अनेक कारणों के चलते ग्राम्शी की चर्चा अक्सर होती रही है । मार्क्सवादी
चिंतकों में उनका अभिग्रहण सबसे अधिक विविध उद्देश्यों से हुआ है । बीसवीं सदी में
सोवियत संघ से जो पाश्चात्य मार्क्सवादी नाना कारणों से असंतुष्ट रहे उन्होंने
लेनिन और स्तालिन के समानांतर के रूप में ग्राम्शी को गढ़ा । बाद के दिनों में तो
उन्हें कम्युनिस्ट लगाव से काटकर स्वतंत्र चिंतक के बतौर भी पेश किया जाने लगा ।
खासकर उत्तर आधुनिकता से प्रभावित इतिहासकारों ने उनकी सबअल्टर्न की पदावली को
खासा महत्व देकर मार्क्स की वर्ग की धारणा का विकल्प इसमें खोज लिया । इन सभी
व्याख्याओं के साथ हाल के दिनों में फ़ासीवाद के वैश्विक उभार के चलते ग्राम्शी के
चिंतन और कर्म के नये पहलू उद्घाटित हो रहे हैं । इस लिहाज से ग्राम्शी का
अभिग्रहण भी बहुत रोचक और विचारणीय सवाल बन जाता है । यहां प्रस्तुत पुस्तक सूची
में ग्राम्शी के इन विविधरूपी अभिग्रहणों को कुछ हद तक देखा जा सकता है ।
इसको समझने के लिए सबसे ताजा किताब से शुरू करना उचित
होगा । यह किताब सबसे हाल में नये संस्करण के बतौर छपी है लेकिन इसका पहला संस्करण
इस सूची में कालक्रम के मुताबिक पहला ही होगा । 2022 में ब्रिल से गाइडो लिगौरी की
किताब ‘ग्राम्शी कनटेस्टेड: इंटरप्रेटेशंस, डीबेट्स ऐंड पोलेमिक्स, 1922-2012’ के
दूसरे संस्करण का प्रकाशन हुआ । किताब मूल रूप से इतालवी में छपी थी । इसका
अंग्रेजी अनुवाद रिचर्ड ब्राउडे ने किया है । इस नये संस्करण की भूमिका में लेखक
ने बताया है कि 1991 में ग्राम्शी की इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी खत्म हो गयी ।
नब्बे के दशक में उदार लोकतांत्रिक संस्कृति का वर्चस्व स्थापित हो गया । ऐसा इटली
के वामपंथ में भी हुआ । उदारपंथी लोगों का बोलबाला हो गया और उनकी तुलना ग्राम्शी
के साथ की जाने लगी । लगा कि ग्राम्शी का अस्तित्व ही लोगों की याददाश्त से गायब
हो जायेगा । कहा जाने लगा कि ग्राम्शी के बारे में इटली के मुकाबले बाहर के देशों
में अधिक चर्चा हो रही है । राजनीति और
बौद्धिकता की दुनिया में ग्राम्शी का इससे अधिक लोप नहीं हो सकता था । सच का एक और
पहलू भी था । 1997 में ग्राम्शी की साठवीं पुण्यतिथि के बाद से पंद्रह सालों के
दौरान लगभग दो सौ किताबों का प्रकाशन उनके लेखन और जीवन के बारे में हुआ । इसके
कारण बहुतेरे हैं । बीसवीं सदी के बड़े चिंतकों में ग्राम्शी को अन्यतम समझा गया ।
उनका अध्ययन न केवल वाम दबदबे वाले लैटिन अमेरिकी देशों में व्यापक हुआ बल्कि
ब्रिटेन और अमेरिका जैसे आंग्ल भाषा भाषी क्षेत्रों के अतिरिक्त अश्वेत और बंगाली
बौद्धिकों में भी उनकी ख्याति बढ़ी । इसका असर खुद इटली में भी महसूस होना शुरू हुआ
। इटली में एक अन्य कारण से भी उनको भुलाना सम्भव न हो सका । नब्बे के दशक में
सोवियत संघ स्थित संग्रहालयों की सामग्री सुलभ होने से उनके जीवन से जुड़े नये तथ्य
प्रकाश में आये । बौद्धिक जगत में सक्रिय बहुत सारे लोगों ने भी ग्राम्शी की इस
सचेत विस्मृति का प्रतिरोध किया । 1996 में अंतराष्ट्रीय ग्राम्शी सोसाइटी की
स्थापना की गयी जिसकी जिम्मेदारी उनके बारे में सभा सम्मेलन आदि का आयोजन करना था
। इसके बाद ग्राम्शी के अध्येताओं की नयी पीढ़ी सामने आयी । उनकी गतिविधियों की
जानकारी को समेटने के लिए ही इस संस्करण का प्रकाशन हुआ । 1996 में प्रकाशित पहले
संस्करण में शामिल अध्यायों में कुछ संशोधन और परिष्कार किया गया लेकिन तीन नये
अध्याय जोड़कर नयी हलचलों का विवरण दिया गया है । पहले संस्करण की भूमिका में लेखक
ने हाब्सबाम द्वारा इटली के बाहर ग्राम्शी की प्रसिद्धि के उल्लेख का जिक्र किया
है । लम्बे समय तक ग्राम्शी के सितारे धूमिल रहे थे लेकिन समूची दुनिया के साथ
इटली में भी उनके लेखन के प्रति रुचि देखी जा रही है । इसके पहले दुनिया भर में
उनकी चर्चा के बावजूद इटली में उनका जिक्र बहुत कम होता था । उनके राजनीतिक वारिस
भी उनको तोड़ मरोड़ कर अपने हिसाब से ढाल रहे थे । एक कारण यह भी था कि उनको बहुत हद
तक मूर्ति में बदल दिया गया था । उनके लेखन की प्रशंसा तो बहुत की जाती लेकिन उसका
अध्ययन न के बराबर होता था । असल में उनका लेखन असंगठित और जटिल लेकिन खुली
प्रकृति का था । व्याख्या से भी कोई खास मदद मिलने की उम्मीद नहीं थी क्योंकि टीका
पर टीका लिखकर मूल पाठ को और भी अबूझ बना दिया गया था ।
ग्राम्शी के उपयोग के बारे में ही 2017 में प्लूटो प्रेस से मिचेले फ़िलिप्पिनी
की इतालवी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘यूजिंग ग्राम्शी: ए न्यू अप्रोच’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद पैट्रिक जेबार
ने किया है । यह किताब रीडिंग ग्राम्शी नामक पुस्तक श्रृंखला के तहत छपी है । इस श्रृंखला
का मकसद समकालीन इतिहास द्वारा उठाए गए नए सवालों के संदर्भ में ग्राम्शी के लेखन और
चिंतन के खास पहलुओं से पाठकों का परिचय कराना है । लेखक ने किताब की भूमिका में बताया
है कि एरिक हाब्सबाम ने 1987 में एक इतालवी पत्रिका में लिखा कि ग्राम्शी 1976 से 1983 के बीच सर्वाधिक उद्धृत लेखकों में
से एक रहे हैं । सर्वाधिक उद्धृत होनेवाले लेखकों की इस सूची में इटली से केवल पांच
