Saturday, September 24, 2022

अपने समय से कुछ सवाल

 शांति और अहिंसा का सवाल आधुनिक समय में बेहद महत्व का बन गया । इसका एक कारण आधुनिक समय की जीवन पद्धति में समायी हिंसा था । इसी समय राज्य नामक संस्था का नागरिकों के जीवन में बड़े पैमाने पर प्रवेश हुआ । सामाजिक जीवन में उसकी बढ़ती दखलंदाजी ने व्यापक सामाजिक प्रतिरोध को जन्म दिया । खासकर इस वर्तमान काल में हिंसा ने पूरी तरह से नये आयाम ग्रहण किये । हमारे इस समय की क्रूरता के सामने पशु भी लज्जित हो जायेंगे । वस्तुत: जिन कामों को हम पाशविक कहते हैं वे काम पशु कभी नहीं कर सकते । मसलन बलात्कार जैसे कुकर्म की पशु जगत में कोई धारणा ही नहीं होती । हत्या और युद्ध पहले भी होते थे लेकिन भ्रूण हत्या का व्यापार और परमाणु बम जैसे संहारक हथियार हमारे युग के खास आविष्कार हैं । इस सभ्य क्रूरता के लैंगिक पहलू भी खासे प्रत्यक्ष हैं । सभ्यता के नाम पर होनेवाली इस व्यवस्थित हिंसा के अपराध बोध से बचने के लिए बर्बरता को अक्सर जंगल या पिछड़ेपन से जोड़ दिया जाता है लेकिन ध्यान देकर देखें तो बर्बरता का सभ्यता से विरोध उतना नहीं मिलेगा जितना उनमें आपसी मेल नजर आयेगा । सोशल मीडिया से रंच मात्र भी परिचित व्यक्ति जानता है कि क्रूर हिंसा का प्रसार हत्या तक ही नहीं रह गया है । सबसे दुखद यह है कि फिलहाल क्रूरता के सभी रूपों का एक दर्शक बाजार भी बन गया है । लिंचिंग से लेकर छेड़खानी तक के वीडियो लाखों की संख्या में देखे जा रहे हैं । यह तो वर्तमान का एक पहलू है । उसका दूसरा पहलू इन सबके प्रतिकार की कोशिश है । प्रतिकार के इस प्रयास में अहिंसा के विभिन्न रूपों का निरंतर प्रसार हो रहा है और उनको व्यापक बौद्धिक और सामाजिक मान्यता भी मिल रही है । प्रतिरोध का एक कारगर तरीका शासक की हंसी उड़ाना है । तमाम सृजनात्मक कला रूपों के मूल में प्रतिकार का यही रूप रहा है । इसी हास्य व्यंग्य के पूरी तरह नये रूप स्टैंड अप कामेडी की लोकप्रियता को इस मान्यता का बड़ा सबूत समझा जाना चाहिए । सार्वजनिक स्थानों को नियंत्रित करने और उस नियंत्रण का विरोध करने का संघर्ष बहुतेरा कला के क्षेत्र में घटित होता रहा है । पोस्टर लगाना, दीवार लेखन, जुलूस निकालना, सभा, धरना, नुक्कड़ नाटक और प्रदर्शन जैसे आंदोलनात्मक रूप भी इसी कशमकश से पैदा हुए हैं ।                                           

अहिंसा का ही एक पहलू शांति अध्ययन है । इसके महत्व के ही चलते ज्ञानानुशासन के बतौर इसकी प्रतिष्ठा कायम है । इससे परिचय हेतु 2004 में सेज से रणबीर समद्दर के संपादन में ‘पीस स्टडीज: ऐन इंट्रोडक्शन टु द कनसेप्ट, स्कोप, ऐंड थीम्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादक ने इस किताब को एडवर्ड सईद की याद को समर्पित किया है । इससे ही किताब की समसामयिकता स्पष्ट है । भूमिका के अतिरिक्त किताब के तीन हिस्सों में उन्नीस लेख संकलित हैं । पहले हिस्से के लेखों में शांति अध्ययन की व्याख्या का प्रयास है । दूसरे हिस्से में सरहद, युद्ध और जनता के रिश्तों पर ठीक से विचार किया गया है । तीसरे हिस्से के लेख टकराव, संवाद और शांति की प्रक्रिया पर विचार करते हैं । संपादक के अनुसार शांति का सवाल आज सुरक्षा तक ही सीमित नहीं रह सकता । आतंकवाद के विरुद्ध सुरक्षा के नाम पर अमेरिका में आज दमनाकारी कानून, हमला, लूट, इजारेदारी, संसाधनों पर कब्जे, आप्रवास पर रोक और नस्लवाद को भी जायज ठहराया जा रहा है । हिंसा का यह प्रसार सचमुच विस्मयकारी है । सुरक्षा को सबसे बड़ा सरोकार बनाकर इन हिंसक कदमों को ही शांति का उपाय बताया जा रहा है । बहुत समय से टकरावों के शमन का भी एक शास्त्र तैयार किया गया है । समद्दर को उसकी सफलता में ही संदेह है । उनका कहना है कि उसमें लोकतंत्र और न्याय को शांति से अलगा दिया जाता है । साथ ही औपनिवेशिक तथा उत्तर औपनिवेशिक यथार्थ से आंख मूंद ली जाती है । न्याय के साथ शांति का सवाल इस विद्या के जानकारों की कार्यसूची में नहीं महसूस होता । ऐसे में किताब ने शांति के सवाल को पारम्परिक तौर पर स्थापित राजनीतिक कूटनीतिक ढांचे में देखने की जगह अहिंसा की नजर से देखा है । लोकतंत्र, न्याय और मानवाधिकारों के सवालों को भी इसमें शामिल माना गया है । लोकतंत्र के सवाल पर कुछ कहना जरूरी है । पिछले दिनों के अधिकांश युद्ध अमेरिका ने लोकतंत्र के प्रसार के नाम पर लड़े । कारण कि पश्चिमी लोकतंत्र को शांति की स्थापना का मददगार समझा गया । ऐसा कहने वाले भूल गये कि इसी के तहत उपनिवेश बनाये गये और उनमें जनसंहार रचे गये । समद्दर इसीलिए शांति अध्ययन को बुनियादी रूप से आलोचनात्मक बनाये रखना चाहते हैं ।       

