गोदान
उपन्यास मुंशी प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास था। हालांकि इस उपन्यास के पश्चात भी
उन्होंने ‘मंगलसूत्र’ नामक उपन्यास लिखना शुरू किया था लेकिन उपलब्ध उपन्यासों के
आधार पर हम गोदान को ही उनका अंतिम
उपन्यास मान सकते हैं। गोदान का प्रकाशन वर्ष 1936 ई. है। वर्ष 1936 के आस-पास या
विशेष तौर पर इस वर्ष के अंतर्गत मुंशी प्रेमचंद ने और क्या लिखा? साथ ही अन्य
साहित्यकारों के द्वारा क्या लिखा जा रहा था? इसे जानना और उसे इस उपन्यास से
जोड़कर देखना भी आवश्यक है। उदाहरण के लिए यदि हम देखें तो प्रेमचंद का
महत्त्वपूर्ण लेख ‘महाजनी सभ्यता’ भी 1936 ई. में ही प्रकाशित हुआ था। इसके अलावा
1936 ई. में ही ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के सम्मेलन का जो उद्घाटन भाषण प्रेमचंद ने
दिया, वह ‘साहित्य का उद्देश्य’ नाम से प्रकाशित है तो इस तरह से 1936 में
प्रेमचंद द्वारा ही लिखी हुई इन दो रचनाओं के सहारे और इसके साथ ही उनके साथ के जो
अन्य लोग थे, उनके लेखन के आधार पर भी हम इस उपन्यास को देख सकते हैं। उदाहरण के
लिए छायावाद के अन्य कवि और खासतौर पर ‘जयशंकर प्रसाद’ को यदि हम देखें तो प्रसाद
जी का नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ भी 1936 में ही सामने आया है। इन सब पर दृष्टि डालते
हुए उसे गोदान के साथ जोड़कर देखना ज्यादा उचित होगा।
अपने समय की रचनाशीलता से प्रेमचंद
की संलग्नता का परिचय भी हमें गोदान से मिल जाता है । मिल मालिक खन्ना की पत्नी जिन्हें उपन्यास में गोविंदी और कामिनी का नाम दिया गया है वे कविता में भी हाथ आजमाती थीं । उस पूरे प्रसंग को उस समय की प्रमुख काव्य प्रवृत्ति छायावाद के साथ जोड़कर देखा जा सकता है । इससे छायावाद
की आंतरिकता की प्रेमचंदी सूक्ष्म परख का पता चलता है ।
जब हम
गोदान के बारे में बात करते हैं तो सबसे पहले इस बात का ध्यान रखना होगा कि
प्रेमचंद के उपन्यासों की दो तरह की परंपरा बनती है। एक उपन्यास वे हैं जिनमें
उन्होंने स्त्री समस्या को केंद्र में रखा । उनकी शुरुआत अगर उनके पहले उपन्यास से यानी सेवासदन
से मानें तो सेवासदन, निर्मला और गबन इस तरह के
उपन्यास हैं जिनमें स्त्री समस्या केंद्र में है। दूसरे तरह के जो उपन्यास हैं
उनमें किसान समस्या केंद्र में है और उसे हम कर्मभूमि, रंगभूमि इत्यादि उपन्यासों
के जरिए देख सकते हैं। प्रेमचंद के दो तरह के उपन्यास हैं- पहले तरह का
उपन्यास जिसमें स्त्री समस्या केंद्र में है और दूसरा जिसमें किसानी समस्या केंद्र
में है । इन दो तरह के उपन्यासों की जो परम्परा
दिखाई पड़ती है उनका समाहार गोदान में आकर हो जाता है और ये
दोनों तरह की परम्पराएँ आकर गोदान के भीतर मिल जाती हैं। प्रेमचंद के लेखन के
लिहाज से जिन दो तरह की समस्याओं को हम देख रहे हैं यानी स्त्री और किसान, उन
दोनों का समाहार इस गोदान उपन्यास में हुआ है। यह उपन्यास बहुत दिनों से लोगों को
परेशान करता रहा है। बहुत दिनों से, लिखने के बाद से ही, छपने के बाद से ही लगातार
गोदान पर बातचीत होती रही है क्योंकि गोदान में उन्होंने एक ऐसी चीज रच दी जिसका
अब तक हिंदी के उपन्यास साहित्य में कोई मेल नहीं है इसलिए उस उपन्यास पर लगातार
बातचीत होती रही। यहाँ तक कि उसके शिल्प
ने भी लगातार उस पर
विचार करने वालों को परेशान रखा है । उस शिल्प
की विशेषता यह है कि लगता है मानो
प्रेमचन्द दो तरह की कहानियाँ कह रहे हैं और उन दो तरह की कहानियों में कोई आपसी
घनिष्ठ संपर्क नहीं दिखाई पड़ रहा है। जो दो तरह की कहानियाँ हैं उसमें शहरी जीवन
एक तरह की कहानी है और ग्रामीण जीवन दूसरी तरह की कहानी है ।
बहुत
सारे लोगों को लगता था कि ये दोनों
कहानियाँ प्रेमचन्द के यहाँ खासकर इस उपन्यास में उतना संगठित ढंग से व्यक्त नहीं
हो पाई है, एक-दूसरे के साथ जुड़ी नहीं हैं इसलिए इस शिल्प को समझने के लिहाज से
नलिन विलोचन शर्मा ने कहा कि ये दो चीजों को एक साथ लेकर चलने की पद्धति है। काशीनाथ
सिंह ने इस शिल्प पर विचार करते हुए कहा कि दो कमरों में रहने वाले दो किरायेदारों
की तरह शहरी और ग्रामीण पात्रों की कहानियाँ नजर आती हैं।
इस तरह यह उपन्यास अपनी पद्धति के कारण भी
आलोचकों को परेशान करता रहा है और इसलिए निरंतर गोदान उपन्यास को पढ़ने और समझने की
कोशिश होती रही है। अब आप देखिये कि उसमें नायक है। और नायक कौन
है? होरी है। और यह कैसा नायक है? एक ऐसा नायक है जिसके मरने
की आशंका इस उपन्यास की शुरुआत में ही प्रकट होती है और उपन्यास का जब अंत होता है
तो उसकी मृत्यु हो चुकी होती है तो एक ऐसा नायक जो कि निरंतर मृत्यु से लड़-लड़ कर
उससे बचने की कोशिश करता रहता है। एक ऐसा नायक प्रेमचंद ने रचा जो लगभग
मृत्यु के मुख में बार-बार जा रहा है और बार-बार उससे बचने के लिए प्रयास करता नज़र
आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उसके गले के पास रस्सी की कोई
फांसी लगी हुई हो जिसे थोड़ा-थोड़ा वह ढीला
करता रहता है लेकिन अंत में नहीं ही बच पाता
है। आखिरकार वह मारा
जाता है। ऊपर से यह एक व्यक्ति की कथा प्रतीत होती है लेकिन आप गौर करिए कि क्या यह सचमुच एक
व्यक्ति की कथा है? प्रेमचन्द खुद ही इस बात का संकेत देते हैं जब वह लिखते हैं कि
‘यह किसी एक की बात नहीं थी; बल्कि सबकी यही अवस्था थी।’ साफ है कि प्रेमचन्द का जो नायक होरी है वह अकेला व्यक्ति नहीं रह जाता, बल्कि पूरे के पूरे किसान जीवन का, भारतीय किसान के जीवन का प्रतिनिधि
बनकर हमारे सामने आता है।
तात्पर्य यह कि जो किसान जीवन का प्रतिनिधि है वह ऐसी स्थिति में है कि निरंतर मौत के मुख में
जाने से बचने की कोशिश कर रहा है लेकिन अंत में उसकी मौत हो जाती है। हम यह भी देखते हैं
कि इस उपन्यास का कथा-प्रवाह बहुत ही धीमा है। कई बार जब आप उपन्यास को पढ़िएगा तो
आपको महसूस होगा जैसे पूरी
कहानी एक ही जगह पर ठहरी हुई है, कहीं आगे नहीं बढ़ रही है।
रामविलास शर्मा ने इसी सन्दर्भ के लिए कहा कि यह पानी का ऐसा ठहराव है जिसमें डूबने के बाद आदमी