नाम थे । ग्राम्शी का देहावसान 1937 में हो गया था इसलिए साफ है कि उनकी प्रसिद्धि मरणोपरांत
हुई जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उनकी जेल नोटबुकों के विषयवार व्यवस्थित प्रकाशन
के साथ बढ़ती गयी । इस प्रसंग में देखना होगा कि 1940 दशक से 1970 दशक के बीच असल में हुआ क्या ।
अपने देश के फ़ासीवादी निजाम द्वारा जेल में डाले हुए कम्युनिस्ट पार्टी के इस सचिव
की रिहाई के कुछ ही दिनों बाद इहलीला खत्म हो गई थी लेकिन दुनिया भर के राजनीतिक
हालात के चलते वे न केवल अंतर्राष्ट्रीय वाम आंदोलन के प्रमुख बौद्धिक व्यक्तित्व
बनकर उभरे बल्कि आम आलोचनात्मक सोच के लिए भी संदर्भ विंदु बन गए । इसकी वजह समूची
दुनिया में चलनेवाले उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष तथा साठ और सत्तर दशक में चलनेवाले
पश्चिमी देशों के आंदोलन थे । इस दौर में ग्राम्शी का उपयोग लैटिन अमेरिका में
वहां के तानाशाही शासनों, अफ़्रीका और एशिया के औपनिवेशिक तंत्र के विरुद्ध
संघर्षों और यूरोप और अमेरिका के नागरिक अधिकार आंदोलनों में हुआ तथा उनका
इस्तेमाल यूरो-कम्युनिज्म
के लिए भी किया गया । नई सदी के आगमन के साथ उनके उपयोग का दूसरा चरण प्रारम्भ हुआ
है । इस नए दौर में ग्राम्शी में पैदा हुई रुचि पिछले दौर के मुकाबले अधिक सारवान
और दूरगामी प्रतीत हो रही है । पिछली सदी के आखिरी बीस सालों में जिस तरह ग्राम्शी
को देखा गया उससे बहुत अलग तरीके से नई सदी के शुरुआती पंद्रह सालों में देखा गया
है । इस दौरान ग्राम्शी तमाम तरह के सांस्कृतिक संदर्भों और अनुशासनों के भीतर पैठ
बनाने में सक्षम हुए हैं । पिछली सदी में उनकी जो छवि बनी उसमें फ़ासिस्ट निजाम के
शहीद के बतौर उनके जीवन को देखा जाता था तथा सोवियत समाजवाद से अलग तरह के
समाजवादी नजरिए के प्रस्तोता के बतौर उनकी तस्वीर पेश की जाती थी जबकि इस सदी में
उन्हें इस ऐतिहासिक सीमाबद्धता से ऊपर उठकर देखा जा रहा है । उन्हें देखने समझने
के ये दोनों प्रस्ताव खास तरह के राजनीतिक माहौल में पैदा हुए थे। इसी के अनुरूप
इन दोनों तस्वीरों का राजनीतिक इस्तेमाल भी किया जाता था । इस किताब में नए समय की
दृष्टि से काम लिया गया है ।
1998 में मैकमिलन प्रेस से जेम्स मार्टिन की किताब
‘ग्राम्शी’ज पोलिटिकल एनालीसिस: ए क्रिटिकल इंट्रोडक्शन’ का प्रकाशन हुआ । यह
किताब लेखक के शोध प्रबंध पर आधारित है जो टेरेल कारवेर के निर्देशन में लिखा गया
था । ग्राम्शी को समकालीन समाज में सत्ता और विचारधारा संबंधी विश्लेषण में उनके
योगदान के लिए जाना जाता है । उनके लेखन में उपजी हालिया रुचि से मार्क्सवादी
राजनीति के किसी नवोत्थान का सबूत मिलने की बजाय शिक्षा की दुनिया में आलोचनात्मक
विश्लेषण तक उनके सीमित हो जाने का सबूत मिलता है । बहरहाल इस रुचि के चलते इस
किताब की जरूरत पड़ी । ग्राम्शी के लेखन में समाजशास्त्र और दर्शन तथा साहित्य और
संस्कृति अध्ययन संबंधी आयाम उजागर किये जा रहे हैं । इतने बड़े फलक को समेटना
मुश्किल है इसलिए इस किताब में उनके लेखन के राजनीतिक पहलू का ही परिचय प्रस्तुत
किया गया है । उनकी जेल डायरियों में जिन कोटियों और धारणाओं का इस्तेमाल किया गया
है उनसे पाठक को परिचित कराना लेखक का मकसद है । साथ ही वर्तमान संदर्भ में उनके
विश्लेषण की उपयोगिता के बारे में बहसों का भी जिक्र हुआ है । इस तरह उनकी
प्रासंगिकता का प्रयास होने के नाते इस परिचय को आलोचनात्मक कहा गया है । द्वितीय
विश्वयुद्ध के बाद इन डायरियों का प्रकाशन हुआ तभी से पूंजीवादी समाजों में सत्ता
की प्रक्रियाओं और संरचनाओं को समझने में इनकी विशेष भूमिका रही है । उनकी धारणाओं
में सबसे अधिक वर्चस्व की धारणा का इस्तेमाल हुआ है । इसका अर्थ बौद्धिक और नैतिक
नेतृत्व होता है । इसके लिए किसी समूह या वर्ग की अगुवाई में राजनीतिक संश्रय
बनाया जाता है । इसमें वैचारिक प्रभुत्व के लिए संघर्ष अंतर्निहित है जिसमें अपने
अनुभवों की व्याख्या इस तरह की जाती है कि वह खास तरह के शक्ति संबंधों के अनुकूल
हो । इस तरह ग्राम्शी समाज में सत्ता और प्रभुत्व के सवाल पर संस्कृति और
विचारधारा के जरिये विचार करते हैं । यह मान लेना बहुत मुश्किल नहीं है कि
ग्राम्शी के विचार आज के सरोकारों से जुड़े हैं । बहरहाल उनके योगदान के मूल्यांकन
के लिए उनको हमसे अलगाने वाली दूरी की परीक्षा भी जरूरी है । सभी जानते हैं कि
वर्तमान स्थिर नहीं लगातार बदलता रहता है इसलिए इस परीक्षा को भी निरंतर ताजा करना
पड़ता है । जिस वजह से बीस साल पहले ग्राम्शी रुचिकर हुए वही वजह आज भी नहीं होगी ।
सत्तर के दशक में यूरोकम्युनिज्म के चलते उनकी बात होती थी, आज उसका कोई नामलेवा
भी नहीं है । इसकी खोज करनी होगी कि आज किस वजह से ग्राम्शी के विचार इतने आकर्षक
लग रहे हैं ।
1999 में बेर्ग से कार्ल लेवी की किताब ‘ग्राम्शी ऐंड द अनार्किस्ट्स’ का प्रकाशन हुआ । इसमें इतालवी
अराजकतावाद से ग्राम्शी के रिश्तों को समझने की कोशिश की गयी है । लेखक का कहना है
कि इटली में अराजकतावाद के इतिहास पर ध्यान नहीं दिया गया है । इसका खात्मा
फ़ासीवाद ने किया । सवाल है कि उसके इतने लम्बे जीवन का कारण क्या था । इसका इतिहास