2015 में लेक्सिंगटन बुक्स से डोमेनिको लोसुर्दो की इतालवी किताब का अंग्रेजी अनुवादनान-वायलेन्स: ए हिस्ट्री बीयांड द मिथका प्रकाशन हुआ । अनुवाद ग्रेगोरी इलियट ने किया है । जिस तरह मार्क्सवादी राजनीतिक धारा को हिंसा के साथ जोड़कर शांति आंदोलन से उसे काट दिया जाता है और अहिंसा को केवल गांधी और दलाई लामा तक सीमित कर दिया जाता है उसमें इस किताब का महत्व यह है कि इसमें अहिंसक चिंतन को भी वाम से संवाद में साबित किया गया है । लेखक ने किताब की शुरुआत जर्मनी में प्रथम विश्वयुद्ध के समय व्याप्त उत्साह के साथ की है । उस समय बौद्धिकों ने इसे व्यक्ति के अहं के विसर्जन का अवसर माना था । हथियार और प्राणोत्सर्ग को कुछ हद तक आध्यात्मिक अनुभव के रूप में गौरवान्वित किया गया । लोभ लाभ और भौतिक सुविधाओं में फंसे मनुष्य की मुक्ति के बतौर इसे देखा गया । युद्धक्षेत्र में गये युवा सैनिक लौटने पर सहसा परिपक्व व्यक्ति की तरह आचरण करने लगते थे । इटली के दार्शनिक क्रोचे ने भी इस व्यापक बदलाव को महत्वपूर्ण बताया था । इसके बीस साल बाद ही उसी जर्मनी में हिटलर की जीतों से भी कोई उत्साह नजर नहीं आया । 1914 के उस जादुई माहौल को फिर दुहराया नहीं जा सका । सामूहिक तौर पर युद्ध से लोगों का जी उचाट हो गया था । उसे उत्सव या आध्यात्मिक अनुभव मानने को कोई राजी नहीं था । युद्ध के भयावह अनुभव सबको प्रत्यक्ष नजर आ रहे थे । अहिंसा के प्रति लगाव को इन्हीं अनुभवों में अवस्थित करने के पक्ष में लेखक हैं ।                 

2020 में ब्लूम्सबरी पब्लिशिंग से रटजर ब्रेगमैन की किताब ‘ह्यूमन काइंड: ए होपफ़ुल हिस्ट्री’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत द्वितीय विश्वयुद्ध से ठीक पहले लंदन को उत्पन्न खतरे से होती है । चर्चिल का कहना था कि लंदन उस गाय की तरह हो गया है जिस पर हिंस्र भक्षकों की निगाह लगी हुई है । उनका इशारा हिटलर की ओर था । उस समय लोगों में जिस तरह का भय पैदा होने का कयास था उसे समझने के लिए लेखक ने गुस्ताव ले बों की किताब ‘साइकोलाजी आफ़ मासेज’ पढ़ने की सलाह दी है । किताब में संकट के समय लोगों के उन्मादी आचरण का संदेह जताया गया था और उनके भीतर की पशुता के प्रकट होने की आशंका जाहिर की गयी थी । इसे हिटलर ने पढ़ा था इसीलिए उसने प्रतिरोध की कमर तोड़ देने के लिए निर्मम हवाई हमलों का आदेश दिया था । अंग्रेज सरकार ने जनता को बचाने के लिए भूमिगत ठिकाने बनाने के बारे में पहले सोचा लेकिन फिर अफरातफरी फैलने की आशंका के चलते इसे त्याग दिया । आखिरकार 7 सितम्बर 1940 को हमले शुरू हुए । उसे लंदन के इतिहास में काला शनिवार कहा गया । अगले नौ महीनों में लंदन पर अस्सी हजार बम गिराये गये । इन हमलों में लाखों इमारतों को हुए नुकसान के अतिरिक्त चालीस हजार लोगों की जान गयी । उस माहौल में लोगों के आचरण की जानकारी के लिए लेखक ने कुछ तत्कालीन प्रत्यक्षदर्शियों के बयान दर्ज किये हैं । उनके मुताबिक लोग इन हमलों के इस कदर अभ्यस्त हो गये थे कि बम गिरने के कुछ देर बाद ही सामान्य हलचल शुरू हो जाती थी ।     

