आम तौर पर बर्बरता को असभ्यता या पुराने समय से जोड़कर देखा जाता है ।
हमारी कल्पना में भी यह बात नहीं आती कि बर्बरता की पूरी धारणा को मनुष्यों के ऐसे
सभी समूहों पर थोपा गया है जो किसी भी तरह से भिन्न होते हैं । जहां तक पुराने समय
के साथ इसे जोड़ने का संबंध है तो यह जानना उचित होगा कि बहुत सारे अपराध आधुनिक समय में
जितने बड़े पैमाने पर किये जा रहे हैं, पुराने समय में उनकी न तो जरूरत थी और न ही
उसके लिए आवश्यक साधन उपलब्ध थे । राज्य नामक संस्था के आगमन के साथ पाप से अलग
अपराध नामक धारणा की जरूरत सामाजिक नियंत्रण के लिए पड़ी और इस संस्था का लोगों की
जिंदगी में इतना दखल पहले कभी नहीं रहा था । समाज से पैदा होने वाली इस संस्था ने
धीरे धीरे सामाजिक जीवन को अपने हितों के अनुरूप ढालना शुरू किया तो व्यक्तियों के
भिन्न आचरण को काबू करना उसे जरूरी लगने लगा । एक और बात कि कुछ अपराधों को हम
पाशविक कहते हैं जिनका पशु जगत में अस्तित्व ही नहीं होता । बर्बरता भी ऐसी ही
परिघटना है जिसका इस्तेमाल तो प्रचीन काल के लिए किया जाता है लेकिन इस किस्म के आचरण
को आधुनिक समय में आकर विस्तार मिला है । आधुनिक समय की इस बर्बरता के विभिन्न
पहलुओं को पहचानने की जो भी कोशिश हुई है उसे देखने से लगता है कि राज्य और तकनीक
से इनका गहरा रिश्ता है । आधुनिक काल में हिंसा और बर्बरता के सबसे व्यवस्थित रूप
के बतौर युद्ध को समझा जा सकता है जिसके साथ राज्य और तकनीक का गहरा नाता है ।
युद्ध का कुल मकसद राज्य की सीमाओं का या प्रभाव क्षेत्र का विस्तार रहा है तथा अधिकांश तकनीक संबंधी
नवीनता का निवेश भी इस काम में किया जाता रहा है ।
इस मामले में सबसे हाल का उदाहरण अफ़गानिस्तान में अमेरिका की पिछले बीस
साल की मौजूदगी है जिसके इर्द गिर्द अमेरिका के युद्धक इतिहास की छानबीन हो रही है
। इस सिलसिले में 2021
में फ़रार, स्त्रास ऐंड गीरू से सैमुएल मोइन की किताब ‘ह्यूमेन: हाउ द यूनाइटेड
स्टेट्स एबैन्डंड पीस ऐंड रीइनवेन्टेड वार’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने आमुख में दो
वैवाहिक समारोहों का जिक्र किया है जो एक ही दिन दो मुल्कों में आयोजित हुए हैं ।
इनमें से एक अमेरिका के कनेक्टिकट में आयोजित हुआ है तो दूसरा अफ़गानिस्तान के
कंदहार में । मौसम दोनों ही जगह सुहाना है । अमेरिका वाली शादी में वेटर सर्वोत्तम
भोजन परोस रहे हैं । अफ़गानिस्तान वाली शादी में उतना बेहतर तो नहीं लेकिन ठीक ठाक
भोजन का इंतजाम है । धन और संस्कृति में अंतर के बावजूद दोनों ही जगह पूरा परिवार इस
वैवाहिक समारोह में शरीक है । अमेरिका वाली शादी में जो वीडियो तैयार किया जा रहा
है उसके लिए ड्रोन की सहायता से पंद्रह मिनट की आसमानी फ़िल्म शूटिंग हो रही है । इसी तकनीक का
इस्तेमाल अफ़गानिस्तान में भी हो रहा है लेकिन वहां पर ड्रोन की ऐसी मौजूदगी स्थानीय
लोगों की न तो चाहत
थी,
न उन्होंने इसे भेजा है ।
युद्ध ने उन दोनों के बीच ऐसा हिंसक रिश्ता बना दिया है । अनंत युद्ध अब अमेरिकी सामान्य
लोगों के दैनन्दिन जीवन का अंग हो चला है । दूर देशों में उनकी सरकार के
हस्तक्षेप अत्यंत घातक और क्रूर रहे हैं । कितनी भारी ट्रेजेडी है कि अफ़गानिस्तान
की अधिकतर शादियों का अंत दफ़नाने की क्रिया में होता है । अमेरिकी सैनिकों को जबसे
यह शंका हुई कि अफ़गानिस्तान के वैवाहिक समारोहों में आतंकी नेता शरीक रहते हैं
तबसे आतंकवाद विरोधी कार्यवाहियों में मारे जाने वालों में सामान्य तथा बेगुनाह