लिखने वाले इसके विरोधी रहे हैं । वामपंथ की विभिन्न धाराओं के बीच संवाद कायम
होने पर पिछले पचीस सालों में इसके इतिहास लेखन में संतुलन नजर आ रहा है । इसके
इतिहास को गुम कर दिया गया था या कुछेक टिप्पणियों तक सीमित कर दिया गया था ।
हकीकत यह है कि समाजवादियों की भारी खेप इसके असर में रही थी । युवा ग्राम्शी भी
इसके प्रभाव में रहे थे । उनको लगता था कि इटली के शासक देश की जनता का
प्रतिनिधित्व नहीं करते ।
2000 में रटलेज से एनी शोस्टैक ससून की किताब ‘ग्राम्शी ऐंड कंटेम्पोरेरी पोलिटिक्स: बीयांड पेसिमिज्म आफ़ द इंटेलेक्ट’ का प्रकाशन हुआ । बुद्धिजीवियों के
बारे में ग्राम्शी के विचारों का आधार लेकर यह किताब लिखी गई है । राजनीति के सिलसिले
में भी उनके मौलिक विचारों को इसमें समझाने की कोशिश की गई है । लेखों का संग्रह
होने के चलते लेखक को अपनी वैचारिक यात्रा को समझने का मौका मिला है । इनमें
राजनीतिक और समाजार्थिक बदलाव के संदर्भ भी प्रकट हुए हैं । लेख संक्रमण के दौर
में लिखे गए थे । जिस समय ये लेख लिखे जा रहे थे वह रीगन और थैचर की सरकारों का
जमाना था, मध्य और पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्ट सत्ता का पराभव हो रहा था, सामाजिक
जनवाद को फिर से जगाने की कोशिश हो रही थी और पश्चिमी यूरोप में चुनावों में मध्य
वाम की सरकारें जीत रही थीं । इस दौरान लेखक ग्राम्शी के बारे में लगातार सोचते और
लिखते रहे, स्त्रियों की बदलती समाजार्थिक भूमिका पर भी विचार किया तथा बदलते
समाजार्थिक हालात के मद्दे नजर वाम आंदोलन के पुनर्गठन की प्रक्रिया में भी शामिल
रहे । पुराने लेखों को किताब में शामिल करते समय उन्हें काफी कुछ संशोधित किया गया
है । मकसद ग्राम्शी की प्रासंगिकता संबंधी बहस को शुरू करना था । राजनीतिक और
बौद्धिक तीव्र बदलाव के कारण निश्चित फैसला देने से परहेज किया गया है । असल में
सामाजिक विकास की प्रकृति ही इतनी अंतर्विरोधी होती है कि कोई आखिरी बात कहना
नामुमकिन हो जाता है । इस तरह की जटिल स्थितियों में ही ग्राम्शी जैसे लेखन से
प्रेरणा मिलती है जो अंतर्विरोधों को विश्लेषित करते हैं ताकि उनसे सीखा जा सके ।
आम तौर पर आलोचनात्मक विश्लेषण का मतलब यथार्थ के नकारात्मक पहलुओं और चिंतन तथा
आचरण की सीमाओं का बयान भर समझा जाता है, उपयोगी और सकारात्मक सम्भावना तलाशने की
कोशिश नहीं की जाती । इस किस्म के रुख के मुकाबले लेखक वर्तमान की चुनौती का
मुकाबला करते समय अतीत से प्राप्त औजारों को विकसित करना ज्यादा जरूरी समझते हैं ।
2000 में न्यू यार्क यूनिवर्सिटी प्रेस से
डेविड फ़ोर्गास के संपादन में ‘द ग्राम्शी रीडर: सेलेक्टेड राइटिंग्स 1916-1935’ का प्रकाशन हुआ । किताब की भूमिका हाब्सबाम
ने लिखी है । इसके अतिरिक्त ग्राम्शी के लेखन को इस किताब में दो भागों में संयोजित
किया गया है । पहला भाग 1916 से 1926 के लेखन से तैयार किया गया है । दूसरा भाग 1929 से 1935 के जेल के लेखन के चुने हुए अंश हैं
। पहले भाग में समाजवाद और मार्क्सवाद; मजदूर वर्ग की शिक्षा और संस्कृति; फ़ैक्ट्री कौंसिल और समाजवादी लोकतंत्र; कम्युनिज्म; फ़ासीवादी प्रतिक्रिया और कम्युनिस्ट
रणनीति संबंधी पांच अनुभागों में ग्राम्शी का लेखन संग्रहित है । इन सभी अनुभागों के
शुरू में संपादक ने विस्तार से टिप्पणी लिखी है । इसी तरह दूसरे भाग में उनका जेल का
लेखन वर्चस्व, शक्ति
संबंध और ऐतिहासिक खेमा; राजनीति की कला और विज्ञान; निष्क्रिय क्रांति, सीजरवाद, फ़ासीवाद; अमेरिका और फ़ोर्ड; बुद्धिजीवी और शिक्षा; दर्शन, आम समझ, भाषा और लोकगान; लोकप्रिय संस्कृति; पत्रकारिता; कला और नई सभ्यता के लिए संघर्ष संबंधी
नौ अनुभागों में संयोजित किया गया है । इसके भी प्रत्येक अनुभाग के आरम्भ में संपादक
ने इस लेखन का संदर्भ स्पष्ट किया है ।
2002 में प्लूटो प्रेस से केट क्रेहान की
किताब ‘ग्राम्शी, कल्चर ऐंड एन्थ्रोपोलाजी’ का प्रकाशन हुआ । ग्राम्शी के लेखन
में संस्कृति की धारणा को स्पष्ट करने तथा वर्तमान मानवशास्त्र के लिए उसकी
प्रासंगिकता को तलाशने के मकसद से यह किताब लिखी गयी है । ग्राम्शी की जेल
डायरियों के अनुवाद छपने के बाद से ही वे मानवशास्त्र के भीतर चर्चा में आ गये थे
। उल्लेख तो उनका बहुत हुआ लेकिन उनकी बातों को समझा कम गया । रेमंड विलियम्स ने
प्रभुत्व की उनकी धारणा का जिक्र किया । उनकी व्याख्या ही अधिकांश विचारकों का
स्रोत है । असल में ग्राम्शी की डायरियों को बिखरी टिप्पणियों के रूप में लिखा गया
लेकिन उन्हें व्यवस्थित करने का मौका उन्हें नहीं मिल सका था । ग्राम्शी को आज के
सवालों से जोड़ते हुए 2016 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से केट क्रेहान ही की किताब
‘ग्राम्शी’ज कामन सेन्स: इनइक्वलिटी ऐंड इट्स
नैरेटिव्स’ का
प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि प्रगतिशील बौद्धिकों के लिए उनके ज्ञान और बाहरी
दुनिया के बीच का रिश्ता हमेशा सवाल के घेरे में रहा है । ग्राम्शी के लिए यही
सवाल केंद्रीय सवाल था । विचित्र बात है कि मुसोलिनी की फ़ासिस्ट सरकार की
गिरफ़्तारी के चलते उनके लेखन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा प्रकट हुआ । अपने जीवन के