हमारे इस समय ने अहिंसा के सवाल को बहुत ठोस बना दिया है । यह सवाल अमूर्त तो कभी था नहीं लेकिन बहुधा इसकी प्रासंगिकता उतनी स्पष्ट नहीं रही । फिलहाल दुनिया से लेकर देश तक अहिंसा का सवाल खासा वैचारिक हो गया है । हम सभी जानते हैं कि बड़े पैमाने पर हिंसक हथियारों के उत्पादन के साथ ही आधुनिक संहारक युद्ध की सामाजिक और मानसिक स्वीकृति के लिए बचपन को भी इस खेल का शिकार बनाया जा रहा है । हिंसा व्यक्ति के भीतर अवस्थित मनोदशा नहीं रही बल्कि उसका बाकायदे विकसित अर्थतंत्र बन गया है । शासन की ओर से इसे मनुष्य का सहज स्वभाव बताने और बनाने की संगठित कोशिशों को पहचानना मुश्किल नहीं है । विचारों की इसी उथल पुथल के बीच हिंसक स्वार्थों के प्रतिरोध से अहिंसक समाज का विकास सम्भव है ।

हमारे वर्तमान समय के विद्रूप को हिंसा की प्रत्यक्ष और परोक्ष व्यवस्थित उपस्थिति से पहचाना जा सकता है । आपस में जुड़े रहने के लिए इस समय जो उन्नत तकनीकी सुविधा उपलब्ध हुई है उसका इस्तेमाल बर्बर हिंसा के प्रचार प्रसार में हो रहा है । क्रूरता के सचेतन सामान्यीकरण की मानो मुहिम ही चल पड़ी है । सच तो इस समय सबसे बदनाम शब्द है । उसकी पड़ताल बाकायदे असम्भव बना दी गयी है । समाज में व्याप्त हिंसा की ढेर सारी घटनाओं में रहस्य पर से परदा उठना बेहद मुश्किल हो गया है । हालिया महामारी से होने वाली मौतों के प्रसंग में सच का शायद कभी पता नहीं चलेगा । अर्थतंत्र तो वैसे भी भारी रहस्य है, राजनीति में भी उसका प्राधान्य कोई दबी छुपी बात नहीं रह गयी । सूचना के अधिकार को लागू न होने देने के लिए तथ्य जाहिर न करने की सरकारी संस्कृति को कानूनी जामा पहना दिया गया । झूठ कभी इतना लिर्लज्ज और अहंकारी नहीं हुआ था । कानों सुनी के मुकाबले आंखों देखी पर भरोसा किया जाता था लेकिन तकनीक ने उसमें भी तोड़ मरोड़ की पर्याप्त गुंजाइश पैदा कर दी है ।

इस हिंसक समय की शुरुआत दुनिया के अन्य देशों में सत्तर के दशक में हो चुकी थी । हमारे देश में इसकी शुरुआत लगभग तीस साल पहले हुई थी । इन तीस सालों में एक समूची पीढ़ी पैदा होकर जवान हो चुकी है । उसने जो समय देखा है उसे ही सार्वकालिक सच मानती है । उसे मालूम नहीं कि पूंजीवाद के भीतर सार्वजनिक कल्याण की बात होती थी, सादगी को सम्मान मिलता था और सार्वजनिक जीवन में एक स्तर की नैतिकता बरती जाती थी । आज इन सबको उलट दिया गया है । जीवन से सुरक्षा और स्थायित्व लुप्त हो गये हैं । सेहत और शिक्षा को मुनाफ़े का व्यवसाय बनाया जा रहा है । हाल की कोरोना महामारी से अधिक शायद ही कोई और चीज वर्तमान पूंजीवाद के इस बर्बर और दुर्दान्त लोभ को उजागर कर पाती !

इस विपरीत समय में भी सदा की तरह मनुष्य ने सपना देखना नहीं छोड़ा है । संकटों का मुकाबला करते हुए उसने सपनों को हकीकत में बदलने के लिए प्रतिरोध की लौ जलाये रखी । अन्याय से जूझते मानव समुदाय ने नये विचारों को मजबूत पांव दिये । निराशा के गहन अंधकार में इन विचारों को पहचानना सबसे मुश्किल होता है क्योंकि उनकी मौजूदगी से भी इनकार किया जाता है । कहने की जरूरत नहीं कि किसी भी व्यवस्था को कायम रखने के लिए उसमें बदलाव की सम्भावना को खारिज किया जाता है । इसके लिए उसे स्वाभाविक बताया जाता है लेकिन उसकी अस्वाभाविकता उसे बनाये रखने की भारी कोशिश से प्रकट हो जाती है । फिर भी उसका मुकाबला करना बदलाव के लिए जरूरी होता है ।      

बदलाव के क्रम में जो नया प्रकट होता है वह हमेशा पुराने के सम्पर्क में रहता है । उसका जन्म भी पुराने के भीतर से ही होता है इसीलिए नये पर पुराने की छाया सदैव बनी रहती है । इस समय के दमन उत्पीड़न का विरोध करने वाले तमाम नये विचारों पर कुछेक पुराने प्रतिरोधी विचारों की छाप मौजूद है । इसके बावजूद मानना होगा कि नये विचारों का संदर्भ आखिरकार नया समय ही होता है । नयी समस्याओं को समझने के क्रम में उनका उदय होता है । इसी को इतिहास कहते हैं जिसका अंत फ़ुकुयामा की घोषणाओं के बाद भी नहीं हुआ । नये सपनों को सैद्धांतिक आधार देनेवाले ये नये विचार नयी शब्दावली को भी जन्म देते हैं । उस शब्दावली को कभी कभी नारा कह दिया जाता है लेकिन असलियत में वह समय की जटिलता को बोधगम्य तरीके से पेश करने के काम आती है ।

