राजनीतिक प्रतिरोध के प्रसंग में अहिंसा की
भूमिका को उजागर करने की दृष्टि से 2000 में पालग्रेव से पीटर एकरमान और जैक दुवाल
की किताब ‘ए फ़ोर्स मोर पावरफ़ुल: ए सेन्चुरी आफ़ नानवायलेन्ट कनफ़्लिक्ट’ का प्रकाशन
हुआ । यह किताब टेलीविजन के लिए डाकुमेंटरी बनाने के क्रम में तैयार हुई है ।
शुरुआत पोलैंड में लेक वालेसा की गिरफ़्तारी से हुई है । सोलह महीनों तक उनके ट्रेड
यूनियन आंदोलन ने कम्युनिस्ट शासन को सांसत में डाला हुआ था । सोलिडेरिटी नामक
उनका संगठन बेहद लोकप्रिय हो गया था । गिरफ़्तारी के समय वालेसा ने सत्ता के पराजय
की भविष्यवाणी की । इसके आधार पर लेखक का कहना है कि अगर हिंसा में ही ताकत होती
और दमन का कोई जवाब न होता तो वालेसा की बात बेवकूफाना होती । लेकिन उन्हें पता था
कि इस आंदोलन के चलते सत्ता को जनता का समर्थन समाप्त हो गया है । जब सत्ता के पास
अपनी बात मनवाने की ताकत नहीं रह जाती तो उसे घुटने टेकने पड़ते हैं । 1990 में
वालेसा पोलैंड के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए जो महज दस साल पहले गोदी में
बिजतीकर्मी थे । उनके संगठन ने बिना किसी हिंसा के सत्ता को हिला डाला था । जब वे
संयुक्त राष्ट्र संघ की आमसभा में गये तो वहां मौजूद अधिकांश राष्ट्राध्यक्ष
निर्वाचित नेता थे । लेखक का कहना है कि सौ साल पहले अगर ऐसी कोई सभा होती तो
उसमें मौजूद बहुत कम ही राष्ट्र प्रमुख निर्वाचित नेता होते । बीसवीं सदी का यह
सबसे बड़ा राजनीतिक बदलाव दमनकारी शासकों का अहिंसक तरीके से मुकाबला करने वाले
सामान्य जन की हिम्मत से आया था । इन सौ सालों में सत्ता पर काबिज शासकों और सेना के
विरुद्ध जनता के बीच लोकप्रिय आंदोलनों ने गोली बारूद से पूरी तरह भिन्न हथियारों के
सहारे लड़ाई लड़ी । इसमें मांगपत्र, जुलूस, बहिष्कार और विरोध प्रदर्शन
के आधार पर आंदोलनों के लिए जनता का समर्थन जुटाया गया । हड़ताल, बहिष्कार, त्यागपत्र और अवज्ञा के जरिये सरकारी कार्यवाही
का मुकाबला किया गया । इनसे तानाशाहों को उखाड़ फेंका गया, सरकारों को पलट दिया गया, कब्जा करने वाली फौज को रोक दिया गया और मानवाधिकार
को न मानने वाली ताकतें बिखर गयीं । ढेर सारे समाजों का कायांतरण इनके चलते हुआ
। इस किस्म के बदलाव और इनके प्रेरक अहिंसक विचारों का विवेचन इस किताब में हुआ है
।
लेखकों ने इसकी शुरुआत रूस से मानी है जब 1905 में एक पादरी के नेतृत्व में डेढ़ लाख मजदूर
रूस की बर्फीली सड़क पर उतरकर जार की अनुकम्पा प्राप्त करने की उम्मीद से राजमहल
गये थे । उसके चलते ही रूस में संसद के लिए निर्वाचन हुआ था । इस किस्म के
प्रतिरोध का दूसरा उदाहरण लेखकों ने 1923 की एक घटना के रूप में दर्ज किया है जब
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी से हर्जाने की वसूली के लिए जा रहे फ़्रांस और
बेल्जियम के सिपाहियों का रास्ता जर्मनी के रेल मजदूरों और खनिकों ने सफल असहयोग
