जवाहरलाल
नेहरू विश्वविद्यालय पर गाहे बगाहे हमला करने वाले शायद ही कभी समझ सकेंगे कि उसकी
दुनिया कितनी विराट है । उसमें देश दुनिया के तमाम किस्म के लोग बिना किसी आडम्बर
के खुलकर मिलते रहे हैं । उसके आसमान से हवाई जहाज जब गुजरते हैं तो उनके साथ
विचारकों की फौज भी उतरती है । उन विचारकों के बारे में बोलते सुनते और सोचते हुए
जो सात साल गुजारे उसका एक हिस्सा एजाज़ अहमद के नाम भी रहा । उनके भारत आगमन की
खबर सबसे पहले खबरनवीसी की पढ़ाई करने वाले जितेंद्र यादव ने दी थी । साथ में राजीव
गांधी की प्रशंसा भी कि उन्हें ले आये हैं ।
वैश्वीकरण हो
रहा था और वैचारिक आंधी में पैर टिकाना मुश्किल था । पतझड़ के पत्तों की तरह तमाम
चित्र विचित्र नाम गिरते और हम भौंचक्का उन्हें याद रखने की चेष्टा में हलकान हुए
रहते । कुछ नाम तो अब भी मजाक उड़ाने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं मसलन इलाहाबाद
के एक अध्यापक ‘फूंको तापो’ बोलते थे । एक मित्र देरिदा को दरिंदा कहते । जब एजाज़ की
किताब ‘इन थियरी’ हाथ आयी तो इन नामों से बहस करने वाले को जानने की प्रबल उत्सुकता
हुई । उनकी इस किताब मे जिस तरह सबके साथ असहमति दर्ज की गयी थी वही अपना भी हाल
था । इस मामले में मार्क्सवाद गजब का साहस प्रदान करता है । सबके साथ टकराते हुए
अपनी जगह बनाने की बेचैनी के हत्थे एजाज़ साहब भी चढ़ गये । उन्होंने उत्तरआधुनिकता
के बहाने जिन लोगों के उल्लिखित नाम टपकाये जाते थे उनके साथ दो दो हाथ किये थे
लेकिन उत्तरआधुनिक जनता नवजागरण को भी खारिज करती थी । नवजागरण यानी स्वाधीनता
आंदोलन । पेंच यह फंसा कि तीसरी दुनिया के सारे साहित्य को राष्ट्रीय रूपक की तरह
देखने की जेमेसन की धारणा का खंडन करते हुए एजाज़ साहब स्वाधीनता आंदोलन के मुकाबले
सामाजिक अंतर्विरोध पर कुछ अधिक ही बल दे बैठे थे । उनकी यह मान्यता सबअल्टर्न
समूह के इतिहासकारों के पास जाती महसूस हुई । तो यह बात खटकती थी ।
पश्चिमी
नवजागरण की उत्तर आधुनिक आलोचना की अंधी नकल करते हुए हमारे देश में भारतीय
नवजागरण की जो आलोचना शुरू हुई उसकी ज़द में हिंदी नवजागरण भी आ गया । हम सबके
साहित्यिक बोध का निर्माण उस धारा ने किया था जिसमें हिंदी नवजागरण का ही विकास
प्रेमचंद में हुआ जो प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन के अध्यक्ष थे । प्रेमचंद
की इस खूबी को हम सभी रेखांकित करते थे कि उनमें सामाजिक मुक्ति के सवाल के साथ ही
देश की स्वाधीनता की आकांक्षा भी पूरी ताकत के साथ मौजूद है । हिंदी नवजागरण को
प्रतिगामी मानने की हवा थोड़ी नयी है । उत्तर आधुनिकों का विरोध करते हुए भी हिंदी नवजागरण
की प्रमुख धारा के बतौर स्वाधीनता की चेतना का प्रतिबिम्ब उपन्यास में न देखना खटकने
वाली बात थी । उस समय कुछ परिचित लोग भी उत्तर आधुनिक धारा की निंदा भर्त्सना के साथ
खड़े हुए । उनके साथ बहस के क्रम में कभी कभी एजाज़ साहब की भी आलोचना एकाध लेखों में
हुई । सबअल्टर्न समूह के इतिहासकारों की आलोचना वे अपने लेखों और व्याख्यानों में
इसलिए करते कि ये लोग जनता की पूजा के कारण सांप्रदायिक गोलबंदियों की आलोचना नहीं
करते । साथ ही धर्मनिरपेक्षता को परायी धारणा समझने की उनकी आलोचना भी जायज लगती
थी । इसके बावजूद इस समूह की आलोचना के प्रसंग में इन इतिहासकारों के विदेशी
विश्वविद्यालयों में अध्यापन को उनकी आलोचना का एक विंदु बनाना कभी रास नहीं आया ।
इससे तर्क की कमजोरी जाहिर होती थी ।