बदलाव के सपने समाज की आकांक्षा से ही पैदा होते हैं । यह आकांक्षा विभिन्न समूहों को और उनके उनके सदस्यों को आपस में जोड़कर रखती है । इन्हीं आकांक्षाओं को आवाज देने का काम विचारकों का होता है । हमारे समय के विचारकों ने पुराने विचारों को भी नये वस्त्र पहनाये हैं । कभी ये वस्त्र थोड़ा बेढंगे होते हैं लेकिन प्रयास करने से उनको सही नाप भी मिल जाती है । अहिंसा का विचार काफी पुराना है । उसे नये समय में नया कलेवर दिया जा रहा है । उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित करने के लिए उसके स्वरूप को नये सिरे से जांचा परखा जा रहा है ।

हमारा दौर बेहतर समाज और मनुष्य बनाने के लक्ष्य को हासिल करने की लम्बी लड़ाई का एक छोटा सा चरण ही है । इस तात्कालिकता के बावजूद इस दौर ने बहुतेरे नये मानक स्थापित किये । उसने प्रचंड दमन के सम्मुख गोलबंदी के अत्यंत रचनात्मक तौर तरीकों को जन्म दिया है । इस दुष्काल में जीते मरते हम सबको शामिल रहना है । शुक्र है कि वर्तमान महामारी में इतने बड़े पैमाने पर जान गंवाने के बावजूद सामान्य लोगों ने हिम्मत नहीं हारी बल्कि विषमता के विरुद्ध तथा सेहत और शिक्षा को सार्वजनिक रूप से सुलभ बनाने के सवाल पर छोटी छोटी ही सही, लड़ाइयां चलायीं । इन्हीं के बल पर उन्होंने पागल हुक्मरानों के सिरमौर अमेरिकी राष्ट्रपति के अहंकार को भी धूल में मिला दिया ।

सामाजिक जीवन में अन्याय के विरुद्ध संघर्षरत आंदोलनकारी ताकतें ही हमारे देश और समाज का आगामी ढांचा तय करेंगी । इस समय तो हम उन्हें टूलकिट ही उपलब्ध करा सकते हैं । राजनीति को आज भले ही मुट्ठी भर लोगों का विशेषाधिकार बताया जा रहा हो लेकिन महज कुछ ही समय पहले तक उसे देश का भविष्य निर्धारित करने का उपकरण समझकर आम लोग भी उसमें भागीदारी करना अपना अधिकार और कर्तव्य समझते थे । लोकतंत्र इसी अधिकार का दूसरा नाम है । समाज के पास हमेशा राजसत्ता को काबू में रखने का अधिकार होना ही चाहिए ।

2021 में द न्यू प्रेस से माइक कोंकज़ाल की किताब ‘फ़्रीडम फ़्राम द मार्केट: अमेरिका’ज फ़ाइट टु लिबरेट इटसेल्फ़ फ़्राम द ग्रिप आफ़ द इनविजिबुल हैन्ड’ का प्रकाशन हुआ । घोषित रूप से किताब अमेरिका के बारे में है लेकिन कौन नहीं जानता कि नये समय की विशेषता ही बाजार को समाज का समतुल्य साबित करना है । एक देश का विश्लेषण होने के बावजूद पूरी दुनिया में प्रभावी विचार का यह प्रतिकार ध्यान देने लायक है । शुरू में ही लेखक बताते हैं कि विगत अनेक दशकों से बाजार की मुक्ति को ही मुक्ति का पर्याय बताया जा रहा है । बाजार से वस्तुओं और सेवाओं की खरीदारी के जरिये हम सब समाज के सदस्य के बतौर अपनी आजादी को व्यक्त कर पाते हैं । यह संकीर्ण और सीमित विचार समूचे वातावरण में व्याप्त हो गया है । लेकिन लेखक को यह भी लगता है कि यह बाजारोन्मुख विश्वदृष्टि फिलहाल संकट में है । राजनीतिक अस्थिरता, असुरक्षा और महामारी के चलते लोग अब बाजार के बाहर की दुनिया भी देखना चाहते हैं । उनकी आकांक्षाओं का असर राजनीति पर पड़ने लगा है । युवा मतदाता सरकार से जरूरी सामानात की सीधी आपूर्ति की मांग कर रहे हैं । यह विचार बहुत नया नहीं है । अमेरिकी लोग दो सौ साल से बाजार से मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं । इस लड़ाई के इतिहास से नये संघर्षकर्ताओं को प्रेरणा मिलेगी । वही पुरानी लड़ाई फिर से उठ खड़ी हुई है । इसका उदाहरण लेखक ने 99 प्रतिशत लोगों की बदहाली की अभिव्यक्ति को माना है । अपने कष्ट बताते हुए लोगों ने पढ़ाई और चिकित्सा संबंधी कर्ज को प्रमुखता दी । इस संकट की अभिव्यक्ति के जरिये लोग कर्ज और भय की बाजारी हालत से आजादी की मांग कर रहे थे । डेमोक्रेटिक पार्टी के विगत चुनावी अभियानों में पढ़ाई के कर्ज से मुक्ति और सस्ती चिकित्सा व्यवस्था की बात बिना किसी वजह के नहीं आयी है । साथ ही समानजनक न्यूनतम पगार का सवाल भी सामने आया है । जो भी लोग जनता की राजनीतिक आकांक्षा को बाजारी सुविधाओं तक ही सीमित रखने के पक्षधर थे उन्होंने इस परिघटना को अचरज के साथ देखा । ट्रम्प की जीत के बावजूद युवकों की नयी फौज ने राजनीति में हस्तक्षेप किया और अपनी चाहत को मुख्यधारा में दर्ज कराया ।            