के जरिये रोक दिया था । आखिरकार सिपाहियों को वापस होना पड़ा था । प्रतिरोध का ऐसा
तीसरा उदाहरण लेखकों ने गांधी के नेतृत्व में 1930-31 के सविनय अवज्ञा को माना है
जिसके तहत नमक टैक्स देना बंद कर दिया गया और अंग्रेजों के एकाधिकार वाले वस्त्र
और शराब का बहिष्कार हुआ था । इसी तरह 1944 में डेनमार्क के नागरिकों ने दूसरे
विश्वयुद्ध में देश पर हिटलर के कब्जे का प्रतिरोध करते हुए असहयोग का रास्ता
अपनाया । बहुतेरे अन्य यूरोपीय देशों में भी सामान्य नागरिकों ने हिटलरी शासन का
ऐसा ही अहिंसक विरोध किया था । लगभग इसी कालखंड में सल्वाडोर में दीर्घकालीन सैनिक
शासन से ऊबकर नागरिक हड़ताल हुई । बिना कोई बंदूक उठाये उन्होंने सेनापति को पैदल
कर दिया और उसे देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा । भारत की आजादी को दस साल भी
नहीं हुए थे कि अमेरिका के जार्जिया के धर्मोपदेशक मार्टिन लूथर किंग, जूनियर ने
गांधी की सीख का अनुसरण करते हुए अमेरिका के अश्वेत अफ़्रीकियों का अमेरिका के
दक्षिणी प्रांतों में जारी नस्लभेद को उखाड़ फेंकने के मकसद से जुलूस और बहिष्कार
की पंद्रह साला लम्बी मुहिम का नेतृत्व किया । उनकी हत्या के कुछ ही साल बाद पोलैन्ड के मजदूरों ने सामाजिक
गोलबंदी की ऐसी पहल की जैसा सोवियत खेमे में कभी न की गयी थी । हड़ताल से उन्हें
संगठित होने का अधिकार मिला, उनका संगठन कायम हुआ और उसके बाद की कहानी सबको मालूम
है । उसी दौरान अर्जेन्टिना की माताओं ने अपनी गायब संतानों के प्रति सरकारी रवैये
से क्षुब्ध होकर जुलूस निकाला । इसके चलते वहां के सैन्य शासन की पूरी वैधता
समाप्त हो गयी और फ़ाकलैन्ड युद्ध के बाद वह समाप्त ही हो गया । इसके साथ ही चिली
में पिनोशे की तानाशाही के विरुद्ध लोकप्रिय आंदोलन उठ खड़ा हुआ और अजेय प्रतीत
होने वाला वह शासक जनमत संग्रह में सत्ता गंवा बैठा । दुनिया के
दूसरे कोने पर 1986 में फिलीपीन्स में मार्कोस नामक शासक के विरोध में विपक्षी
नेता की एक विधवा सड़क पर उतर आयी । विद्रोह ने सेना को भी अपने साथ आने को मजबूर
कर दिया और आखिरकार मार्कोस को शासन और देश छोड़कर भागना पड़ा । फिलीपीनियों की इस
जीत के कुछ ही समय बाद फिलिस्तीनी लोगों ने गाज़ा पट्टी और पश्चिमी तट पर इजारयली
सेना के कब्जे के विरुद्ध प्रदर्शन और बहिष्कार के क्रम में स्वयं की सामाजिक
सेवाओं की शुरुआत की । उनके इंतिफ़ादा का यह सबसे बड़ा अहिंसक प्रतिरोध साबित हुआ ।
उसी समय दक्षिण अफ़्रीका में धार्मिक नेताओं ने रंगभेद के विरोध में अहिंसक मुहिम
छेड़ दी । मुहिम को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन मिला और अंतत: नेल्सन मेंडेला की रिहाई
के साथ दक्षिण अफ़्रीका में लोकतांत्रिक शासन की राह हमवार हुई । नब्बे के दशक में
बर्मा में आंग सान सू की ने लोकतंत्र के लिए आंदोलन का नेतृत्व किया और लम्बी
नजरबंदी के बावजूद कार्यकर्ताओं के लिए दुनिया भर में प्रेरणा का स्रोत साबित हुईं