इसी समय ज्ञानरंजन
दिल्ली में जनेवि के विवाहितों के छात्रावास में आग्नेय जी के चलते आने लगे थे । उन्होंने
एजाज़ साहब का व्याख्यान त्रिवेणी सभागार में रखा । राजनीति इस कदर घुसी थी कि उनके
कार्यक्रम में त्रिवेणी सभागार के बाहर खड़ा रहा । वे एजाज़ साहब का मुद्रित व्याख्यान
अतिथियों को वितरित करते रहे और हम कोई परचा । मुद्रित प्रति रख ली और भीतर न जाकर
भी जो बोला गया था उससे अवगत हुए । इतनी साफ हिंदी थी कि अचरज हुआ क्योंकि न केवल उनकी
किताब अंग्रेजी में थी और एकाध बार भारतीय भाषा केंद्र में बोलने आये तो जो लिखित पाठ
मिलता वह भी अंग्रेजी में ही होता, बल्कि वामपंथी बौद्धिकों की इस भाषा समस्या को हम हिंदी क्षेत्र
में उनके प्रसार की बाधा भी मानते थे । यहां मार्क्सवाद के महत्व के बारे में हिंदी
में मुद्रित तो था ही, भाषण भी हिंदी में ही हुआ था । सैद्धांतिक
गुत्थियों की बात भी हिंदी में छपी और बोली जा सकती थी ! बाद
में उनके साक्षात्कार की किताब में हमने उनकी भाषा संबंधी दुविधा की बाबत पढ़ा । अमेरिका
में रहते समय वे उर्दू के लेखक बनना चाहते थे और भारत आने के बाद उन्हें अंग्रेजी का
लेखक बनना पड़ा ! इस विडम्बना के बारे में गम्भीरता से विचार होना
चाहिए । इस सवाल को खोलने से मजेदार पहलू उभर सकते हैं कि आखिर वह कौन सी चीज है जो
पश्चिम में रहते हुए भारतीय भाषाओं के स्रोत की ओर खींचती है और भारत में आते ही अंग्रेजी
की ओर ।
उनके लेखन में
भावावेग था और जीवन भर यह बात उनके लेखन से लगी रही कि पढ़ते हुए ठंडे गद्य के पाठ का
अहसास नहीं होता । पक्षधर गद्य के विवादी आवेश की मौजूदगी उनके लेखन में ताउम्र बनी
रही । उनके लेखन और व्याख्यानों की यह सबसे बड़ी खूबी थी । इस खूबी के साथ लगी लिपटी
खामी भी आ गयी थी । उनकी पक्षधरता ठोस राजनीतिक पक्षधरता थी । भारत में रहते हुए उन्होंने
खुद को माकपा के साथ जोड़े रखा । राजनीतिक पार्टी की नीतियों और फैसलों में बहुत कुछ
तात्कालिक दबावों से उपजता है । इनके पक्ष में तर्क खोजने में कई बार मुश्किल आती है
। याद है जब पार्टी ने केंद्र में सरकार की अगुआई का प्रस्ताव खारिज किया था तो एजाज़
साहब ने उसके समर्थन के लिए ग्राम्शी की वर्चस्व की धारणा को खड़ा किया था । उनका यह
पक्ष हमेशा परेशान करता रहा । राजनीतिक प्रतिबद्धता का यह पक्ष एक हद तक उनकी बौद्धिक
खोज की सीमा बना रहा ।
बहरहाल उत्तर आधुनिकों
में देरिदा की किताब ‘मार्क्स के प्रेत’ के साथ उनका विवाद भी हमें खासा आकर्षित
करता था । ज्ञान जी ने पहल में इस विवाद को मूल पाठों के संक्षिप्त हिंदी अनुवाद के
साथ छापा था । अनुवाद ललित कार्तिकेय का था । सुधीश जी के बाद उत्तर आधुनिक शब्दावली
का सबसे सहज व्यवहार ललित कार्तिकेय ही करते थे । उस पदावली के साथ जूझने का मानसिक
इतिहास दर्ज किया जाना चाहिए जब हमारे जैसे तमाम विद्यार्थी बूझो तो जानें की मुद्रा
में लिखे गद्य का भावानुवाद दिमाग में करते रहते थे । कुछ ने समझने की जहमत उठाये बिना
जैसे तैसे अनुवाद को अपना लिया था और उसी भाषा की अनुकृति कक्षा और लेखन में करते रहते
थे । बेहद मुश्किल भरे दिन थे वे । हिंदी क्षेत्र की पृष्ठभूमि से आये हम ऊबचूब होते
रहते । देरिदा के साथ इस विवाद के अनूदित पाठ में व्यंग्य का लालित्य मौजूद था । उसकी
एक बात स्मृति में अटकी है । एजाज़ साहब ने कहा कि सोवियत संघ के पतन के बाद बौद्धिक
दिग्विजय की आशा उत्तर आधुनिकों को थी लेकिन चैम्पियन बन गये फ़ुकुयामा !