2021 में वर्सो से जियो माहेर की किताब ‘ए वर्ल्ड विदाउट पुलिस: हाउ स्ट्रांग कम्युनिटीज मेक काप्स आबसोलीट’ का प्रकाशन हुआ । किताब हाल के दिनों में आंदोलनों अथवा चुनिंदा समूहों के व्यवस्थित दमन में पुलिस की भूमिका से उठे विवादों के प्रसंग में विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाती है । खासकर अमेरिका में उसकी उत्पत्ति को अश्वेत दासों की निगरानी से जोड़कर देखा जा रहा है । अपने इसी मूल के चलते आज भी उसमें रंगभेद की विचारधारा कायम है । इसे हम भारत में उपनिवेशवादी शासन के संदर्भ से समझ सकते हैं । ज्ञातव्य है कि हमारे देश में भी पुलिस की स्थापना 1957 के गदर के ठीक बाद हुई थी । किताब की शुरुआत लेखक ने जार्ज फ़्लायड की हत्या के बाद पुलिस मुख्यालय पर एक प्रदर्शन से की है । इसमें प्रदर्शनकारियों ने इमारत को सामने और पीछे दोनों ओर से घेर लिया था । पुलिस ने उन पर गोला और गोली चलाते हुए इमारत के पिछले दरवाजे से निकलना चाहा । उनके निकलते ही इमारत में आग लगा दी गयी । आग लगाने की इस कार्यवाही पर विचार करते हुए लेखक का कहना है कि इस तरह के कामों के जरिये अपनी बात सुनाने की कोशिश की जाती है ।  

2021 में फ़्रंटियर सेंटर फ़ार पब्लिक पालिसी से रोडनी ए क्लिफ़्टन और मार्क डेवोल्फ़ के संपादन में ‘फ़्राम ट्रुथ कम्स रीकन्सीलिएशन: असेसिंग द ट्रुथ ऐंड रीकन्सीलिएशन कमीशन रिपोर्ट’ प्रकाशित हुआ । किताब की प्रस्तावना लेटन ग्रे ने लिखी है । संपादकों की लिखी भूमिका के बाद तीन हिस्सों में तेरह लेख संकलित हैं । प्रस्तावना के लेखक कनाडा के मूलवासियों के अधिकारों के वकील हैं । उनके अनुसार यह किताब ऐतिहासिक महत्व की है । यह कनाडा के मूलवासियों की शिक्षा के लिए स्थापित इंडियन रेजिडेन्शियल स्कूल्स नामक संस्था को केंद्र में रखकर लिखी किताब है ।

2020 में प्लूम से हन्ना रोस की किताब ‘रेवोल्यूशंस: हाउ वीमेन चेंज्ड द वर्ल्ड आन टू ह्वील्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका का कहना है कि फ़्रांसिसी लोग साइकिल को प्यार से छोटी रानी बुलाते हैं । यह बात थोड़ी विचित्र है क्योंकि साइकिल की प्रतियोगिताओं में किसी स्त्री को भाग लेते देखा नहीं जाता । आम तौर पर साइकिल का समूचा कार्यव्यापार पुरुष केंद्रित प्रतीत होता है लेकिन कहानी का एक दूसरा पहलू भी है । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में स्त्री मताधिकार आंदोलन की नेता ने अखबार को बताया कि स्त्रियों की मुक्ति के लिए दुनिया में साइकिल ने सबसे अधिक सहायता की है । 1880 दशक में जब साइकिल आयी तो एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए थोड़ी कोशिश से ही सफलता मिलने का रास्ता खुल गया । इससे अनजानी जगहों पर जाने के रोमांच के अतिरिक्त साइकिल चलाने का आनंद भी पैदा हुआ । पैडल चलाने, बालों में हवा सरसराने और उड़ने जैसे अहसास के चलते यात्रा की तमाम सुविधाओं के बावजूद बहुतेरे लोग साइकिल चलाना आज भी पसंद करते हैं ।     