।
अहिंसक गोलबंदी के जरिए बदलाव की इस लम्बी सूची के बाद लेखकों का कहना है कि हिंसा का सहारा
लिये बिना विजय की आशा सभी टकरावों में रहती है । इस आशा को साकार करने में
बहुतेरे कारकों का योग होता है । अत्यंत सामान्य लोग तानाशाहों के घमंड को झुका
देने में कामयाब हो जाते हैं और भांति भांति के जनसत्ता के रूपों को जन्म देते हैं
। गांधी से कभी एक अश्वेत अमेरिकी ने पूछा कि अहिंसक प्रतिरोध क्या सीधी कार्यवाही
का एक रूप है । गांधी ने कहा कि यह एक नहीं, एकमात्र रूप है । अक्सर माना जाता है
कि अहिंसा का चुनाव नैतिक कारणों से किया जाता है लेकिन, लेखकों के मुताबिक, इसके
इतिहास से ऐसा साबित नहीं होता । बीसवीं सदी में जिन्होंने भी यह राह अपनायी वे
भली तरह जानते थे कि सैनिक या भौतिक बल कारगर नहीं होगा । कुछ लोगों के पास
पर्याप्त हथियार नहीं थे तो कुछ लोगों ने हिंसक प्रयास की विफलता देखी थी जिससे
जानमाल की भारी क्षति हुई थी लेकिन चूंकि जनता का हित दांव पर लगा था और लोग
शासकों को उखाड़ फेंकने पर आमादा थे इसलिए अहिंसक लड़ाई का रास्ता अपनाना पड़ा ।
उन्हें शांति नहीं स्थापित करनी थी, उन्हें लड़ाई लड़नी थी ।
लेखकों का कहना है कि जिन लड़ाइयों के बारे में मीडिया
में बमबारी और हिंसा की कार्यवाहियों पर बल दिया जाता है उनमें भी अहिंसक तरीकों
की भारी भूमिका रही है । विभिन्न देशों की अन्यायी सत्ता को पराजित करने में
स्थानीय लड़ाकुओं से कम महत्वपूर्ण भूमिका अंतर्राष्ट्रीय वैचारिक अभियानों की नहीं
रही है । अहिंसक तरीकों से हासिल जीत का पूरा विवरण सम्भव नहीं इसलिए लेखक अपनी
किताब को इस किस्म का इतिहास नहीं मानते । कुछेक मामलों के अध्ययन के सहारे लेखकों
ने बताने की कोशिश की है कि अपराजेय प्रतीत होनेवाले विरोधी को पराजित करने में
रणनीति के स्तर पर बहिष्कार या अहिंसक तरीकों ने कई बार निर्णायक भूमिका निभायी है
। इस तरह किताब समूची सदी में अहिंसा की बढ़ती ताकत का बयान बन गयी है । इन
कार्यवाहियों की निरंतरता सदी के अंत में ही प्रकट नहीं हुई है । इन अभियानों के
नेताओं ने पूर्ववर्तियों के अनुभवों से सीखा है । गांधी को रूस की घटनाओं से
प्रेरणा मिली थी । अमेरिकी अश्वेत नेताओं ने गांधी की रणनीति से सीखा । इसी तरह
पिनोशे या मार्कोस के विरोध में लड़नेवालों को रिचर्ड एटनबरो की गांधी फ़िल्म से
प्रेरणा मिली थी । इन सब लोगों को जिन शासकों से लड़ना पड़ा वे बहुत अलग अलग थे
लेकिन सभी जगहों पर लड़ने के तरीकों में बहुत हद तक समानता रही । सिद्ध है कि लड़ाई
के अहिंसक तरीके जितना माना जाता है उससे अधिक व्यापक और प्रभावी थे । दुनिया के
लगभग प्रत्येक हिस्से में और सदी के प्रत्येक दशक में इतिहास बनानेवाले संघर्षों
में इनकी भूमिका निर्णायक रही । अहिंसक तरीके अलग अलग हालात में भी कामयाब रहे हैं
। लोकप्रिय आंदोलन के लिए अहिंसक तरीकों से गोलबंदी के कारण नागरिक समाज मजबूत
