Thursday, May 12, 2022

उदारीकरण के प्रतिरोध के नये रूप

 

                 

                                         

बीती सदी की आखिरी दहाई में जिस आर्थिकी का बोलबाला हुआ उसके साथ ही सामाजिक नियंत्रण के नये रूप भी प्रकट हुए । इनका पूरा पसारा अब भी खुला नहीं है । ग्रामीण इलाकों की बसावट के स्थिर होने से निगरानी थोड़ी आसान थी । इसी वजह से अंग्रेजी राज के दौरान सामाजिक नियंत्रण की जो व्यवस्था स्थापित हुई उसमें जोर पुलिस और स्थानीय मुखबिरी पर था । आजादी के बाद भी यह व्यवस्था कायम रही । बदलाव नवउदारीकरण  के साथ नजर आना शुरू हुआ । बढ़ते नगरीकरण से उत्पन्न अस्थिरता के चलते निगरानी के नये तंत्र की जरूरत पड़ी । इस नये तंत्र के कुछ पहलू तकनीक से जुड़े हैं और कुछ एकाधिकार से । एकाधिकार का जो स्तर है उसे व्यक्त करने के लिए सबसे विराट कंपनियों के नामों के आद्यक्षरों को मिलाकर शब्द बना गाफ़ा । यह गूगल, अमेज़न, फ़ेसबुक और एपल का संयुक्त अभिधान था । महज चार दैत्याकार कंपनियों के हाथ में सब कुछ जाने की आशंका ने बड़े पैमाने पर विक्षोभ को जन्म दिया । स्वाभाविक था कि इनका प्रतिरोध भी नये रूप ग्रहण करता । इस समय के प्रतिरोधों में स्त्री और अफ़्रीकी अमेरिकी समुदाय के प्रतिरोध उल्लेखनीय रहे । इनमें तकनीक के इस्तेमाल और रचनात्मकता ने काफी ऊंचाई छुई ।     

2021 में माइक्रोकाज्म पब्लिशिंग से डैनी केन की किताब ‘हाउ टु रेजिस्ट अमेज़न ऐंड ह्वाइ: द फ़ाइट फ़ार लोकल इकोनामीज, डाटा प्राइवेसी, फ़ेयर लेबर, इंडिपेन्डेन्ट बुकस्टोर्स, ऐंद ए पीपुल-पावर्ड फ़्यूचर’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि किताबों से उनका रोज का नाता है । किताबों के सभी विक्रेता एक ही तरह से किताबों से नाता बनाते हैं । उन्हें आशा बनी रहती है कि इक्कीसवीं सदी में भी किताबों की स्वतंत्र दुकानें बची रहेंगी । इनका भविष्य छोटे पैमाने के उद्यमों से जुड़ा हुआ है । इन सबमें बड़े व्यावसायिक घरानों से जूझने का हौसला बचा हुआ है । किताबों के साथ इन विक्रेताओं का रिश्ता पूरी तरह व्यावसायिक कभी नहीं हो पाता । किताबों से उनके पढ़ने वालों के बदलने का भरोसा बना रहता है । इस बदलाव की आशा पर ही इनका व्यवसाय टिका रहता है । पाठक की खास रुचि बने रहने से ही वह अपने लिए सही किताब को खोजने आता है । लेकिन 1995 के बाद से अमेज़न लगातार इस काम में दखल दे रहा है । अमेज़न जितनी बड़ी और ताकतवर कंपनी कोई थी ही नहीं । किताब की बिक्री के क्षेत्र में किसी भी छोटे व्यवसायी का टिके रहना इसने असम्भव बना दिया है । वालमार्ट जैसे बड़े स्टोर खुलने से जिस प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी उसकी ही निरंतरता में अमेज़न जैसी दैत्याकार कंपनी प्रकट हुई है । बड़े स्टोर से शुरू होकर अब यह खतरा इंटरनेट आधारित वाणिज्य तक पहुंच गया है जिसके चलते खुदरा और छोटा व्यापार चौपट हो रहा है । वालमार्ट के मुकाबले अमेज़न विकराल कंपनी तो है ही उसके हाथ भी तमाम तरह के व्यापार में फैले हुए हैं । इंटरनेट की दुनिया में इसका दबदबा है । सरकारों से लेकर तमाम तरह के इंटरनेट आधारित काम बिना अमेज़न की भागीदारी के सम्भव नहीं रह गये हैं । रोज ब रोज की जिंदगी पर इसका भारी असर है । सामानात घर घर ले जाने की सेवा में भी इसकी हिस्सेदारी बहुत अधिक हो गयी है । कहने के लिए हम लोकतंत्र में रहते हैं लेकिन यह समय ऐसे ही एकाधिकार का गवाह है । अमेज़न के अधिकारी बाजार में अपनी भागीदारी के बारे में झूठ बोलते हैं । जिस भी व्यवसाय में अमेज़न ने हाथ डाला उस पर उसकी छाप प्रकट है । किताब की दुनिया में थोक व्यापार से भी अधिक छूट देकर इसने दुकानों में ताला डालने की नौबत पैदा कर दी है । लागत से भी कम कीमत में किताब इसने ग्राहक को घर पर उपलब्ध कराना शुरू किया । घर पर सामानात पहुंचाने का इतना विशाल ढांचा होने के चलते दुकान जाकर खरीदना छूटता जा रहा है । इस ढांचे के चलते भी हालिया कोरोना महामारी को फैलाने में इसने बड़ी भूमिका निभायी । इसने सामान और सुविधाओं को सस्ता तो बनाया लेकिन इसके नतीजे हमेशा जायज नहीं निकले । इसकी सफलता को कई बार इसके मालिक की प्रतिभा का सबूत बताया जाता है । सभी व्यावसायिक सफलताओं की तरह इसके साथ भी टैक्स चोरी और सरकारी खैरात का साथ बेहद महत्व की चीज रहा है । हाल यह है कि जब उसने अपने एक और मुख्यालय के लिए जगह खोजना शुरू किया तो तरह तरह की छूटें देने की होड़ तमाम नगरों के बीच होने लगी । 2018 में अरबों डालर के मुनाफ़े पर उसने कोई टैक्स नहीं अदा किया । वैसे तो दुनिया के सबसे अमीर आदमी की इस कंपनी ने जिस व्यवसाय में भी हाथ डाला उसमें शेष सबको इसके मुताबिक खुद को ढालना पड़ा लेकिन किताब की दुनिया में इसका दबदबा इस हद तक है कि अमेरिका में किताब की कुल बिक्री में आधा हिस्सा इसका ही है । इसके गहरे असर को पुस्तक विक्रेता, लेखक, पुस्तकालय, प्रकाशक, थोक विक्रेता, एजेंट और जिल्दसाज समेत सभी लोग महसूस करते हैं । किताब और प्रकाशन के प्रत्येक पहलू पर उसकी पकड़ है । इससे भी आगे बढ़कर इसका असर व्यक्ति की चयन की आजादी, मालवहन की संरचना, मजदूरों के अधिकार और पर्यावरण पर पड़ता है ।                       

