्वतंत्रता आंदोलन का वर्गीय आधार प्रेमचंद ने परखा तो था ही, इस उपन्यास में तत्कालीन चुनावों में विकसित होने वाले परजीवी समुदाय की मूर्ति तंखा के रूप में अमर हो गयी है । इस तरह प्रेमचंद की तत्कालीन राजनीति की समझ कलात्मक ढंग से प्रकट होती है ।
खन्ना साहब तो फिर भी कुछ करते हैं, तंखा कुछ नहीं करते । रायसाहब के यहां धनुष यज्ञ के बाद होने वाली शिकार की पार्टी में ही आप उनके व्यवसाय को देखना प्रारंभ कर देते हैं । उनका मुख्य काम है चुनाव की हवा में विभिन्न प्रत्याशियों के बीच तिकड़म लगाकर पैसा बनाना । तब चुनाव बस शुरू ही हुए थे । 1935 के इंडिया एक्ट के तहत स्थानीय निकायों और प्रांतीय परिषदों में भारत के कुछेक प्रतिनिधियों का चुनाव सीमित मताधिकार के आधार पर हुआ करता था । एक तो सीमित अधिकारों वाले निकायों के लिए चुनाव और प्रचार भी बहुत कम लोगों के बीच, फिर भी लाख दो लाख रुपये उड़ जाते हैं । उस जमाने में लाख दो लाख! प्रेमचंद ने पूत के पांव पालने में ही देख लिये थे । स्वतंत्रता आंदोलन में जेल जाने वाले रायसाहब इस प्रतिष्ठा को भुनाकर चुनाव लड़ते और जीत जाते हैं । संसदीय लोकतंत्र की शुरुआत में ही उसके दुर्गुण प्रकट होने लगे थे । और इसमें प्रत्याशियों की लड़ाई से फायदा उठाने वाले दलालों का एक वर्ग भी तैयार हो गया था । मिर्जा खुर्शेद फक्कड़ तबीयत के इंसान हैं । उसी तरह मेहता भ्रमित बुद्धिजीवी हैं जिनसे विभिन्न मामलों में स्पष्टता की बजाय भ्रम ही हासिल किया जा सकता है । उन्हें प्रेमचंद का प्रतिनिधि समझना प्रेमचंद जैसे सचेत कलाकार का अपमान है ।
बुर्जुआ राजनीति की यह गहरी समझदारी इस उपन्यास की विशेषता है । उनके प्रत्येक उपन्यास में आपको शहरी जीवन के कुछ ऐसे पात्र मिल जायेंगे जिनका आदर्शवाद ग्रामीणों के प्रति उनके खैराती परोपकार से जाहिर होता है । लेकिन साथ ही स्वयं ग्रामीण समुदाय में प्रतिरोध के ऐसे चित्र मिलेंगे जिनके सामने यह परोपकार रूई की तरह उड़ जाता है । 1933 में निराला जी ने प्रेमचंद के बारे में लिखा था ‘प्रेमचंद जी को एक ही सफलता मिली है- ग्राम्य चित्रों को खींचने में, ग्रामीणों के साधारण चित्रों को असाधारण स्वाभाविकता के साथ खोलने में और मनुष्य के मन की छानबीन में भी ।---पर यह समाज के ऊंचे अंग का चित्रण नहीं ।’ रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में प्रेमचंद के बारे में जो लिखा है उससे प्रेमचंद के समय में उनकी आलोचना के स्तर
का पता चलता है ।
‘---एक ओर प्रेमचंद ऐसे प्रतिभाशाली उपन्यासकार हिंदी की कीर्ति का देश भर में प्रसार कर रहे हैं, दूसरा
कोई उनकी भरपेट निंदा करके टालस्टाय का ‘पापी के प्रति घृणा नहीं
दया’ वाला सिद्धांत लेकर दौड़ता है । एक दूसरा आता है को दया वाले सिद्धांत के विरुद्ध
यूरोप का साम्यवादी सिद्धांत ला भिड़ाता है और कहता है कि गरीबों का रक्त चूसकर उन्हें
अपराधी बनाना और फिर बड़ा बनकर दया दिखाना तो उच्च वर्ग के लोगों की मनोवृत्ति है ।’
स्पष्ट है कि शुक्ल जी की सहानुभूति ऐसे आलोचकों के साथ कतई नहीं है । फिर
भी उन्होंने ध्यान दिलाया कि ‘हमारे निपुण उपन्यासकारों को केवल राजनीतिक दलों द्वारा
प्रचारित बातें ही लेकर न चलना चाहिए,
उन्हें यह भी देखना चाहिए कि अंग्रेजी राज्य जमने पर भूमि की उपज या
आमदनी पर जीवन निर्वाह करने वालों (किसानों और जमींदारों दोनों)
की और नगर के रोजगारियों और महाजनों की परस्पर क्या स्थिति हुई । उन्हें
यह भी देखना चाहिए कि राज कर्मचारियों का इतना बड़ा चक्र ग्रामवासियों के सिर पर ही
चला करता है, व्यापारियों का वर्ग उससे प्राय: बचा रहता है ।’तब तक गोदान प्रकाशित नहीं हुआ था । हम यही कह सकते
हैं कि प्रेमचंद ने इन दोनों महानुभावों की आलोचना का सृजनात्मक उत्तर प्रस्तुत किया और संभवत: उनकी
अपेक्षा से आगे बढ़कर भी ।
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