नागरिकों का अनुपात बेतरह बढ़ गया । सही बात है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद
इस तरह के हमलों का भय कम हुआ है लेकिन रोबोट के जरिये हमले की इस नयी तकनीक के
आगमन और व्यापक प्रयोग ने किसी भी जगह को सुरक्षित नहीं रहने दिया है । इसी
परिघटना को उजागर करते हुए 2020 में
यूनिवर्सिटी आफ़ मिनेसोटा प्रेस से रेबेका ए एदेलमैन और डेविड किएरान के संपादन में
‘रीमोट वारफ़ेयर: न्यू कल्चर्स आफ़ वायलेन्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की
प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में शामिल बारह लेख तीन हिस्सों में संयोजित हैं ।
पहले हिस्से के लेखों में भविष्य के युद्धों की तस्वीर खींचने की कोशिश की गयी है । दूसरे हिस्से के लेख
तकनीक के जरिये नये तरह के युद्धों से परिचय की प्रक्रिया स्पष्ट करते हैं । तीसरे
हिस्से में इन तकनीकों के प्रसार के चलते बने नये माहौल का जायजा लिया गया है । संपादकों
ने प्रस्तावना में अपनी साझा रुचि का बयान किया है जिसके तहत अमेरिकी नागरिक अपने
देश की ओर से छेड़े गये युद्धों के बारे में जिस तरह समझने की कोशिश करते हैं उसकी
छानबीन होनी थी । दोनों ही रीमोट युद्ध के नये माहौल को समझना चाहते थे । 2016 में रटलेज से आयसे गुल अन्तिने और अंद्रिया पेटो के संपादन में ‘जेंडर्ड वार्स, जेंडर्ड मेमोरीज: फ़ेमिनिस्ट कनवर्सेशंस आन वार, जेनोसाइड ऐंड पोलिटिकल वायलेन्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब में संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त
चौदह लेख शामिल हैं जिन्हें चार हिस्सों में
बांटा गया है । पहले हिस्से में यौन हिंसा के विभिन्न पहलुओं से जुड़े लेख संकलित
हैं । इस हिस्से के शुरू में एक टिप्पणी अंद्रिया पेटो ने लिखी है । दूसरे हिस्से
के लेख युद्ध, सेना और प्रतिरोध से जुड़ी यादों की लैंगिकता पर विचार करते हैं । इस
हिस्से के शुरू में ओर्ना ससोन-लेवी की लिखी टिप्पणी है । तीसरे हिस्से के लेखों
में इन यादों की लैंगिकता को कथा और दृश्य माध्यम में ढालने की विशेष समस्या पर
विचार किया गया है । इस हिस्से की टिप्पणी बानू कराका की लिखी है । आखिरी चौथे
हिस्से के लेख नारीवादी पुन:कल्पना की खासियत को रेखांकित करते हैं । इस हिस्से की
टीप आर्लीन अवाकियन की लिखी है । कहने की जरूरत नहीं कि हमारी सभ्यता में स्त्री
और पुरुष के बीच के सामाजिक विभाजन की निगाह से युद्ध, जनसंहार या राजनीतिक हिंसा
की बात आम तौर पर नहीं की जाती । ऐसे में यह किताब इस सामान्य परिघटना का यह विशेष
पहलू उजागर करती है । युद्ध से, जिन पर हमला किया गया
उन बाहरी मुल्कों में जो हुआ सो तो हुआ ही देश के भीतर भी ढेर सारे बदलाव आये ।
उन्हें स्पष्ट करते हुए 2018 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से कैथलीन बेल्यू की
किताब ‘ब्रिंग द वार होम: द ह्वाइट पावर मूवमेंट ऐंड पैरामिलिटरी अमेरिका’ का
प्रकाशन हुआ । लेखिका का कहना है कि जिसे नस्ली अहंकार, गोरा राष्ट्रवाद या नस्ली
दक्षिणपंथ कहा जा रहा है उस आंदोलन की व्यापकता को इन शब्दों से पूरी तरह व्यक्त
नहीं किया जा सकता इसीलिए वे इसे श्वेत सत्ता की स्थापना का आंदोलन कहना उचित
समझती हैं ।
पिछले दिनों के युद्ध
आम युद्धों से अलग आयाम लिये हुए थे । इसे समझने के क्रम में 2021 में पोलिटी से एंथनी किंग की
किताब ‘अर्बन वारफ़ेयर इन द ट्वेन्टी-फ़र्स्ट सेन्चुरी’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का