की लाश ही बाहर आ पाती है, वह ज़िंदा बाहर नहीं निकल
पाता है। मतलब यह कि उस समय भारतीय किसान की ऐसी अवस्था थी जिसमें वह ठहराव का वह शिकार हो गया था । इसमें उसकी मौत तय थी ।
तत्कालीन भारत में खेती की इस स्थिति के सम्बन्ध में बहुतेरा नया-नया शोध हो रहा
है जिससे ऐसा
लगता है कि निश्चय ही गोदान को सामने रखकर हमारे देश में जो उपनिवेशवाद था, जो
साम्राज्यवादी अंग्रेजी शासन था, उसके स्वरूप को दोबारा समझने की कोशिश करनी होगी । हम सब जानते हैं कि जहाँ से ये लोग शासन
करने के लिए आये थे वहाँ जब उद्योगीकरण हुआ तो फैक्ट्रियों में, कारखानों में काम करने के लिए जब मजदूरों की जरूरत पड़ी थी तो स्वाभाविक
रूप से ये मजदूर वही हो सकते थे जो वहाँ के किसान थे इसलिए सचेत रूप से कोशिश करके वहाँ की किसानी
को बर्बाद किया गया ताकि फैक्ट्रियों के लिए काम करने वाले मजदूर मिल सकें। लगभग उसी तरह का प्रयोग ये शासक भारत में चला रहे थे और इसी कारण उस समय
किसान की या पूरे के
पूरे भारतीय कृषि अर्थतंत्र की यह दुरवस्था
थी। उस समय औपनिवेशिक शासन द्वारा जो शोषण हो रहा था, उसके सिलसिले में बहुतेरे लोगों ने बताया है कि जानबूझकर
किसान का ऐसा शोषण किया जाता था ताकि वह अपनी ही उपज का उपभोग न कर सके । कारण यह कि अगर उसने अपनी उपज का उपभोग खुद करना आरम्भ कर दिया तो उसकी उपज का दाम बढ़ जायेगा । उस समय इंग्लैंड पूरी दुनिया की वित्तीय
व्यवस्था का केंद्र था तथा समूची दुनिया की मुद्रा की स्थिरता वहाँ से तय होती थी और यदि वहाँ चीजों का दाम बढ़ गया तो मुद्रा की अस्थिरता शुरू हो जायेगी । इसलिए जानबूझकर किसान की आमदनी ऐसी रखी जाती थी कि वह अपनी ही उपज का उपभोग न कर सके और
यहाँ पैदा होने वाली चीजें बाहर ले जायी जा सकें । हमारे देश में खेती की समूची व्यवस्था के पुनर्गठन के पीछे
के इस औपनिवेशिक हित को समझा जाने लगा है । इस परिप्रेक्ष्य में गोदान को देखने का
थोड़ा नया नजरिया हासिल होता है ।
इस
उपन्यास का शीर्षक ही गाय से जुड़ा हुआ है और इसको लेकर भी तरह-तरह के कयास लगाए जाते रहे हैं।
निर्मल वर्मा को जब जड़ों
की ओर लौटने की व्याकुलता हुई थी तब उन्होंने कहा था कि गोदान की क्रिया भारतीय संस्कृति के इस मूल्य विशेष के प्रति प्रेमचंद की प्रतिबद्धता है।
क्योंकि वहाँ होरी की सबसे बड़ी चिंता है कि गाय का दान नहीं कर सका तो अब यह जो
गोदान नाम का शीर्षक है, गाय नाम का प्राणी है, इसके इर्द-गिर्द हमें प्रेमचंद की
कथा के एक और
तत्व को समझने में मदद मिलती है। इसका भी सम्बन्ध उपनिवेशवाद से ही था।
इसमें जो
चीज है वह है मानवेतर प्राणी जगत। हमारा कृषक समाज आज भी मानवेतर प्राणी जगत के
साथ एक परिवार की तरह रहता है। यह मानवेतर प्राणी जगत सिर्फ इस उपन्यास में नहीं
है । ‘दो बैलों की कथा’ नामक कहानी में भी यह मौजूद है। इसके अतिरिक्त ‘पूस की रात’
कहानी में एक कुत्ते के रूप में मौजूद है और ‘दूध का दाम’’ नामक कहानी में भी यह कुत्ते के रूप में मौजूद है। सिद्ध है कि यह
मानवेतर प्राणी जगत कृषक समाज के साथ बहुत ही अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इस
मानवेतर प्राणी जगत में गाय के प्रसंग में इस बात पर ध्यान देना होगा कि बूचड़खाना
नाम का शब्द अंग्रेजी के शब्द बुचर से आया हुआ है। जो बूचड़खाने थे, जिनमें गायें
कटती थीं, वे बूचड़खाने केंटूनमेंट एरियाज में होते थे जहाँ पर फौजें रहती थीं । चूँकि
गाय में मांस बहुत ज्यादा होता था तो गाय काटी जाती थी और बड़े पैमाने पर फ़ौज में उसकी
आपूर्ति हुआ करती थी। इस पर धर्मपाल जी ने लिखा है कि जब सवाल किया
इंग्लैंड की महारानी ने इस मुद्दे पर तो यहाँ से यह बात कही गयी कि हम जानबूझकर
ऐसा कर रहे हैं ताकि कृषकों की जो आत्मनिर्भर व्यवस्था है वो समाप्त
हो और किसान कारखानों में काम करने के लिए आ सकें क्योंकि कारखाने भी खुलने लगे
थे।
इसी
सिलसिले में ध्यान दीजियेगा कि 1894 का जो भूमि अधिग्रहण का क़ानून है,
उसमें सार्वजनिक उपयोग के लिए जमीन का अधिग्रहण कानूनी था और जो सार्वजनिक हित था वह
सार्वजनिक हित कारखाने के इर्द-गिर्द परिभाषित होता था। इसी क़ानून का इस्तेमाल
करते हुए कई बार सरकारों ने कारखानों के लिए जमीन का अधिग्रहण किया है। यही भूमि
अधिग्रहण कानून था जिसके जरिये खेती की जमीन पर कब्जा किया जा सकता था ताकि
कारखाने खुल सकें, ताकि फैक्ट्रियाँ खुल सकें। उस समय इंग्लैंड के पूंजीपति वर्ग
को यह जरूरत थी कि भारत में कारखाने चलें ताकि उनके यहाँ मशीन बनाने की जो
फैक्ट्रियाँ थीं उनकी मशीनों का बाजार पैदा हो सके। नये खुलने वाले इन कारखानों
में काम करने के लिए मजदूर आ सकें, इसके लिए ज़रूरी था कि कृषि अर्थतंत्र की
बर्बादी हो। एक तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा की स्थिरता के लिए जरूरी था कि किसानों
के पास आमदनी कम से कम हो ताकि वे अपनी ही उपज का उपभोग न कर सकें और दूसरी तरफ
कारखानों में काम करने के लिए मजदूर चाहिए थे। इसी प्रसंग में हम देखते हैं और
गोदान में भी एक बात आती है कि किसान बिगड़ जाए तो मजूर हो जाता है और मजूर बन जाए
तो किसान हो जाता है।
कहने का
मतलब यह है कि वह एक ऐसा दौर था जिसमें मानवेतर प्राणी जगत का जो सहअस्तित्व कृषकों
के साथ था उस पर बड़े पैमाने पर सुनियोजित ढंग से हमला हुआ था । इस प्रसंग के जरिये
आप देख सकेंगें कि जिस बात को प्रेमचन्द महाजनी सभ्यता कह रहे हैं उस महाजनी
सभ्यता का यह भी एक रूप था कि कोई भी चीज उपभोग के लिए नहीं बल्कि भक्षण के लिए
होनी चाहिए। केवल सौंदर्य के लिए उसका कोई महत्व नहीं है। गाय की सेवा करने का कोई
मतलब नहीं है, उसका भक्षण होना चाहिए। महाजनी सभ्यता का यही रूप था
जिसमें भावुकता की जगह पर व्यवसाय प्रमुख था। महाजनी सभ्यता के बारे में उन्होंने
लिखा है कि महाजनी सभ्यता में समय, धन हो जाता है। सम्बन्ध भी धन के हिंसाब से तय
होने लगते हैं और धन का ही मनुष्य के समस्त जीवन पर कब्जा हो जाता है, उसके जीवन
