हिंदी की दुनिया में मैनेजर पांडे के
योगदान को आलोचना की हैसियत बढ़ाने के लिए बहुत समय तक याद किया जायेगा । इस बात का
मतलब साहित्य के भीतर आलोचना की विधा से ही नहीं है । यदि यह विधा मात्र का सवाल
होता तो प्रेमचंद को साहित्य की सबसे बेहतरीन परिभाषा जीवन की आलोचना नहीं प्रतीत
होती । जिस तरह लोकतंत्र केवल ऊपर की संस्थाओं में जीवित नहीं रह सकता यदि उसे
नीचे से जनता की सक्रियता का रस न मिले उसी तरह विधा के बतौर भी आलोचना को फलने
फूलने के लिए खास माहौल के खादपानी की जरूरत होती है । आलोचना के जीवन के लिए समाज
में बदलाव की आकांक्षा के साथ ही उसके लिए सक्रिय ताकतों की मौजूदगी आवश्यक है ।
आश्चर्य नहीं कि हिंदी में आलोचना के सर्वोत्तम क्षण स्वाधीनता आंदोलन के समय के
छायावाद और प्रगतिशील साहित्यांदोलनों का दौर रहा है । इस सामान्य तथ्य की
स्वीकृति भी इतनी आसान नहीं रही । इसकी मान्यता के लिए कठिन और जटिल वैचारिक
संघर्ष करना पड़ता रहा है । मैनेजर पांडे इस संघर्ष के सहभागी और अगुआ रहे । उनके
समूचे लेखन को समझने के लिए इसके बिना अन्य कोई राह सही न होगी ।
इसी प्रसंग में ध्यान देना होगा कि
नब्बे दशक में मजदूर और किसान ही नहीं, सामान्य आंदोलनों में भी उतार आना शुरू हुआ
। निजीकरण की नैतिकता ने धीरे धीरे सांस्थानिक ढांचों में भी जगह बनानी शुरू की ।
निजी संस्थानों के कर्मचारी अपने संस्थान के विरोध में सार्वजनिक मंचों पर नहीं
बोलते, ऐसा करने पर उनके विरुद्ध कार्यवाही हो सकती है । इसीलिए सरकारी नीतियों की
आलोचना का स्रोत सार्वजनिक संस्थान हुआ करते थे । वहां आलोचना का अधिकार
कर्मचारियों ने लड़कर हासिल किया था । उनमें भी निजी संस्थानों के नियम लागू करने
शुरू किये गये और इनके लिए सरकारी सेवा के नियमों का सहारा लिया गया । इस व्यापक
माहौल का असर शिक्षण संस्थानों पर भी पड़ा और अध्ययन हेतु आवश्यक आलोचनात्मक विवेक
को नुकसानदेह बताया जाने लगा । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि इन संस्थानों में
आलोचनात्मक माहौल और विवेक की गारंटी विद्यार्थियों और अध्यापकों की यूनियनें करती
थीं । इन्हें बदनाम किया जाने लगा और छात्र संघों के नियंत्रण की परियोजना के तहत
लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों का नाम लिया जाने लगा । विद्यार्थियों के संगठनों की
अप्रासंगिकता के साथ अध्यापक संगठनों की धार भी मंद पड़ती गयी । आदर्श विद्यार्थी
उसे बताया जाने लगा जो देश और समाज की चिंता करने की जगह मोटी तनख्वाह के पीछे जान
लगा दे । यह भी कहा गया कि युवा को सपनों और आदर्श के मुकाबले व्यवस्था की सेवा को
अपना लक्ष्य बनाना चाहिए । इस माहौल ने पूरे समाज में आलोचनात्मकता को बुरी बात
समझाना शुरू किया । स्वाभाविक है कि इस वातावरण ने आलोचना को नुकसान पहुंचाया ।
मैनेजर पांडे ने अपने एक लेख में आलोचना के वैश्विक क्षरण पर चिंता भी जाहिर की ।
इस अर्थ में उन्होंने हिंदी आलोचना
की क्लासिक परम्परा को फिर से जागृत करने की भरपूर कोशिश की । इस काम में उन्हें
साहित्य के बाहर के विद्वानों का भी सजग साथ मिला । साहित्येतर अनुशासनों के इन
विद्वानों में विशेषकर रणधीर सिंह और एजाज़ अहमद का नाम लिया जाना चाहिए । इन सबकी
संगत नब्बे के दशक में जमी जब सोवियत संघ का पतन हो चुका था । यही समय है जब