कहना है कि इस समय अमेरिका या यूरोपीय देश अन्य देशों में जो लड़ाइयां लड़ रहे हैं
उनमें शहरी युद्ध का आयाम नया जुड़ा है । असल में हमलावर देशों के सैनिक जिन देशों
में लड़ने गये थे उन देशों में भी नगरीकरण हो चुका था । उदाहरण
उन्होंने इराक के शहर मोसुल का दिया है जहां भारी बमबारी के जरिये आइसिस के
आतंकियों को तो परास्त कर दिया गया लेकिन शहर पूरी तरह बरबाद हो गया । घर, सरकारी
और व्यावसायिक इमारतें, कारखाने, दुकानें, मस्जिद और अस्पताल तहस नहस हो गये थे ।
गलियों में मलबा जमा था । पानी, बिजली और मल निकासी की व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी थी
। अमेरिकी सैनिकों को भी वह भयावह बरबादी याद रही । आइसिस के लोगों ने शहर में
शहीद होने का रास्ता चुना था । मोसुल इराक का दूसरा सबसे बड़ा शहर था । 2014 में
आइसिस ने इस पर कब्जा होने के बाद खिलाफ़त की घोषणा कर दी थी । दो साल के अपने शासन
के दौरान आइसिस ने जो कुछ किया उसके चलते अंतर्राष्ट्रीय जनमत उनके विरोध में हो
गया था । 2016 में अमेरिकी सैनिकों के साथ इराक के सैन्य बल ने हमला बोला । शहर
में दो लाख इमारतें थीं । आइसिस के लड़ाके पांच पांच की छोटी टुकड़ियों में शहर भर
में फैले हुए थे । गली गली में उन्होंने बारूदी सुरंगें बिछायी थीं । शहर की लड़ाई
में अमेरिकी सेना की टुकड़ियों के आगे आगे बुलडोजर चलते थे ताकि गलियों को मलबे से
साफ किया जा सके । उनके पीछे टैंक और तोपें गोले दागते हुए बढ़ते थे । आसमान से
हेलिकाप्टर से गोलियों की बारिश होती रहती थी । आइसिस के लड़ाकुओं के साथ पचीस हजार
शहरी भी हलाक हुए । लेखक के मुताबिक इस सदी की शहरी लड़ाइयों की एक झलक मोसुल की इस
लड़ाई से मिलती है । शहरी युद्ध अब धीरे धीरे सामान्य होता जा रहा है । इसे युद्ध
का शहरीकरण भी कहा जा सकता है । विडम्बना कि जिन जगहों को आधुनिकता का वाहक होना
था वे ऐसे विनाश का वाहक बन रही हैं ।
सैमुएल
मोइन का कहना है कि हमारे जमाने में तलवारों को गलाकर हल के फाल में नहीं बदला गया
बल्कि उन्हें पिघलाकर ड्रोन बना लिये गये हैं । इन ड्रोनों की तमाम भूलों के
बावजूद मानना होगा कि उनके हमले में सबसे कम गंदगी होती है । अमेरिका ने हमलों में
उनके बड़े पैमाने पर इस्तेमाल से साबित कर दिया है कि युद्ध की हिंसक परिघटना को वह
मानवीय बनाना चाहता
है । मानवीयता की इतनी मासूम धारणा ! कहने की शायद जरूरत
नहीं कि हिंसा को भी सहनीय और सुंदर बनाने का वर्तमान प्रयोग अनूठा है और इसके
पीछे भी मुनाफ़ा कमाने की वही नृशंस आकांक्षा है जिसकी शुरुआत पूंजी पैदा करने के
लिए उठाये गये पहले कदम से हो जाती है । ड्रोन की नयी तकनीक की आर्थिकी को समझना
मुश्किल नहीं है । इस नयी तकनीक के साथ ही बड़े पैमाने पर निगरानी के लिए भी तकनीक
का चलन बढ़ा है । प्रत्येक किस्म के अपराध का समाधान निगरानी की इस तकनीक में खोजा
और बताया जा रहा है । सभी जानते हैं कि अधिकतर छोटे अपराधों के मूल में विषमता
होती है और इसके चलते गरीब तबकों को दागी या दोषी समझने की एक व्यापक सामाजिक
प्रक्रिया भी जारी रहती है । तकनीकी संजाल की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उसे एक ही
बार लगा लेना पर्याप्त नहीं होता बल्कि उसके सुचारु और कारगर संचालन के लिए निरंतर
धन लगाना पड़ता है । इस तरह यह तकनीक ही उपभोक्ता के लम्बे समय तक दोहन का साधन भी
