संकट के वर्तमान
समय को समझने और उसको सुलझाने की कोशिश के मामले में कुछ नये चिंतक उभरे हैं ।
इन्होंने नये हालात में विभिन्न कोणों से अहिंसा को देखने का गम्भीर प्रयास किया
है । हमारा यह समय जिन उभारों और सरोकारों का गवाह बना है उनसे इन सभी चिंतकों का
स्पष्ट रिश्ता नजर आता है । इन चिंतकों में भरपूर आपसी विविधता है । यह भिन्नता उनके सरोकारों की
तो है ही उनकी वैचारिक विरासत से भी उनमें भेद पैदा हुआ है । इसकी बड़ी वजह हमारा
समय ही है । उसमें असीम सुविधा के साथ अपार असुविधा है । आपसी जुड़ाव है तो भयंकर
दूरी भी है । घोर हिंसक दमन की अति के साथ चाहत का उभार भी है । अकल्पनीय समृद्धि
के साथ भयावह दरिद्रता मौजूद है । चिकित्सा की सुविधा के साथ कीड़े मकोड़ों की तरह
मरने को अभिशप्त लोग हैं । आत्मघाती प्रवृत्ति अब केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं रह
गयी, समूचे देश और समूह इस तरह की हरकतों में संलग्न हैं । झूठ का डंका इतनी
निर्लज्जता के साथ शायद ही कभी पहले बजा हो ! शब्द की अवमानना खुलेआम हो रही है और
तस्वीर का उत्पादन हो रहा है । तरह तरह की प्रवृत्तियों से भरा यह समय जैसा
बहुआयामी है उसने सोच विचार के क्षेत्र में भी एकायामिता नहीं रहने दी है । एकदम
नयी शब्दावली में नयी पीढ़ी ने अपने समय की समस्याओं को स्वर दिया है । उनके विभिन्न सूत्रीकरणों में समस्या की पहचान के साथ उसे हल करने की गहरी बेचैनी भी
झलकती है ।
वर्तमान दौर
सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के चतुर्दिक उभार के लिए जाना जायेगा । यह उभार
बौद्धिक समुदाय में सबसे अधिक उल्लेखनीय है । स्त्री समुदाय को पर्यावरण के साथ
अधिक समायोजित तो माना जाता ही था, अहिंसा के साथ उनके सामंजस्य को भी पहचानते हुए 2021 में फ़ोर्डहैम
यूनिवर्सिटी प्रेस से टिमोथी जे हुजार और क्लेयर वुडफ़ोर्ड के कुशल संपादन में
‘टुवर्ड ए फ़ेमिनिस्ट एथिक्स आफ़ नानवायलेन्स: अद्रियाना कावारेरो, विथ जूडिथ बटलर,
बोनी होनिग, ऐंड अदर वायसेज’ का प्रकाशन हुआ । किताब के आमुख में टिमोथी ने इटली
की एक संगोष्ठी में, जिसमें जीवन और राजनीति के बारे में बात करने के लिए यूरोप भर
से लोग आये थे, मिली अद्रियाना कावारेरो नामक एक नारीवादी विदुषी का जिक्र किया है
। हिंसा और राजनीति के आपसी रिश्तों के बारे में उनके लेखन से टिमोथी परिचित थीं ।
उनका वक्तव्य इतालवी में होने से समझ तो नहीं आया लेकिन उनकी कुछ विद्यार्थियों से
बात करके उनके लेखन का महत्व समझ आया । इनसे उनके अध्ययन के जो पहलू पता चले उनमें
बर्बर हिंसा की बात तो थी ही, साथ ही स्त्री की ऐंद्रियता, मुखरता और अनुपमेयता का
भी भरपूर उल्लेख था । असल में इटली के राजनीति दर्शन में जैव राजनीति का तत्व
प्रमुखता के साथ मौजूद रहा है । एकाध दिन बाद कावारेरो को निजी तौर पर जानने का भी
मौका मिला । पता चला कि उनके लेखन में दैनन्दिन को भरपूर महत्व दिया गया है ।
लोगों के दैनन्दिन अनुभव के जरिए इस संसार का उनके समक्ष उद्घाटन होता है । इसी
क्रम में लोग भी संसार के समक्ष खुद को उद्घाटित करते हैं । लेखिका को सहसा लगा कि
बीसवीं सदी की तमाम बहसों में बेहद तार्किक हस्तक्षेप करने के बावजूद कावारेरो
मानती हैं कि अर्थ महान चिंतकों की गूढ़ धारणाओं में खोजने की जगह रोजमर्रा की
दुनिया में मौजूद होता है । अगर कोई इसे देखने या सुनने की कला जानता है तो आसानी
से इसे देख सुन सकता है । संपादकों के अनुसार उनकी प्रत्येक किताब चश्मे या कान की
मशीन जैसी है जिनके सहारे रोजमर्रा में बहुतेरे अर्थ नजर आने लगता है ।
इसी क्रम में 2019
में पी एम प्रेस से सिल्विया फ़ेडरीची की किताब ‘री-एनचैंटिंग द वर्ल्ड:
फ़ेमिनिज्म ऐंड द पोलिटिक्स आफ़ द कामन्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब की प्रस्तावना
पीटर लिनेबाग ने लिखी है । उन्होंने बताया है कि कोलम्बस को अमेरिका के जो लोग मिले थे वे साझेपन का जीवन बिताते थे । उनके
पास जो कुछ था उसे मांगने पर
मना नहीं करते थे बल्कि लेने के लिए आमंत्रित करते थे । उन्हीं लोगों की भावना के साथ फ़ेडरीची ने यह किताब लिखी
है । इसमें प्राचीनता के प्रति रूमानी आकर्षण नहीं, बल्कि साझेपन की नयी दुनिया
खड़ा करने का संकल्प है । लेखिका ने कोलम्बस की तरह यह बात किसी बादशाह को सूचना देने के लिए नहीं लिखी है । उन्होंने
इसे समझने के लिए समुद्र पार किये, बसों में धक्के खाये, साइकिल पर घूमीं और आम
लोगों, खासकर स्त्रियों से संसार भर में बातें कीं । नारीवादी के बतौर वे इस
साझेदारी को पुनरुत्पादन के दैनन्दिन श्रम में साकार होता देखती हैं । लेखिका ने
कभी राजनीति को अर्थतंत्र से या विचारों को जीवन से नहीं अलगाया । जहां इतिहास का
निर्माण हो रहा है वहां की खबरों को दर्ज करते हुए वे जीवन की हलचल को सुनती भी
हैं । उनमें नारीवादी मार्क्सवाद के साथ ही ब्रेख्त की तरह तीखे विश्लेषण की
क्षमता भी है । मार्क्सवाद को वे किसी एक व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता नहीं मानतीं
वरन इसमें सामूहिक बौद्धिकता की उपलब्धि देखती हैं । उत्पीड़ितों की शिकायतों को वे
सहजबोध में बदल देना चाहती हैं । उनके विश्लेषणात्मक चिंतन का केंद्र पगारजीवी
श्रमिक ही नहीं बल्कि श्रमिकों के बीच की ऊंच-नीच और असमानतापूर्ण शक्ति संबंध भी हैं