बीस साल वे जेल में रहे । राजनीतिक सक्रियता का कोई अवसर था नहीं इसीलिए सक्रियता
का जो तरीका सुलभ था उसमें खुद को झोंक दिया । जेल जाने से पहले भी प्रचुर लेखन
किया था लेकिन इसे वे अस्थायी महत्व का समझते थे । इसे किताब की शक्ल में कभी
छपवाना नहीं चाहा । जेल में उन्हें गहन विश्लेषण का समय मिला । उनके मानदंड बहुत
ऊंचे थे लेकिन वे मानते थे कि असली ज्ञान शिक्षा जगत की संकीर्ण घेरेबंदी से बाहर
निकल जाता है । उनके लेखन में साधारण लोगों के रोजमर्रा के जीवन पर गम्भीरता के
साथ विचार किया गया है । इससे बनने वाली राय सामाजिक व्यवस्था को आकार देने में
निर्णायक भूमिका निभाती है । इस राय के लिए वे आम समझ की धारणा का इस्तेमाल करते
हैं । इस समझ का निर्माण आलोचनात्मक अनुचिंतन से नहीं बल्कि सहज स्वीकार्य मौजूदा
सचाई से होता है । वे इस समझ से बननेवाली सामाजिक व्यवस्था को बदलना चाहते थे
।
2004 में प्लूटो प्रेस और फ़र्नवुड पब्लिशिंग
से पीटर आइव्स की किताब ‘लैंग्वेज ऐंड हेजेमनी इन ग्राम्शी’ का प्रकाशन हुआ । ग्राम्शी के
विचार और लेखन का अंतर अनुशासनिक परिचय प्रस्तुत करना इस किताब का घोषित मकसद है ।
भाषा को ग्राम्शी के समूचे सिद्धांत के प्रवेश द्वार के रूप में ग्रहण किया गया है
। ग्राम्शी के देहांत के बाद सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मोर्चे पर भाषा
अधिकाधिक महत्व ग्रहण करती गयी है । लेखक का मानना है कि ग्राम्शी का भाषा की राजनीति
संबंधी चिंतन उनके समूचे चिंतन को प्रभावित करता है । बीसवीं सदी के कुछेक अत्यंत
प्रभावी सिद्धांतकार भाषा के बारे में सोचते विचारते रहे हैं । इनमें
विटगेन्सटाइन, सस्यूर, हाइडेगर, देरिदा, फुको, हैबरमास और नोम चोम्सकी का नाम लिया
जा सकता है । 2004 में ही यूनिवर्सिटी आफ़ टोरन्टो प्रेस से पीटर आइव्स की किताब ‘ग्राम्शी’ज पालिटिक्स आफ़ लैंग्वेज: इंगेजिंग द बाख्तीन सर्किल ऐंड द फ़्रैंकफ़र्त
स्कूल’ का
प्रकाशन हुआ । इसी पहलू पर जोर देते हुए 2010 में लेक्सिंगटन बुक्स से पीटर
आइव्स और रोक्को लाकोर्ते के संपादन में ‘ग्राम्शी, लैंग्वज, ऐंड ट्रांसलेशन’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की
भूमिका के अतिरिक्त किताब तीन भागों में है । पहला भाग ग्राम्शी के भाषा चिंतन और
ग्राम्शी के मार्क्सवाद के बारे में छह लेखों का है । दूसरा भाग भाषा, अनुवाद, राजनीति और संस्कृति की
पारस्परिकता का विवेचन करनेवाले पांच लेखों का है । तीसरा भाग राजनीति, सिद्धांत और पद्धति का विश्लेषण
करते हुए पांच लेखों का संग्रह है । भाषा के इसी पक्ष को उजागर करते हुए 2013 में ब्रिल से अलेसान्द्रो कारलुच्ची की किताब ‘ग्राम्शी ऐंड लैंग्वेजेज: यूनिफ़िकेशन, डाइवर्सिटी, हेजेमनी’ का प्रकाशन हुआ ।
2007 में प्लूटो प्रेस से एडम डेविड मोर्टन
की किताब ‘अनरावेलिंग
ग्राम्शी: हेजेमनी
ऐंड पैसिव रेवोल्यूशन इन द ग्लोबल पोलिटिकल इकोनामी’ का प्रकाशन हुआ । किताब का मकसद वैश्विक
राजनीतिक अर्थतंत्र के लिहाजन वर्चस्व और निष्क्रिय क्रांति जैसी ग्राम्शी की धारणाओं
की ऐतिहासिक और समकालीन प्रासंगिकता की परीक्षा करना है । ग्राम्शी की असमान विकास
की धारणा के आधार पर राजनीतिक आचरण के इन रूपों की संभावना और उपयोगिता का विश्लेषण
भी इस किताब में किया गया है । सबसे पहले ग्राम्शी की इन धारणाओं को स्पष्ट करने के
लिए उनके समस्त लेखन की छानबीन की गई है ।
2008 में पालग्रेव मैकमिलन से अलीसन जे आयर्स
के संपादन में ‘ग्राम्शी, पोलिटिकल इकोनामी, ऐंड इंटररिलेशंस थियरी: माडर्न प्रिन्सेज ऐंड नेकेड एम्परर्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की भूमिका
के अतिरिक्त किताब में शामिल दस लेख दो भागों में संयोजित हैं । संपादक का कहना है
कि इस समय विकल्पहीनता का वैचारिक मंत्र सवालों के घेरे में आ चुका है । इतिहास का
अंत होते ही उदार लोकतंत्र की वजह से शांति और खुशहाली के स्वर्ग में प्रवेश होना
था लेकिन पारिस्थितिकीय संकट, विषमता, हिंसा, दमन और शोषण, भेदभाव, अतिशय उपभोग और
वंचना इस समय की सचाई बन गये हैं । इससे उत्पन्न विक्षोभ की वजह से वैकल्पिक
दुनिया बनाने की हसरत और सम्भावना का जन्म हो रहा है । इसके सबूत भी नजर आ रहे हैं
। वैकल्पिक मुद्रा और विनिमय की प्रणाली बनाने से लेकर विश्व बैंक की बैठकों के
घेराव और निजीकरण के विरोध में हड़तालों तक तरह तरह की कार्यवाहियों का उभार हो रहा
है । प्रतिरोध की इन कार्यवाहियों के मुद्दे बहुत तरह के हैं । इन आंदोलनों को
टिकाऊ बनाये रखने के लिए व्यवस्था की समझ आवश्यक है । इस व्यवस्था के समाजैतिहासिक
विश्लेषण से इसको बदलने की सामाजिक रणनीतियों को तय करने में आसानी होगी । लेनिन
का यह मशहूर कथन याद रखना होगा कि बिना क्रांतिकारी सिद्धांत के क्रांतिकारी
आंदोलन नहीं खड़ा किया जा सकता । सिद्धांत का प्रभाव व्याख्या और विश्लेषण के साथ
व्यावहारिक सक्रियता पर भी पड़ता है ।
2009 में ब्रिल प्रकाशन से हिस्टारिकल मैटीरियलिज्म
बुक सिरीज के तहत पीटर डी थामस लिखित ‘द ग्राम्शीयन मोमेंट’ शीर्षक पुस्तक छपी है जिसका उपशीर्षक ‘फिलासफी, हेजेमनी ऐंड मार्क्सिज्म’ है । किताब इस नाते भी महत्वपूर्ण है
कि पश्चिमी मार्क्सवादियों में से सबसे अधिक प्रासंगिक इस इतालवी चिंतक को सही परिप्रेक्ष्य