बन जाती है । युद्ध को छोड़ भी दें तो सामान्य सामाजिक जीवन में तकनीक के साथ जुड़ी
क्रूरता का सबसे मारक उदाहरण गर्भस्थ शिशु के लिंग परीक्षण की वह वैज्ञानिक विधि
है जिसके कारण आबादी में लिंगानुपात बेहद खतरनाक तरीके से असंतुलित हो गया है ।
आधुनिक समय की
हिंसा के विरोध में उपजे विक्षोभ को काबू करने के लिए दमनकारी संस्थाओं का जाल बिछाया गया । दुनिया के विभिन्न
देशों में पुलिस नामक संस्था का विकास अलग अलग कारणों से हुआ होगा लेकिन उसकी संसारव्यापी
उपस्थिति से साबित होता है कि लगभग सभी सरकारों को इसकी जरूरत दुनिया भर में पड़ी
और एक देश की सरकार ने दूसरे देश से सीखा कि स्थानीय आबादी को काबू करने के लिए
कैसे उसी समुदाय के भीतर के लोगों का सहारा लिया जाये । हाल के दिनों में अमेरिका
में अश्वेत समुदाय के उत्पीड़न के साथ पुलिस की व्यवस्थित संलग्नता के कारण उसके
खात्मे की बात बहुत तेजी से उठी है । इस प्रसंग में हमें अन्य तमाम देशों के साथ अपने
देश के उदाहरण को भी देखना होगा । भारत में पुलिस की स्थापना का गहरा रिश्ता
अंग्रेजी राज को कायम रखने से है । अंग्रेजी राज की स्थापना दुनिया भर में उपनिवेश
बनाने की तत्कालीन जरूरत का परिणाम थी । यह जरूरत अकूत मुनाफ़ा कमाने की इच्छा से
उपजी थी । मुनाफ़ा कमाने के लिए जिस तरह का शोषण होना था उसे बर्दाश्त करना लोगों
के लिए बहुत ही मुश्किल था । शासितों के इस विक्षोभ को नियंत्रित करने के लिए
सामाजिक नियंत्रण के पुलिसिया तरीके को आजमाया गया । इसके कारण ही दुनिया भर में पुलिस
की इस विशाल व्यवस्था का उदय हुआ । सामाजिक नियंत्रण के सभी औजारों की तरह समय समय
पर इस व्यवस्था को भी चुस्त दुरुस्त करना पड़ता है । असल में पुलिस में भर्ती होनेवाले व्यक्ति उसी समाज
का अंग होते हैं जिसको नियंत्रित करने की जिम्मेदारी उन्हें निभानी पड़ती है इसलिए
उनका अमानवीकरण विशेष तौर पर जरूरी होता है । ऐसी सारी व्यस्थाओं का नवीकरण भी उपर्युक्त
कारण से समय समय पर आवश्यक होता है । पुलिस व्यवस्था में आये हालिया बदलावों को समझने के लिहाज से 2021 में वर्सो से
मार्क नियोक्लीयस की किताब ‘ए क्रिटिकल थियरी आफ़ पुलिस पावर’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब
की शुरुआत 2014 में फ़र्गूसन में माइकेल ब्राउन की पुलिसिया हत्या के विरोध में
प्रदर्शन करने वालों पर आंसूगैस की बौछार से हुई है । लेखक बताते हैं कि हाल के
दिनों में प्रदर्शनकारियों पर आंसूगैस की ऐसी बौछार दुनिया भर में सामान्य बात हो
गयी है । फिलहाल सरकारों का सबसे लोकप्रिय हथियार आंसूगैस नजर आ रही है । सवाल है
कि सरकारें आखिर अपने ही नागरिकों पर आंसूगैस का इस्तेमाल क्यों कर रही हैं । एक
जमाने में इस रसायन का इस्तेमाल युद्ध में खूब हुआ करता था । युद्ध में उस पर
प्रतिबंध लगने के बाद जिस तरह उसका
इस्तेमाल पुलिस की ओर से अपने ही नागरिकों पर हो रहा है उससे सिद्ध है कि पुलिस का
प्राथमिक काम अब समुदाय की जरूरतों पर केंद्रित नहीं रह गया है । पुलिस अब अपने देश
के ही विक्षुब्ध नागरिकों के साथ सैनिक हिंसा का सरकारी औजार बन गयी है । आंसूगैस
का अधिकाधिक प्रयोग पुलिस के सैन्यीकरण का सबूत है । आंसूगैस से आगे अब हिंसा के
नये औजारों में वाटर कैनन, ड्रोन, स्टन ग्रेनेड, टैंक, अवरोधक आभरण और हथियारबंद
गाड़ी तक शामिल हो गये हैं । पुलिस धीरे धीरे अर्ध सैनिक बल में बदलती जा रही है । इन
सबके चलते तमाम लोग इस दौर में सैन्यीकरण की इस नयी अवस्था को पहचानने की कोशिश कर