। ये संबंध साझेदारी को खत्म कर देते हैं । लिनेबाग के मुताबिक लेखिका सच्चे
अर्थों में जन बौद्धिक हैं । वे यथास्थिति पर लगातार चोट करती हैं ताकि उसे बदला
जा सके । परम्परा के प्रति उनका रुख आलोचानात्मक है । किताब का शीर्षक उनके इस रुख
का द्योतक है । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मैक्स वेबर ने डिसएनचैन्टमेन्ट की बात की
थी । शीर्षक के जरिए वे इसकी आलोचना करती हैं ।
नारीवादी बौद्धिक के बतौर वे सतह की हलचलों के नीचे झांककर देखती हैं ।
उनका कहना है कि साझेदारी का जीवन अतीत की बात नहीं है । उन्होंने देखा कि
नाइजीरिया में विश्वविद्यालय परिसर में जानवर घास चर रहे हैं । एक अन्य अर्थ में
भी वे सतह के नीचे देखती हैं । हम जानते हैं कि तकनीकी उपकरणों के लिए धरती के
गर्भ में छिपी मूल्यवान रत्नराशि की जरूरत पड़ती है । इनके दोहन के लिए पूंजीवाद
सामुदायिक साझे की जमीन का निजीकरण करता है । वेबर ने तकनीकी तार्किकता को प्रगति
के लिए अपरिहार्य और उसका अभिन्न बताया था । फ़ेडरीची ने इस पूंजीवादी उत्पादन
पद्धति की तथाकथित प्रगतिशीलता की बखिया उधेड़ दी है । वे ज्ञान और तकनीक की
वैश्विक विभुता को औपनिवेशिक विरासत मानती हैं । उनके मुताबिक दुनिया को यांत्रिक
बनाने से पहले मानव शरीर को यंत्र के ढांचे में ढाला जाता है । इसी का दूसरा नाम
गुलामी है और ऐसे गुलामों की मेहनत से यंत्रीकरण सम्भव किया जाता है । लिनेबाग
बताते हैं कि समय बीतने के साथ फ़ेडरीची की विश्लेषण क्षमता में परिपक्वता आती गयी
है । उनके लेखन की आंच ने दुनिया भर के स्त्री पुरुषों को प्रेरित किया है ।
राजनीतिक संस्कृति को सार्वभौमिक रूप से एकसमान बनाने का वे विरोध करती हैं । इसकी
जगह वे सामान्य जन को उत्पीड़न और संघर्ष के अलग अलग इतिहासों से निर्मित समझती हैं
। सामान्य जन की ओर से वे विशेषाधिकार को खारिज करती हैं । इस किताब में फ़ेडरीची
ने मार्क्सवादी कोटियों को नारीवादी परिप्रेक्ष्य से पुनर्व्याख्यायित किया है । संचय,
पुनरुत्पादन, वर्ग संघर्ष और पूंजी की धारणाओं को वे स्त्री की निगाह से देखने की
वकालत करती हैं । पूंजीवाद को समझने के लिए मूल्य के श्रम सिद्धांत को वे जरूरी तो
मानती हैं लेकिन काम की परिभाषा और मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया को वे नारीवादी
निगाह से समझती हैं । मसलन उनका पक्का मत है कि कर्ज भी पूंजी का उत्पादन करता है
। पढ़ाई के लिए कर्ज, बंधक, क्रेडिट कार्ड और छोटे पैमाने पर जारी वित्ततंत्र आदिम
संचय को तेज करते हैं और सामाजिक विभाजन के वाहक होते हैं । शिक्षा, सेहत और पेंशन
जैसी पुनरुत्पादक चीजें वित्ततंत्र के मातहत लायी जा चुकी हैं । इसके साथ ही
ग्रामीण बैंकों के जरिए शर्म की नयी जनांकिकी तैयार हो रही है जिसमें ब्याज की
किस्त न चुकाने पर निर्दोष और गरीब उद्यमियों से उनके बर्तन तक छीन लिये जाते हैं
। मिल्टन ने बर्तन छीनने की निंदा की थी । उनके मुताबिक पहले जमीन की घेरेबंदी की
गयी और उसके बाद बर्तन भी छीन लिये गये । फ़ेडरीची का यकीन पक्षधरता में है ।
सामान्य जन की बात करते हुए भी फ़ेडरीची वर्गीय पहलू को नहीं भूलतीं । समाज
के सामूहिक योगदान से निर्मित साइबर अर्थतंत्र का विश्लेषण करने में वे स्त्रियों
के श्रम का भी उल्लेख करती हैं । स्त्रियों को वे सामुदायिक संपत्ति और जमीन का
संरक्षक मानती हैं । 1973 के बाद से ही जमीन, मकान और वेतन के मामले में संचय की
प्रक्रिया का पुनर्गठन बड़े पैमाने पर जारी है । इसका अभिन्न अंग समस्त प्राकृतिक
संसाधनों का निजीकरण है । इसके विरोध में वे साझा संपदा का सवाल उठाती हैं ।
समुदाय के अभाव में साझेदारी नहीं हो सकती और स्त्रियों को हटाकर समुदाय खड़ा नहीं
हो सकता । उनका कहना है कि छीनी गयी संपदा को सामूहिक रूप से फिर अधिग्रहित करना
होगा और समूह को आपस में बांटनेवाली प्रवृत्तियों के विरुद्ध सामूहिक संघर्ष करना
होगा । उनके मुताबिक समस्त संपदा साझे की होगी, सामान्य जन को अधिकारसंपन्न बनाना
होगा, सामाजिक ऊंच-नीच का विरोध करने वाले प्रतिरोधी समुदायों की देखरेख करनी होगी
और ये सामान्य जन राज्यतंत्र का विकल्प होंगे । इस तरह फ़ेडरीची अपनी साझेदारी की
धारणा को अतीत से छुड़ाकर उसे भविष्योन्मुखी बनाती हैं । इस भविष्य को साकार करने
हेतु फ़ेडरीची हमारे सामूहिक संघर्ष को जरूरी समझती हैं ।
सोवियत संघ के बिखरने के बाद समूची
दुनिया से टकराव का कारण समाप्त हो जाने के चलते युद्ध को अतीत की परिघटना हो जाना
था लेकिन मध्य पूर्व में युद्ध भड़कते रहे । न केवल इतना बल्कि उसका अबाध विस्तार
भी होता रहा । दुनिया को जितना बुनियादी रूप से बदलना था उतने बुनियादी तौर पर
बदलने से उसने इनकार कर दिया । स्वाभाविक था कि पुराने सवाल बने रहे और उन्हें
समझने के पुराने तरीके भी कारगर साबित हुए । 2019 में रटलेज से
आदम यावुज़ एलवेरेन की किताब ‘द इकोनामिक्स आफ़ मिलिटरी स्पेंडिंग: ए मार्क्सिस्ट पर्सपेक्टिव’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि माहौल
बदलने से अर्थतंत्र के विशेष हिस्सों में रुचि पैदा होती है । कभी जिस मसले को शोध
के लिए बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता था अब वह उपेक्षित हो सकता है । इस किताब में