में भावुकता की जगह पर व्यवसाय आ जाता है। उन्होंने लिखा है – बिजनेस इज बिजनेस।
यह एक ऐसा मन्त्र है जिसके सामने सब कुछ
समाप्त हो जाता है । अब जो कृषक जीवन है, उसके यहाँ जो मानवेतर प्राणी हैं उन
मानवेतर प्राणियों की उपस्थिति का सम्बन्ध सिर्फ और सिर्फ भावना के लिहाज से होता है।
इसकी जगह पर व्यवसाय को लाना और भावना को समाप्त करना उसी मन्त्र का जरूरी हिस्सा
था। इसके मजबूत प्रतिकार के बतौर प्रेमचन्द गाय का सवाल लेकर आते हैं। ध्यान यह
दीजियेगा कि जो गाय मरती है, वह तो होरी के अपने भाई
के जहर देने के कारण मरती है लेकिन मरने से पहले की एक घटना है और बहुधा मारने
वाली घटना के प्रवाह में उस बात पर हमारा ध्यान नहीं जा पाता है। अगर हीरा ने जहर
देकर गाय को न मारा होता तो भी वह गाय लेकर होरी झिंगुरी सिंह के यहाँ जा ही रहा था क्योंकि झिंगुरी
सिंह की नजर उसकी गाय पर थी और झिंगुरी सिंह से होरी
ने कर्ज लिया था। कर्ज क्यों लिया
था? कर्ज लिया था क्योंकि आषाढ़ का पहला दौंगरा गिरा था अर्थात आषाढ़ की पहली बारिश हुई थी और
किसान जब हल लेकर खेतों में पहुँचे तो रायसाहब
का फरमान आया कि पहले
पुराना बकाया चुका दो तभी किसी को हल चलाने की इजाजत मिल सकती है। ऐसा आपातकाल आने
के कारण सब लोग जगह-जगह कर्ज लेने के लिए भागे थे जिसमें होरी, झिंगुरी सिंह के यहाँ कर्ज लेने गया था । झिंगुरी सिंह ने उसे कर्ज दिया था और बदले में उन्होंने
मांग की थी कि अपनी गाय मुझे दे दो। रात में सभी बच्चो के सो जाने के बाद वह गाय का पगहा खोलकर ले जाने ही लगा लेकिन उसकी हिम्मत कांप गयी और वह झिंगुरी
सिंह के यहाँ गाय पहुँचाने नहीं जा पाया । तब वह बाहर लाकर बांध देता है खुले में, इसके बाद वह घटना होती है
जिसमें हीरा उसको जहर दे देता है। कहने का मतलब यह
कि गाय तो फिर भी उसके यहाँ नहीं ही रहती । साफ
है कि जो गाय आयी थी, वह हीरा के कारण ही नहीं मरी बल्कि उसकी हत्या के पीछे एक अर्थतंत्र है । वह हिंसक अर्थतंत्र सामाजिक भी
है क्योंकि सामाजिक संबंधों के जरिए भी यह नियमित हो रहा है कि अगर किसी किसान के
घर पर अच्छी भली गाय बंध जाए तो उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा । हम सब जानते हैं
कि जाति व्यवस्था जनित उत्पीड़न केवल इसी आधार पर नहीं होता है कि कोई अवर्ण व्यक्ति सवर्णों के इलाके में चला जाता है
बल्कि अन्य कई
कारणों से भी होता है। अंबेडकर ने इस सवाल
पर विस्तार से लिखा है । इसी प्रसंग में ध्यातव्य है कि सन् 1936 में ही अंबेडकर का ग्रंथ
एनिहिलेशन आफ़ कास्ट (जातिभेद का विनाश) छपा था और प्रेमचंद थे जिन्होंने हंस के पिछले
कवर पर अंबेडकर की तस्वीर छापी थी। इसका मतलब कि
अंबेडकर के काम से उनका परिचय था । अंबेडकर ने इस बात को विस्तार से लिखा है कि अगर दलित घी खा रहा है तो वह भी सवर्णों को बुरा लगता है, दलितों
का पगड़ी बाँधना भी सवर्णों को बुरा लगता है। इसी तरह से आप
देखेंगे कि होरी दलित तो नहीं है लेकिन
निचली जाति का है और उस निचली जाति के किसान के यहाँ एक गाय आकर खड़ी हो गयी है, यह बात ईर्ष्या का विषय हो गयी है। इसलिए अगर वह
जहर देकर न भी मारी जाती तो शोषण का तथा सूद का जो पूरा का पूरा अर्थतंत्र था, उस अर्थतंत्र में उस गाय को होरी के
यहाँ से निकल ही जाना था और जहाँ तक गोदान का सवाल है तो हम सब जानते हैं कि वही
गाय दी जानी है। तो वही गाय
जिसकी हसरत जीवन भर उसको रही और कहानी में आता है कि रूपा का पति रामसेवक गाय देकर भेजे हुए है होरी के पास
गांव में लेकिन गाय अंततः उसके मर जाने
पर जाती किसके पास? ब्राह्मण के पास जाती। यह ऐसा सामाजिक तंत्र है, जिसमें जो गाय है वह किसान से दूर होनी है चाहे
वह सूदखोरी के कारण दूर हो, चाहे
औपनिवेशिक व्यवस्था में जो पशुओं के प्रति
भक्षण का दृष्टिकोण है उसके कारण दूर हो लेकिन यह
गाय उसके पास नहीं ही रहनी थी। यह तो ऐसे ही है
कि जैसे
तुलसीदासजी ने कहा कि ‘पराधीन
सपनेहु सुख नाही’। कहने का मतलब कि
सपने में भी उसे सुख नहीं मिल पाता। उसका सुख क्या था? प्रेमचंद ने इस बात को लिखा है कि मेरी क्या आकांक्षा है? थोड़ी सी जमीन हो, एक घर हो, कुछ खेती-बारी करके
अपने खाने के लिए उगा सकूँ, एक गाय हो और कुछ ऐसे उपन्यास
लिख जाऊं जो भारत की स्वाधीनता के काम आ सकें। गाय की
महत्वाकांक्षा एक सपने की तरह ही थी लेकिन किसान को सपने में भी
सुख हासिल नहीं हो पाता ।
उपनिवेशवाद
के साथ जाति व्यवस्था का गहरा संबंध है क्योंकि जिस स्तर की भारत की लूट हो रही थी उसके चलते समाज को काबू करने का यह सबसे पक्का उपाय था । इस प्रसंग
में यह बात भी जानना जरूरी है कि अंग्रेजी
के शब्दकोश में लूट नाम का शब्द तब दाखिल हुआ जब भारत पर कब्जा हो गया । इसके बाद यहाँ पर बड़े पैमाने पर लूट हुई तब
यह अंग्रेजी के शब्दकोश में दाखिल हुआ । हिंदुस्तान में यह शब्द तो था लेकिन अंग्रेजी के शब्दकोश में तब गया जब बड़े पैमाने पर लूट का सामान इंग्लैंड में पहुँचने लगा । उस सामान
के साथ ही यह शब्द भी वहाँ पहुँच गया। यह बड़े पैमाने
पर जो लूट चल रही थी, उत्पादक समुदाय का बड़े पैमाने पर जो दरिद्रीकरण हो रहा था उसके खिलाफ़ कोई विक्षोभ पैदा न हो सके इसके लिए जाति व्यवस्था से बेहतर कोई व्यवस्था न हो सकती थी । इस विक्षोभ के निशान भी
प्रेमचंद के गोदान में सबसे अधिक चटक हैं और इतने
चटक हैं कि उतने चटक चित्र अब तक हिंदी साहित्य के भीतर नहीं देखे गये । याद करिए कि
जाति व्यवस्था के विरोध में मातादीन के मुँह में सिलिया के पिता द्वारा हड्डी ठूँस देने का जो प्रसंग है उस तरह का प्रतिरोध बहुत मुश्किल से आपको हिंदी उपन्यास
में दिखाई पड़ेगा । यहाँ तक कि
दलित समस्या या दलित समुदाय की उपस्थिति भी प्रेमचंद के बाद बहुत दिनों तक हिंदी
में नजर नहीं आयी।
भारत की इस जाति व्यवस्था के खिलाफ़ अंबेडकर भी आवाज उठा रहे
थे और अनेक कारणों से वह एक बड़ा
सवाल बन गया था। इस जाति व्यवस्था को अंग्रेजी शासन का
समर्थन हासिल था क्योंकि