प्रदान करने की कोशिश की गई है अन्यथा सोवियत संघ से नाराज मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों
ने ग्राम्शी को लगभग उत्तर आधुनिक चिंतक बना दिया था । लेखक का कहना है कि
ग्राम्शी की जेल डायरी बीसवीं सदी के सैद्धांतिक लेखन में अन्यतम है । बीस दशक के
उत्तरार्ध और तीस द्शक के पूर्वार्ध में फ़ासिस्ट कैद के कठिन हालात में लिखे इस
पाठ का विषयवार संस्करण दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ही छप सका था । पचास और साठ के दशक
में इटली में इनकी लोकप्रियता रही । साठ के दशक के बाद पूरी दुनिया में इनके बारे
में उत्सुकता नजर आयी । पचहत्तर में व्यवस्थित संस्करण छपने के बाद इतिहास,
समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, साहित्य, अंतर्राष्ट्रीय संबंध और राजनीतिशास्त्र में
उनको समझना जरूरी माना जाने लगा । ग्राम्शी की इस व्यापक लोकप्रियता के साथ ही
अन्य मार्क्सवादी चिंतकों की लोकप्रियता में
गिरावट आयी । इस तरह ग्राम्शी मार्क्सवाद के घेरे से बाहर निकलकर मानविकी
और समाजविज्ञान में प्रतिष्ठित हुए । उनकी लोकप्रियता के मुकाबले उनके लेखन का
विश्लेषण पर्याप्त नहीं हुआ । वर्चस्व की धारणा की माला तो जपी गयी लेकिन उसका
विश्लेषण और मूल्यांकन कम ही हुआ । मार्क्सवाद के इतिहास के संदर्भ में रखकर
ग्राम्शी के चिंतन पर बहुत कम विचार हुआ । अब इस दिशा में काम हो रहा है । किताब
का मकसद भी मार्क्सवाद के उत्थान के परिप्रेक्ष्य में ग्राम्शी की विरासत का
मूल्यांकन है ।
2009 में रटलेज से मार्क मैकनेली और जान
श्वार्ज़मांटेल के संपादन में ‘ग्राम्शी ऐंड ग्लोबल पालिटिक्स: हेजेमनी ऐंड रेजिस्टेन्स’ शीर्षक किताब का प्रकाशन हुआ । आज
की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने के लिए ग्राम्शी की कुछ धारणाओं, मसलन प्रभुत्व या नागरिक समाज, का इस्तेमाल करते हुए विभिन्न
विद्वानों के लेखों को इस किताब में एकत्र किया गया है । जान श्वार्ज़मांटेल की
भूमिका के अलावे किताब में तीन भाग बनाकर लेखों को शामिल किया गया है । पहला भाग
ग्राम्शी और नई विश्व व्यवस्था पर केंद्रित है । दूसरे भाग में राजनीति के
सैद्धांतिक पक्ष पर ध्यान दिया गया है । तीसरे भाग के लेख ग्राम्शी के चिंतन के
संदर्भ में समकालीन ब्रिटिश राजनीति का विश्लेषण करते हैं ।
2010 में मंथली रिव्यू प्रेस से
अंतोनियो ए सांतुच्ची की किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘अंतोनियो ग्राम्शी’ शीर्षक से हुआ । अनुवाद ग्रेज़ी
लादिमारो ने सल्वातोरे एंजेल-दिमारो के साथ मिलकर किया । भूमिका एरिक हाब्सबाम ने, आमुख जोसेफ ए बुत्तिगेग ने और
संपादकीय टिप्पणी लेलियोल पोर्ता ने लिखा है । हाब्सबाम ने भूमिका में बात शुरू
करते हुए लिखा है कि ग्राम्शी के अलावा बीसवीं सदी का शायद ही कोई ऐसा मशहूर
बुद्धिजीवी होगा जिसने अपना लेखन इस तरह से किया कि उसे आसानी से समझा न जा सके और
इसके बावजूद वह सबसे प्रभावशाली चिंतक साबित हुआ हो । इसका कारण दो विद्वान हैं
जिन्होंने अपना जीवन ग्राम्शी के लेखन को व्यवस्थित और विश्लेषित करने में लगा
दिया । उनमें से एक सांतुच्ची प्रस्तुत किताब के लेखक हैं । इस लेखक का देहांत कुल
चौवन साल की उम्र में हो गया । ग्राम्शी अध्ययन के इतने निष्णात विद्वान की अकाल
मृत्यु ग्राम्शी के विश्लेषण के लिए बहुत बड़ा नुकसान थी ।
2016 में ब्रिल से जिसेप कोस्पीतो की इतालवी
किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘द रिद्म आफ़ थाट इन ग्राम्शी: ए डायाक्रोनिक इंटरप्रेटेशन आफ़ प्रिजन
नोटबुक्स’ प्रकाशित
हुआ । अनुवाद अरियाना पोन्ज़िनी ने किया है । ग्राम्शी की जेल डायरियों के पहली बार
प्रकाशित होने के तीस साल बीत जाने के बाद उनका कालानुक्रमिक संस्करण छपा था । उसके
भी तीस साल बाद यह किताब छपी है । 2016 में ब्रिल से ही डिनिएल एगन की किताब ‘द डायलेक्टिक आफ़ पोजीशन ऐंड मैनोवर; अंडरस्टैंडिंग ग्राम्शी’ज मिलिटरी मेटाफर’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है
कि ग्राम्शी की जेल डायरियों का प्रकाशन इतालवी में 1950 दशक में तथा अंग्रेजी में
1970 दशक के पूर्वार्ध में हुआ । उसके बाद से ही आलोचनात्मक समाज सिद्धांत और
क्रांतिकारी राजनीति के क्षेत्र में उनके लेखन की भूमिका महत्वपूर्ण रही है ।
2016 में ब्रिल से मार्कोस डेल रोइओ की 2015 में पुर्तगाली में प्रकाशित किताब
का अंग्रेजी अनुवाद ‘द प्रिज्म्स आफ़ ग्राम्शी: द पोलिटिकल फ़ार्मूला आफ़ द यूनाइटेड
फ़्रंट’ का
प्रकाशन हुआ । अनुवाद पेद्रो सेत्ते कामरा ने किया है । ज्यार्जियो बरत्ता ने
किताब की प्रस्तावना लिखी है । उनके अनुसार लेखक ने ग्राम्शी की राजनीतिक और
बौद्धिक सक्रियता का सावधान विश्लेषण किया है । साथ ही इस बात को बलपूर्वक स्थापित
किया गया है कि ग्राम्शी के समूचे जीवन में उनकी राजनीतिक सक्रियता और दार्शनिक
चिंतन में निरंतरता मिलती है ।
2017 में स्प्रिंगेर से निकोला पिज़ोलातो
और जान डी होल्स्ट के संपादन में ‘अंतोनियो ग्राम्शी: ए पेडागागी टु चेंज द वर्ल्ड’ का प्रकाशन हुआ । संपादक का कहना
है कि सोवियत संग्रहालय के खुलने के बाद स्पष्ट हो गया कि ग्राम्शी जेल जाने से