2020 में प्लूटो प्रेस से विनसेन्ट लीगी और अनित्रा नेल्सन की किताब ‘एक्सप्लोरिंग डीग्रोथ: ए क्रिटिकल गाइड’ का प्रकाशन हुआ । किताब की प्रस्तावना जेसन हिकेल ने लिखी है । चूंकि यह धारणा ही चलन के विरुद्ध है इसलिए किताब में सबसे पहले ऐसे शब्दों की सूची प्रस्तुत की गयी है जिनके सहारे इस धारणा को समझा जा सके । इसके तहत स्वायत्तता को परिभाषित करते हुए लेखिका ने कहा कि व्यक्ति या समूह जब राजनीतिक-सामाजिक दायरे के भीतर खुद को परिभाषित करने, फैसले लेने और तदनुसार आचरण की क्षमता अर्जित कर लेते हैं तो इसे स्वायत्तता कहा जाना चाहिए । इसके उलट की प्रवृत्ति में मनुष्य किसी बाहरी सत्ता को अपनी ताकत सौंपकर समर्पण कर देता है । इसी किस्म की धारणा साझेदारी की है जिसके तहत सांस्कृतिक और प्राकृतिक संसाधनों का सह निर्माण होता है, उनका प्रबंधन भी सहशासी होता है । साथ ही वे पूरे समूह की पहुंच के भीतर होते हैं । सहशासन के ये नये रूप समतामूलक, पारदर्शी, लोकतांत्रिक और टिकाऊ होते हैं । बाजार के तर्क से संचालित गतिविधियों में ऐसा नहीं होता । तकनीक के प्रभुत्व का ध्यान रखते हुए ऐसे समाज की कल्पना जरूरी है जिसमें इस पर चंद विशेषज्ञों की जगह पर नागरिकों का प्रत्यक्ष नियंत्रण हो ताकि तकनीक का लाभ सार्वजनिक हो ।   2021 में कैम्ब्रिज स्कालर्स पब्लिशिंग से लादिस्लाउ डोबोर की किताब ‘बीयान्ड कैपिटलिज्म: न्यू सोशल आर्किटेक्चर्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि नये रास्तों की खोज सबको है । वे वोल्फ़गांग स्ट्रीक की राय को उद्धृत करते हैं कि पूंजीवाद का खात्मा भले ही न हो लेकिन लोकतांत्रिक पूंजीवाद का अंत तो जरूर होने वाला है । विकल्प के रूप में जोसेफ स्तिगलित्ज़ प्रगतिशील पूंजीवाद का नाम लेते हैं तो थामस पिकेटी भागीदारीपरक समाजवाद का सुझाव देते हैं । समाजवाद का आकर्षण बर्नी सांडर्स के चलते व्याप्त हुआ है । इसी तरह ट्रम्प ने अमेरिका को महान बनाने और ब्रेक्सिट ने संप्रभुता की वापसी का सपना दिखाया लेकिन लेखक का मानना है कि विकल्प अतीत में नहीं होते । उनका कहना है कि इसकी जगह हमें संरचनागत बदलाव के पीछे कार्यरत ताकतों को समझना होगा ।  

2020 में वर्सो से फ़्रेडेरिक ग्रास की फ़्रांसिसी में 2017 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवादडिसओबे!: गाइड टु एथिकल रेजिस्टेन्सका प्रकाशन हुआ अनुवाद डेविड फ़ेर्नबाख ने किया है । यह किताब कक्षा के व्याख्यानों से प्रेरणा लेकर लिखी गयी है । किताब की शुरुआत हावर्ड ज़िन के वक्तव्य से होती है कि समस्या अवज्ञा नहीं, आज्ञा पालन है । विद्रोह का कारण जानने की जरूरत उतनी नहीं होती जितना चुप रहने के कारण खोजने की होती है । वर्तमान को नकारने और इसके विनाशक गतिपथ को मंजूर न करने के कारण अगणित हैं । सबको गिनाना तो सम्भव नहीं इसलिए लेखक ने तीन चार ठोस वजहें बतायी हैं जिनके चलते बहुत समय से अवज्ञा की प्रेरणा मिलती रही है । कारणों में कमी आने की जगह वृद्धि ही हुई है । इसके बावजूद लोग शायद ही विद्रोह कर रहे हैं । सबसे पहला कारण है संपदा के मामले में विषमता और सामाजिक अन्याय में बढ़ोत्तरी । मेहनत करने वालों के क्रमिक दरिद्रीकरण की मार्क्सी भविष्यवाणी सही साबित हो रही है ।      

यह कोई अनजानी बात नहीं कि विकसित देशों की उपभोगवादी संस्कृति ने पर्यावरण के लिए भारी संकट खड़ा कर दिया है । खासकर अमेरिका में पिछली सरकार के समय जिस तरह कहा गया कि यह संकट कोई मसला नहीं, चीन की ओर से खड़ा किया हुआ हौवा मात्र है उसके कारण पर्यावरण की रक्षा के लिए चिंतित लोगों को नये तरीकों की खोज करनी पड़ी । इसी खोज के क्रम में एक नया नारा अस्तित्व में आया । इस समय जो ढेर सारे प्रतिरोधी नये सूत्रीकरण उभरे हैं उन्हीं में से एक की पक्षधरता के साथ 2019 में वर्सो से एन पेटीफ़ोर की किताब केस फ़ार ग्रीन न्यू डीलका प्रकाशन हुआ । इसके एक ही साल बाद 2020 में सिटी लाइट्स से स्टैन काक्स की किताब ‘द ग्रीन न्यू डील ऐंड बीयान्ड: एन्डिंग द क्लाइमेट इमर्जेन्सी ह्वाइल वी स्टिल कैन’ का प्रकाशन नोम चोम्सकी की प्रस्तावना के साथ हुआ । यह प्रस्तावना एक साक्षात्कार की शक्ल में ली गयी । उनका कहना है कि हमारे इतिहास में युद्ध, यंत्रणा और जनसंहार समेत मानवाधिकारों के उल्लंघन के तमाम उदाहरण मिलते हैं लेकिन खुद मानव जीवन के ही विनाश का खतरा नयी बात है । आसन्न पर्यावरण संकट मानव इतिहास में अश्रुतपूर्व है । जो भी लोग आज जीवित हैं वे ही मानवता के भाग्य का फैसला करेंगे । डाइनासोरों के युग की समाप्ति के बाद जबसे स्तनपायी जीवों का आगमन धरती पर हुआ उसके बाद से पहली बार तमाम प्रजातियों का लोप इतनी तेज रफ़्तार से हो रहा है । दुनिया देख रही है और हम हाहाकारी विध्वंस की दिशा में भागे जा रहे हैं । हम सवा लाख साल पहले के तापमान के करीब पहुंच रहे हैं जब समुद्र छह से नौ मीटर ऊंचा था । ग्लेशियरों के पिघलकर समुद्र में बह जाने की रफ़्तार 1990 के मुकाबले पांच गुनी तेज हो गयी है । समुद्र का तापमान बढ़ने से कुछ जगहों पर सौ मीटर मोटी बर्फ पिघल गयी है । समुद्री सतह बढ़ने से तटीय इलाके और बांगलादेश जैसे मुल्क तबाह हो जायेंगे । जलवायु वैज्ञानिक इस मामले में लगातार चेतावनी जारी कर रहे हैं । इसी प्रसंग में विकल्प सुझाते हुए 2015 में हेमार्केट बुक्स से माइकेल लोवी की किताब इकोसोशलिज्म: रैडिकल अल्टरनेटिव टु कैपिटलिस्ट कैटास्ट्राफीका प्रकाशन हुआ । लेखक के मुताबिक पर्यावरणिक समाजवाद ऐसी राजनीतिक धारा है जो धरती पर पारिस्थितिकीय संतुलन के संरक्षण को पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार और विनाशवादी तर्क का विरोधी समझती है । पूंजी के तहत वृद्धि का पागलपन आगामी दशकों में तापवृद्धि की अब तक अनसुनी समस्या को जन्म देने जा रहा है । पूरी दुनिया में इस बात पर अलगभग आम सहमति बन चुकी है ।         