सेना के खर्च और मुनाफे की दर की आपसदारी को स्पष्ट किया गया है और पूंजीवादी
संकटों में उसके योगदान को समझने की कोशिश की गई है । हाल के दिनों में दुनिया भर
में विषमता में बढ़ोत्तरी हो रही है, वेतन का हिस्सा समूची आय में घटता जा रहा है और औसत आमदनी स्थिर है । इससे
मुनाफ़े की दर में फिर से रुचि पैदा हो रही है ।
मुनाफ़े की दर में घटोत्तरी का सेना के खर्च से संबंध देखा जा रहा है ।
मार्क्स ने पूंजी संचय में सेना के खर्च का हवाला नहीं दिया लेकिन परवर्ती
मार्क्सवादियों ने इस पहलू पर ध्यान दिया । इस सिलसिले में रोजा और लेनिन का नाम
प्रमुख है । दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उम्मीद थी कि पूंजीवाद चल नहीं सकेगा क्योंकि
सेना का खर्च घटना था । सेना के खर्च मांग पैदा करते हैं । इसलिए भी अमेरिका ने
युद्धों के समय खासकर वियतनाम युद्ध के समय पूर्ण रोजगार हासिल कर लिया था । इसके
कारण सैनिक कीन्सीय सोच का जन्म हुआ । इसी वजह से बाद में रीगन ने भी सैनिक खर्च
बढ़ाने के बारे में सोचा । अमेरिका में सैन्य-औद्योगिक परिक्षेत्र का विचार बहुत
ताकतवर विचार के रूप में मौजूद रहा है । कहना न होगा कि युद्ध विरोध अहिंसक
कार्यवाही का महत्वपूर्ण अंग रहा है । पूंजीवाद के लिए साम्राज्य विस्तार की
अनिवार्यता को बहुतेरे विचारकों ने
लक्षित किया है । साम्राज्य विस्तार का प्रमुख साधन युद्ध रहे हैं । युद्ध को यदि
संगठित हिंसा समझें तो युद्ध विरोध को सक्रिय अहिंसा के साथ जोड़कर देखने में
कठिनाई नहीं होगी ।
आज की दुनिया का एक गहरा सरोकार पर्यावरण
की रक्षा है । इससे जुड़ी समस्याओं से कटकर किसी बात पर विचार
करना सम्भव नहीं रह गया है । 2021 में ब्लूम्सबरी एकेडमिक से फ़्रांसुआ लारेल की
2015 में फ़्रांसिसी में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘द लास्ट ह्यूमनिटी: द न्यू
इकोलाजिकल साइंस’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद एन्थनी पाल स्मिथ ने किया है । इस अनुवादक का मानना है कि आगामी पीढ़ी मनुष्यों की अंतिम पीढ़ी भी साबित हो सकती है । कौन सोच सकता था कि विभिन्न प्रजातियों के लोप की खबर इतनी उदासीनता से सुनी जायेगी । जिंदा रहने के विविधरूपी संघर्षों में ही इतनी ऊर्जा लग जा रही है कि दूसरों के संघर्ष नजर ही नहीं आते । धीरे धीरे मनुष्य, प्राणी जगत या वनस्पति
का लोप होता जा रहा है कि इसे पारिस्थितिकीय विनाश ही कहा जा सकता है । जलवायु
संकट के चलते पारिस्थितिकी का सवाल चिंतन के केंद्र में आ गया है । पारिस्थितिकी
संबंधी सिद्धांतों और शोध के कारण दुनिया भर में मानव समुदाय अपने अस्तित्व के भौतिक
और प्राकृतिक आधार को देख पा रहा है । भयभीत होकर वह समझ रहा है कि सभी जीवित और
मरी हुई चीजें आपस में जुड़ी हैं । भयभीत वे इसलिए हैं कि इस यथार्थ से कुछ भी करने
से पीछा छूटता नजर नहीं आता । पारिस्थितिकी की सच्चाई ऐसी चीज है जो आंख में उंगली
डालकर हमें उस दुनिया का अभिन्न अंग साबित कर देती है जिसे गंदगी मानकर हम दूर
भागना चाहते हैं । अनुवादक ने बताया है कि किताब के लेखक आम तौर पर सामाजिक या
राजनीतिक सवालों पर अपने विचार जाहिर नहीं करते । फिर भी उनकी यह किताब जलवायु संकट से उपजी है जिसे वर्तमान
समय की सबसे प्रमुख सामाजिक राजनीतिक समस्या माना जा सकता है । उनका क्षेत्र
दर्शनशास्त्र है इसलिए वे अमूर्त धारणाओं की चर्चा अधिक करते हैं । खास बात यह है
कि वे पारिस्थितिकी और दर्शन को प्रतिद्वंद्वी मानते हैं । पारिस्थितिकी को वे
अनुभव के बारे में चिंतन और संवेदना का एक तरीका मानते हैं । पारिस्थितिकी संबंधी
सोच विचार नया है । अठारहवीं सदी में ही इसकी सुनगुन हो गयी थी लेकिन बीसवीं सदी
के मध्य में आकर इसे प्रमुखता मिली । इस धारणा और पद के प्रयोग का श्रेय जर्मन
वनस्पतिशास्त्री हैकेल को है जिन्होंने प्राणियों के विकास संबंधी डार्विनीय खोजों
की रोशनी में इसे सूत्रबद्ध किया था । डार्विन के अनुसार प्राणियों का विकास आपसी
और साझे पर्यावरण के साथ अंत:क्रिया के जरिये होता है । इसी आधार पर समूचे जीवजगत
के आपसी जुड़ाव और निर्भरता को व्यक्त करने के लिए इस धारणा का इस्तेमाल हुआ ।
विज्ञान के बतौर इसकी सूक्ष्म बातों से अनजान लोग भी मनुष्य और मानवेतर प्रकृति के
बीच रिश्ते के बतौर इसका अर्थ ग्रहण करते हैं । हमारी जीवन पद्धति और उसके असरात
का सवाल भी इसी के तहत विचारार्थ समझा जाता है । ये धारणाएं पारिस्थितिकी विज्ञान
के आधार पर पैदा हुई हैं लेकिन वह विज्ञान इतना ही नहीं है । इसी वजह से कुछ लोग राजनीतिक
और वैज्ञानिक पारिस्थितिकी में भेद करते हैं । राजनीतिक पारिस्थितिकी वह क्षेत्र
है जिसका संबंध सामाजिक राजनीतिक सवालों से अधिक होता है । आम तौर पर सामान्य
लोगों में पारिस्थितिकी का यही अर्थ प्रचलित है और बहुतेरे विद्वान इसे बुरा नहीं
मानते । दोनों के बीच के भेद को अवांछनीय मानने वालों की संख्या भी बहुत कम नहीं
है । यह धारणा धीरे धीरे मनुष्यों के लिए सामाजिक न्याय, मानवेतर प्राणियों के
अधिकार और भूमि के साथ न्याय के व्यावहारिक पहलुओं से जुड़ जाती है । बहुतेरे लोग
इसे व्यापक पर्यावरण के साथ नैतिक व्यवहार के रूप में भी परिभाषित करते हैं । वे
सामुदायिकता की सीमा को विस्तारित करके उसके भीतर मिट्टी, पानी, पेड़ और जानवरों को