वर्तमान निजाम में प्राकृतिक संसाधनों की लूट बेतहाशा बढ़ गयी है । नतीजतन उनकी रक्षा भी दायित्व की तरह हो गया है । 2021 में बीकन प्रेस से रोबिन ब्राड और जान कावानाग की किताब वाटर डिफ़ेंडर्स: हाउ आर्डिनरी पीपुल सेव्ड कंट्री फ़्राम कारपोरेट ग्रीडका प्रकाशन हुआ । कहने की जरूरत नहीं कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का इतिहास उपनिवेशवाद के साथ जुड़ा हुआ है लेकिन उस समय जमीन और जंगल का दोहन ही पर्याप्त था । उदारीकरण के साथ पुन:उपनिवेशीकरण का जो अभियान चला उसमें शेष संसाधनों पर हाथ डाला गया । अपने व्यावहारिक अनुभव से हम सब जानते हैं कि विगत दशकों में पानी जैसा प्राकृतिक संसाधन बहुत तेजी से निजी कब्जे में गया और इसी के साथ उसकी उपलब्धता मुश्किल होती गयी है । ऐसा केवल हमारे देश में नहीं हुआ बल्कि पूरी दुनिया में बोतलबंद पानी को विक्रेय वस्तु में बदला जा चुका है लिहाजा उस पर कब्जे के लिए लड़ाई पूरी दुनिया में जारी है । इसलिए किताब पानी के सभी रक्षकों को समर्पित है । इस सिलसिले में याद दिलाने की जरूरत है कि पेयजल का यह धंधा इतना लाभदायक हो गया है कि इसके लिए हत्या तक होने लगी है । पिछले ही दिनों पानी के एक योद्धा की हत्या अल सल्वाडोर में हुई । उसी हत्या के जिक्र से किताब की शुरुआत हुई है । जिनकी हत्या हुई (मार्चेलो रिवेरा) वे और उनके चार साथियों को वाशिंगटन आकर मानव अधिकारों का सम्मान ग्रहण करना था । सहसा उनके गायब हो जाने की खबर मिली । बारह दिन तक परिवार वालों को कुछ पता नहीं चला । उसके बाद फोन से खबर मिली कि उनकी लाश एक कुएँ में मिली है । गायब होने के बाद से ही परिवार के लोग पागल की तरह उन्हें खोज रहे थे । उनकी औचक गुमशुदगी की बात सभी पहचान वालों को बता दी गयी थी । अधिकारियों को जाँच की माँग के साथ ज्ञापन भी सौंपा गया था लेकिन एक देहाती गरीब की खोज खबर लेने का समय सरकार के पास कहाँ! लाश का पता चलने के बाद पुलिस हरकत में आयी । उन्हें इतनी भयानक यंत्रणा दी गयी थी कि लाश को पहचानना भी मुश्किल था । जबड़े, होंठ और नाक गायब थे । नाखून जड़ से उखाड़ लिये गये थे । अल सल्वाडोर में खनन के विरोध में मार्चेलो वर्तमान सदी के पहले शहीद पानी के रक्षक बने । उसके बाद तो इन हत्याओं का ताँता लग गया । अल सल्वाडोर को इस वजह से जाना जाता है कि उत्तर की ओर प्रवास पर जाते हुए लोग उस देश से गुजरते हैं । उस देश में प्राकृतिक संसाधनों के साथ जो हो रहा है वह महज उसी देश की कहानी नहीं रह गयी है । किसी भी देश में प्राकृतिक संपदा को बचाने के लिए विदेशी कंपनियों से लोहा लेना पड़ रहा है । दुनिया के लगभग सभी देशों के गरीब लोग इन दैत्याकार कंपनियों के चंगुल में फंसे हुए हैं ।  

