विवादों के कारण ही सही प्रेमचंद का साहित्य हमेशा चर्चा में बना रहता है । विवाद
के जरिये प्रासंगिकता की यह व्यथा कार्ल मार्क्स के साथ भी रही है । विवादों से
उनका पीछा उनके जन्म के
दो सौ साल बाद भी नहीं छूटा । हाल में लंदन स्थित उनकी कब्र पर तोड़फोड़ की गयी ।
तोड़फोड़ करने वाले उग्र राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी समूह के लोग थे । उनके मुताबिक जो
व्यक्ति ब्रिटेन का नागरिक नहीं था उसकी कब्र इस देश की राजधानी में होना अनुचित
है । प्रेमचंद जीवित रहते तो विवादों में रहे ही देहांत के बाद भी उनको ध्वस्त
करना बारम्बार जरूरी लगता है । कार्ल मार्क्स को पूंजीवाद के विरोध में मजदूरों के
प्रति निष्ठा की कीमत अब तक चुकानी पड़ रही है । प्रेमचंद को भी अपनी प्रतिबद्धता
घोषित करने की कीमत चुकानी होगी । प्रतिबद्धता को साहित्य के लिए नुकसानदेह समझने
वाले लोग प्रगतिशील लेखक संघ की अध्यक्षता के लिए उन्हें कैसे माफ़ कर सकते हैं ।
कभी दलित साहित्य के लेखकों ने उनके साहित्य को दलित साहित्य का अंग मानने से
इनकार करते हुए उसे सहानुभूति का साहित्य कहा था । स्त्री लेखन की ओर से अभी तक
संयोग से कोई गंभीर सवाल नहीं उठाया गया । बहुत पहले एक आरोप जरूर प्रेमचंद के
स्त्री चित्रण लगाया गया था कि इसमें मनोवैज्ञानिक गहराई नहीं नजर आती । हाल में
एकाध ऐसे लेख देखने में आये जिनमें कहा गया था कि यथार्थ के कुल चित्रण के
बावजूद प्रेमचंद अपने स्त्री चित्रण में सामंती नैतिकता के घेरे को तोड़ नहीं पाते
हैं । उचित होगा कि हम प्रेमचंद के स्त्री चित्रण के सही परिप्रेक्ष्य और उद्देश्य
को समझें ।
प्रेमचंद को किसानों का चितेरा बहुतेरा कहा गया है लेकिन उनके उपन्यासों के
स्त्री पात्र भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं । उनके ये सभी पात्र बेहद जीवंत, भास्वर
और सकर्मक हैं । इन पात्रों के जरिए प्रेमचंद स्त्री की सामाजिक भूमिका को
रेखांकित करते हैं । उनके स्त्री पात्रों की मुखरता और निर्णय लेने की क्षमता
प्रत्यक्ष है । रामविलास जी ने भी कहा था कि धनिया की सरस्वती कुछ अधिक ही उदग्र है । आखिर प्रेमचंद को
ऐसी स्त्रियों के सृजन की प्रेरणा कहाँ से मिल रही थी ? जब प्रेमचंद अपने उपन्यास लिख
रहे थे तो 1857 को महज साठ सत्तर बरस ही
बीते थे । समय के इतने कम अंतराल
के असर को समझना हो तो आजादी के आंदोलन के वर्तमान असर को हम देख सकते हैं । समय
की इतनी कम दूरी पर घटित उस घटना के प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता । आजादी के
आंदोलन से बेहद गहरा लगाव महसूस करने वाले प्रेमचंद पर आजादी की उस लड़ाई का मानसिक
प्रभाव अवश्य रहा होगा । प्रेमचंद के लेखन में स्वाधीनता के इतने गहरे रंग
हैं कि चकित हो जाना पड़ता है । दुनिया का सबसे अनमोल रतन से लेकर कफन तक इस भावना
का विस्तार बहुविध है ।
1857 की जंग के बारे में चाहे
इतिहास के दस्तावेजों के जरिए देखें या जनश्रुतियों के आधार पर बात करें, स्त्रियों की समाजी भूमिका बहुत
ही निर्णायक और नेतृत्वकारी दिखाई पड़ती है । झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हों अथवा
लखनऊ की बेगम हजरत महल, ये सब महज प्रतीक हैं उन हजारों बहादुर स्त्रियों की जिनकी
जिंदगी घर की चारदीवारी के भीतर ही कैद नहीं थी । कुछ भरोसेमंद गवाहियों