भी शरीक कर लेते हैं । इसे ही लारेल ने मनुष्य, पशु और वनस्पति का मेल कहा है ।
2021 में रटलेज से माइक कोल की किताब ‘क्लाइमेट चेन्ज, द फ़ोर्थ इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन ऐंड पब्लिक पेडागाजीज: द केस फ़ार इकोसोशलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । उनका कहना है कि इस सदी के दूसरे दशक में राजनीतिक और आर्थिक दुनिया में दो मुद्दे प्रभावी हैं । पहली बात जलवायु बदलाव जन्य विध्वंस और उसे रोकने की चाहत तथा दूसरा तकनीकी बदलाव की तीव्र गति और उसे नियमित करने की चिंता । इन दोनों मामलों में लेखक की सलाह पारिस्थितिकीय समाजवाद के लिए आंदोलनों को संचालित करने की है । इसके साथ अभिन्न रूप से पर्यावरणिक नारीवाद भी जुड़ा हुआ है । जलवायु
परिवर्तन और चौथी औद्योगिक क्रांति संबंधी विमर्शों का विश्लेषण करने के लिए लेखक ने
सार्वजनिक शिक्षण की सैद्धांतिकी को अपनाया है । यह शिक्षण इस मामले में खास है कि
शिक्षा की औपचारिक संस्थाओं के बाहर घटित होता है । सार्वजनिक शिक्षण की यह
प्रक्रिया स्कूलों और कालेजों के बाहर संग्रहालय, चिड़ियाघर और पुस्तकालय जैसी
जगहों के अतिरिक्त लोकप्रिय संस्कृति, व्यावसायिक संस्थान और सोशल मीडिया समेत सभी
संचार माध्यमों में भी जारी रहती है । सार्वजनिक बुद्धिजीवियों समेत कार्यकर्ताओं
और जमीनी सामाजिक आंदोलनों के सहारे भी सार्वजनिक शिक्षण होता है । राजनेताओं और
दीगर सार्वजनिक व्यक्तियों के भाषणों, ट्वीटों और साक्षात्कारों, आडियो और वीडियो
भाषणों, ब्लागों, लेखों तथा किताबों के जरिये भी यही सार्वजनिक शिक्षण होता है । चौथी औद्योगिक क्रांति
में यह सार्वजनिक शिक्षण बहुत तेज हो गया है । यह शिक्षण प्रगतिशील या प्रतिगामी भी
हो सकता है । प्रगतिशील सार्वजनिक शिक्षण में कार्यस्थल के संघर्षों की जगह लेने
की आकांक्षा नहीं होती, वे इस संघर्ष का पूरक मात्र होना चाहते हैं । सार्वजनिक
शिक्षण के हिमायती लोग सबके लिए सामाजिक न्याय की भावना को प्रोत्साहित करते हैं ।
इस मकसद को हासिल करने के लिए वे नवउदारवाद तथा उससे व्युत्पन्न विविध उत्पीड़न और
भेदभाव के विरोध में वैचारिक सहमति बनाने का प्रयास करते हैं । इस सिलसिले में
उन्होंने अपनी ही एक किताब का जिक्र किया है जिसमें अमेरिकी राजनीतिक यथार्थ से
जुड़े सार्वजनिक शिक्षण के बारे में लिखा था । इसमें प्रगतिशील सार्वजनिक शिक्षण के
सामाजिक न्याय के सवाल से आगे जाकर नवनाज़ीवाद के खतरे के विरोध में जारी संघर्ष
समेत समूची पूंजीवादी व्यवस्था
को चुनौती दी गयी थी । इसी क्रम में लेखक ने पारिस्थितिकी के लिए सार्वजनिक शिक्षण
के साथ प्रेम के पक्ष में सार्वजनिक शिक्षण की भी वकालत की है । वे सामाजिक तौर पर
न्यायोचित सीमाविहीन भविष्य का निर्माण करना चाहते हैं । पूंजीवाद के विरोध में
सार्वजनिक शिक्षण की परम्परा को वे खुद पूंजीवाद जितना ही पुराना मानते हैं ।
सार्वजनिक शिक्षण का प्रतिगामी इस्तेमाल भी हो सकता है । ऐसे शिक्षण के उदाहरण के
रूप में हेनरी गीरू ने अमेरिका में नफ़रत के सार्वजनिक शिक्षण का जिक्र किया है । असल
में दक्षिणपंथी रेडियो चैनलों पर लगातार चलने वाली वार्ता में मुसलमानों, अफ़्रीकी
अमेरिकी समुदाय और अन्य अश्वेतों, आप्रवासियों और तमाम समूहों के विरुद्ध जहर उगला
जाता है । गीरू की मान्यता के आधार पर इस विषवमन के विरोध के बतौर प्रेम के
सार्वजनिक शिक्षण को देखा जाना चाहिए । नफरत के विरोध में प्रेम की महत्ता को हम
अपने देश के प्रसंग में भी समझ सकते हैं ।
पर्यावरण की अवस्था
को देखते हुए अमेरिका के न्यू डील की तर्ज पर हरितीकरण की बात हो रही है । 2019
में वर्सो से केट आरोनाफ़, अलीसा बतिस्तोनी, डैनिएल अल्दाना कोहेन और थिया
रियोफ़्रांकोस की किताब ‘ए प्लैनेट टु विन: ह्वाइ वी नीड ए ग्रीन न्यू डील’ का
प्रकाशन नाओमी क्लीन की प्रस्तावना के साथ हुआ । उनका कहना है कि ग्रीन न्यू डील की बात राजनीतिक
दुनिया में मशहूर हुई जब पिछली संसद की सभापति नैन्सी
पेलोसी के कार्यालय के बाहर पर्यावरण संरक्षण से प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं ने धरने
का आयोजन किया । उन्होंने हिकारत के साथ
इसे ग्रीन ड्रीम कहा लेकिन कार्यकर्ता अड़े रहे । उनका कहना था कि इस सपने को देखने
और साकार करने हेतु कमर कसने की जरूरत है अगर इस धरती को मनुष्य के रहने लायक होना
है । अगर पारिस्थिकीय संकट का मुकाबला करना है तो समूचे समाज को तेजी से बुनियादी
बदलाव लाने होंगे । भविष्य को यदि बर्बरता में स्खलित नहीं होने देना है तो आगत के
बारे में कुछ बड़े सपने देखने होंगे । उनका मत यह है कि आकर्षक सपनों और जमीनी जीतों की अंत:क्रिया से ही
गहरे प्रगतिशील बदलाव आते हैं । अमेरिका में गृहयुद्ध और महामंदी के दौरान
कामगारों और उनके परिवारों के पक्ष में जो फैसले हुए उनके मूल में संकट से बाहर
निकलने की तात्कालिक चिंता ही नहीं थी । उनकी बड़ी वजह समाजों द्वारा देखे गये ऐसे
सपने भी थे जिन्हें उस समय असम्भव और अव्याहारिक कहकर खारिज कर दिया गया था । उस
समय को ऐतिहासिक मानने का कारण केवल संकट नहीं है, बल्कि वह ऐसा समय था जब बहुतेरे
लोगों ने बड़े सपने देखे । उदाहरण के लिए उन्नीसवीं सदी के हड़तालियों की हड़तालों ने