यह जाति व्यवस्था ही थी जो सामाजिक नियन्त्रण का काम करती थी । क्योंकि इस लूट के
खिलाफ़ विक्षोभ पैदा हो तो इस विक्षोभ पर काबू
करने के लिए, इस विक्षोभ पर
नियंत्रण करने के लिए आवश्यकता थी जिस संस्था की, वह व्यवस्थित संस्था जाति प्रथा
थी। कहने का मतलब यह कि प्रेमचंद के यहाँ जो प्रतिरोध है, उसका नमूना राम सेवक
का प्रतिरोध है। वह कहता है कि जब तक इन लोगों का विरोध न
किया जाए तब तक ये हमको दबाकर रखेंगे । इसी प्रतिरोध
को दबाने के लिए जाति व्यवस्था की जरूरत थी । इस उपन्यास में दिखायी पड़ता है कि अंग्रेजों द्वारा, औपनिवेशिक शासन द्वारा
कायम किया गया जो तंत्र है जिसमें एक अंग है
पटवारी, दूसरा अंग है पुलिस। ये सब लोग किसका साथ देते है? ये सब लोग जमींदार का साथ देते हैं, ये सब लोग पंडित जी का साथ देते हैं तो इसका अर्थ यह है कि
जो जातिगत ऊँच-नीच है, जातीय पदानुक्रम है, उसके समर्थन में उपनिवेशवादी तंत्र भी मौजूद है। उपनिवेशवाद को इस अर्थ में भी समझने की जरूरत है कि भारत में सामाजिक नियंत्रण की जो परंपरागत
व्यवस्था थी, उसके समर्थन की भी उसको आवश्यकता थी ताकि उसे सस्ती श्रम शक्ति मिलती रह सके और सामाजिक नियंत्रण बना रह सके । जमींदारी व्यवस्था को अंग्रेजों ने कायम किया ताकि किसान पर काबू करने
के लिए एक और चीज़ लाई जा सके । ये ज़मींदार ऐसे नहीं थे जो अपनी तरफ से सब कुछ करते थे बल्कि उनको औपनिवेशिक शासन का पूरा समर्थन प्राप्त था। अगर औपनिवेशिक शासन का यह समर्थन जमींदारों को न मिला होता तो
शायद इतना ज्यादा शोषण वे न कर सकते। इस तथ्य के स्पष्ट चित्र
मिलते हैं पूरे के पूरे गोदान में कि
किस तरह यह उपनिवेशक तंत्र और ग्रामीण व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था आपस में एक-दूसरे
से मिले हुए हैं।
इसी के साथ जोड़ करके देखना होगा पितृसत्ता को भी और इसीलिए यह विद्रोह केवल किसानों की ओर से, केवल दलित जातियों
की ओर से नहीं दिखायी पड़ता बल्कि स्त्रियों की ओर से भी दिखायी पड़ता है।
प्रेमचंद की स्त्रियाँ स्वतंत्र
ढंग से ध्यान देने की मांग बात करती हैं । वैसे तो बाद में प्रेमचंद पर इस बात का
आरोप लगाया गया कि वे स्त्री मनोविज्ञान को समझते नहीं हैं । समझते हैं कि नहीं इस बात पर थोड़ी देर बाद चर्चा
करेंगे लेकिन प्रेमचंद का उद्देश्य स्त्री की सामाजिक
भूमिका को उजागर करना था। उनका मकसद था स्त्री को घर में कैद न दिखाना बल्कि उसकी
व्यापक सामाजिक उपस्थिति को
सामने रखना। यह भी एक
तरह की विरासत थी और लोगों को उस विरासत की याद थी । वह विरासत
क्या थी? ध्यान दीजिएगा 1857 के वर्ष को।
1857 के गदर के बारे में जो कुछ
भी पढ़िएगा, वहाँ पर स्त्री बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका में नजर आयेगी- चाहे झांसी की रानी हों या लखनऊ
में बेगम हजरत महल हों। इतिहास के अतिरिक्त कथाओं में तो और ज्यादा स्त्रियों की उपस्थिति
दर्ज है। ये स्त्रियाँ जो सामाजिक
भूमिका निभाया करती थीं, उन
स्त्रियों पर जब विभिन्न तरह से पराधीनता कायम की गयी तो उसके खिलाफ़ स्त्रियों में जो
प्रतिरोध उपजा वह प्रतिरोध
भी बहुत ही महत्वपूर्ण ढंग से प्रेमचंद ने इस उपन्यास में व्यक्त किया है । उस प्रतिरोध को हम सब शहरी जीवन में बहुत आराम से
देख लेते हैं और शहरी जीवन में भी जब देखते हैं तो मालती के प्रसंग में देखते हैं । यहाँ पर एक और बात की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कि प्रेमचंद के इस
उपन्यास में बहुस्वरीयता
है। कई बार जो
बहुत ही कम या लगभग न दिखायी देने वाले पात्र हैं उनकी भी मजबूत उपस्थिति दर्ज हुई है। थोड़ा सा ध्यान देते ही यह समझ में आने लगता है। एक पात्र है
जो रायसाहब की पुत्री है, उसका नाम मीनाक्षी है। उसकी शादी
एक अय्याश जमींदार से
हो जाती है। वह उससे अलग होकर एक दूसरे बंगले में
रहने लगती है। उस पर
मुकदमा कायम करती है और वह जो रासरंग रचा रहा है वहाँ जाकर हंटर से सबकी पिटाई करती है। प्रेमचंद
ने उसके बारे में लिखा है कि वह
समष्टिवादी विचारों का प्रचार करती थी। ध्यान दीजिये
कि महाजनी
सभ्यता के मूल्यों में उन्होंने व्यक्तिवाद को भी एक
मूल्य माना है और उसके विरोध में उन्होंने समष्टिवाद को रखने का प्रयास किया है । महाजनी सभ्यता को ध्यान से पढ़िएगा तो आपको दिखायी पड़ेगा कि जिसको बुर्जुआ इंडिविजुअलिज्म
कहते हैं, उसके विरोध
में प्रेमचंद समष्टिवाद
नामक शब्द ले आते हैं। मीनाक्षी उन विचारों का प्रचार करती थी, यानी समष्टिवाद
का प्रचार करती थी। शहरी पात्रों का विद्रोह तो हमको दिखायी पड़ जाता है लेकिन जो ग्रामीण पात्र हैं उनके भीतर
भी कोई मामूली
विद्रोह नहीं है। केवल धनिया
का ध्यान करिए तो उसके घर में जाति बाहर की गयी एक गर्भवती
स्त्री जो दूसरी जाति
की भी है आकर रहती है। कहने की जरूरत नहीं कि बहुत बड़ा
कलेजा चाहिए ऐसी स्थिति
में समाज से लड़ने के लिए। न सिर्फ
इतना बल्कि सिलिया को भी जब कहीं और जगह नहीं मिल पाती है तो धनिया ही उसको घर में
रहने की जगह देती है।
इस प्रसंग
में ध्यातव्य है कि गाँधी जी ने जो आश्रम बनाये वह बहुत पुराने समय से
मनुष्यों का सपना या संकल्पना रहा है ऐसे
समाज का जहाँ सामाजिक ऊँच-नीच का भाव न
दिखाई दे। वैसा समाज
आपको धनिया के घर पर दिखायी पड़ता है। उसके लिए
धनिया किसी से भी लड़ जाती है। ग्रामीण पात्रों का यह विद्रोह आमतौर पर
लोगों को नहीं नजर आता है। बहुत बड़ा
विद्रोह है यह उस समय के
समाज को देखते हुए। कहने का मतलब कि धनिया से लेकर मालती तक पूरा का पूरा
स्त्रियों का जो प्रतिरोधी
वितान है इस प्रतिरोधी वितान को प्रेमचंद ने बहुत ही दार्शनिक ढंग से व्यक्त किया है। धनिया इस
बात को कहती है कि समाज का यदि धर्म है तो मनुष्य का भी धर्म है। अब जो लोग
कहते हैं कि गोदान में धर्म की प्रधानता है उन्हें ध्यान देना चाहिए कि प्रेमचंद
ने धर्म को कितने अर्थों में व्याख्यायित किया है। अगर समाज का
धर्म है तो व्यक्ति का भी धर्म है। इस अर्थ में धनिया उस समय के