मार्चेलो रिवेरा की तरह स्वच्छ और सस्ते पेयजल की लड़ाई सभी देशों में जारी है । हवा और जमीन, सेहत और जलवायु तथा खुद को कारपोरेट कब्जे से बचाने के हक की लड़ाई सारे संसार में चल रही है । लड़ाई का मुद्दा यह हो गया है कि बड़ी कंपनियों और उनके मालिकान के मुनाफ़े को वरीयता मिलेगी या सार्वजनिक कल्याण में व्यय को । स्वर्ण भंडार को जमीन से निकाल लिया जाये या नहीं । अगर निकालें भी तो कितना और कब । बात केवल सोने की नहीं है । धरती में कोयला, गैस और अन्यान्य जीवाश्म ईंधन भी तो हैं । सवाल यह भी है कि प्रगति को किस पैमाने पर आंका जाये । कुल वित्तीय आंकड़ों के आधार पर या लोगों और धरती की बेहतरी के आधार पर । सवाल यह भी है कि फैसला लेने में किसकी चलेगी । इस तरह पानी का सवाल सुविधा से आगे बढ़कर प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार का सवाल बन गया । इसके मूल में लोकतंत्र का सवाल है । असल में औपचारिक स्तर पर लोकतंत्र के खात्मे के साथ ही यह नयी परिघटना भी नजर आ रही है कि आज के आंदोलन लोकतंत्र को विस्तारित करने और गहराने की मांग उठा रहे हैं ।                     

नाओमी क्लीन इस समय के प्रतिरोध आंदोलनों की महत्वपूर्ण विचारक बनकर सामने आयी हैं । पश्चिमी देशों के लगभग सभी आंदोलनों के साथ उनका वैचारिक संवाद घनिष्ठ है । 2021 में सिमोन & शूस्टर से उनकी किताबहाउ टु चेन्ज एवरीथिंग: यंग ह्यूमन गाइड टु प्रोटेक्टिंग प्लैनेट ऐंड ईच अदरका प्रकाशन हुआ लेखिका का कहना है कि बचपन से ही उन्हें पानी के भीतर की दुनिया से प्रेम रहा है बाहर की दुनिया में उन्हें झिझक होती रहती थी लेकिन पानी के भीतर मुक्ति का अहसास होता था । रेबेका स्टेफ़ाफ़ ने इस किताब को बच्चों लायक बनाया है । नाओमी का यह कहना है कि पानी में जब आप उतरते हैं तो मछलियों को पहले घबराहट होती है इसलिए वे भाग जाती हैं लेकिन कुछ ही देर में अभ्यस्त हो जाती हैं तो बदन भी छू जाती हैं । पानी के भीतर की दुनिया का यही अद्भुत अहसास कराने के लिए वे अपने चार साल के पुत्र को आस्ट्रेलिया में दिखाना चाहती थीं कि ऊपर से समुद्र जितना सामान्य लगता है उसके मुकाबले भीतर की दुनिया में खासी हलचल होती है । पुत्र ने तैरना सीखा ही था । साथ में वैज्ञानिकों का दल भी था । पुत्र ने पहली ही बार में समुद्र के भीतर के जीवों की हलचल को महसूस किया । दुख यह था कि समुद्र के भीतर की वह दुनिया तेजी से लुप्त हो रही थी । असल में तापमान बढ़ने के साथ समुद्री जीव मरने लगते हैं । इन जीवों में मछली ऐसा जीव है जिस पर लाखों लोगों की आजीविका निर्भर है । इस तरह यह पूरी धरती ही आपस में जुड़ी हुई है । तापमान में बढ़त से इस धरती में बदलाव आ रहे हैं ।