मजदूरों की हाड़तोड़ मेहनत की बदौलत अपार संपदा का सृजन होते देखा तो उन्हें गुस्सा
आया लेकिन वे पेरिस कम्यून के आदर्शों से भी प्रेरित थे जब पेरिस के मजदूरों ने कई
महीनों तक शहर का प्रशासन चलाया । उन्होंने ऐसे सहकारी कामनवेल्थ का सपना देखा जिसमें मनुष्य के संतुलित जीवन का एक
पक्ष काम भी होगा, शेष समय परिवार, आराम और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए होगा ।
न्यू डील के पक्षधर मजदूर मार्क्स के साथ ही ड्यु बोइस से भी प्रभावित थे । इन
दोनों ने अन्यायपूर्ण अर्थव्यवस्था को बदलने के लिए विश्वव्यापी मजदूर आंदोलन का
सपना देखा था । इसी तरह मार्टिन लूथर किंग के मशहूर भाषण में भी सपने का ही जिक्र
था जिसने अश्वेतों के नागरिक अधिकार के मोर्चे पर निर्णायक जीतें हासिल कीं । यही समय था जब अश्वेतों के साथ ही
नारीवाद और पर्यावरण का सवाल भी चर्चा में आया । इस किताब की प्रस्तावना लिखने वाली नाओमी क्लीन की किताब ‘आन फ़ायर: द बर्निंग केस फ़ार ए ग्रीन न्यू
डील’ का प्रकाशन अलफ़्रेड
ए नाफ़ से 2019 में ही हुआ । लेखिका ने इस साल मार्च महीने में दुनिया भर में
आयोजित स्कूल स्ट्राइक फ़ार क्लाइमेट से बात शुरू की है । इसने युवाओं में जलवायु
संकट की चेतना को उन्नत किया । कारण यह भी था कि वे इसे प्रत्यक्ष झेल रहे हैं ।
उन्होंने पाठ्य पुस्तकों और कुछेक फ़िल्मों में ग्लेशियरों और तमाम लुप्तप्राय
प्राणियों के बारे में पढ़ा और देखा था । साथ ही उन्हें यह भी पता चला कि इन अद्भुत चीजों
का तेजी से लोप हो रहा है । इन युवा प्रदर्शनकारियों ने राजनेताओं से जीवाश्म
आधारित परियोजनाओं पर रोक लगाने की मांग की । उन्हें पता था कि पीने लायक पानी
समाप्त होता जा रहा है और कुछ ही साल बाद ढेर सारे शहरों में नलके से पानी आना बंद
हो जा सकता है । जलवायु परिवर्तन उनके लिए दूर की चीज नहीं रह गया है । वह उनकी
प्यास जितना ही ठोस यथार्थ हो चला है । प्रदर्शनकारी समुद्र की सतह उठने के विरोध में आवाज उठाना
जरूरी समझ रहे थे । वे कह रहे थे कि जब जीवन ही नहीं बचेगा तो धन को बचाकर किसका
भला होगा । कुछ युवकों को सैंडी तूफान की भी याद थी जब उनके घरों में अचानक पानी
भर गया था । हैती के बच्चों को उस भूकम्प और तूफान की याद थी जिसनें समूचे द्वीप को तबाह कर डाला था ।
ढेर सारे बच्चों को सांस की बीमारी और जंगल में आग लगने पर धूल-धुंवे की भी परवाह
इस प्रदर्शन में लेकर आयी थी । भारत के बच्चे केरल की विनाशकारी बाढ़ की बात कर रहे थे ।
सबको अंदाजा था कि माहौल सामान्य नहीं रह गया है । युवकों का कहना था कि वे तो उन
नेताओं के चुनाव में भाग भी नहीं लेते जिनके कामों का नतीजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है । कहने
की जरूरत नहीं कि इस समूची मुहिम के पीछे जो सोच काम कर रही थी उसके निर्माण में प्रकृति
और प्राणी जगत के साथ जारी हिंसा का विरोध निहित था ।
हमारा समय ऐसा है
जिसमें तकनीक की उपस्थिति सर्वव्यापी हो चली है । जीवन के लगभग प्रत्येक अंग
पर तकनीक का हस्तक्षेप अनजानी बात नहीं रह गयी है । 2020 में पालग्रेव मैकमिलन से ज़ोल्टान बोल्दिज़ार सिमोन की किताब ‘द इपोकल इवेन्ट: ट्रान्सफ़ार्मेशन्स इन द एनटैंगल्ड ह्यूमन, टेकनोलाजिकल, ऐंड नेचुरल वर्ल्ड्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब
पर पर्यावरण कार्यकर्ताओं की इस मान्यता की छाया है कि इस समय अधिकांश
प्राकृतिक बदलाव मानव गतिविधि से ही आ रहे हैं । मानव गतिविधि की इस विनाशक क्षमता
की मान्यता बहुत आसान नहीं है । इस मान्यता के चलते परस्पर विरोधी रुख सामने आये ।
कुछ लोगों ने जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता को सिरे से खारिज कर दिया तो कुछ लोग
प्रलय की आशंका जताने लगे ।
हमारे आस पास जो कुछ मौजूद है उसे कब्जा कर लेने की हवस भी
हमारी समस्याओं का एक कारण है । इस परिघटना का विवेचन करते हुए 2019 में पेंग्विन
बुक्स से ब्रूस हूड की किताब ‘पजेस्ड: ह्वाइ वी वांट मोर दैन वी नीड’ का प्रकाशन
हुआ । लेखक ने शुरू में ही बेहद लोकप्रिय उदाहरण का सहारा लिया और बताया है कि
धरती के जीवन के चौबीस घंटों में मानव प्रजाति के अस्तित्व का समय आखिरी पांच
सेकंड का है । इसमें भी किसी एक व्यक्ति का जीवन तो क्षणांश से भी कम ही होगा ।
हमारे जन्म की सम्भावना भी अतिशय क्षीण रही है क्योंकि बहुतेरे अन्य अंडाणु
शुक्राणुओं का मिलन न हो सका । इसी प्रकार हमें बहुतेरे ऐसे अवसर मिले जिनसे अन्य
मनुष्य वंचित रखे गये । शिक्षा और पुस्तक तक सबकी पहुंच नहीं बन पाती । इतने अल्प
कालीन अस्तित्व के दौरान भी हम बेहद सौभाग्यवान लोगों में शामिल हुए । फिर भी इस
कीमती समय का उपयोग हम संपत्ति के स्वामित्व के अर्जन और उस संपत्ति की रक्षा में
बिता देते हैं ।
2017 में रटलेज से टिम जैकसन की किताब ‘प्रास्पेरिटी विदाउट ग्रोथ: फ़ाउंडेशन्स फ़ार द इकोनामी आफ़ टुमारो’ के दूसरे संस्करण का प्रकाशन हुआ । पहला संस्करण 2010 में अर्थस्कैन से छपा था । लेखक ने
समृद्धि और टिकाऊपन के बीच रिश्ता समझने की कोशिश की है । इस नाते उनका एक सहज
सवाल है कि पर्यावरणिक और सामाजिक सीमाओं की दुनिया में समृद्धि का अर्थ आखिर क्या
है । आम तौर पर माना जाता है कि आर्थिक प्रसार से समृद्धि बढ़ती है । इससे पहले 2009 में अर्थस्कैन से ही उनकी किताब ‘प्रोस्पेरिटी विदाउट ग्रोथ: इकोनामिक्स फ़ार ए फ़ाइनाइट प्लैनेट’ का प्रकाशन हुआ था । इसमें सबसे पहले