पर यकीन करें तो वेश्याओं तक की भागीदारी आजादी के आंदोलन में थी । यह देशव्यापी परिघटना हमें इस आम
विश्वास पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करती है कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत में
स्त्रियाँ सामाजिक जीवन में मौजूद ही नहीं थीं । असल में 1857 की पराजय के बाद जब अंग्रेजों का
शासन अच्छी तरह स्थापित हो गया तभी विक्टोरियाई नैतिकता के दबाव में स्त्री की
घरेलू छवि को सजाया सँवारा गया । लेकिन घरों में कैद होने के बावजूद हिंदी क्षेत्र
की स्त्रियों के दिमाग से अपने इन लड़ाकू पूर्वजों की याद गायब नहीं हुई थी । याद
की कौन कहे, प्रत्यक्ष जीवन में भी उनके गहरे सामाजिक हस्तक्षेप के भरपूर सबूत
मौजूद हैं । याद दिलाने की जरूरत न होगी कि बिहार प्रांत के विनाशकारी भूकम्प के
बाद मदद के चंदे के लिए ही बेगम
अख्तर पहली बार मंच पर आयी थीं । यह भी
ध्यान रखना होगा कि स्त्रियों की पहली पीढ़ी उस समय औपचारिक शिक्षा पा रही थी । यह शिक्षा उन्हें घर के बाहर
लेकर आयी थी । घर के भीतर की कैद और बाहरी दुनिया में अपनी भूमिका निभाने की चाहत
के बीच द्विखंडित ये पढ़ाकू स्त्रियाँ ही प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों की
पाठक थीं ।
आयन वाट ने उपन्यास के बारे में कहा है कि इस विधा को उसके पाठकों की रुचि और
चाहत ने बेहद प्रभावित किया । प्रेमचंद के इन पाठकों ने उनसे ऐसे स्त्री पात्रों
का सृजन कराया जो महानायक तो नहीं प्रतीत होती थीं लेकिन सामान्य सामाजिक जीवन में
भी पर्याप्त स्वतंत्र भूमिका निभाती दिखाई पड़ती हैं । अंग्रेजों पर चाकू चलाने
वाली कर्मभूमि की बलात्कार पीड़िता से लेकर मालती जैसी स्वतंत्रचेता स्त्री तक
प्रेमचंद के स्त्री पात्रों की विद्रोही चेतना का जीवंत चित्रण किसी
भी लेखक के लिए ईर्ष्याजनक है । सही बात है कि प्रेमचंद पर भी विक्टोरियाई नैतिकता
का असर दिखाई पड़ता है और यह उनके युग का अंतर्विरोध है । फिर भी वे अपने समय के
लिहाज से काफी आगे बढ़े हुए हैं । इस मामले में कुछ आधुनिक नारीवादी धारणाओं की
चर्चा करना उचित होगा ।
नारीवादी चिंतक जर्मेन ग्रीयर ने पुरुष और स्त्री देह की तुलना करते हुए साबित
किया है कि दोनों के शरीर में बहुत अंतर नहीं है । स्त्री के स्तन उभरे होने और
पुरुष के दबे होने के बावजूद दोनों में उत्तेजना और संवेदनशीलता समान ही होती है ।
यही बात लिंग के बारे में भी सही है । स्त्री का जननांग भीतर की ओर तथा पुरुष का बाहर
की ओर होता है । इन्हें छोड़कर पुरुष और स्त्री में कोई बुनियादी भेद नहीं है । ग्रियर
का जोर स्त्री की मनुष्यता को उभारने पर था । इसके लिए उन्होंने अपने शरीर के
प्रति स्त्री की असहजता को प्रश्नांकित किया है । वे बताती हैं कि इस नजरिये के चलते स्त्री अपने शरीर से
हासिल होने वाला यौन सुख भी नहीं उठा पाती । इसको ही वे
‘बधिया स्त्री’ कहती हैं । ग्रियर की इस धारणा का उपयोग हमने ‘गबन’
की जालपा की अंतर्बाधा को समझने के लिए किया है । इस प्रसंग में ध्यान रखना होगा कि
प्रेमचंद के जमाने में पश्चिम में भी
नारी चिंतन अभी बहुत उन्नत अवस्था में नहीं था । हिंदी में उस समय के साहित्यकारों
ने स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा से प्रगतिशील नारी विवेक अर्जित किया था । महादेवी