समाज धर्म, उसकी ऐसी पुरानी रूढ़ियाँ जो निचले तबकों को दबा कर रखती हैं; स्त्री को दबा कर
रखती हैं, उनके खिलाफ़ व्यक्ति के धर्म का सहारा लेकर अपनी बात रखती है । हम सभी
जानते हैं कि यह बहुत बड़ी दार्शनिक बहस है कि समाज को व्यक्ति की स्वतंत्रता में
कितना हस्तक्षेप करने का अधिकार है । इस सवाल पर धनिया स्वाभाविक रूप में व्यक्ति
की ऐसी स्वतंत्रता के पक्ष में है जो समाज को आगे ले जाए और ऐसे
समाज की प्रतिष्ठा करे जिसमें व्यक्ति दबा कुचला न दिखायी पड़े। ग्रामीण पात्रों के बीच से
भी प्रेमचंद जिस चीज को
रच देते हैं उसे पहचानने के लिए हमारे पास नजर होनी चाहिए। तो यह जो
हमारे समाज पर उपनिवेशवाद के समर्थन के
जरिये सामाजिक नियंत्रण की पूरी व्यवस्था
कायम की गयी थी उसकी शिकार निचली जातियाँ थीं । सही
बात है कि होरी अस्पृश्य नहीं है,
दलित नहीं है लेकिन वह कृषक जाति का है। आज भी
उत्तर प्रदेश में उनको किसान जाति का कहा जाता है। किसान जाति
के लोग हैं, जो खेती करते हैं वह लोग और उस समय समाज में दबे कुचले ही थे। समाज में ये दबे
कुचले हैं और दूसरी
तरफ बहुत बड़ा दबा कुचला समाज है-स्त्री।
प्रेमचंद के
बारे में कहा जाता है कि वह
यथार्थ का वर्णन करते थे। उन्होंने खुद
इसके लिए नया शब्द देते हुए कहा- आदर्शोन्मुख यथार्थवाद। इसको लोग
ऐसा समझते हैं मानो यह
यथार्थ से कोई भिन्न किस्म की चीज़ है जबकि ऐसा
नहीं है। इस शब्द की व्याख्या में उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि ऐसा यथार्थ
वर्णन जो आदर्श
की ओर ले जाये यानी आदर्श की ओर उन्मुख करने वाला यथार्थवाद । यही है
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद। उनका
यथार्थवाद आदर्शोन्मुख यथार्थवाद था। लोकप्रिय
ढंग से इसे एक उदाहरण के सहारे समझते हैं । मान लीजिये कि चौराहे पर कहीं एक रिक्शे वाले और उसके
रिक्शे पर बैठी सवारी के बीच में किराये को लेकर
झगड़ा हो जाता है या मारपीट हो
जाती है । ऐसी स्थिति में जो सवारी बैठी है उसका अधिकार है मारपीट करना या हाथ उठाना लेकिन
रिक्शे वाले ने यदि हाथ उठा दिया तो पहली बात
यही कही जायेगी कि रिक्शावाला होकर हाथ कैसे उठा सकता है? अब
मनुष्य होने के नाते उसे भी उतना ही अधिकार है जितना कि सवारी को। इसको देखने
वाला जो तीसरा आदमी है, मसलन यह कयास कीजिये कि वहाँ कोई पुलिस वाला टहलता हुआ आ
गया। यह पुलिसवाला किसके समर्थन में
खड़ा होगा? अधिक संभावना है कि वह सवारी के पक्ष में खड़ा होगा। कारण कि
हमारा पूरा सामाजिक तंत्र रोज़ के व्यवहार में फैसला करता है कि यथार्थ कैसा दिखायी
दे रहा है । अगर यथार्थ का चित्रण आप करते हैं तो किसकी निगाह से आप यथार्थ को देख
रहे हैं यह महत्वपूर्ण
हो जाता है। प्रेमचंद ने जो
यथार्थ देखा है वह उन तबकों की निगाह से देखा है जो सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था
में दबे हुए थे, कुचले हुए थे, जिनके भीतर की
किसी भी आकांक्षा को नष्ट कर
देने की पूरी की पूरी कोशिश होती थी। उस तबके की निगाह
से उन्होंने अपने समय के यथार्थ को देखा है । इसीलिए उनका यथार्थ खास तरह का
यथार्थ हो जाता है।
ध्यान रखना
होगा कि हिंदी के पाठक तब तक पैदा हो चुके थे। ये पाठक कौन थे? यह पाठक
नौजवान था। अपनी
पत्रिका, हंस में उन्होंने एक चित्र छापा था जिसमें एक नौजवान किसी पेड़ को गोद में
भरकर उखाड़ने की
कोशिश कर रहा था। उस पर
टिप्पणी लिखी है प्रेमचंद ने कि ‘यह भारत
का आज का नवयुवक है जो रुढ़ियों को जड़ मूल समेत उखाड़ कर फेंक देना चाहता है।’ तो यह नौजवान ही पाठक था । इसके
अतिरिक्त युवा लडकियाँ थीं, शिक्षा का
प्रसार हो रहा था
और लड़कियों को नयी-नयी
शिक्षा मिल रही थी, उनके भीतर पढ़ने की
ललक जागी थी । यही उनके पाठकों का समाजशास्त्र है जहाँ से खड़ा होकर प्रेमचंद इस
उदीयमान तबके की
आकांक्षाओं के पक्ष में यथार्थ को देख रहे थे । उन्होंने हिंदी के उस नवोदित पाठक को गंभीर
साहित्य का पाठक बनाया, ऐसे साहित्य
का पाठक बनाया जिससे उसकी संवेदना का विस्तार हो सके। मुक्तिबोध
ने लेख लिखा है जनता का साहित्य किसे कहते हैं । इसमें उन्होंने लिखा कि जनता का
साहित्य उसे कहेंगे जिससे पाठक की संवेदना का विस्तार हो । तो यह जो
स्त्री है, यह जो नवयुवक है
जो कुचला हुआ
है और जिसके भीतर बदलाव की आकांक्षा है उसके भीतर संवेदना का प्रसार हो सके, नये-नये
पाठक इन सामाजिक तबकों की आकांक्षाओं को समझ सकें। इस लिहाज
से उन्होंने गोदान में इन तबकों के पक्ष से खड़ा होकर समस्त
वातावरण को चित्रित किया है।
प्रेमचंद ने साहित्य का उद्देश्य में
कहा कि आदर्शोन्मुख यथार्थवाद चाहिए । उसकी
उन्होंने बड़ी मनोवैज्ञानिक व्याख्या की और कहा
कि साहित्यकार के भीतर सौंदर्य होता है, बाहर फैली हुई असुन्दरता से उसको बहुत
चिढ़ होती है। उसको बदलकर वह अपनी
आकांक्षा की तरह सुंदर बनाना चाहता है। इसी वजह से प्रेमचंद ने लिखा कि घृणा
करने की भी जरूरत होती है साहित्य में, केवल उसमें प्रेम ही नहीं चलेगा। असुंदर
से साहित्यकार को घृणा होनी चाहिए । एक चीज़ उन्होंने
यह कही। दूसरी एक और चीज़ उन्होंने कही जिस पर
काफी विवाद होता रहता है। उन्होंने कहा कि साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली
मशाल होना चाहिए। इसकी व्याख्या लोग इस तरह करते हैं मानो
प्रेमचंद कह रहे थे कि साहित्यकार को राजनीति से वास्ता ही नहीं रखना चाहिए। उस
मशाल से राजनीति का मुँह झुलस देना चाहिए! प्रेमचन्द
यह नहीं कह रहे थे,
प्रेमचंद यह कह रहे थे कि राजनीति करनेवालों का पथ आलोकित करने का काम साहित्य को
करना चाहिए। पथ आलोकित करने का यह काम साहित्य कैसे कर सकता
है? ऐसा वह तभी कर सकता है जब वह ऐसे समुदायों की निगाह से यथार्थ को देखे
जिन समुदायों को लोग गिनती के लायक भी नहीं मानते हैं ।
राजनीति के इसी संदर्भ में ध्यान दीजिए
कि गोदान जब लिखा जा रहा था तो 1935 में इंडिया एक्ट आया था उसके मुताबिक थोड़ा-सा विस्तारित मताधिकार के साथ
चुनाव होने वाले थे। 1937 में वे पहले चुनाव हुए जिनमें कांग्रेस बहुत