वे वृद्धि की धारणा को समझने का प्रयास करते हैं । वृद्धि का शाब्दिक अर्थ किसी भी
वस्तु के आकार का बढ़ना है । अर्थशास्त्र के मामले में भी यही मतलब होना चाहिए । उनका सवाल है कि अर्थतंत्र के आकार
में विस्तार का मतलब क्या होगा । आखिर कितना बड़ा वह है और कितना बढ़ सकता है ।
सरकारों को जिस तरह वृद्धि का नशा है उससे लगता है कि इन सवालों
का कोई जवाब होगा लेकिन किसी पाठ्य पुस्तक में इसका उत्तर नहीं मिलता । 2021 में भी टिम जैकसन की किताब ‘पोस्ट ग्रोथ: लाइफ़ आफ़्टर कैपिटलिज्म’ का
प्रकाशन पोलिटी से हुआ । लेखक का कहना है कि 2020 में दुनिया सचमुच हिलने लगी । हम सभी बड़े आराम से जीवन
बिता रहे थे । डावोस में प्रतिवर्ष सरकारों के प्रमुखों की बैठक खुशनुमा माहौल में
शुरू हुई । विशेषाधिकार और सत्ता का खुला प्रदर्शन हो रहा था । अरबपतियों और
राष्ट्रप्रमुखों की सालाना सौंदर्य प्रतियोगिता जैसा वह आयोजन पचास साल से अधिक को
अधिकाई, वैभव को विभुता, सत्ता को शक्ति और वृद्धि को वार्धक्य प्रदान करता आया था
। वहां वृद्धि को ईश्वर का दर्जा हासिल था । माहौल में कुछ संशय भी थे । समूचे
यूरोप में दक्षिणपंथी पापुलिज्म का उभार हो रहा था । जंगलों में आग फैल रही थी चीन
के साथ व्यापार युद्ध छिड़ा हुआ था । सहसा जलवायु परिवर्तन सबसे महत्वपूर्ण सवाल बन
गया । विगत वर्ष की स्कूली हड़ताल ने इसे प्राथमिकता में सबसे ऊपर ला दिया । ग्रेटा
थनबर्ग की गूंजती आवाज से सभी परेशान थे । न चाहते हुए भी सहानुभूति में आंसू
टपकाने पड़े । नेताओं का यकीन प्रगति में पक्का था । उनको लगता था कि आज भले तोड़फोड़
का अप्रिय काम करना पड़े लेकिन प्रगति के बाद सब सुहाना नजर आयेगा । दुखद रूप से
जहां आयोजन हो रहा था वहीं बर्फ साल दर साल कम होती जा रही थी । आस्ट्रिया के
निर्वाचित चांसलर ने उस सभा में वृद्धि पर सवाल उठने का जिक्र किया और आर्थिक
वृद्धि के मुकाबले खुशी को पैमाना बनाने का तर्क विचारार्थ प्रस्तुत किया । लोगों
को भ्रम होता उसके पहले ही उन्होंने इस ख्याल को रोमांटिक करार दिया । इस अहंकार
को कुछ समय बाद ही प्रकट हुई कोरोना महामारी ने धूल चटा दी । दुनिया भर में
अर्थतंत्र के विकास का पहिया रुक गया और वृद्धि की पूजा पर संदेह आधारहीन नहीं रह
गया ।
2014 में टेम्पल
यूनिवर्सिटी प्रेस से पीटर फ़्लेमिंग की किताब ‘रेजिस्टिंग वर्क: द कारपोरेटाइजेशन
आफ़ लाइफ़ ऐंड इट्स डिसकांटेन्ट्स’ का प्रकाशन हुआ । यह किताब काम के नये जानलेवा
हालात को उजागर करने के मकसद से लिखी गयी है । हम सभी प्रत्यक्ष अनुभव से जानते
हैं कि काम करना मनुष्य के स्वभाव का अंग है । खाली बैठना उसके लिए उलझन का कारण
बन जाता है । लेकिन इस समय वही काम मनुष्यों के आनंद का स्रोत होने की जगह शरीर और
मन के लिए थकान की वजह बन गया है । शुरुआत उन्होंने विश्वविद्यालय की एक शिक्षिका
से की है जिन्हें परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन करके परीक्षा परिणाम
घोषित करने हैं । इसकी तारीख पहले से तय है । उत्तर पुस्तिकाओं की संख्या बहुत होने के चलते
उन्होंने संस्थान से पारिश्रमिक पर कुछ सहायक रखने की मांग की थी । उन्हें कोई
उत्तर नहीं मिला था । आखिरकार यह सारा काम उनके सिर पर आ पड़ा । इस कहानी जैसे
हालात ही किताब का वर्ण्य विषय हैं । रोजगार और काम को फिलहाल नये तरीकों से
नियंत्रित किया जा रहा है । ऐसे नियम बनाये जा रहे हैं जिनके हिसाब से खुद को
ढालना पड़ता है और उनके पालन में काम करने की समूची क्षमता निचुड़ जाती है । कार्यालय के औपचारिक समय
का भी कोई मतलब नहीं रह गया है । कार्यालय का प्रसार समूचे जीवन में हो गया है ।
सामाजिक जीवन में से समय काटकर काम पूरा करना पड़ रहा है । कार्यालय और घर के बीच
का अंतर समाप्त हो गया है । उत्पादन प्रक्रिया के मातहत औपचारिक कामों के साथ ही
अनौपचारिक कार्यकलाप भी आ गया है ।
2008 में अटलांटिक
बुक्स से जार्ज मोनबियाट की किताब ‘ब्रिंग आन द एपोकालिप्से: सिक्स आर्गुमेंट्स
फ़ार ग्लोबल जस्टिस’ का प्रकाशन हुआ । इसके बाद 2014 में फिर से इसकी छपाई हुई । लेखक
का कहना है कि लंदन आते हुए वे नदियों और पहाड़ियों के बारे में सोचते रहते हैं । सुकून
के इन लमहों में ऐसा लगता है मानो प्रकृति की क्रूरता स्थगित हो गयी हो । इस शांति
के भीतर भी तोड़फोड़ जारी रहती है । नये घर जेल की कतारबद्ध कोठरियों की तरह बन रहे
हैं । उद्योगों का विध्वंस हो रहा है । मशीनों से मलबा साफ किया जा रहा है ।
ध्वंसावशेषों की खोज खबर प्रापर्टी डीलर महंगी कारों से घूमते फिरते लेते रहते हैं
। विरोध तो नहीं ही हो रहा, संसाधनों पर अधिकार के मामले में कोई होड़ भी नहीं रह
गयी है । ऐसे भयप्रद हालात में हमारी चुप्पी मानव इतिहास और उसके भूगोल से मेल
नहीं खाती ।
पूरी
दुनिया एक अभूतपूर्व महामारी की गिरफ़्त में बनी हुई है । एक जमाने में यूरोप तमाम
किस्म की महामारियों का केंद्र हुआ करता था । उपनिवेशों के संसाधनों के दोहन से
आयी समृद्धि और चिकित्सा विज्ञान के विकास ने यूरोप और पश्चिमी अन्य मुल्कों के इस
अतीत को पीछे छोड़ दिया था और प्लेग तथा हैजा जैसी मारक बीमारियों का अड्डा कुपोषित
