Wednesday, November 30, 2022

वर्मा जी की छोटी सी याद

 

          

                              

लाल बहादुर वर्मा के साथ घनिष्ठता न बन पाने का दुख बहुत होता है । इस दुख का कारण उनके प्रभूत ज्ञान से लाभ न ले पाना है । उनके साथ देखादेखी चौदह साल की उम्र में हुई थी । वह समय ऐसा होता भी नहीं कि आसपास बिखरे का मूल्य समझ आये । उम्र बढ़ने के साथ धीरे धीरे उनका महत्व स्पष्ट हुआ लेकिन जब तक संकोच टूटता तब तक उन्होंने संसार से विदा लेने की तैयारी कर ली । हमारे बीच साझा दोस्तों का जखीरा था लेकिन उनमें से भी किसी ने पहल नहीं की । यह भी सम्भव है कि उनकी प्राथमिकता और मेरे सरोकारों में  कोई संवाद ही न खुलने की जगह हो । उनके निधन के बाद ही इस क्षति पर सोचने का अवसर मिल सका ।

वह एकमात्र छोटी मुलाकात लमही में हुई थी जब बनारस आया ही था और प्रेमचंद की जन्म शताब्दी उनके ही गांव में मनायी गयी थी । उसी आयोजन में राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मंच का गठन हुआ था और उसके महासचिव की जिम्मेदारी वर्मा जी को मिली थी । उसमें ही पहली बार स्वामी अग्निवेश, शम्सुल इस्लाम, रामकुमार कृषक आदि को देखा था । आंध्र प्रदेश से ज्वालामुखी भी आये थे । उनकी प्रेमचंद के बारे में एक बात नहीं भूलती कि उन्होंने पहली बार घर के भीतर की समस्याओं की वजह के रूप में घर के बाहर कार्यरत शक्तियों को पहचाना था । अध्यक्ष रामनारायण शुक्ल को चुना गया था । वे बनारसी मिजाज के आदमी थे । उनके मुकाबले वर्मा जी अधिक आधुनिक प्रतीत हुए । बाद में उनकी आत्मकथा में परिधान के प्रति उनकी सजगता को जाना । उनकी राय से सहमत न हुआ । बहरहाल उनके नेतृत्व में कार्यरत गोरखपुर की टीम का जलवा था । होरी नामक नाटक हुआ जिसमें होरी की भूमिका में लेनिन नामक अभिनेता थे । शशि प्रकाश का तेजी से और लगातार बोलते रहना भाया था । बाद में भगत सिंह संबंधी एक सभा में मुहम्मदाबाद में उनका भाषण भी सुना । थोड़ा राजनीतिक रूप से सचेत हो रहा था और ऐसे में इतना सब पचाना सम्भव न हुआ लेकिन जाना कि उस पूरी टीम के प्राण वर्मा जी हैं । इससे युवकों को जोड़ लेने की उनकी खूबी का भी अंदाजा हुआ । वामपंथ की तीसरी धारा में छोटे छोटे अनेक गुट थे । जिस गुट से वे जुड़े थे उससे अलग गुट भाई अवधेश प्रधान का था । मैं भी भाई के साथ ही था लेकिन उस गुट के मंगल सिंह जैसे कुछ लोग आकर्षित करते थे । शशि प्रकाश से नजदीकी न बन सकी थी । आपसी बहसों में उनका तीखा तेवर खींचने की जगह दूर ले जाता था फिर भी उनके लिखे गीत हम सभी गाते थे ।