रहे हैं । पुलिस की इस नयी भूमिका को लम्बे इतिहास में समझने के लिहाज से 2021 में लिवराइट पब्लिशिंग से
एलिज़ाबेथ हिंटन की किताब ‘अमेरिका आन फ़ायर: द अनटोल्ड हिस्ट्री आफ़ पुलिस वायलेन्स
ऐंड ब्लैक रेबेलियन सिन्स द 1960ज’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने कहानी की शुरुआत एक
रेस्टोरेन्ट में अश्वेत विद्यार्थियों द्वारा बैठकर भोजन करने के आग्रह से की है ।
इस सत्याग्रह में सबसे पहले तीन विद्यार्थी आये । उन्हें डराने के लिए पुलिस का
सिपाही डंडा फटकारते हुए आया । जब वे नहीं गये तो होटल के मालिक ने उस दिन होटल ही
बंद कर दिया । अगले दिन इसी आग्रह के साथ दो दर्जन विद्यार्थी आये । उसके अगले दिन
पचास अश्वेत और तीन गोरे विद्यार्थी पहुंचे । यह घटना 1960 के आरम्भ की है । यह खबर
तेजी से फैली और विरोध फैलता चला गया । कुछ ही दिनों में तेरह प्रांतों के पचपन नगरों में इस
तरह के विरोध सत्याग्रह शुरू हो गये । इसी प्रसंग में 2021 में हेमार्केट से डेविड
कोरिया और टाइलर वाल के संपादन में ‘वायलेन्ट आर्डर: एसेज आन द नेचर आफ़ पुलिस’ का
प्रकाशन हुआ । इसकी प्रस्तावना राचेल हेर्ज़िंग ने लिखी है । हेर्ज़िंग का कहना है
कि 2020 की गर्मियों में महामारी और मंदी से उपजे संकट के अतिरिक्त विरोध
प्रदर्शनों की बाढ़ भी नजर आयी । 25 मई को जार्ज
फ़्लायड की हत्या से पहले ही कोरोना की उलझनों, आर्थिक मंदी और पुलिस के हाथों गाहे
ब गाहे अश्वेतों की हत्या से सामूहिक गुस्सा खलबला रहा था । जार्ज फ़्लायड की हत्या
के बाद उसका प्रबल विस्फोट हुआ और हजारों लोगों ने सड़क पर उतरकर पुलिसिया हिंसा
में अंतर्निहित नस्लभेद को चुनौती दी । इसमें कोई दो राय नहीं कि इसमें 2014 और 2015 के
पुलिसिया अत्याचार की याद भी शामिल रही होगी इसलिए उस समय के नारे ‘ब्लैक लाइव्स
मैटर’ को इस समय के प्रदर्शनों में दुहराया गया । असल में 2014 की घटनाओं के बाद पुलिस
सुधार के ढेर सारे सुझाव आये जिनका मकसद अश्वेत समुदाय के प्रति उसकी हिंसा में
कमी और पुलिस व्यवस्था में सामुदायिक भरोसे को लौटाना था । उस योजना के तहत लोगों
को शरीर पर लगाने के लिए कैमरे बेचे गये थे, पूर्वाग्रह संबंधी प्रशिक्षण दिया गया
था, स्थानीय स्तर पर पुलिस के काम की निगरानी के लिए दल गठित किये गये थे और जन
सम्पर्क जैसे कुछ सजावटी उपाय किये गये थे । इन सबके बावजूद फ़्लायड की हत्या की
घटना सबके लिए सदमे की तरह थी । इसीलिए इस हत्या के बाद पुलिस को ही समस्या की जड़
के बतौर चिन्हित किया गया । उसके लिए जनता के धन का आवंटन रोक देने की मांग अपने
आप सामने उभरकर आयी ।
इसके एक कदम आगे जाकर एक के बाद एक विभिन्न
शहरों में पुलिस विभाग के खात्मे के प्रयास होने लगे । असल में यह कोई बचकानी
भावना नहीं थी, बल्कि लोग साल दर साल स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं के मुकाबले
धन का आवंटन घेरेबंदी और नियंत्रण के उपायों के लिए होता बेबस भाव से देख रहे थे
और प्राथमिकता के इस विचलन से खासा नाराज थे । तमाम संगठनों ने इन मांगों को
लोकप्रिय बनाने के लिए मेहनत की थी । पुलिस व्यवस्था, नस्लभेद और धन के आवंटन में
प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार जनता के बीच लोकप्रिय सवाल के रूप में उभर आये । तमाम
मीडिया संस्थानों ने भी अश्वेत समुदाय की जीवन रक्षक नीतियों के पक्ष में धन के
आवंटन हेतु पुलिस व्यवस्था पर धन की बरबादी का विरोध शुरू कर दिया । यह मुद्दा