वर्तमान पूंजीवाद को आम तौर पर वित्तीय पूंजीवाद भी कहा जाता है । इसकी बड़ी वजह अर्थतंत्र में बैंकों की बढ़ती भूमिका है । इस सिलसिले में 2019 में द यूनिवर्सिटी आफ़ शिकागो प्रेस से क्रिस्टोफर डब्ल्यू शा की किताब ‘मनी, पावर, ऐंड द पीपुल: द अमेरिकन स्ट्रगल टु मेक बैंकिंग डेमोक्रेटिक’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत अमेरिका के मशहूर बैंकर जे पी मोर्गन से होती है । उनके निधन पर इटली और जर्मनी के बादशाहों की ओर से भी फूल आये थे । उपस्थित लोगों में अमेरिका के सभी धन्नासेठ थे । जिस चर्च को वे दान देते रहे थे उसके बड़े पादरीगण खुद अंतिम विदाई के लिए आये थे । दूसरी ओर मजदूरों के इलाके में उसी चर्च के जो पूजागृह थे वहां मनुष्य के रूप में उनकी क्षुद्रता की कथा सुनायी जा रही थी । अमेरिकी कामगारों में से शायद ही किसी ने उनकी तारीफ की होगी । जिस चर्च को उन्होंने भारी रकम दान की थी उसके भीतर से ही उनके व्यावसायिक चाल चलन के विरोध में स्वर सुनायी पड़े । असल में वित्त की निजी व्यवस्था के विरोध में बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में बहुतेरे अमेरिकी खुलकर बोलते थे । विभिन्न नगरों के मेयर भी इन बैंकरों की लूटमार की प्रवृत्ति का विरोध करते थे । सार्वजनिक कामों के लिए धन की व्यवस्था करने के लिए बहुधा वे बैंकरों को धमकाते थे । चुने हुए ये मेयर अपने मतदाताओं के कल्याण की चिंता करते थे इसलिए उन्हें थैलीशाहों की इजारेदारी से अक्सर टकराना पड़ता था । महामंदी के दौर में तो यह टकराव बहुत तेज हो गया था । राबिन हुड का मिथक भी उसी दौर की उपज है । ऐसे लोगों के चलते ही बैंकों का बीमा करना सबसे कीमती हो गया था । बैंकों को लूटनेवाले अक्सर सामान्य लोगों की सहानुभूति के कारण सरकारों के कोप से बचे रहते थे । ऐसे एक व्यक्ति के निधन पर कोई बड़ा आदमी तो नहीं आया लेकिन बीस हजार सामान्य लोग शरीक थे । तमाम लोग रो रहे थे । निधन के बाद भी उसके नाम पर बच्चों के नाम रखे जाते रहे । निजी बैंक व्यवस्था और बैंकरों की इजारेदारी का विरोध और उससे टकराव सामान्य बात थी । वित्तीय अल्पतंत्र की सत्ता का विरोध करने के लिए ढेर सारे लोग एकताबद्ध हुए थे और उनका असर मुख्यधारा की राजनीति पर भी महसूस किया जाता था । सामान्य अमेरिकी महसूस करने लगे थे कि बैंकों के मालिकान परजीवी नरभक्षी हो गये हैं, वे उत्पादक आर्थिक गतिविधियों का शोषण करते हैं, उनके कारनामों के चलते बार बार मंदी आती है और सामाजिक विषमता में बढ़ोत्तरी होती है । इसका समाधान आंशिक सुधारों से लेकर समूची व्यवस्था के पुनर्गठन तक सुझाया गया । उस समय विरोधियों ने ऐसी राजनीतिक संस्कृति को जन्म दिया जिसमें मानव संबंधों के मौद्रिक नियंत्रण वाली सामाजिक व्यवस्था का प्रतिवाद किया जाता था । वित्त व्यवस्था की लोकप्रिय आलोचना में आपसी सहकार और ईसाई समता के आदर्शों की प्रेरणा प्रतिध्वनित होती थी । इसके चलते ही इजारेदारी पर रोक लगाने वाले कानून बने और उत्पादकों को वरीयता देने का रिवाज पैदा हुआ । अतीत की इस सोच को वे आज के हालात के लिए बेहद मुफ़ीद मानते हैं ।                       