पहले और उसके बाद भी सबसे पहले राजनीतिक कार्यकर्ता थे । इसका मतलब यह नहीं कि
उनका लेखन केवल उनके समय की राजनीतिक हलचलों के बारे में तात्कालिक प्रतिक्रिया
मात्र है या आज की राजनीतिक गतिविधियों की प्रेरणा के लिए ही उनका अध्ययन किया जाए
। उनका लेखन तत्कालीन घटनाओं को समझने में तैयारशुदा वैचारिक औजारों की
अपर्याप्तता से उपजा है । इसके लिए उन्होंने राजनीति की भाषा को विस्तारित और
रूपांतरित किया । राजनीति और राज्य संबंधी उनके लेखन के साथ ही शिक्षा संबंधी उनके
विचारों पर भी यह बात लागू होती है । किताब के तीन भागों में संपादकीय प्रस्तावना
के अतिरिक्त दस लेख शामिल हैं ।
2017 में ब्रिल से अलिस्तेयर डेविडसन की
किताब ‘अंतोनियो
ग्राम्शी: टुवर्ड्स
ऐन इंटेलेक्चुअल बायोग्राफी’ के नये संस्करण का प्रकाशन हुआ । इसकी भूमिका में लेखक
ने बताया है कि 1950 दशक के उत्तरार्ध और 1960 दशक के पूर्वार्ध में आस्ट्रेलिया में अध्ययन के दौरान
लेनिन, स्तालिन
और अन्य कुछ नेताओं के जरिए क्रांतिकारी राजनीति से उनका परिचय हुआ था । इसके अतिरिक्त
मार्क्स और एंगेल्स की भी किताबों की जानकारी थी । तब त्रात्सकी के बारे में कोई बात
नहीं करता था । किताब में नार्बेतो बोबियो की प्रस्तावना भी शामिल है । पहले संस्करण
की भूमिका भी छापी गयी है ।
2017 में रटलेज से ब्रूस ग्रेल की किताब ‘अंतोनियो
ग्राम्शी ऐंड द क्वेश्चन आफ़ रिलीजन: आइडियोलाजी, एथिक्स, ऐंड हेजेमनी’ का प्रकाशन
हुआ । लेखक ने सबसे पहले 2009 में छपी एक किताब का जिक्र किया है जिसमें अलग अलग
अनुशासनों के लोगों ने ग्राम्शी की प्रासंगिता का जिक्र किया था । संपादक ने ढेर
सारे विषयों के अध्येताओं के लिए इसकी उपयोगिता की बात लिखी थी । उनकी सूची से
धार्मिक अध्ययन गायब था । ग्राम्शी के चिंतन से जिन अनुशासनों को लाभ होता समझा
जाता है उनमें धर्म का जिक्र नहीं होता । ऐसा तब होता है जब ग्राम्शी की अधिकतर
धारणाओं का विकास धर्म के इतिहास के प्रसंग में हुआ है । विभिन्न सामाजिक समूह जब
सत्ता के लिए संघर्ष करते हैं तो धार्मिक और नैतिक विमर्श उसमें खास भूमिका निभाते
हैं । सभी जानते हैं कि धर्म और नैतिकता का राजनीतिक मकसद के लिए भी इस्तेमाल होता
है । समाजों की रचना, उनके संरक्षण और रूपांतरण में धार्मिक आचार, विचार और
संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । एक समूह का दूसरे समूह पर प्रभुत्व कायम
करने और उस प्रभुत्व से मुक्ति के संघर्ष में भी धर्म और नैतिकता की विशेष भूमिका
होती है । धर्म और नैतिकता की राजनीति से जुड़े इन सभी सवालों पर ग्राम्शी के लेखन
में काफी अंतर्दृष्टि है ।
2020 में ब्रिल से डेविड कदेदू के संपादन
में
‘ए
कम्पैनियन टु अंतोनियो ग्राम्शी: एसेज आन हिस्ट्री ऐंड थियरीज आफ़ हिस्ट्री, पोलिटिक्स ऐंड हिस्टोरियोग्राफी’ का प्रकाशन हुआ । किताब में शामिल तेरह
लेख पांच भागों में हैं । पहले भाग में इतिहास, दूसरे में इतिहास सिद्धांत, तीसरे में कम्युनिज्म, चौथे में वर्चस्व और पांचवें में इतिहास
लेखन संबंधी ग्राम्शी के विचारों का विश्लेषण करने वाले लेख संकलित हैं । संपादक
का मानना है कि बीसवीं सदी में ग्राम्शी इतने मशहूर रहे कि उनकी सांस्कृतिक
उत्पत्ति को लगभग भुला दिया गया । उनके लेखन के अंग्रेजी अनुवादों के चलते वे
वैश्विक चिंतक हो चुके हैं । कई बार उनके नाम पर वह भी कह दिया जाता है जो उनका
मंतव्य नहीं था । इस संग्रह में शामिल लेखों से बीसवीं सदी और ग्राम्शी का जटिल
रिश्ता प्रकट होता है ।
2020 में ब्रिल से अलवारो बियान्ची की 2008 में पुर्तगाली में छपी किताब का अंग्रेजी
अनुवाद ‘ग्राम्शी’ज लेबोरेटरी: फिलासफी, हिस्ट्री ऐंड पोलिटिक्स’ के दूसरे संस्करण का प्रकाशन हुआ ।
अनुवाद सीन पर्दी ने किया है । लेखक को इसके दूसरे संस्करण के छपने की उम्मीद थी
क्योंकि ब्राजील में छपने के कुछ दिनों बाद ही पहला संस्करण लुप्त हो गया था ।
किताब लिखते समय लेखक ग्राम्शी के विशेषज्ञों के साथ दुनिया बदलने के काम में लगे
कार्यकर्ताओं तक भी इसे ले जाना चाहते थे । लिखने के बाद उन्हें ग्राम्शी के बारे
में तमाम किताबों की मौजूदगी में अपनी इस किताब की प्रासंगिकता पर संदेह था लेकिन
इसकी बिक्री और बहसों से इसकी उपयोगिता सिद्ध हुई ।
2020 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से फ़्रेडेरिक
जेमेसन और रोबर्तो दाइनोत्तो के संपादन में ‘ग्राम्शी इन द वर्ल्ड’ का प्रकाशन हुआ । जेमेसन की प्रस्तावना
और दाइनोत्तो की भूमिका के अतिरिक्त किताब में तेरह लेख संकलित हैं । जेमेसन का कहना
है कि ग्राम्शी के प्रति आकर्षण का बड़ा कारण उनके विचारों की अनेकार्थता है । इस मामले
में उनका लेखन मार्क्सवादी परम्परा के सभी महत्वपूर्ण विचारकों के समान ही है जिनकी
किताबें अंतिम रूप नहीं ले सकीं । ग्राम्शी की खास किस्म की शब्दावली के लिए हमेशा
ही फ़ासीवादी कैद की जटिल स्थितियों का तर्क दिया जा सकता है ताकि उनकी धारणाओं को बोधगम्य
बनाया जा सके । इसके बावजूद ग्राम्शी के लेखन में अर्थतंत्र के मुकाबले संस्कृति की
प्रमुखता से इनकार नहीं किया जा सकता ।
2020 में ब्रिल प्रकाशन से फ़्रन्चेस्का अन्तोनिनी,