बड़े पैमाने पर जीती, विभिन्न जगहों पर उसका मंत्रिमंडल बना । यानी एक तरह का
लोकतंत्रीकरण समाज में शुरू हो रहा था।
राजनीतिक पहचान व एक तरह के लोकतंत्र का प्रसार शुरू हो रहा
था हमारे देश में । ऐसे में इन दबे-कुचले समुदायों की आकांक्षा राजनीति
में भी अभिव्यक्त होनी तय थी, देर सबेर अभिव्यक्त होगी ही होगी, लेकिन
तब तक चूंकि उन्हें मताधिकार प्राप्त नहीं था
इसलिए जो राजनेता थे वे इन तबको के बारे में बात नहीं करते थे, इनकी
समस्याओं पर बात नहीं करते थे। उन पर
ध्यान नहीं देते थे, इसलिए प्रेमचंद ने आंख में उँगली डालकर इन तबकों की
समस्याओं को उठाया और इसी अर्थ में उन्होंने कहा कि साहित्य मशाल होती है
यानी जिन तबकों पर राजनीति ध्यान भी नहीं देती है उन
तबकों की समस्याओं की ओर ध्यान दिलाना साहित्य का काम होता है। इस तरह
गोदान उपन्यास में इन तबकों की
राजनीतिक और लोकतांत्रिक आकांक्षा को अभिव्यक्त
किया गया है । इस लोकतांत्रिक आकांक्षा को आखिर दबाया कैसे जा रहा है? पैसे के
जरिये। यहाँ पर भी एक महाजनी सभ्यता है, आप
देखते हैं उसी समय आपको ऐसे-ऐसे लोग राजनीति में दिखायी पड़ते हैं ।
कुछ लोगों ने आरोप लगाया है कि प्रेमचंद
के यहाँ राजनीति उतनी ज्यादा नहीं दिखायी पड़ती है। अकेले गोदान में आप
देखिए तो रायसाहब राजनीतिक आदमी हैं, खन्ना
राजनीतिक आदमी हैं और तंखा
राजनीतिक आदमी हैं । तंखा आखिर करते
क्या हैं? वे कैंडिडेट खड़ा करने और
बिठाने का काम करते हैं यानी बाजार में यह अफवाह उड़ा देना कि ये सज्जन
लड़ने जा रहे हैं और फिर दूसरे से पैसा वसूल लेना कि मैं बैठवा दूंगा
उनको, लड़ने नहीं दूंगा। इस तरह के लॉबिस्ट किस्म के लोग पैदा
हो गये थे उस
जमाने में । साथ ही आप
सोचिए कि लाख रुपया खर्चा हो रहा है । इस तरह चुनावी
लोकतंत्र की समस्याओं को उसी दौर में उन्होंने देख लिया था और
इसलिए एक तरह के सामाजिक लोकतंत्र की निगाह से उसे परखा
।
सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ है कि समाज के भीतर बराबरी आनी चाहिए, सामाजिक अधिकार
प्राप्त होने चाहिए। अधिकार केवल
पैसे वालों के हिसाब से नहीं प्राप्त होना चाहिए। गोदान में अनेक
पात्र इस बात
को बोलते हैं कि लोकतंत्र क्या है, पैसे वालों का खेल है। मतलब कि उस समय लोकतंत्र पैसे के हाथ
में गिरवी हो गया था और उस समय क्यों कहें हम, अब
तक उसकी यही सच्चाई
है। अब तो मतदाता भी लगभग अदृश्य होता जा रहा है और
पार्टियों को इस बात का पूरा भरोसा हो चला है कि वे उसे सांप्रदायिक रूप में या जैसे भी हो उन्माद खड़ा करके बेवकूफ बना सकती हैं। और उस
जमाने में प्रेमचंद पैसे के शासन के खिलाफ़ अर्थात लोकतंत्र पर पैसे के कब्जे के
खिलाफ़ सामान्य जनता की, उत्पीड़ित जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षा के पक्ष में खड़ा
होकर राजनीति पर सवाल खड़ा कर रहे हैं । इस तंत्र का प्रसार केवल देहात में नहीं है। यह एक
प्रमुख चीज़ है ।
पहले ही इसका जिक्र हुआ कि इसके शिल्प को
लेकर लोगों को बड़ी दिक्कत होती है। याद रखिए कि शहर प्रेमचंद के उपन्यासों
में पहले से मौजूद रहा है। पहले उपन्यास सेवासदन से शुरू कर लीजिए और गोदान तक चले
आइए तो शहर हमेशा से मौजूद रहा है, हर उपन्यास में मौजूद रहा है। कारण
कि प्रेमचंद केवल कहानी नहीं कहना चाह रहे थे। उन्होंने
लिखा ही है कि उन्हें स्वाधीनता आंदोलन में काम आने लायक एक-दो उपन्यास लिखने थे। स्वाधीनता
आंदोलन में काम आने का मतलब क्या है? मतलब कि भारत की जो लूट
हो रही थी उसकी यांत्रिकी को पहचानना, उजागर कर देना, उसका रहस्योद्घाटन कर देना
ही उनका योगदान था। यह रहस्योद्घाटन बिना शहर की उपस्थिति
के नहीं हो सकता था। कारण कि जो शहर थे, बहुत
हद तक लोग उन्हें इन प्राचीन संस्थाओं से मुक्ति का अवसर समझते थे। स्वयं गोदान में
भी यह बात आयी है कि सूदखोरों का जो पूरा राज है
गांव पर उसमें होरी को शहर से उम्मीद पैदा होती है। उसे
उम्मीद पैदा होती है कि जब वह अपना गन्ना मिल में जाकर बेचेगा तो वहाँ से हो सकता है
कि ये सूदखोर उससे पैसा न
वसूल पायें। इस तरह जो शहरी जीवन है, जो कारखाने का
जीवन है उससे यह आशा पैदा हो रही थी कि वह किसान को उसके शोषण से मुक्त करेगा और
आर्थिक शोषण भले करे लेकिन जो सामाजिक अवमानना होती है; जिसका अपना एक अर्थशास्त्र
है, कम से कम उससे मुक्ति प्राप्त होगी। लेकिन वहाँ पर क्या हाल होता है? वह प्रसंग
प्रेमचंद के गोदान के कुछ बहुत
संवेदनशील स्थानों में से एक है। आप देखेंगे कि वहाँ पर
गन्ना जब तौला जा रहा है, बिना एक पैसा लिए होरी लौटता है। धनिया
गुस्साती है लेकिन सोचती है कि जब सामने सूदखोर होगा तो कैसे किसान इनकार कर
सकेगा । वहाँ पर एक किसान मिलता है जो कहता है कि दांत में
पैसा दबाकर मैं बाहर निकल आया।
यानी उसे अपनी ही मेहनत की उपज से जो नकद हासिल हुआ है, उसे छुपाने के लिए
मुँह में रखना पड़ रहा है । आनंद उसे कहाँ प्राप्त होता है? वो जाकर उसी
पैसे की ताड़ी पीकर आता है। यह त्रासदी है
किसान जीवन की कि एक मौका जब मिला, जब उसे नकद प्राप्त
हो सकता है, तो नकद कभी प्राप्त
नहीं होना है । खेत की फसल खलिहान में ही तुल जाती है तो
यहाँ तो मुक्ति नहीं प्राप्त होनी है। हो
सकता है कि जहाँ पर नकद भुगतान हो इस गन्ने का, वहाँ से कुछ हासिल हो जाए। आज भी जो
गन्ना मिलें हैं वहाँ पर सूदखोरी का बहुत बड़ा
तंत्र काम करता है । हाल हाल तक की यह परिघटना थी कि किसानों को गन्ना बिकने से मिलने वाली पुर्जी को
सूदखोर ले लिया करते थे। कहने
का मतलब यह है कि उसकी मुक्ति
का जो एकमात्र रास्ता शहर के जरिये खुलता था, वह भी बंद है।
संपूर्ण भारतीय जनता का दरिद्रीकरण केवल पुरानी संस्थाएँ ही नहीं कर रही
हैं, यह काम शहर
भी कर रहा है।
उस दौर की एक अन्य संस्था औपनिवेशिक पुलिस है
। आज के दौर में जार्ज फ्लायड की हत्या के बाद दुनिया भर में पुलिस की उपयोगिता पर
सवाल खड़े हो रहे हैं । ऐसे में हमें सोचना चाहिए कि गोदान में जो