इसके बाद का दौर
अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध में उनके लेखन का है । इन लेखों के बारे में सूचना
मिलती थी लेकिन बौद्धिक बहसों के स्वाद से परिचित मन इनकी ओर आकर्षित न होता । बाद
में उनके उल्लिखित साक्षात्कार के जरिये जाना कि उस समय ही साम्राज्य स्थापना की
अमेरिकी मंशा को उन्होंने पहचान लिया था । इस आलोचना में एजाज़ साहब ने विश्व
सामाजिक मंच से लेकर तमाम नये चिंतकों की शब्दावली का भी बिना किसी संकोच के उपयोग
किया । उदाहरण के लिए इतालवी नेता अंतोनियो नेग्री ने वैश्वीकरण विरोधी जुटान को
अभिव्यक्त करने के लिए मल्टीच्यूड की धारणा का इस्तेमाल किया । इसे हम सभी वर्ग की
कोटि के विकल्प की हताश कोशिश का अंग समझते थे लेकिन एजाज़ साहब ने खुलकर इस
शब्दावली का उपयोग किया है । इसी तरह तीसरी दुनिया की शब्दावली के मुकाबले
उन्होंने ट्राइकांटिनेन्टल की शब्दावली को अपनाने से भी परहेज नहीं किया । फिर भी
जिस मसले में उनकी गति नहीं थी उसे साहस के साथ स्वीकार किया । साक्षात्कार की
किताब में चीन के बारे में कुछ भी ठोस बोलने से उन्होंने इसीलिए इनकार किया कि
उन्हें उस समाज की भीतरी खबर न थी ।
समसामयिक
राजनीतिक घटनाक्रम, बौद्धिक और वैचारिक दुनिया तथा साहित्य के तिहरे
मोर्चे पर वे ताउम्र मार्क्सवाद की धरती पर खड़ा होकर विजातीय तत्वों से लड़ते रहे ।
इस लड़ाई में वे कभी ठहरे नहीं, लगातार गतिमान रहे । उनकी यही गति उन्हें हमेशा पुनर्नवा
करती रही । एकाधिक बार इसी गतिशीलता के चलते वे थोड़ा अतिवादी भी हो गये । उदाहरण
के लिए उनके साक्षात्कार की उल्लिखित किताब में फ़ासीवाद की यात्रा के संदर्भ में
वे आपातकाल के लगभग समर्थन में चले जाते हैं । सिद्धांत के मुकाबले समसामयिकता
बहुधा उनके चिंतन को प्रभावित करती रही । इसे कमजोरी मानने की जगह उन्होंने
मार्क्स के लेखन को भी इससे प्रभावित कहा और उन्हें भी अपनी स्थिति के समर्थन में
खड़ा करने का प्रयास किया । फिर भी यह तात्कालिकता उनसे कुछ निर्गुण वक्तव्य दिला
ले जाती है । मसलन वे कहते हैं कि सबको उनके लायक फ़ासीवाद मिलता है । इस वक्तव्य
से कुछ भी साबित नहीं होता । इसे यथास्थिति के वैधीकरण की तरह भी देखा जा सकता है
। यह बात फ़ासीवाद के साथ ही लोकतंत्र या किसी भी दीगर चीज के लिए कही जा सकती है ।
इन सबके बावजूद भारत में जन्मे, पाकिस्तान में जवान हुए और पश्चिमी विद्वत्ता की
मुख्य धारा में मौजूद उनकी समूची जीवन यात्रा सचमुच बेहद प्रेरक और स्पृहणीय है ।
जनता के हितों से प्रतिबद्धता और पूंजी के जनविरोधी शासनतंत्र की मुखालफ़त उनके
समूचे अवदान को विशेष रूप प्रदान करते हैं ।
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