पर्यावरण में प्रदूषण की बढ़त रोकने के लिए निजी स्तर की पहल ही पर्याप्त नहीं है । जलवायु परिवर्तन ढेर सारे मामलों में अनुचित है । सबसे पहले तो आने वाली नस्लों से साफ और सेहतमंद धरती छीन लेने का हमें कोई अधिकार नहीं है । इस परिवर्तन का असर भी समान रूप से नहीं पड़ता । गरीब और अल्पसंख्यक समुदाय इसके असरात को अधिक झेलते हैं । इसलिए इस प्रसंग में न्याय की बात भी की जा सकती है । पर्यावरण आंदोलन को केवल स्वच्छता से आगे जाकर न्याय की बात भी करनी होगी । आगे आने वाली नस्लों ने जलवायु परिवर्तन के लिए कुछ नहीं किया है । इस सिलसिले में जो भी गलती हुई है वह वर्तमान पीढ़ी से हुई है । लेखिका ने आने वाली नस्लों को यह बताने की कोशिश की है कि बेहतर की दिशा में बदलाव सम्भव है ।

किताब की समाप्ति के समय ही कोरोना महामारी फूट पड़ी । भारी भ्रम फैलाया गया कि लोगों का घर से निकलना बंद हो जाने से जलवायु परिवर्तन में रुकावट आ गयी है । यह सच नहीं था । इसके कारण न तो जलवायु परिवर्तन रुका, न ही जलवायु परिवर्तन को काबू में करने का आंदोलन रुका । इस आंदोलन का लक्ष्य जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करते हुए भी सबके लिए न्यायोचित और रहने लायक भविष्य का निर्माण करना है । इसे जलवायु न्याय का नाम दिया गया है । इस सवाल पर जारी आंदोलन की अगुआई युवक ही कर रहे हैं । किताब का मकसद केवल सूचना देना नहीं बल्कि प्रेरणा, कल्पना और सक्रियता पैदा करने की चाहत भी है । जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ते हुए सामाजिक न्याय के लिए भी लड़ना होगा । साथ ही नस्ली, लैंगिक और आर्थिक न्याय की आवाज भी उठानी होगी । नाओमी का कहना है कि जलवायु परिवर्तन सिक्के का केवल एक पहलू है । दूसरा पहलू यह है कि इसका मुकाबला किया जा सकता है । इसी पहलू से प्रेरित होकर तमाम कार्यकर्ता दुनिया भर में इस सवाल पर लड़ रहे हैं । नस्लभेद के विरोध में और पर्यावरण को बचाने के लिए जितने बड़े उभार नजर आ रहे हैं उनसे पता चलता है कि लाखों लोग बदलाव के इच्छुक हैं । लेखिका को भरोसा है कि अगर हम सब कुछ बदल सके तो बेहतर भविष्य बनाया जा सकता है ।                

2021 में सेवेन स्टोरीज प्रेस से पीटर बी काउफ़मान की किताब ‘द न्यू एनलाइटेनमेन्ट: ऐंड द फ़ाइट टु फ़्री नालेज’ का प्रकाशन हुआ । नाम के अनुसार ही यह किताब इस्तेमाल के लिए मुक्त घोषित कर दी गयी है । दस साल पहले इसका लेखन शुरू हुआ और महामारी के बीच इसे खत्म किया गया है । इसे विश्वविद्यालय, पुस्तकालय, संग्रहालय, अभिलेखागार और सार्वजनिक प्रसारक जैसी ज्ञान की संस्थाओं के भविष्य की कल्पना के बतौर लिखा गया । उन सबका आवाहन किया गया है कि वे मिलकर झूठ के संगठित प्रचार के लिए अपने पास संरक्षित ज्ञान को सबके लिए उपलब्ध करा दें । किताब के प्रकाश में आने के समय सेहत और सूचना की महामारी से दुनिया त्रस्त है । सत्ता और समाज पर अपराधियों की पकड़ मजबूत हो रही है । बेरोजगारी महामंदी के स्तर पर पहुंच गयी है । दुनिया भर में ज्ञान की इन संस्थाओं पर ताला पड़ा हुआ है । बहुत ही कम लोग सच को कहानी से अलगा पा रहे हैं । ऐसे हालात में ही उम्मीद की यह किताब लिखी जा सकती है । रूसो ने कहा था कि कैद में वे आजादी की तस्वीर उकेरेंगे ।    