इतना उछला कि राष्ट्रपति चुनाव में भी अधिकांश प्रत्याशियों ने इसके विरोध में
बोलना जरूरी समझा । दूसरी ओर तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पुलिस के आमूल खात्मे
की बात को उठाया । पुलिस की ओर से इस मांग पर तत्काल प्रतिक्रिया आयी । फ़्लायड और
पुलिस व्यवस्था में बदलाव की बात करने वालों पर सारा दोष धरा गया । विरोध
प्रदर्शनों के विस्फोट को दबाने के लिए पुलिस के साथ अर्ध सैनिक बल भी जुट गये ।
पुलिस ने देश भर में सहायता संबंधी गुहार पर ध्यान देना कम कर दिया और बंदूक की
संस्कृति तथा अपराध दर में बढ़त का प्रचार किया ताकि पुलिस की मौजूदगी को सही साबित
किया जाये । शासन ने भी इस पहलू को लपक लिया और साहसिक उपायों की विफलता की घोषणा
कर दी । इसके तुरंत बाद ही प्रदर्शनकारियों पर गोरे दक्षिणपंथी समूहों की ओर से हिंसक
हमले होने लगे । ऐसे एक हमलावर को खुले पुलिस संरक्षण का वीडियो सबूत भी सामने आया
। न केवल पुलिस बल्कि ट्रम्प भी ऐसे हमलावरों को उकसाने वाली अपील करते देखे गये ।
अक्सर इन गोरे हमलावरों को नाबालिग भी बताने की कोशिश हुई । पूंजीवाद को काफी
लम्बे समय तक स्थिर रखने के लिए जो सांस्थानिक उपाय किये जाते रहे हैं वे अधिकतर
समाज में मौजूद पारम्परिक विभाजनों को हवा देते हैं । इन विभाजनों के गहराने से उन
उपायों के विरोध का व्यापक होना और इस विक्षोभ में लोगों की संगठित भागीदारी
मुश्किल हो जाती है । इस तरह हमें सामाजिक नियंत्रण की वह गतिकी स्पष्ट होती है जिसकी
सहायता से सत्तातंत्र कायम रहता है ।
भूख मिटाने के लिए नियमित भोजन सभी
प्राणियों की तरह मनुष्य भी करता है । उसकी यह जैवीकीय जरूरत भी मुनाफ़े का साधन बन
गयी है । भोजन आधारित इस प्रक्रिया को इस समय बेहद भिन्न आयाम प्राप्त हुआ है । खेत
में पैदा होने वाले अनाज से लेकर भोजन हेतु थाली में परोसे जाने तक की प्रक्रिया
बेतरह बदल गयी है । इस पूरी श्रृंखला में कदम कदम पर कारपोरेट घरानों ने दखल दिया
है और वे पोषक भोज्य सामग्री की जगह समूची आबादी को जहरीला भोजन
करा रहे हैं । इस बात को समझने के क्रम में 2021 में रैंडम हाउस से माइकेल मास की मशहूर किताब ‘हुक्ड: फ़ूड, फ़्री विल, ऐंड हाउ द फ़ूड जायंट्स एक्सप्लायट आवर एडिक्शन्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने सात साल की एक लड़की की कहानी से
बात शुरू की है । वह मैकडोनाल्ड की एक दुकान के बगल में परिवार के साथ रहने आयी ।
उसे दुकान का खाना रास आने लगा । परिवार बड़ा था, पिता अपने साथ दुकान से खाने की
ढेर सारी चीजें लाने लगे । उस कच्ची उम्र में सबका एक साथ दुकान से लाया भोजन करना
उत्सव की तरह लगता था । अपने घर का बना बनाया भोजन छोड़कर धीरे धीरे सभी लोग मैकडोनाल्ड
के भोजन के आदी होते गये । खाने में दूध की जगह बर्गर ने लेनी शुरू की । देखा गया
कि सब समय ही भूख लगी रहती है । पेट भरा महसूस ही नहीं होता था, भरा होने पर भी
मैकडोनाल्ड की कोई चीज खाने में अच्छी लगती । आलू से तो चिढ़ होती लेकिन फ़्रेंच
फ़्राई देखते ही मुंह में पानी भर आता । भोजन करने के मामले में रात और दिन का अंतर
लगभग समाप्त हो चला । भोजन तमाम किस्म की मानसिक चिंताओं और परेशानियों के साथ
जुड़ता चला गया । परेशान हुए तो खाना मंगा लिया, खुश हुए तो दावत कर ली । सोलह साल
की उम्र तक उसका वजन सौ किलो से अधिक हो गया । भोजन की मानवीय आदत का दोहन करने के
लिए ये कारपोरेट कंपनियां जहरीला रासायनिक मिश्रण तैयार करती हैं । मोटापा तो इसका