मैनेजर पांडे से निजी मुलाकात हुई । जनेवि में प्रवेश के लिए अभ्यर्थी था ।
पेरियार छात्रावास में रामतीर्थ पटेल के पास रुका था । वे भी मैनेजर पांडे के ही
निर्देशन में शोधरत थे । काहिविवि के अध्यापकों के मुकाबले जनेवि के अध्यापकों में
विद्यार्थियों से औपचारिक संबंध रखने का चलन कुछ अधिक महसूस हुआ । इसके चलते
नजदीकी अधिक कभी नहीं बनी लेकिन दूर से ही उनके लिखे को पढ़ने और उस पर आपस में बहस
करने और सराहने का स्वभाव बना लिया ।
उनकी किताब ‘साहित्य के समाजशास्त्र
की भूमिका’ का प्रकाशन हरियाणा ग्रंथ अकादमी से हुआ था । समीक्षा के लिए उसे जिन
पत्रिकाओं को भेजा जाना था उनकी सूची बनाने में मदद की । साथ में प्रदीप तिवारी भी
थे । मेरे लिए विद्यार्थी राजनीति की सक्रियता अधिक प्राथमिक होती जा रही थी । बाद
में कभी विभाग संबंधी एक मामले में उन्होंने परामर्श किया तो मैंने परस्पर
अहस्तक्षेप का तरीका सुझाया । याद करता हूं कि उन्होंने सच में कभी मेरी राजनीतिक
सक्रियता की बाबत कुछ नहीं कहा । अन्य लोगों के संस्मरणों से भी अंदाजा मिला कि
नामवर जी के मुकाबले पांडे जी कुछ अधिक उदार हैं । उनकी इस उदारता का लाभ बहुतों
ने उठाया और खुद उन्होंने भी किन्हीं वजहों से यह लाभ उठाने दिया ।
इस किताब के प्रकाशन से पहले वे
‘शब्द और कर्म’ के अतिरिक्त ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’ का प्रकाशन करवा चुके थे ।
इन किताबों से उनकी छवि साहित्य के मामले में खास नजरिये के पक्ष में गम्भीर बहस
संचालित करने की बनी थी । इस बहस में उन्हें हिंदी के सामान्य पाठकों तक
सैद्धांतिक सवालों को ले जाने की चुनौती का सामना करना पड़ता था । भाषा के मामले
में उनका यह संघर्ष जीवन भर चला और आखिरकार ‘मुगल बादशाहों की कविता’ तक आते आते
उन्होंने संप्रेषणीय भाषा अर्जित कर ली । कक्षाओं में भी उन्हें जटिल धारणाओं को
बोधगम्य बनाने के लिए जूझते देखा जाता था । अध्यापन उनके लिए लेखन से पहले का
अभ्यास बन जाता था । इस क्रम में हम जैसे विद्यार्थी उन सिद्धांतकारों की बातों से
मोटे तौर पर परिचित हो जाते थे जो बौद्धिक दुनिया में बहस के केंद्र में होते थे ।
इससे हिंदी साहित्य के ऐसे
विद्यार्थियों का समूह बन गया जो साहित्य के साथ ही समाज विज्ञान की धारणाओं पर भी
अधिकार के साथ बातचीत कर सकते थे । जनेवि के हिंदी विद्यार्थियों की इस योग्यता को
हिंदी साहित्य के पारम्परिक विद्यार्थी की छवि से अलग होने का नुकसान भी उठाना
पड़ता था । इस स्थिति के चलते विद्यार्थी और अध्यापक में ऐसा रिश्ता बन जाता था जो
अनौपचारिक न होने पर भी वैचारिक एकता का भाव लिये होता था । वहां छात्र संघ के
चुनावों में प्रत्याशियों को बहुमुखी जानकारी से लैस रहना पड़ता था । उनकी इस
तैयारी ने ही उन्हें भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बनाये रखा । बहरहाल जब मैं
प्रत्याशी था तो एक सवाल के उत्तर में हास्य व्यंग्य का सहारा लेना पड़ा था । पांडे
जी भी व्याख्यान और लेखन में इस औजार का अक्सर इस्तेमाल करते थे इसलिए उनको यह युक्ति भा गयी । बाद में उन्होंने निजी बातचीत में इसका जिक्र किया ।
हास्य और व्यंग्य के सहारे वे विरोधी
विचारों और उनके प्रवक्ताओं को अक्सर निरस्त्र कर देते थे । जनेवि के
विद्यार्थियों की तरह उसके अध्यापकों को भी छिछलेपन के साथ युद्धरत रहना पड़ता था ।