2021 में बेर्गान बुक्स से रिकार्डो कम्पोस, अंद्रीया पावोनी और इयानिस ज़ैमाकिस के संपादन में ‘पोलिटिकल ग्राफ़िती इन क्रिटिकल टाइम्स: द ऐस्थेटिक्स आफ़ स्ट्रीट पोलिटिक्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और रफ़ाएल शक्टेर के पश्चलेख के अतिरिक्त किताब के बारह अध्याय तीन हिस्सों में बांटे गये हैं । पहले हिस्से में शहरी आंदोलनों में छवियों के सहारे विरोध की संस्कृति, दूसरे हिस्से में नगरों के कुलीनीकरण के विरोध में सामाजिक सांस्कृतिक विभेद पर जोर और तीसरे हिस्से में राजनीतिक उथल पुथल और सत्ता परिवर्तनों का विवेचन है । संपादकों का कहना है कि इस समय संकट चतुर्दिक है । वित्तीय संकट, शरणार्थी संकट, आर्थिक संकट, लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व का संकट और हालिया कोरोना संकट से प्रतीत हो रहा है कि संकटों की अनंत श्रृंखला ही हमारे समय का यथार्थ है । इन संकटों के हल के बतौर सैन्यीकरण और व्यवसायीकरण, कल्याणकारी राजकीय व्यय में कटौती, अधिकारों का स्थगन और रोजगार का अस्थायीकरण आदि बताये जा रहे हैं । अनिश्चितता और आपातकाल ही हमारे अस्तित्व की पद्धति हो गये हैं । राजनीतिक व्यवस्था अधिकाधिक भंगुर होती जा रही है, सामाजिक सांस्कृतिक बंधन ढीले होते जा रहे है, अर्थतंत्र अबूझ होता जा रहा है, पारिस्थितिकी का संतुलन बिगड़ गया है तथा लफ़्फ़ाजी, तकनीक और सुरक्षा की राजनीति के चलते विषमता, हिंसा और भय में बढ़ोत्तरी हो रही है ।        

2020 में ब्रिल से अमीन असफ़री के संपादन में ‘सिविलिटी, नानवायलेन्ट रेजिस्टेन्स, ऐंड द न्यू स्ट्रगल फ़ार सोशल जस्टिस’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में कुल बारह लेख संकलित हैं । संपादक ने अपने बारे में बताया है कि वे समाज विज्ञानी हैं । उनकी रुचि अपराधशास्त्र में है । हिंसा के कारणों को समझने में अपने साथियों के कठोर रुख से वे संतुष्ट नहीं रहते । उनके सुधार के जो तरीके सुझाये जाते हैं वे भी अपर्याप्त होते हैं । इस अनुशासन से जुड़े लोग मानव व्यवहार और हिंसा के बीच रिश्तों की ही छानबीन करते हैं । हिंसा की सैद्धांतिक व्याख्या मानव आचरण की प्रचलित धारणा पर निर्भर होती है । विश्लेषण की जिन इकाइयों का इस्तेमाल किया जाता है उनमें भी व्यक्तिगत चुनाव, वातावरण, व्यक्ति की मनोशारीरिक बनावट और संरचनात्मक तथा सांस्थानिक कारकों पर ही जोर दिया जाता है । हालांकि कुछ लोग इन सीमाओं के पार जाना चाहते हैं लेकिन अधिकांश लोग अब भी हिंसा, अपराध और विचलन के मामले में तदर्थ और खंडित व्याख्या से ही काम चलाते हैं । सी राइट मिल्स ने बहुत पहले समाज वैज्ञानिक गवेषणा में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के मुकाबले स्थानीयता के मोह का उल्लेख किया था । इस तरह के सीमित शोध से प्राप्त नतीजों के सामान्यीकरण को वे अनुभववाद का अमूर्तन कहते थे । इसके मुकाबले दर्शनशास्त्र दुनिया को अधिक यथार्थ और ऐतिहासिक नजर से देखने की सुविधा प्रदान करता है ।           

2016 में ज़ेड बुक्स से पीटर रेनिस की किताबकोआपरेटिव्स कनफ़्रन्ट कैपिटलिज्म: चैलेंजिंग नियोलिबरल इकोनामीका प्रकाशन हुआ । लेखक 2002 से अर्जेन्टिना अपने अध्ययन के सिलसिले में आते रहे हैं । उन्होंने देखा कि मजदूरों ने बंद पड़े कारखानों को सहकारिता संस्थानों में बदल दिया है । इससे उनकी कल्पना को गति और ऊर्जा मिली । इन सहकारिता संस्थानों में कचरे को फिर से उपयोज्य बनाया जाता था । आंदोलन के नेताओं से अनेक मौकों पर साक्षात्कार भी लेखक ने लिया । जो लोग भी मजदूर वर्ग से प्यार करते हैं वे असंख्य चिंतक सहकारिता आंदोलन से प्रभावित होते हैं । इसके मूल में यह विश्वास होता है कि मेहनतकश स्त्री-पुरुष बिना किसी मालिक के भी उत्पादक श्रम के जरिये अपने परिवार और समुदाय का भरण पोषण कर सकते हैं । तमाम वैचारिक रुझान वाले चिंतक वर्तमान शोषक व्यवस्था के पार जाना चाहते हैं ।  