पुलिस है वह क्या करती है? जब गाँव में आती है तो पैसा लिए बगैर नहीं जायेगी। यह पुलिस
की संस्था है या पटवारी है, ये सब के सब मिलकर शिकार कर
रहे हैं। उसका वर्णन या उसका चित्र
प्रेमचंद को उपस्थित करना था अपने उपन्यासों के जरिए। इसीलिये उनके लगभग
सभी उपन्यासों में, और खासतौर पर गोदान में गांव और शहर दोनों मौजूद हैं। उन दोनों का आपसी
संपर्क इकहरा नहीं है।
प्रेमचंद जैसे कलाकार की साधना है कि उनका कोई
भी पात्र इकहरा नहीं है, कोई भी कथा इकहरी नहीं है
। इसी के मुताबिक गांव और शहर का संबंध भी इकहरा नहीं है; अभिजात स्तर पर, बड़े
लोगों के स्तर पर रायसाहब के जरिये वह कायम हुआ है। वह खन्ना की चीनी
मिल के जरिए कायम होता है। यह बड़े
लोगों के बीच का संपर्क है लेकिन शहर की एक दूसरी उपस्थिति भी है
गोदान में और वह यह कि जब गोबर
जाता है शहर
में, तो प्रेमचंद ने लिखा है कि वह जाकर के
सभाओं में भाषण वगैरह सुनने लगा था इसलिए उसकी बुद्धि खुल गई थी। इस तरह
यह जो शहर है वह श्रम की गरिमा को भी सामने लाने का काम करने लगा है तो ऐसी स्थिति
में शहर की यह दोहरी भूमिका है गोदान में जिसमें
जब गोबर लौट के आता है तो वह होली का आयोजन करता है । उस
होली में गांव के मनोरंजन और पूरे के
पूरे उपन्यास में मनोरंजन के दसियों तरह के चित्र उपस्थित हैं। उसके
एक-एक प्रसंग के बारे में बात करना बहुत मुश्किल है
लेकिन जो मनोरंजन है वह बहुत गहराई से मौजूद है । होली में जो मनोरंजन होता है उसे
एक तरह से उलट दिया है प्रेमचंद ने और वह पूरे के पूरे गांव के दोहरेपन, बड़े लोगों
के दोमुंहेपन को उजागर करने, उनकी खिल्ली उड़ाने, उनका प्रतिरोध करने के
एक रूप के बतौर इस उपन्यास में सामने आता है । यह सब गोबर के
कारण सामने आया है।
इसी तरह से मीनाक्षी समष्टिवादी
विचारों का प्रचार कर रही है । गोबर वहाँ रहता है तो उसे नये-नये विचारों की भनक
मिलने लगी है और यहाँ तक कि चीनी
मिल में हड़ताल हुई है। शहर की यह भी एक
नयी परिघटना है जिसको प्रेमचंद दर्ज करते हैं अपने इस उपन्यास
में। इसका
अनुभव उन्हें बम्बई में हुआ था। गोदान
लिखने से पहले वे बम्बई हो आये थे
या गोदान लिखने के दौरान ही बम्बई हो आये थे। वहाँ पर
उन्होंने जो फ़िल्म लिखी थी उसके बारे में सव्यसाची
भट्टाचार्य ने शोध करके लिखा है कि उस
फ़िल्म को सेंसर बोर्ड में बैठने वाले पूंजीपतियों ने
प्रतिबंधित करा दिया था क्योंकि
यह आशंका थी कि इससे मजदूरों के बीच विक्षोभ फैलेगा।
मज़दूरों के जीवन को प्रेमचंद बम्बई रखकर देख आये थे। शहर में मजदूर है उस मजदूर के
भीतर पैदा होने वाली यह नयी चेतना है। लेकिन उसमें
यह नई चेतना ही
नहीं मौजूद है, वह मजदूर ऐसा है जिसमें पिछड़ापन भी है क्योंकि
सूदखोरी भी करता है गोबर वहाँ पर। दोनों तरह का-शहर और ग्रामीण क्षेत्र का जो पूरा चित्र
उन्होंने उभारा है उस चित्र के जरिये शोषण का पूरा तंत्र
आपको दिखायी पड़ता है।
पूरे के पूरे उपन्यास में स्त्री की स्वाधीनता
और सामाजिक बदलाव का इतना गहरा दबाव है। सवाल है कि सामाजिक बदलाव का इतना
गहरा दबाव क्यों? इसका कुछ संकेत हमने देखा कि अंबेडकर द्वारा जो आंदोलन चलाया जा
रहा था उसके कारण भी सामाजिक परिवर्तन की चेतना पैदा हो रही थी । इसके
अतिरिक्त प्रेमचंद के ही समय में 1929 में महामंदी शुरू
हो गई थी। महामंदी के कारण किसान और मजदूर, दोनों की
अवस्था खराब होती है। इस बदहाल आर्थिक स्थिति के कारण और
तीसरी तरफ एक बात यह भी है कि रूस में
क्रांति हो चुकी है और उसकी खबरें भी पहुँचने लगी हैं भारत
में। इन
सबको मिलाकर बहुत गहरे सामाजिक बदलाव की चाहत का जन्म हुआ और उसकी निशानदेही इस उपन्यास के जरिये हो सकती है
। यही कारण है जिसके चलते स्त्री, दलित और किसान समुदाय बहुत जबर्दस्त
प्रतिरोध में खड़े दिखायी पड़ते हैं। यह उपन्यास उनके प्रतिरोध को
दर्ज करता है और बहुत ही प्रमाणिक तौर पर दर्ज करता है। लगभग
उसी स्तर पर वह शहर और गांव का संपर्क कायम करता
है जिस स्तर
पर उनके अपने
समय में वह संपर्क वास्तव में था। उसके
कारण जो बदलाव आ रहे थे उन बदलावों को भी
यह बहुत अच्छी तरह से दर्ज करता है।
जहाँ तक उनके मनोवैज्ञानिक चित्रण की
बात है तो बहुतेरे लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया है कि मनोभावों का जैसा घात-प्रतिघात
उनके यहाँ है उतना गहरा कहीं और नहीं दीख पड़ता। सिर्फ एक चीज़ पर ध्यान दीजिये कि दो
बच्चे मरते हैं, बहुत कम उम्र के बच्चे मरते हैं। सिलिया का
बच्चा मरता है और उधर झुनिया का बच्चा मरता है शहर में। इसके
बारे में प्रेमचंद ने क्या लिखा है? मरने के बाद वे दोनों
बालक उन स्त्रियों के मन में चले गये। पहले वे बाहर थे तो परेशान करते थे लेकिन
जब उनका शरीरांत हो गया तो वे उनके मन में आकर अवस्थित हो गये ।
यह ऐसी
चीज़ है जो यदि कोई बहुत गहराई से स्त्री मन को देखे तो
वही दर्ज कर सकता है। फिर एक
और घटना को याद करें । जब पहली बार मातादीन ने सिलिया के बालक
को गोद में उठाया था तो सिलिया यह खुशखबरी देने के लिए सोना के यहाँ चल
पड़ी नदी पार करके पैदल। सोना
के यहाँ जब वह पहुँचती है तो उसके पति के प्रति हल्का-सा
उसके मन में प्रणय भाव पैदा होता है। सोना को इस बात की आशंका हो जाती है तो वह
गड़ासा लेकर खड़ी हो जाती है। सिलिया की
हिम्मत नहीं पड़ सकी कि वह पानी पीने के लिए भी रुके और वह उसी तरह से
वापस आ जाती है। यह पूरा प्रकरण
ऐसा लगता है जैसे भावनाओं की रेलमपेल मची हुई है। संक्षेप में यह कि गोदान में जो मनोवैज्ञानिक
चित्रण है वह भी बहुत ही आला दर्जे का है और उसे भी
समझा जाना चाहिए।
स्त्री मनोविज्ञान की बहुत बारीक परख नजर आती है और उसकी आकांक्षाओं की भी बहुत बारीक परख मौजूद है। इसी तरह
का एक और प्रसंग याद कीजिये कि झुनिया जब
पहली बार होरी के घर पर आती है तो जिस तरह धनिया निकलती है पति से बोलने के लिए
गुस्सा करके और फिर वापस आने पर जिस तरह से
वह अपने ही पति को रोक लेती है कि कुछ कहना मत। कैसा
मनोभावों का ऊपर-नीचे होना वर्णित
है!