आरों बर्नस्टाइन, लोरेन्ज़ो फ़ुसारो और राबर्ट जैकसन के संपादन में ‘रीविजिंटिंग
ग्राम्शी’ज नोटबुक्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त
किताब के आठ हिस्सों में पचीस लेख संकलित हैं । पहले में ग्राम्शी के वैश्विक
प्रसार, दूसरे में भाषा और अनुवाद, तीसरे में ग्राम्शी और मार्क्सवादी विरासत,
चौथे में निम्नवर्गीयता, पांचवें में उत्तरऔपनिवेशिकता, छठवें में संस्कृति
विचारधारा और धर्म, सातवें में पूंजीवाद के इतिहास तथा आठवें हिस्से में ग्राम्शी
के अध्ययनों से जुड़े लेख संकलित हैं ।
2021 में पालग्रेव मैकमिलन से जिसेप वाचा की इतालवी
किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘अल्टरनेटिव माडर्निटीज: अंतोनियो ग्राम्शी’ज ट्वेन्टीएथ
सेन्चुरी’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद डेरेक बूथमैन और क्रिस डेनिस ने किया है । लेखक
के चिंतन पर ग्राम्शी का प्रभाव उनके शोध के समय से ही पड़ने लगा था लेकिन ग्राम्शी
का व्यवस्थित अध्ययन उन्होंने 1975 में शुरू किया । उसी साल प्रिजन नोटबुक्स के
सुसंपादित संस्करण का प्रकाशन हुआ जिससे इन टिप्पणियों का कालानुक्रम स्पष्ट हुआ ।
इससे उन्हें तोगलियात्ती की इस राय का महत्व समझ आया कि ग्राम्शी के लेखन को उनकी
राजनीतिक गतिविधियों के साथ जोड़कर देखने से ही उनके सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य का
पता चलेगा । इसीलिए उन्होंने बीसवीं सदी के इतिहास के साथ जोड़कर ग्राम्शी को देखना
आरम्भ किया ।
2021 में लेक्सिंगटन बुक्स से एरिका एंगस्ट्राम और
राल्फ बेलीव्यू की किताब ‘ग्राम्शी ऐंड मीडिया लिटरेसी: क्रिटिकली थिंकिंग एबाउट
टीवी ऐंड मूवीज’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का कहना है कि 2020 में कोरोना महामारी
के चलते लाखों लोगों को अपने घरों में कैद रहने के लिए मजबूर होना पड़ा । इस विषाणु
से स्वास्थ्यकर्मी जूझते रहे तो आम लोगों से इस लड़ाई में इसी तरह साथ देने की अपील
की गयी । इस प्रकार कुछ न करना भी योगदान हो गया । अमेरिका में तो मजाक ही चल पड़ा
कि इस समय सबसे बड़ी देशभक्ति घर के भीतर बैठे ही रहना है । टेलीविजन और इंटरनेट पर
देखने के लिए सामग्री भरपूर उपलब्ध करायी गयी । खबरें खूब सोच समझकर चलायी जा रही
थीं । इन सबसे एक आभासी सांस्कृतिक भूगोल निर्मित हो रहा था । किताब में यही देखने
की कोशिश है कि इस सदी की शुरुआत में किस तरह मीडिया खास किस्म की सांस्कृतिक
विचारधारा का वाहक बन गयी है । इसमें वर्चस्व, मीडिया साक्षरता और संकेतशास्त्र की
धारणाओं से मदद ली गयी है । वर्चस्व की धारणा ग्राम्शी की धारणा है । उन्होंने
बीसवीं सदी के शुरुआती सालों में संस्कृति, विचारधारा और राजनीति के सवालों पर
प्रचुर लेखन किया । जन संचार और संस्कृति की आपसी घुलावट पर उनका खासा जोर था
।
2021 में ब्रिल प्रकाशन से मसीमिलियानो बादिनो और
पिएत्रो दानिएल ओमोदेओ के संपादन में ‘कल्चरल हेजेमनी इन ए साइंटिफ़िक वर्ल्ड:
ग्राम्शीयन कनसेप्ट्स फ़ार द हिस्ट्री आफ़ साइंस’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की
प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के छह हिस्सों में कुल चौदह लेख संकलित हैं । पहले
हिस्से में ग्राम्शी की धारणाओं के अतीत और उनके वर्तमान पर, दूसरे में विभिन्न
अनुशासनों के साथ उनके संघर्षों पर, तीसरे में विज्ञान और धर्म पर, चौथे में
आवयविक बौद्धिकों पर, पांचवें में शीतयुद्धयुगीन विज्ञान पर तथा छठवें हिस्से में
ग्राम्शी की धारणाओं के अतीत और भविष्य पर विचार किया गया है । संपादकों का मानना
है कि विज्ञान और जानने की विधि संबंधी बहसों में राजनीति प्रमुख सवाल बन गयी है ।
असल में मास मीडिया द्वारा जानकारी फैलाने की क्षमता और पापुलिज्म के उभार ने
विज्ञान और विचारधारा के संबंधों को पूरी तरह राजनीतिक बना दिया है ।
2021 में रटलेज से एमिलियो ज़ुकेत्ती और अन्ना मारिया
चिमिनो के संपादन में ‘अंतोनियो ग्राम्शी ऐंड द एनशिएन्ट वर्ल्ड’ का प्रकाशन हुआ ।
एमिलियो ज़ुकेत्ती की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में चौदह लेख शामिल हैं । इसके
बाद अन्ना मारिया चिमिनो, अल्बर्तो एसु और एमिलियो ज़ुकेत्ती का अनुचिंतन रखा गया
है । किताब में शामिल लेख ग्राम्शी की 80वीं बरसी पर आयोजित एक गोष्ठी में
प्रस्तुत किये गये थे । किताब में शामिल करते हुए उनमें भरपूर संशोधन किया गया है
। ज़ुकेत्ती का कहना है कि ग्राम्शी की प्रसिद्धि में इजाफ़ा हो रहा है । उनकी
तस्वीर का बड़े पैमाने पर प्रसार हो रहा है और उनके लेखन को बहुधा उद्धृत किया जाता
है । इसके चलते उन पर इटली में राजनीतिक दावा भी भांति भांति के लोग ठोंकते हैं ।
इटली से बाहर अंग्रेजी भाषी दुनिया में ग्राम्शी की प्रसिद्धि एंडरसन के लिखे न्यू
लेफ़्ट रिव्यू में प्रकाशित लेख के बाद हुई । इसके विपरीत फ़्रांसिसी में अल्थूसर
द्वारा ग्राम्शी की विचारधारा संबंधी कुछेक धारणाओं के इस्तेमाल से उनका नाम सुना
गया । इस तरह ग्राम्शी के बारे में हमारी समझ पर इन सब तरह की व्याख्याओं का
प्रभाव नजर आता है । इसके कारण सबसे पहले उनके इस अभिग्रहण पर विचार किया गया है ।