इस लड़ाई में वे सब लगातार बहस और जानकारी का इतना ऊंचा मानक रखते थे कि प्रतिपक्षी
के लिए हल्की बात करना मुश्किल हो जाता था । जनेवि के हिंदी अध्यापकों में पांडे जी के अतिरिक्त नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के पूर्वी या उससे लगे बिहार से थे । उस समूचे इलाके में इन अध्यापकों के कारण हिंदी के विद्यार्थियों के बीच साहित्य का जनपक्षी स्वरूप सहज बोध का अंग बन गया था । उस अत्यंत गरीब किसानी इलाके के उत्सुक विद्यार्थी जनेवि की ओर बौद्धिक उच्चता की प्रेरणा के लिए देखते थे । ये तीनों ही पारम्परिक अध्यापकों के मुकाबले विद्रोही विद्यार्थियों में अधिक लोकप्रिय थे । हिंदी साहित्य की प्रगतिशील समझ को स्थापित करने के लिए इनके संघर्ष को याद करना आज बहुत जरूरी है । इसका महत्व इस कारण भी अधिक है कि हिंदी भाषी क्षेत्र में वाम आंदोलन की अनुपस्थिति के बावजूद बौद्धिक हलकों में उसे मान्यता दिलाने में इस अथक संघर्ष का योगदान अविस्मरणीय है ।
ये अध्यापक हम आकांक्षी विद्यार्थियों की अनेक ऐसी आकांक्षाओं का साकार रूप थे जो आदर्शवादी युवकों के मन में आसपास के वातावरण से पैदा हो जाती थीं । उस आदर्शवाद के चलते हमारे मन में चारों ओर फैले सामंती यथार्थ के प्रति गुस्सा जन्म लेता था । इस यथार्थ से दूर भागने के क्रम में युवा विद्यार्थियों का समूह दूर पास की तमाम शिक्षण संस्थाओं की ओर भागता था । इसी तरह ये अध्यापक भी जनेवि में एकत्र हो गये थे । अकारण नहीं कि काहिविवि या इलाहाबाद विश्विविद्यालय से ढेर सारे विद्यार्थी जनेवि में दाखिला लेते थे । इस आकर्षण की बड़ी वजह अध्यापकों का यह समूह भी था ।
नब्बे के बाद मैनेजर पांडे की सक्रियता का पहलू तत्कालीन वातावरण से अधिकाधिक निर्धारित होता गया । मार्क्सवाद की समाप्ति के शोर का मुकाबला करते हुए उन्होंने मार्क्स के और उन पर लिखे लेखों का अनुवाद करके ‘संकट के बावजूद’ शीर्षक संग्रह तैयार किया । एक नितांत निजी हादसे से उबरने का कारण भी यह पुस्तक बनी । बाद में भारत के स्वाधीनता आंदोलन के दौरान प्रकाशित दुर्लभ किताबों के नये संस्करण उनकी भूमिका के साथ प्रकाशित हुए । इनमें देउस्कर और देव नारायण द्विवेदी की‘देश की बात’विशेष रूप से महत्व की साबित हुईं । वैश्वीकरण के साथ पुन:उपनिवेशीकरण का जो दौर चला उसके लिहाज से ये किताबें बेहद महत्वपूर्ण थीं ।
दलित और स्त्री साहित्य के आगमन के बाद हिंदी के प्रगतिशील आलोचकों में पांडे जी ने सबसे पहले उनका स्वागत किया । इस लिहाज से पुराने साहित्य को फिर से प्रासंगिक बनाते हुए उन्होंने महादेवी वर्मा की किताब‘श्रृंखला की कड़ियां’पर लिखा और अश्वघोष की वज्रसूची पर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया । दलित और स्त्री लेखन का यदि कोई संवाद प्रगतिशील आलोचना से बनता है तो उसका एक कारण पांडे जी की सक्रियता का यह पहलू भी है । उन्हें जीवन भर ढेर सारी विपरीत परिस्थितियों से जूझना पड़ा लेकिन इस संघर्ष में उन्होंने कभी हथियार नहीं डाले । इसी क्रम में उन्होंने वर्तमान और अतीत के साहित्यिक लेखन का नया पाठ किया और हिंदी के व्यापक पाठक समुदाय को भी उससे परिचित कराया । इस काम के लिए लेखन, भाषण और अध्यापन का कुशल उपयोग उन्होंने किया ।
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