मुल्क बन गये थे । लगता है इतिहास ने चक्र पूरा कर लिया है । प्राकृतिक संसाधनों
के आत्मघाती दोहन पर खड़ी सभ्यता को अब इस नकली विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है ।
आश्चर्य नहीं कि हाल के लगभग सभी संक्रामक बीमारियों का उद्गम और प्रसार विकसित
दुनिया तथा उसके क्षिप्र संचार साधन हैं । जिन हवाई अड्डों को संसार भर की तीव्र
यात्रा की सुविधा पैदा करनी थी वही इस समय महामारियों के सबसे तेज प्रसारक बने हुए
हैं । ऐसे में भविष्य की चिंता ही इस पुस्तक का सही उपसंहार हो सकता है । भविष्य
की यह दुनिया वर्तमान की कोख में से ही जन्म लेगी । वर्तमान के जन्म चिन्ह उस पर
मौजूद रहेंगे । इसी वजह से हमने इसमें वर्तमान के निशानात को पहचानने की कोशिशों
को दर्ज किया है । वैसे भी यह संहार नहीं, उपसंहार ही है ।
2021
में स्प्रिंगेर से एमिली आर्ट्स, हेइन फ़्लुरेन, मार्गरीट सिट्सकूर्न और टान
विलथागेन के संपादन में ‘द न्यू कामन: हाउ द कोविड-19 पैंडेमिक इज ट्रान्सफ़ार्मिंग
सोसाइटी’ का प्रकाशन हुआ । किताब में कुल इकतीस लेख संकलित हैं । संपादकों का कहना
है कि कोरोना नामक इस महामारी के आने के बाद से ही दुनिया की बहुतेरी समस्याओं के
समाधान के लिए सहसा विज्ञान की ओर देखने का चलन तेजी से बढ़ा है । तत्काल की समस्या
तो इस भयप्रद महामारी से मानवता को छुटकारा दिलाने में सक्षम टीके की खोज है ।
इसके साथ ही जिन आर्थिक, पर्यावरण संबंधी और सामाजिक समस्याओं को अब तक टाला जाता
रहा था उनके भी समाधान की जरूरत पैदा हो गयी है । आर्थिक मोर्चे पर ढेर सारे
उद्यमों के भविष्य पर संकट आ गया है । उनके साथ रोजगार का सवाल भी जुड़ा हुआ है ।
ये सवाल कुछ हद तक पर्यटन से भी जुड़ जाते हैं । पर्यटन जलवायु के साथ जुड़ा हुआ है
। इस तरह यह किताब हमारी परिचित दुनिया में उपजी उथल पुथल को विवेचित करने का
लक्ष्य लेकर चली है । कहने की जरूरत नहीं कि नवउदारीकरण के बाद बनी आर्थिकी ही इस
महामारी के चलते संकट में आ गयी है । इसके साथ ही सेहत, शिक्षा और शोध जैसी
सामाजिक समस्याओं ने भी दस्तक दी है । इस समय सामाजिक समस्याओं का क्षेत्र महामारी
के वैज्ञानिक पहलू से कम महत्व का क्षेत्र नहीं है । घर में इतने लम्बे समय से कैद
रहने के चलते तमाम तरह की उलझनों का जन्म हुआ है । इनको समझकर ही समाज को आगे ले
जाया जा सकता है । किताब में मानव प्रजाति के इतिहास और संस्कृति के संदर्भ में भी
वर्तमान महामारी को देखने का प्रयास किया गया है ताकि इस संकट की प्रकृति का रहस्य
भेदन किया जा सके । बुजुर्गों की देखरेख और किशोरों के व्यवहार में वांछित बदलाव
के मोर्चे पर नयी किस्म की जिम्मेदारियां सामने आयी हैं । शिक्षा के मामले में
प्रत्यक्ष शिक्षा की जगह आनलाइन शिक्षा ने बहुत तेजी से ले ली है । इस तरह की
शिक्षा और उसके मूल्यांकन से जुड़ी समस्याओं का भी विवेचन वक्त की जरूरत है । साथ
ही पुरानी सामुदायिकता से नये तरह की इस सामुदायिकता में आगमन के साथ असुरक्षा और
झक्कीपन की झलक आना भी अनिवार्य है । इस महामारी के समाजार्थिक परिणाम अभी पूरी
तरह स्पष्ट नहीं हैं लेकिन समाज पर उसके असरात कुछ कुछ नजर आने लगे हैं । समूचे अर्थतंत्र के साथ ही श्रम बाजार,
स्वास्थ्य, शिक्षा, गतिशीलता और आराम की दैनन्दिन धारणाओं पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा
है । इस समय के बीतने के बाद भी इस दौरान हुए अधिकतर बदलाव कायम रहेंगे । अभी
आगामी समय की कल्पना के लिए ‘न्यू नार्मल’ की धारणा का इस्तेमाल किया जा रहा है
अर्थात जो भी हो रहा है वह फिलहाल तो असामान्य लग रहा है लेकिन आगामी समय में वही
सामान्य व्यवहार माना जायेगा । असल सवाल यह है कि जमीनी स्तर पर अर्थतंत्र की
वापसी और सामाजिक तानेबाने को कायम रखने के लिए किया क्या जाये । काम, आमदनी और
सुरक्षा की उम्मीद आने वाली पीढ़ी में आखिर कैसे पैदा होगी । अरक्षणीय समूहों को
खासकर इस संकट से बचाने के लिए कौन से उपाय करने होंगे । सामूहिक संकट की इस घड़ी
में नागरिकों ने अकूत साहस, लचीलेपन और रचनात्मकता का परिचय दिया है । लोगों ने
अपने तौर तरीके बदले हैं । शारीरिक दूरी बनाये रखते हुए भी आपसी मदद के नये तरीके
लोगों ने ईजाद किये । इंटरनेट आधारित सम्पर्क के सहारे एकजुटता व्यक्त की जा रही
है । इस महामारी ने समाज में मौजूद अदृश्य भेदभाव को प्रत्यक्ष तो किया लेकिन नयी
आपसदारी भी विकसित की । स्वत:स्फूर्त तरीकों से बिना सरकारों का मुंह ताके सामान्य
लोगों ने स्थानीय स्तर पर परेशानहाल लोगों की सहायता के लिए संगठित प्रयास पूरी
दुनिया में किये । शिक्षार्थियों में भी पीड़ितों की सहायता के लिए तमाम कोशिशें करने
की धुन नजर आयीं । यह माहौल ही उस प्रचार का मुंहतोड़ जवाब था जिसमें नयी पीढ़ी को
आत्मकेंद्रित और केवल कैरियर की फ़िराक करनेवाला बताया जाता है । इन्हीं कोशिशों के
आधार पर सुंदरतर, बेहतर और समेकित समाज का निर्माण सम्भव है । इस कोरोना के दौर की
बहुप्रचारित नयी सामान्यता को नये समाज की कल्पना में ढालना होगा । इस नये समाज
में नयी साझेदारियां सबके लिए सुलभ बनानी होंगी । समता, पहुंच और आपसदारी के
सिद्धांतों को अमलीजामा पहनाना होगा । परेशानी में अकेले पड़ जाने के मुकाबले सम्बल
का भरोसा सबको होना चाहिए । इस महामारी में हम सबने छोटी से छोटी मदद का भी महत्व