प्रेमचंद के मनोवैज्ञानिक चित्रण को भी बहुत प्रामाणिक रूप से
आप इस उपन्यास में देख सकते हैं।
इस उपन्यास के जरिये तत्कालीन भारत,
औपनिवेशिक भारत, उपनिवेशवाद विरोधी
आंदोलनों के भारत तथा उन आंदोलनों के अंतर्विरोधों और विसंगतियों को भी पढ़ा जा सकता है। बहुत
सारे लोगों का कहना है कि समाज की दृष्टि से, समाज को समझने की दृष्टि से गोदान को
पढ़ने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि उसके लिए तो समाजशास्त्र की भी कोई किताब पढ़ी जा
सकती है लेकिन यह सही बात नहीं है। हमारे देश में सामाजिक विज्ञानों का अब
भी यही हाल है कि वे देसी नहीं हो सके हैं। अब भी
भारतीय अनुभवों के आधार पर उनको समझने
में दिक्कत आती है। सारे के सारे सिद्धांत विदेशी अनुभवों से
पैदा हुए हैं। इसलिए अगर सूदखोरी की
संस्था के सामाजिक असर को समझने के लिहाज से प्रामाणिक पाठ के
रूप में गोदान का कोई समाज-वैज्ञानिक उपयोग किया जाये तो इसमें कोई
बुराई नहीं
है। इससे
समाजशास्त्र भी समृद्ध होगा और साहित्य को भी देखने
की कुछ नयी खिड़कियाँ खुलेंगीं।
प्रेमचंद अगर हमें कलाकार के रूप में
महत्वपूर्ण दिखाई पड़ते हैं तो साथ ही साथ अपने समय को प्रामाणिक रूप
से दर्ज करने के मामले में भी, मजदूर वर्ग के उदय
के सारे अंतर्विरोधों को, उस पूरी मानसिकता को जो वहाँ पर
चल रही है; पत्रकारिता को जो उस जमाने में चल रही है, उस जमाने
की विश्वविद्यालयी संस्थाओं यानी जमीन से कटे हुए बौद्धिकों की मनःस्थिति
को देखने के लिहाज से अगर उसका कोई समाज-वैज्ञानिक और ऐतिहासिक अध्ययन किया जाये तो यह
गलत नहीं होगा। इस नाते एक और पहलू पर ध्यान दिया जा
सकता है । बहुत सारे लोगों ने कहा है कि गोदान में प्रेम महत्वपूर्ण है। आप देखिएगा कि इसमें
कई प्रेम कथाएँ चल रही हैं। मालती और मेहता
की प्रेम कथा तो सब लोग जानते हैं लेकिन उसकी जो शुरुआत
है वही झुनिया और गोबर की प्रेम कथा से होती है। सिलिया
और मातादीन की भी प्रेम कथा है। अर्थात कई
प्रेम कथाएँ हैं इस पूरे उपन्यास
में लेकिन यह सब उस समय के सामाजिक बदलाव को दर्ज करता है और अगर इसे आप
केवल प्रेम
कथा के रूप में देखेंगे तो पत्ते गिनते रह जाएंगे लेकिन जंगल नहीं दिखाई
पड़ेगा। इस पूरे
के पूरे उपन्यास के जरिये प्रेमचंद ने साहित्यकार का जो दायित्व है या
साहित्य का जो मेयार तय किया है उसे अब भी छूना बाकी
है । उनके जन्म को 140 साल बीते हैं लेकिन
140 साल बाद भी हमें अगर उनकी चर्चा करनी पड़ रही है तो इसका कारण यही है कि
प्रेमचंद ने जिन समस्याओं का चित्रण किया, जिस तरह की
विषमता का चित्रण किया, शोषण के जिस तंत्र का चित्रण किया उसमें कोई बहुत
बुनियादी बदलाव नहीं आया है । उन्होंने
दबे-कुचले, सर्वाधिक दबे-कुचले लोगों की निगाह से इस तंत्र
को बेपर्द कर दिया है और इसलिए वह तंत्र जब तक कायम रहेगा तब तक उन्हें पढ़े जाने की आवश्यकता बनी रहेगी। उनके
उपन्यासों में न सिर्फ अंबेडकर की उपस्थिति है बल्कि गबन में
भगत सिंह की क्रांतिकारी परंपरा भी उपस्थित है। यह वही 1936 का समय है जब प्रगतिसील लेखक
संघ का जन्म होता है, वही समय है जब किसान सभा की भी स्थापना
हो रही थी। रामसेवक का जो विद्रोह है उसमें किसान
सभा के नेता की चेतना दिखायी पड़ती
है। यह जो प्रसार हो रहा
था चेतना का, उसके इर्द-गिर्द दबे-कुचले लोगों की जो
आकांक्षा पैदा हो रही
थी, उस निगाह से उन्होंने यथार्थ को देखा है, पूरे शोषण-तंत्र को देखा है और
जहाँ तक संभव हो सका है प्रतिरोध के भी बहुत ही गहन चित्र उकेरे हैं। इसलिए
आज भी हमको उनकी ज़रूरत पड़ती है। वह व्यवस्था
अब भी
कायम है, न सिर्फ कायम है बल्कि उसे और भी उन्नत स्तर पर ले जाया
गया है । किसानों की जो बर्बादी
उस समय तक नहीं हो सकी थी वह बर्बादी पिछले वर्षों में इतने
बड़े पैमाने पर हुई है कि भारत
किसान की आत्महत्या के मामलों में एक अनोखा देश बन गया है। वह किसान
जिसने कभी बहुत बुरी स्थिति में भी आत्महत्या नहीं की थी उन किसानों की आत्महत्याओं का तांता लग गया है। सिद्ध है कि जिस
समाज को, जिन समस्याओं को उन्होंने उस समय देखा था वे और भी प्रखर
रूप में होकर सामने आयी हैं। यहाँ तक
कि जो
प्रतिरोध के तत्व थे वे प्रतिरोध के तत्व भी और
ज्यादा मजबूत होकर सामने आये हैं । विडम्बना है कि उस समय
मताधिकार का विस्तार हो रहा था, अब धीरे-धीरे उसे सीमित करने की कोशिश की जा रही है। मतदाता
को अधिकारविहीन करने की कोशिश की जा रही है। ऐसी
स्थिति में न सिर्फ प्रेमचंद का उस समय के शोषण का
यथार्थ चित्रण, बल्कि उसके प्रतिकार का चित्रण भी हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण
चीज़ हो गयी है। उसको
पहचानने के लिए हमें प्रेमचंद के इस उपन्यास को देखना चाहिए । कारण कि उनके समूचे
साहित्य का प्रतिफल आपको गोदान के रूप में नजर आता है। गोदान में आपको उनकी अनेक
कहानियाँ दिखायी पड़ेंगी। मंगल
नाम का पात्र दूध का दाम में है, मंगल नाम का पात्र गोदान में भी
मौजूद है। पात्रों के बारे में अलग से
एक शोध किया जा
सकता है कि प्रेमचंद अपने पात्रों के नाम क्या रखते हैं। यह बहुत ही
महत्वपूर्ण बात है। असल में उपन्यास
विधा ने समाज में अपनी प्रामाणिकता पात्रों के नामकरण के
जरिये पायी है।
प्रेमचंद के यहाँ बाकायदा इसका समाजशास्त्र
है उसकी भी गहराई से जांच होनी चाहिए । गोदान उपन्यास में प्रतिरोध के गहरे तत्व हैं । उस समय जिस तरह का
शोषण हो रहा था उसकी समाप्ति नहीं हुई है । उस
शोषण के खिलाफ़ जिस तरह का प्रतिरोध था उसको नयी
ऊँचाई पर ले जाने के लिए हमें गोदान पुनः-पुनः पढ़ने के
लिए आमंत्रित करता है।
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