बाद में वर्मा जी के बारे में पता चला कि वे गोरखपुर विश्वविद्यालय छोड़कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ गये हैं । वहां कभी जन संस्कृति मंच की ओर से आयोजित एक गोष्ठी में वे भी वक्ता के बतौर बुलाये गये थे । सफारी सूट डाटे हुए थे । अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और फ़ासीवाद की गम्भीर आहट सुनी जा रही थी । इसी विषय पर गोष्ठी थी । याद है वर्मा जी ने जोर देकर कहा कि फ़ासीवाद के साथ समाजवाद का नारा भी जुड़ा रहता है । इस बात को कहते हुए वे बार बार पढ़े लिखे लोगों को संकेत समझना चाहिए जैसा कुछ दुहरा रहे थे । तब रामजी भाई से कहा कि कामू ने प्लेग के बारे में चिकित्सकों की नासमझी का संकेत किया है क्योंकि प्रत्येक बार वह अपने लक्षण बदल देता है । उन्होंने इस बात को मंच से बोला भी । मन में धारणा बनी कि वर्मा जी व्यवहार के मुकाबले किताब से अधिक शासित होते हैं और पढ़े लिखे होने की विशेषता के भी शिकार हैं । जाहिर है यह कोई बहुत अच्छी धारणा नहीं थी । शायद इन सब बातों ने उनके निकट नहीं जाने दिया ।

पूर्वोत्तर भारत में जाने के बाद उनसे जुड़ा एक और प्रसंग खुला । सुना कि पूर्वोत्तर भारत पर केंद्रित उनका उपन्यास ‘उत्तरपूर्व’ उनके मणिपुर प्रवास के अनुभवों पर आधारित है । सिलचर स्थित असम विश्वविद्यालय में शोध हेतु जब केंद्रीय विद्यालय में अध्यापनरत राकेश कुमार धर दुबे ने सम्पर्क किया तो पूर्वोत्तर भारत पर लिखे उपन्यास ही विषय के बतौर समझ आये । वर्मा जी के इस उपन्यास की जानकारी सजल नाग ने दी थी । यह उपन्यास उस इलाके पर लिखे अन्य उपन्यासों से अलग लगा । इसमें हिंदी क्षेत्र की श्रेष्ठता का भाव एकदम नहीं है । साथ ही पूर्वोत्तर की पूजा भी नहीं है । मणिपुरी समाज में व्याप्त धार्मिक भेदभाव सामाजिक अलगाव में बदल गया है इसे वर्मा जी ने निर्मम तरीके से बयान किया है । घाटी के मैतेई और पहाड़ के ईसाई युवाओं में मैत्री को सहज भाव से नहीं लिया जाता । बाद में कुछ और भी विभाजनों का पता लगा लेकिन अगर उस समाज की धोखा देने वाली ऊपरी एकता को आलोचनात्मक निगाह न मिली होती तो वे नजर नहीं आते । इसी में वर्मा जी ने मणिपुरी मुसलमानों का भी जिक्र किया है जिनकी बाबत विद्वानों के साथ ही सामान्य लोगों की बातचीत में शायद ही कुछ सुनायी पड़ता होगा । उनके इसी उपन्यास से पूर्वोत्तर में अध्यापकों के प्रति घनघोर सम्मान का भी पता चला जिसका अपवाद पूरे पांच साल में एकाध बार ही दिखा । इतिहास के साथी अध्यापक सजल नाग के एक लेख का हिंदी अनुवाद जब छपा तो वर्मा जी ने उन्हें पत्र लिखकर प्रशंसा भेजी । ज़ी टी वी में फ़िल्मी गीतों की एक संगीत प्रतियोगिता में सिलचर के एक गायक देबजीत ने पहला स्थान हासिल किया तो उस पूरी घटना पर लिखा लेख उन्होंने इतिहासबोध में खुशी से छापा था । उत्तर पूर्व में रहते हुए हिंदी क्षेत्र की पत्रिकाओं में प्रकाशन सौभाग्य की बात होती है ।

हम दोनों के बीच के एक सम्पर्क सूत्र संवाद प्रकाशन के संचालक आलोक श्रीवास्तव भी रहे । उनके सौजन्य से वर्मा जी की आत्मकथा पढ़ने को मिली तो उनके संघर्षों और रुचियों का विस्तार से पता चला । पहली ही मुलाकात में सांस्कृतिक मोर्चे पर उनकी सक्रियता का रहस्य सांस्कृतिक नवाचार पर उनके कुछ अतिरिक्त विश्वास में महसूस हुआ । उनका इस अखंड विश्वास और तज्जनित सक्रियता की आज बहुत आवश्यकता है ।         

                             

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