समझा है और इस नाते प्रत्येक मनुष्य का जीवन मूल्यवान समझने की शुरुआत इससे हो
सकती है । बहुमत के मुकाबले प्रत्येक व्यक्ति की विशेष जरूरत के मुताबिक देखरेख का
रुख भी समय की मांग है और इसी रुख के आधार पर लोकतांत्रिक समाज का गठन हो सकता है
।
2021
में ही पालग्रेव मैकमिलन से रोनाल्डो मुन्क की किताब ‘रीथिंकिंग डेवलपमेन्ट:
मार्क्सिस्ट पर्सपेक्टिव्स’ का प्रकाशन हुआ । सबसे
पहले लेखक का कहना है कि अगर विकास शब्द का कोई अर्थ होना है तो उस पर पुनर्विचार
बेहद जरूरी है । दक्षिणी गोलार्ध के देशों में इस पर सवाल कोई नहीं उठाता लेकिन
इसका ठोस मतलब साफ नहीं है । सभी सहमत हैं कि इससे लाभ तो होगा ही होगा । फिलहाल
क्रांतिकारी धारा के लोग भी इसे चुनौती देते नजर नहीं आते । जो लोग इस पर सवाल
उठाते भी हैं वे विकल्प सुझाने की जगह विकासोत्तर या विकास विरोधी नजरिया अपनाते
हैं । इसलिए विकास के विमर्श के अर्थ तथा मकसद पर पुनर्विचार जरूरी हो गया है ताकि
इस सदी में इसकी सार्थक भूमिका समझी जा सके । विकास के नाम पर सर्वसम्मति या उसके
संकट पर पुरानी ही बातों को दुहराने से बेहतर होगा कि उसके मूल को खंगाला जाये और
उसके अंतर्विरोधों को परखा जाये अन्यथा उसके समर्थन और विरोध में पिष्टपेषण ही
होता रहेगा । असल में विकास की धारणा के मूल में पश्चिमी या उत्तरी गोलार्ध में
व्याप्त विकास का विमर्श है । इसके तहत माना जाता है कि किसी आदर्श रास्ते पर बिना
इधर उधर हुए मानवजाति चलती चली जाये तो उसकी अनंत प्रगति जारी रहेगी । इसके लाभ
सबको मिलते रहेंगे क्योंकि सार्वजनिक कल्याण इसी तरह सम्भव है । नब्बे के दशक तक
आते आते पूंजीवादी वैश्वीकरण के उभार तथा राजकीय समाजवादी या उसके विकल्प के बतौर
राजकीय पूंजीवादी रास्तों के खात्मे के साथ इस विकास का चरम विंदु आ गया । बहरहाल इसके
बावजूद वैश्वीकरण की परिकल्पना साकार न हो सकी । न तो वादे के मुताबिक उत्तरी और
दक्षिणी गोलार्धों का महामिलन ही हुआ, न ही गरीबी मिटी । उलटे विभिन्न देशों के
भीतर और उनके बीच विषमता का विस्तार हुआ । इसके साथ ही विकास के सार्वभौमिक माडल
पर सवाल उठाते हुए उसके विकल्प भी प्रस्तुत किये जाने लगे । विकास के इस विमर्श पर
सवाल उठाने के लिए देहाती और शहरी, पश्चिमी और पूरबी, उत्तर और दक्षिण तथा विकसित
और अविकसित के बीच सीधा वैपरीत्य देखने वाली धारणाओं की आलोचनात्मक परीक्षा करनी
होगी । साथ ही इन कोटियों के बनने की प्रक्रिया को उजागर करना होगा । कारण कि इन
कोटियों में केवल भिन्नता नहीं देखी जाती बल्कि उनमें कमतरी और बेशतरी का रिश्ता
समझा जाता है । किताब में विकास के जिन मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्यों का जिक्र है वे
न केवल अलग अलग हैं बल्कि उनमें आपसी विरोध भी हैं । इसका मतलब कि विकास की
विचारधारा की आलोचना सीधे मार्क्सवादी विज्ञान के सहारे नहीं की जा सकती । इस
सिलसिले में लेखक ने देरिदा को याद किया है जो मार्क्सवाद को इस प्रसंग में
अपरिहार्य मानते हुए भी अपर्याप्त समझते थे । सही है कि साठ के दशक के बाद
मार्क्सवाद भी तमाम मामलों में आगे बढ़ा है लेकिन जिसे विकास कहा जाता है उसके
संदर्भ में विचार करते हुए दुनिया को समझने और बदलने के लिए विकास के साथ
मार्क्सवाद का भी विखंडन करना होगा । मार्क्सवाद की प्रश्नाकुलता से भरी परीक्षा
करने से ही वह इस मामले में कोई सार्थक योगदान कर सकेगा । लेखक के अनुसार विकास के
सवाल पर मार्क्सवादी रुख की परीक्षा में सबसे बड़ी बाधा सोवियत शासन था । उसके खात्मे
के बाद मार्क्सवाद इस बोझ से मुक्त हो गया है । विकास की इस धारा के मार्क्सवाद का
जन्म जर्मन सामाजिक जनवाद से हुआ था । बाद में सोवियत शासन में उसके लम्बे समय तक
लागू रहने से मार्क्सवाद की क्रांतिकारी, जुझारू और आलोचनात्मक ऊर्जा का काफी हद
तक क्षरण हो गया । अब उसके खात्मे के बाद कोई कारण नहीं कि मार्क्सवाद को इस तरह
की परीक्षा से रोका जाये । विकास के बारे में मार्क्सवादी नजरिये को समझते हुए
उसके नानात्व का परिचय मिलता है । लेखक ने मार्क्स के चिंतन की वैकल्पिक धारा की
तलाश में मार्क्स के अंतिम दिनों में रूस के सिलसिले में लेखन के साथ ही रोजा
लक्जेमबर्ग की बातों को भी आधार बनाया है । मार्क्सवाद की इस गहन छानबीन के साथ
उन्होंने विकास के सवाल पर एकाधिक मार्क्सवादी रुखों की बात स्वीकार की है ।
साफ
है कि आज का समय राजकीय हिंसा की बढ़त और उसके प्रतिरोध में जन गोलबंदी के लिए
अहिंसक उपायों को अपनाने के बीच की कशमकश से बना हुआ है । इस तर्क वितर्क का
भविष्य अभी से तय नहीं किया जा सकता । इसके बावजूद एक बात सिद्ध है कि पिछले तीस
सालों में पूंजीवादी हिंसा का जो वैश्विक प्रसार हुआ है वह अभूतपूर्व है लेकिन इसे
लोगों ने सिर झुकाकर चुपचाप मंजूर नहीं कर लिया है । इसके विरोध में होने वाले
आंदोलनों ने कार्यकर्ताओं की जिस नयी पीढ़ी को जन्म दिया है उसकी समझदारी ही
महामारी के बाद बनने वाली दुनिया में अभिव्यक्त होगी । कहा जा सकता है कि हिंसा की
कुछ संरचनाओं, मसलन पितृसत्ता और प्रकृति के अंधाधुंध दोहन पर रोक लगने की
सम्भावना है क्योंकि यही नयी पीढ़ी आगामी दिनों में नीति निर्माण के मोर्चे पर
प्रभावी रूप से मौजूद रहेगी ।
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