केवल एक दुष्प्रभाव है । रक्तचाप समेत ढेर सारी स्वास्थ्यगत समस्याओं की जड़ इस किस्म के भोजन में है ।
बीमार होने के बाद व्यक्तियों के दोहन का सेहत और उपचार संबंधी एक और व्यवस्थित तंत्र
काम करने लगता है । इसी तंत्र का एक अंग स्वास्थ्य का बीमा है जिससे लगभग प्रत्येक
निकाय मुनाफ़ा कमाता है । सेहत से जुड़ा दवा निर्माण और अस्पताल में इलाज का पूरा ही
व्यवसाय स्वतंत्र शोध का विषय है । उसकी घिनौनी हरकतों को कुछ हद तक हम सबने इस
महामारी में देखा ।
भोजन की तरह ही
नींद भी मनुष्य का दैनिक कर्म है । इसे भी पूंजीवादी शासन ने भिन्न भिन्न तरह से शोषित
करना शुरू किया । नींद के लिए मच्छर मारने या भगाने के रसायन और मशीनों का
इस्तेमाल भी हम सबकी याद में शुरू हुआ है । पूंजीवाद के लिए नींद लाभदायक होने के
साथ समस्या भी रही है । इस प्रसंग में 2019 में वर्सो से फ़्रैनी नूडेलमैन की किताब
’फ़ाइटिंग स्लीप: द वार फ़ार द माइंड ऐंड द यू एस मिलिटरी’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के
घर के लोग अनिद्रा के शिकार थे इसलिए सुबह सुबह नींद के बारे में ही बातचीत होती
थी । उन्हें ऐसे लोगों को देखकर अचरज होता था जिनके लिए नींद कोई समस्या नहीं होती
थी । अच्छी नींद आना उनके घर में सौभाग्य समझा जाता था । इसके लिए वे ध्यान और योग
के सभी उपायों को आजमाते रहते थे । इसी तरह 2013 में वर्सो से जोनाथन क्रेरी की किताब ‘24/7 : लेट कैपिटलिज्म ऐंड द एंड्स आफ़ स्लीप’ का प्रकाशन हुआ । यह किताब नये जमाने की मजदूरों की एक प्रमुख समस्या को
उसके ऐतिहासिक संदर्भ में उठाती है । हम सभी जानते हैं कि
उत्पादन और उपभोग की सनक के लिए मनुष्य की निद्रा बड़ा व्यवधान है । नींद में
उत्पादन तो सम्भव नहीं, उपभोग जरूर होता है । नींद के नाम पर कमाई के मामले में
तमाम मनोचिकित्सकों से लेकर मच्छर भगाने तक के
उपायों का उद्योग हमारे रोजमर्रा का अनुभव है । मनुष्य की नींद से होने वाले
नुकसान को कम करने के लिए ही काम की रफ़्तार बढ़ायी जाती है । इसके अलावे भी काम के वाजिब घंटों के सवाल पर बहुत पुरानी लड़ाई को याद करने की जरूरत
नहीं लेकिन बारह घंटे की ड्यूटी तो हमारी आंखों के सामने आयी है । यहां तक कि काम
के बंद होने और दुबारा शुरू होने के बीच इतना कम समयांतराल होता है कि उसके
लिए क्लोपेन नामक एक नया शब्द ही चल पड़ा है । इसका मतलब कारखाने के बंद होने के
साथ ही उसका खुलना द्योतित होता है । विदेशी कारोबार की उपभोक्ता सेवाओं को गरीब
विकासशील देशों में भेजने के साथ यह पहलू उजागर होता गया क्योंकि उन देशों के सोने
जागने के साथ मूल देश के समय का मेल नहीं था । उद्योग के अतिरिक्त सैनिक क्षेत्र
में इसकी समस्या तब आयी जब अमेरिका ने एशियाई देशों में बड़े पैमाने पर सैनिक
हस्तक्षेप किया । इन देशों में तैनात सैनिकों को अपनी दिनचर्या को नये देश के
मुताबिक ढालना पड़ता है ।
2021 में प्लूटो
प्रेस से लीह कोवेन की किताब ‘बार्डर नेशन: ए स्टोरी आफ़ माइग्रेशन’ का प्रकाशन हुआ
। लेखक ने सबसे पहले यही घोषित किया है कि सरहद हिंसा की जगह होती है । यह नागरिकताविहीन
से नागरिक को, बाहरी को देशी से अलगाती
है और कागजविहीन मनुष्यों को जन्म देती है । उन सरहदों का जन्म अन्याय के दीर्घकालीन
इतिहास से हुआ है । लोगों को आपस में बांटना ही इनकी उपयोगिता है और वे अमानवीकरण का
एक बड़ा स्रोत बनी हुई हैं । कहने की जरूरत नहीं कि आधुनिक राष्ट्रवाद का विकास