2019 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से पेत्रा गोएदे की किताब ‘द पोलिटिक्स आफ़ पीस: ए ग्लोबल कोल्ड वार हिस्ट्री’ का प्रकाशन हुआ । लेखक को साठ के दशक के विद्यार्थी आंदोलनों के बारे में शोध के दौरान महसूस हुआ कि इन आंदोलनों में पारदेशीय सम्पर्क बहुत कम थे । तब याद आया वह समय जब शीतयुद्ध की शुरुआत में ही समाजवादी और पश्चिमी दुनिया के बौद्धिकों, शिक्षकों और लेखकों ने आपस में शान्तिपूर्ण सम्पर्कों के मामले में बहुत सारी राजनीतिक पहल की । किताब लिखने का कारण निजी भी था । पश्चिमी दुनिया में च्चों के खेलों की दुनिया 9/11 के बाद बहुत बदल गयी थी । खिलौनों के रूप में हथियार मिल रहे थे और खेल भी हिंसक युद्धों की तर्ज पर बनाये जा रहे थे । बचपन को भी हिंसक बना देने की इस मुहिम का प्रतिवाद करने के मकसद से ही लेखक ने यह किताब लिखी है ।         

2016 में वर्सो से रीस जोन्स की किताबवायलेन्ट बार्डर्स: रिफ़्यूजीज ऐंड द राइट टु मूवका प्रकाशन हुआ । 2019 में द यूनिवर्सिटी आफ़ जार्जिया प्रेस से रीस जोन्स के ही संपादन में ‘ओपेन बार्डर्स: इन डिफ़ेन्स आफ़ फ़्री मूवमेन्ट’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना और उपसंहार के अतिरिक्त किताब के सोलह अध्याय तीन हिस्सों में संयोजित हैं । पहले हिस्से के लेखों में सरहदों को खोलने के पक्ष में तर्क दिये गये हैं । दूसरे हिस्से में सरहदों की समस्याओं का विवेचन है । तीसरे हिस्से के अध्याय मुक्त आवाजाही के लिए जारी सक्रियता का परिचय कराते हैं । संपादक का कहना है कि सीमा का अध्ययन करने के दौरान जब वे इजरायल और फिलिस्तीन की सीमा पार कर रहे थे तो उनके बच्चों के खिलौनों की भी तलाशी हुई थी । इसी तरह मोरक्को और स्पेन की सीमा पर भी कड़ी तलाशी का तर्क बच्चों को समझ नहीं आता । मेक्सिको और अमेरिका के बीच की सीमा तो पहाड़ से उतरकर समुद्र तट से होते हुए पानी के भीतर तक जाती है । विडम्बना यह कि दोनों देशों के बीच विभाजन की उस जगह को फ़्रेंडशिप पार्क कहा जाता है ।    