2019 में डब्ल्यू डब्ल्यू नार्टन & कंपनी से डगलस रशकाफ़ की किताब टींम ह्यूमनका प्रकाशन हुआ । लेखक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में तकनीक की तानाशाही के विरोधी हैं । लेखक का कहना है कि स्वायत्त तकनीक, बाजार और युद्धक मीडिया ने रचनात्मक सोच, सार्थक सम्पर्क और सोद्देश्य सक्रियता की क्षमता को नष्ट कर दिया है । मनुष्य के बतौर हमारे बचे रहने के लिए आवश्यक सामूहिक इच्छा और समन्वय ही खतरे में आ गये प्रतीत होते हैं । ऐसा होना नहीं चाहिए था । समझ नहीं आ रहा कि इस ढलान पर फिसलते हुए इस हालत तक कैसे आये । असल में तकनीक, बाजार, शिक्षा, धर्म, नागरिकता और मीडिया जैसी चीजों में मनुष्यता विरोधी आग्रह निहित हैं । मानव सम्पर्क और अभिव्यक्ति की ये ताकतें अलगाव और दमन की ताकतों में बदल गयी हैं । उनका कहना है कि हमें उनकी इन अपंगताकारी समस्याओं को दूर करते हुए फिर से आपस में जुड़कर मनुष्य के हक में समाज का पुनर्निर्माण करना होगा । इस काम के लिए सबसे पहले समझना होगा कि मनुष्य बनना एक सामूहिक और समेकित प्रक्रिया में ही सम्भव है । अकेले अकेले मनुष्यता नहीं हासिल की जा सकती । सहकार से ही मानवता पैदा होती है । विभाजन के चलते हम मनुष्यता से स्खलित होते हैं और इससे व्यक्तिगत इच्छा को भी क्रियान्वित करना मुश्किल हो जाता है । सामाजिक सम्पर्कों का उपयोग करके हम अपनी दिशा तय करते हैं, सामूहिक जीवन को बचाते हैं और जिंदगी में मानी मकसद पैदा करते हैं । यह हमारी प्रजातिगत शारीरिक विरासत का अंग है । संगठनों या समुदायों से विच्छिन्न मनुष्य संतुष्ट नहीं रह सकता । भोजन पानी के लिए भी दूसरों के साथ जुड़ाव जरूरी होता है । इस जुड़ाव से हमें अपार ताकत और ऊर्जा मिलते हैं । आपसी जुड़ाव की इस स्वाभाविक क्षमता को बढ़ाने के लिए भांति भांति के संचार साधनों का आविष्कार हुआ है । किताब जैसा एकतरफ़ा संवाद भी दूसरे व्यक्ति की निगाह से देखी दुनिया के साथ निकटता को जन्म देता है । टेलीविजन के सहारे हम दुनिया भर के लोगों के हालात को सामूहिक तौर पर देखते हैं । चांद पर मनुष्य के पहुंचने की घटना को देखकर हमने सामूहिक रूप से मानवता की विजय पर खुशी जाहिर की । इसी तरह इंटरनेट भी हमें आपस में जोड़ने का माध्यम है । इस नये साधन के आगमन के साथ मीडिया को सामूहिक, भागीदारीपरक और सामाजिक रंग पकड़ने का मौका मिला ।

दुर्भाग्य से इन सभी सम्भावनाओं के विपरीत ये सभी सामाजिक मंच बनने की जगह अलगाव पैदा करने के माध्यम बनते गये । लोगों के बीच नये संबंध बनाने की जगह डिजिटल तकनीक वाले ये साधन उनके स्थान पर कुछ और ही बनाते गये हैं । संचार के अनगिनत साधनों की उपलब्धता के कारण आज की हमारी संस्कृति प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित नहीं रह गयी है । इसमें माध्यमों से होकर ही कोई बात हम तक पहुंचती है । इसकी वजह से हम अलगावग्रस्त और अधिकाधिक विखंडित होते जा रहे हैं । उन्नत तकनीक से सम्पर्कों में बढ़ोत्तरी होने की जगह कमी आती जा रही है । इसके बावजूद लेखक को विश्वास है कि इस परिस्थिति को पलटा जा सकता है । फिलहाल तो तकनीक विशारद लोग मनुष्य को समस्या और तकनीक को समाधान समझ रहे हैं । इन सभी तकनीकों को हमारी क्षमता और सामूहिक शक्ति का विस्तारक बनाया जा सकता है । इसकी जगह उनका उपयोग मनुष्यों को बांटने और नियंत्रित करने के इच्छुक बाजार, राजनीति और सत्ता संरचना की मजबूती के हितार्थ हो रहा है । सामाजिक जुड़ाव को समाप्त करके तथा उससे उपजे विभ्रम और हताशा का दोहन करके सामाजिक नियंत्रण कायम किया जा रहा है ।

सच यह है कि मनुष्यों का विकास ही सामाजिक जुड़ाव के विभिन्न साधनों को अर्जित करने की क्षमता से हुआ है । उच्चतर सामाजिक संगठन हासिल करने की जरूरत से ही हमारे मस्तिष्क, भाषा, पाठ, इलेक्ट्रानिक और डिजिटल माध्यमों का विकास हुआ है । इसलिए सामूहिक विकास की सोच ही इस संकट के समय मनुष्यता को बचा सकती है ।          

 

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