पूंजीवाद के साथ गहरे जुड़ा हुआ है । इस राष्ट्रवाद ने देशों के भीतर और बाहर भीषण
रक्तपात को प्रोत्साहित किया । इसके
ही कारण अवैध प्रवासी नामक धारणा अस्तित्व में आयी । पहले अखबारों ने इसका प्रचार किया । फिर सरकारी नीति
दस्तावेजों में भी धड़ल्ले से आप्रवासियों को कानून व्यवस्था की समस्या मानना शुरू
कर दिया । कहने की जरूरत नहीं कि सरहद की रक्षा के लिए गठित सैन्यबल, जेल और पुलिस
जैसे संस्थान, निजी संपत्ति की रक्षा और मजदूरों की हड़ताल तोड़ने के मकसद से ही स्थापित
किये गये थे । इनकी जिम्मेदारी शांति की स्थापना नहीं, विषमता को कायम रखना है । कानून
के सहारे उन लोगों के मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जाता है जो सरहदों को पार करते
हैं । लेखक का कहना है कि कोई भी मनुष्य अवैध नहीं होता ।
2021
में पोलिटी से बाइउंग-चुल हान की जर्मन भाषा में 2019 में छपी किताब का अंग्रेजी
अनुवाद ‘कैपिटलिज्म ऐंड द डेथ ड्राइव’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद डैनिएल स्टुएर ने
किया है । लेखक का कहना है कि जिसे वृद्धि कहा जाता है वह असल में कैंसर के प्रसार
की तरह है । उत्पादन और वृद्धि का वर्तमान उन्माद मृत्यु के उन्माद की तरह ही नजर
आ रहा है । उत्पादन बहुत कुछ विध्वंस की तरह हो गया है । वाल्टर बेंजामिन ने कभी
फ़ासीवाद के सिलसिले में कहा कि उस समय मनुष्यों को अपना ही संहार चरम सौंदर्यानुभूति महसूस होता है । लेखक
के मुताबिक यह बात वर्तमान पूंजीवाद पर पूरी तरह लागू होती है । इस लिहाज से
मानवता का इतिहास किसी आत्महंता संक्रामक रोगाणु की तरह प्रतीत हो रहा है । वृद्धि
और विनाश एक ही हो गये हैं । फ़्रायड भी इस राय से सहमत प्रतीत होते हैं । सभ्यता
के बारे में लिखते हुए उन्होंने महसूस किया कि मनुष्य आत्महंता प्राणी है । कभी
कभी उन्हें लगता था कि विवेक का अनुसरण करते हुए वह उच्चतर लक्ष्य की ओर आकर्षित
होता है लेकिन अंतत: वह आवेगों के काबू में रहता है । फ़्रायड की किताब के पूरा
होने के कुछ समय बाद ही महामंदी आयी । उससे फ़्रायड की इस मान्यता की पुष्टि हुई कि
पूंजीवादी अर्थतंत्र में मनुष्य की बर्बरता और आक्रामकता सबसे अधिक व्यक्त होते
हैं ।
2020 में रटलेज से
विक्टोरिया ई कोलिन्स और डान एल रोठे की बेहतरीन किताब ‘द वायलेन्स आफ़
नियोलिबरलिज्म: क्राइम, हार्म ऐंड इनइक्वलिटी’ का प्रकाशन हुआ । किताब में
नवउदारवाद के सामाजिक असरात का अध्ययन किया गया है । हिंसा और नुकसान की परिघटना
का उत्तरी गोलार्ध में विषमता के चलते लगातार पुनरुत्पादन हो रहा है । अमेरिका के
एक शहर टोरन्टो का जिक्र करते हुए लेखिका बताती हैं कि वहां सड़क पर कोई न कोई
प्रतिदिन अनियंत्रित वासना या धन के लोभ में उन पर हमला करता है । कई बार दिन भर
में ये हमले एकाधिक बार होते हैं । ये हमलावर हत्या के उन्माद से ग्रस्त नहीं
होते, न ही वे पेशेवर हत्यारे होते हैं । वे किसी कंपनी के अधिकारी या नेता भी
नहीं होते जिन्हें मनुष्य की जान से कीमती अपना स्वार्थ महसूस होता है । इनकी बजाय
ये सभी हमलावर वाहन चालक होते हैं । पैदल या साइकिल अथवा मोटरसाइकिल से चलते हुए
रोज उनको इस समस्या का सामना करना पड़ता है । इन हमलों में जान तो नहीं गयी लेकिन
उनको भावनात्मक रूप से काफी चोट लगी । वे मनुष्यों को तो चोटिल करते ही हैं,
पर्यावरण, पालतू जानवरों या शहरी जीवन को भी भयंकर नुकसान पहुंचाते हैं ।
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