2020 में वन वर्ल्ड से अलीसिया गार्ज़ा की किताब ‘द पर्पज आफ़ पावर: हाउ वी कम टुगेदर ह्वेन वी फ़ाल एपार्ट’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका खुद ब्लैक लाइव्स मैटर के वैश्विक संजाल का संचालन करती हैं इसलिए स्वाभाविक तौर पर किताब भी उस आंदोलन की भावना से प्रेरित है । मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में संचालित नागरिक अधिकार आंदोलन के बाद अमेरिकी अश्वेत समुदाय का यह सबसे विशाल आंदोलन साबित हुआ है । असल में किताब को इस आंदोलन का संक्षिप्त इतिहास ही होना था लेकिन लिखने के दौरान इसने भिन्न रूप धारण कर लिया । यह उनके आंदोलन के अनुभवों का संग्रह बन गयी । आंदोलन के दौरान उन्हें इन बातों को लिखना और पढ़ाना जरूरी लगा । इस आंदोलन में दस साल से काम करने के बावजूद उन्हें इस समय उसके आकर्षण का भरोसा हो रहा है । अचानक ही आंदोलन ने वैश्विक आयाम ग्रहण कर लिया है । लेखिका को लगता है इस आंदोलन से उनकी चमड़ी कड़ी पड़ी और दिल मुलायम हुआ । उनकी समझ साफ हुई, अभिव्यक्ति में स्पष्टता आयी और अपने मूल्यों में यकीन प्रबल हुआ । संगठन निर्माण के काम में लम्बे समय से लगे रहने के कारण जो परिपक्वता आयी थी उसके बाद आंदोलन के इस दौर ने तेजी से गोलबंदी के मोर्चे पर दीक्षित कर दिया । उनके माता पिता संग्रहणीय वस्तुओं का व्यवसाय करते थे इसलिए वे जन इतिहास और लोगों की बनायी चीजों का महत्व जानती थीं । उन्हें अनुमान था कि समाज में अलग अलग अपने कामों में व्यस्त लोगों के एकत्र हो जाने से नूतन सृजन हो जाता है । लेखिका की निजी कहानी होने के बावजूद इस किताब में ब्लैक लाइव्स मैटर की कहानी भी आ गयी है । उनका मत है कि इसी तरह के आंदोलनों की ऊर्जा में हमारे सामूहिक भविष्य की कुंजी है । कठिन संकट और असीम सम्भावना के इस समय में समूचे अमेरिका में ऐसे आंदोलनों के जीवंत अनुभवों की सख्त जरूरत है । इस आंदोलन के बारे में एक धारणा यह बनी कि इस नारे ने उसे लोकप्रिय बनाने में निर्णायक भूमिका निभायी । लेखिका को लगता है कि बड़े आंदोलनों का निर्माण नारों से नहीं, जनता की भागीदारी से होता है । आंदोलनों की शुरुआत और खात्मे की कोई तिथि नहीं होती और कोई एक व्यक्ति उनके केंद्र में नहीं होता । वे तो समुद्र की लहरों की तरह के होते हैं । नयी पीढ़ी उन्हें विरासत में ग्रहण करती है और आगे बढ़ा देती है । अलग थलग डाल दिये गये लोगों के एकत्र होने से आंदोलनों का जन्म होता है । आंदोलनों और उसके नेताओं का जन्म विशेष परिवेश में होता है । किसी खास माहौल में वे अवस्थित होते हैं । राजनीतिक, भौतिक और समाजार्थिक माहौल से उनको शक्ल मिलती है । समय विशेष के नियम कायदे, आचरण और आदतों से उनकी प्रकृति निर्धारित होती है । उनकी सफलता और असफलता की सम्भावना भी इसी माहौल तथा उसका मुकाबला करने की नीतियों और व्यवस्थाओं से तय होती है । व्यवस्था का महत्व समझाने के लिए लेखिका ने काले लोगों के साथ पुलिसिया अत्याचार का उदाहरण दिया है । यह अत्याचार पुलिस में अच्छे या बुरे लोगों की मौजूदगी के कारण नहीं होता बल्कि पुलिस व्यवस्था ही ऐसी है जिसमें उसके अधिकारों का दुरुपयोग अपरिहार्य हो जाता है । व्यवस्था के भीतर अपनी भूमिका का निर्वाह करते हुए भले लोग भी भयंकर काम कर बैठते हैं । आंदोलनों के जरिए ही इस व्यवस्था का पुनर्गठन हो सकता है । लेखिका ने इस आंदोलन का एक मकसद सरकार और समाज तथा लोकतंत्र और अर्थतंत्र के बीच रिश्तों को ठीक करना भी बताया है । उनका कहना है कि ये सवाल कोई नये नहीं हैं बल्कि एक हद तक पुराने सवाल ही हैं । यहां तक की वर्तमान वैचारिक मतभेदों पर भी साठ के दिनों के मतभेदों की छाया है । हमें पुरानी ही गलतियों को दुहराने की जगह नयी गलतियों से नयी सीख हासिल करनी होगी ।                         

2020 में हेमार्केट बुक्स से डेट कलेक्टिव की किताबकान पे वोन पे: केस फ़ार इकोनामिक डिसओबेडिएन्स ऐंड डेट एबालीशनका प्रकाशन हुआ । यह किताब इस समय की सबसे भारी समस्या को सम्बोधित करती है । कर्ज की वर्तमान समस्या से हम सभी परिचित हैं । थैलीशाहों को न केवल कर्ज मिल जाता है बल्कि उस कर्ज को लौटाने के लिए भी कर्ज दिया जाता है जबकि गरीब लोगों को कर्ज मिलने में मुश्किल तो आती ही है न लौटाने की हालत में जेल तक की सजा भुगतनी पड़ती है । शिक्षा इतनी महंगी हो गयी है कि बिना कर्ज लिये उच्च शिक्षा का खर्च उठाना लगभग असम्भव हो गया है । ऐसे में कुल कर्ज का बड़ा हिस्सा शिक्षा का कर्ज हो गया है । पहले कुछ समय तक नौकरी कर लेने के बाद लोग बैंक के कर्जदार हुआ करते थे वहीं अब नौकरी की शुरुआत से ही उन्हें कर्ज वापसी करनी होती है । इसी वजह से अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में एक मुद्दा शिक्षा संबंधी कर्ज की मंसूखी बन गया था । विडम्बना यह कि बैंक का कोई अपना धन नहीं होता बल्कि उसका सारा धन जनता का ही होता है ।        

2020 में यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से नेव गोर्डन और निकोला पेरुजीनी की किताबह्यूमन शील्ड्स: हिस्ट्री आफ़ पीपुल इन लाइन आफ़ फ़ायरका प्रकाशन हुआ किताब राचेल कोरी के जिक्र से शुरू होती है जिसे इजरायल में बुलडोजर से कुचल दिया गया था मुकदमे के दौरान बुलडोजर के चालक का बचाव करते हुए बताया गया कि कोरी जैसे लोग फिलिस्तीन के अपराधियों को बचाने के लिए मानव ढाल का गैरकानूनी काम करते हैं