होता जाता है इसलिए लोकतंत्र की मजबूती की सम्भावना अधिक रहती है ।
इन सब सचाइयों के बावजूद लोगों के दिमाग में
अहिंसक संघर्ष के बारे में कुछ गलत धारणाएं मौजूद हैं । चूंकि अहिंसक संघर्ष के दो
बड़े योद्धाओं (गांधी और मार्टिन लूथर किंग, जूनियर) के साथ कुछ हद तक धर्म का तत्व
जुड़ा रहा है इसलिए अहिंसा को थोड़ा नैतिक मामला समझा जाता है और इस तरह उसका
रणनीतिक महत्व कम हो जाता है । दूसरे कि मार्कोस के पतन के बाद से धारणा बन गयी कि
आंदोलन की ताकत का पैमाना सड़क पर मौजूद लोगों की भीड़ से तय होगा । सही बात है कि
विरोधी से भौतिक मुकाबला जरूरी होता है लेकिन अहिंसक कार्यवाही तब अधिक प्रभावी
होती है जब वह स्वत:स्फूर्त होने की जगह सुनियोजित हो । नारे लगाने के मुकाबले
इसका मकसद सरकारों को नियंत्रण के उनके साधनों से वंचित कर देना है । यदि अहिंसक
तरीकों के प्रभाव को लोग जानें तो किसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए हिंसा व्यर्थ
का तरीका लगने लगेगा ।
किताब में यही बताया गया है कि
बीसवीं सदी में जनता ने हिंसा के बगैर सत्ता पर कब्जा करने की क्षमता अर्जित की । लेखकों
ने अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए कहा है कि अहिंसक तरीकों का प्रभावी इस्तेमाल करने
पर उत्पीड़न को खत्म कर देश और जनता को आजाद किया जा सकता है और ऐसा करने में हिंसक
तरीकों के मुकाबले कम खतरा होगा । कभी कभी ये प्रयास विफल भी हुए हैं लेकिन उनकी
सफलता की मात्रा विफलता से अधिक रही है । अहिंसक प्रतिरोध पर जितना ध्यान दिया
जाना चाहिए उसके मुकाबले कम ध्यान दिया गया है । सही है कि हिंसा में नाटकीयता
अधिक होने से खबरों में उसकी मौजूदगी अधिक रहती है लेकिन अहिंसक प्रतिरोध को यदि
प्रक्रिया के रूप में देखा जायेगा तो उसका असर समझने में आसानी होगी । अहिंसक
कार्यवाही सामान्य जीवन के धरातल पर होती है । यह निराश आदर्शवादियों या कुछेक
शहीदों या आजादी देनेवाले मसीहाओं का कारनामा नहीं होती । महान लक्ष्य के आकर्षण
में आनेवाले सामान्य नागरिक इसके नायक होते हैं । इसका संबंध अवज्ञा से होता है ।
इन कार्यवाहियों से सामान्य जनता को लगता है कि शक्ति का स्रोत महल में या सिंहासन
पर बैठे महान लोगों के काम ही नहीं होते, जनता भी कुछ कर सकती है । सभी शासक अपनी
सत्ता के लिए शासितों पर निर्भर होते हैं । उनकी इसी कमजोरी पर अहिंसक प्रतिरोध
प्रहार करता है । बीसवीं सदी के अंत में विगत सौ सालों के बारे में जो कुछ बताया
गया उससे यह सदी हिंसा की सफलता की कहानी प्रतीत हुई लेकिन तब ऐसा कैसे हुआ कि
जिनके कब्जे में हथियारों का जखीरा था उन्हें जनता ने बिना खून खराबे के सत्ता से
बेदखल करने में कामयाबी हासिल की । लेखकों का मानना है कि पिछली सदी में अहिंसक
कदम अधिक प्रभावी साबित हुए हैं ।
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