इनमें उनके राजनीतिक के साथ ही सैद्धांतिक अभिग्रहण का भी इतिहास उकेरने की कोशिश
की गयी है ताकि उनके प्रति सचेत होकर ग्राम्शी को समझा जाये । ग्राम्शी के लेखन का
प्रचीन विश्व संबंधी यह पहलू खास है और इसमें भाषा संबंधी उनकी दक्षता का पता चलता
है ।
2021 में पालग्रेव मैकमिलन से जुआन डाल मासो की किताब
के अंग्रेजी अनुवाद ‘हेजेमनी ऐंड क्लास स्ट्रगल: त्रात्सकी, ग्राम्शी ऐंड
मार्क्सिज्म’ का प्रकाशन हुआ । अनुवादक मारिसेला ट्रेविन हैं । किताब की
प्रस्तावना वारेन मोन्टाग ने लिखी है और उन्होंने बताया है कि ग्राम्शी के बारे
में अंग्रेजी भाषी बौद्धिकों में कायम धारणा के पीछे पेरी एंडरसन का 1976 में लिखा
न्यू लेफ़्ट रिव्यू में प्रकाशित एक लम्बा लेख है जिसमें यूरो कम्युनिस्ट धारा के
सुधारवाद की आलोचना की गयी थी । लेख में इस सुधारवाद के लिए ग्राम्शी या उनके
फ़्रांसिसी और इतालवी अनुयायियों द्वारा बनायी गयी छवि को जिम्मेदार ठहराया गया था
। एंडरसन के लेख से ब्रिटेन और अमेरिका में ग्राम्शी के बारे में रुचि का तो जन्म
हुआ लेकिन उनके लेख से ग्राम्शी के लेखन के सैद्धांतिक और व्यावहारिक असरात
निर्धारित हुए । इसमें कोई अचरज की बात नहीं कि ग्राम्शी को इस धारणा से आजाद
कराने की पहल यूरोप या अमेरिका की जगह लैटिन अमेरिका से हुई । कहा जा सकता है कि
ग्राम्शी को अपने राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन में जिन खतरों और चुनौतियों का सामना
करना पड़ा था वे ही पचास साल बाद चिली और अर्जेन्टिना में प्रकट हुईं । इसके चलते
रणनीति के मोर्चे पर सवाल उसी तरह के उठे जिस तरह के सवाल फ़ासीवाद के मुकाबले के
प्रसंग में उठते हैं । इसके चलते ग्राम्शी के लेखन से अर्जेन्टिना निवासी इस लेखक
ने ग्राम्शी को नये संदर्भों में समझने का प्रयास किया ।
2021 में पालग्रेव मैकमिलन से मार्चेलो मुस्ते की
इतालवी में 2018 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘मार्क्सिज्म ऐंड फिलासफी आफ़
प्रैक्सिस: ऐन इटैलियन पर्सपेक्टिव फ़्राम लैब्रियोला टु ग्राम्शी’ प्रकाशित हुआ ।
अनुवाद मतिया बिलार्देलो ने किया है । लेखक के अनुसार पहली बार छपने पर इटली के
भीतर और बाहर इस पर काफी बहसें हुई थीं । दूसरे और तीसरे इंटरनेशनल के समानांतर
इटली के कुछ विद्वानों ने मार्क्सवाद का मौलिक पाठ किया था । चालीस साल तक चली उस
परम्परा की जानकारी इसमें कुल पांच चिंतकों के लेखन का विश्लेषण करते हुए करायी
गयी है । मूल प्रकाशन मार्क्स के जन्म के दो सौवें साल में हुआ था । उस समय 1989
के बाद के हालात में मार्क्स के चिंतन की अवस्था को देखने का मौका मिला । नयी सदी
की शुरुआत के साथ ही विश्व पूंजीवाद वित्तीय संकट में फंसा और फिलहाल कोरोना के
सामाजिक असर से जूझ रहा है । ऐसे में नवउदारवाद के वादों और मार्क्स की
अप्रासंगिकता के दावों की परीक्षा करने का समय है । इस समय के लिए कारगर विचार
सरणी के निर्माण के लिए खुद मार्क्सवाद को भी इटली की इस परम्परा से कुछ मदद मिल
सकती है । इसकी उम्मीद से ही इसे छपाया गया है । इटली की कम्युनिस्ट पार्टी को
फ़ासीवाद के साथ लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी थी । उसके खात्मे के बाद आधुनिक लोकतांत्रिक
देश के बतौर उसके निर्माण में भी हाथ बंटाना पड़ा था ।
2021 में ब्रिल प्रकाशन से फ़्रंचेस्का अन्तोनिनी की
किताब ‘सिजरिज्म ऐंड बोनापार्तिज्म इन ग्राम्शी: हेजेमनी ऐंड द क्राइसिस आफ़
माडर्निटी’ का प्रकाशन हुआ । ग्राम्शी द्वारा प्रयुक्त इन धारणाओं का विश्लेषण इस
किताब का लक्ष्य है । इनका इस्तेमाल कैद से पहले और उसके बाद भी ग्राम्शी ने किया
। उनके चिंतन के इस पहलू की उपेक्षा हुई है । सीजरवाद और बोनापार्तवाद की इस
परीक्षा के बहाने राजनीतिक चिंतन का इतिहास भी खुलते जाने की आशा लेखक को है ।
ग्राम्शी की इन कोटियों का उल्लेख तो हुआ है लेकिन इन पर गम्भीरता के साथ विचार
नहीं किया गया है । इनके विश्लेषण से ग्राम्शी के चिंतन की खासियत का पता चलने के
साथ उनकी वैचारिक निष्ठा का भी अंदाजा होगा । जेल जाने से पहले जब ग्राम्शी जब इन
धारणाओं का इस्तेमाल करते हैं तो बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के इतालवी या यूरोपीय
इतिहास के प्रसंग में करते हैं । साथ ही इनमें सामान्य अर्थ भी वे भरते हैं और ये
कोटियां राजनीतिक पार्टियों की प्रकृति और उनकी भूमिका, विभिन्न सामाजिक समूहों
में शक्ति संबंधों तथा तानाशाह शासन के उदय के साथ राज्य के रूपांतरण को समझने में
भी मदद करती हैं । जेल डायरियों में इन कोटियों का प्रयोग अधिक सुसंगत तरीके से
हुआ है । इनका इस्तेमाल वे अतीत के साथ वर्तमान को समझने के लिए भी करते हैं । इन
कोटियों का संबंध उनकी अन्य विश्लेषणात्मक कोटियों से भी है । इन कोटियों पर ध्यान
देने से मार्क्सवाद और उसकी विरासत के प्रति ग्राम्शी का रुख समझने में भी मदद
मिलती है । इसके जरिये वे अपने समय की बौद्धिक और राजनीतिक हालत से तो जुड़े नजर
आते ही हैं, प्रैक्सिस के दर्शन में निहित विशेषता भी स्पष्ट होती है । जेल जाने
से पहले के लेखन से जेल डायरियों का रिश्ता भी इन कोटियों के चलते घनिष्ठ बन जाता
है ।
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