2020 में बीकन प्रेस से ज़ाच नोरिस की किताब ‘वी कीप अस सेफ़: बिल्डिंग सिक्योर, जस्ट, ऐंड इनक्लूसिव कम्युनिटीज’ का प्रकाशन हुआ । किताब की प्रस्तावना वान जोन्स ने लिखी है । इसमें उन्होंने बताया है कि लेखक बहुत पहले से मानवाधिकार संगठनों के साथ काम करते रहे हैं । वे कैदी बच्चों के परिवारों से बात करने में बहुत रुचि लेते थे । लोग उन पर भरोसा करके अपना दुख सहज ही बताने लगते थे । वे ‘जेल नहीं, किताब’ अभियान की सफलता की बुनियाद बनाने वालों में थे । उनके चलते बच्चों के अनेक बंदीगृह बंद हो गए और एक जेल का निर्माण रुक गया । उनके प्रचार अभियान के चलते लोग सहमत हो चले कि जेलें जन और धन की बरबादी हैं ।

2012 में हेमार्केट बुक्स से रिचर्ड वोल्फ़ की किताबडेमोक्रेसी ऐट वर्क: ए क्योर फ़ार कैपिटलिज्मका प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि आर्थिक संकटों और समस्याओं ने राजनीतिक अक्षमता के साथ मिलकर आधुनिक समाजों को कठिन हालात में डाल दिया है । हमारे समय के प्रभावी अर्थतंत्र यानी पूंजीवाद को आलोचना और विरोध का सामना करना पड़ रहा है । विश्व पूंजीवाद लोगों की जरूरतों को संतुष्ट नहीं कर पा रहा है जिसके चलते सर्वत्र सामाजिक आंदोलनों की बाढ़ आयी हुई है । इसे में विकल्प की खोज तेज हो गयी है । राजकीय समाजवाद और साम्यवाद जैसे जो भी विकल्प पिछली सदी में उभरे थे वे नयी पीढ़ी को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं । फिलहाल लोग नये समाधान खोज रहे हैं । पूंजीवाद के अन्यायों, बरबादियों और विनाश का नया इलाज उन्हें चाहिए । इसी किस्म का एक समाधान प्रस्तुत करने का दावा लेखक ने किया है । वे इसे मजदूरों के स्व निर्देशित उद्यम कहते हैं जिसके बारे में उनका मानना है कि एक पुराने विचार का ही यह नया रूप है । विचार संक्षेप में यह कि साझे श्रम के आधार पर सामूहिक और लोकतांत्रिक तरीके से किसी समुदाय के काम से सर्वोत्तम उत्पादन होता है । प्रगतिशील सामाजिक बदलाव के लिए लेखक इस तरह के उद्यमों का विस्तार चाहते हैं । इसी साल सिटी लाइट्स बुक्स से ओपेन मीडिया सीरीज के तहत मशहूर साक्षात्कारकर्ता डेविड बर्सामियां के साथ रिचर्ड वोल्फ़ की लंबी बातचीतअकुपाई द इकोनामी: चैलेंजिंग कैपिटलिज्मशीर्षक से प्रकाशित हुई है । कहने की जरूरत नहीं कि अकुपाइ भी नय समय का ही एक नारा है जिसके जरिए सामान्य लोग सत्ता के विभिन्न रूपों पर अपना दावा ठोंक रहे हैं ।         

2011 में यूनिवर्सिटी आफ़ मिनेसोटा प्रेस से क्लीमेन्शिया रोड्रिगुएज़ की किताब ‘सिटिज़ेन्स’ मीडिया अगेंस्ट आर्म्ड कनफ़्लिक्ट: डिसरप्टिंग वायलेन्स इन कोलम्बिया’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने बताया है कि कोलम्बिया के कठिन भूगोल में दूर बसे नगरों में हथियारबंद छापामार और अर्ध सैनिक बल अक्सर हमला कर देते हैं । इसके लिए पहले नगर की बिजली काट दी जाती है और फिर सैकड़ों हथियारबंद स्त्री पुरुष घुस आते हैं । कोलम्बिया के लोगों के लिए ये दृश्य परिचित हैं । इस तरह की स्थिति का स्थानीय समुदाय किस तरह मुकाबला करते हैं यही जानना किताब का मकसद है । लेखक ने एक खास घटना का वर्णन किया है जिसमें हथियारबंद लड़ाकुओं से भयभीत होकर लोगों ने दरवाजे बंद कर लिये और छिप गये । ऐसे माहौल में सामुदायिक रेडियो स्टेशन ने क्रिसमस के गीत बजाने शुरू किये । लोगों ने घरों की खिड़कियां खोल दीं और रेडियो की आवाज तेज कर दी । जल्दी ही दर्जनों निहत्थे लोग हाथों में सफेद झंडे लेकर चौराहों पर एकत्र होना शुरू हुए । भय की जगह एकजुटता ने ले ली । इस तरह सामुदायिक रेडियो ने संकट के समय आपसी सहयोग की भावना को पैदा करने में बेहद जरूरी भूमिका निभायी ।          

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