की किताब, निराला के नजरिये और प्रसाद के चित्रण के साथ रखकर देखने से भी उस समय
अर्जित इस विवेक की समता प्रेमचंद की नारीदृष्टि से दिखायी देगी ।
प्रेमचंद ने नारीवादी साहित्य पढ़ा हो या नहीं अपने सहज बोध और स्वतंत्रता
संग्राम में स्त्रियों की भागीदारी के आधार पर कम से कम अपने उपन्यासों में
उन्होंने ऐसी स्त्रियों का सृजन किया जो निर्णायक भूमिका में खड़ी हैं । रचनाकार
अक्सर अपनी रचना में अपनी मान्यताओं की सीमा का उल्लंघन कर जाते हैं । साहित्य की
इस विशेषता को मार्क्स और एंगेल्स ने भी फ़्रांसिसी उपन्यासकार बाल्ज़ाक के प्रसंग
में उठाया था । वैसे मान्यता के स्तर पर भी कम से कम एक प्रसंग तो ऐसा है ही
जिसमें प्रेमचंद निर्भय होकर स्त्री जाति के
पक्ष में खड़े हुए थे । उस जमाने में निकलने वाली पत्रिका मतवाला खुद को पुरुष और
माधुरी को स्त्री मानकर छींटाकशी किया करता था । हिंदी समाज की सहज मनोदशा के
अनुसार यह प्रसंग कभी कभी हास्य की सीमा को लांघ जाया करता था । तब प्रेमचंद ने कड़ा
एतराज जताते हुए लिखा कि एक फ़ेयर सेक्स पर खुलेआम हमला हो रहा है और इसे हिंदी
समाज चुप देख रहा है । उन्हें यह प्रसंग लज्जाजनक महसूस हुआ । इसी सिलसिले में
गालियों के बारे में प्रेमचंद के लिखे निबंध को भी देख लेना उचित होगा । कहने की
जरूरत नहीं कि गालियों का समाजशास्त्र स्त्री और दलित विरोध की मौजूदगी की तस्दीक
करता है । यदि कोई व्यक्ति गालियों की आलोचना करता है तो वह इन दोनों के साथ ऐसे
हिंसक भाषिक आचरण का विरोध भी करता है । जाति और जेंडर संबंधी भेदभाव को अकारण एक
साथ रखकर नहीं देखा जाता ।
वैसे तो उनके सभी उपन्यासों में स्त्रियों के चित्र बहुत भास्वर हैं लेकिन तीन
उपन्यास 'सेवासदन' , 'निर्मला' और 'गबन' तो पूरी तरह स्त्री समस्या पर ही
केंद्रित हैं । सेवासदन उपन्यास को अगर ध्यान से पढ़ें तो शुरुआती सौ डेढ़ सौ
पृष्ठ पूरी तरह से परिवार की धारणा पर एक तरह का कथात्मक विमर्श हैं । सुमन एक
घरेलू स्त्री और उसके सामने रहनेवाली वेश्या भोली । परिवार में सुमन को निरंतर
घुटन का अहसास होता रहता है और इस संस्था की सीमाएँ उसके सामने भोली की स्वच्छंदता
के साथ जिरह के जरिए खुलती जाती हैं । तालस्ताय की तरह ही परिवार प्रेमचंद के
चिंतन का बड़ा हिस्सा घेरता है । निर्मला में भी यह संकट ही उपन्यास के तीव्र
घटनाक्रम को बाँधे रखता है । अंतत: गोदान में आकर वे इसका
एक विश्वसनीय उत्तर सहजीवन की धारणा में खोज पाते हैं । उल्लेखनीय है कि परिवार की
ओर से दी गयी सुरक्षा भी स्त्री मुक्ति की राह में एक बड़ी बाधा बन जाती है ।
प्रेमचंद के लिए वेश्यावृत्ति स्त्री का नैतिक पतन नहीं, बल्कि एक सामाजिक
संस्था है । वेश्यावृत्ति के बारे में उनका यह नजरिया उनके ही समय से नहीं आज के
भी लिहाज से बहुत आगे बढ़ा हुआ है । इसे गबन की पात्र जोहरा के प्रसंग से भी समझा
जा सकता है । यह बात ही बताती है कि प्रेमचंद सामंती नैतिकता की सीमाओं का
अतिक्रमण कर सकते थे । भोली की तरह की सहज पात्र हिंदी कथा साहित्य में दुर्लभ है
। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह की पात्र के जरिये उस स्त्री के बारे में कम उसके
यहां आनेवालों के बारे में प्रेमचंद अधिक बताते हैं । उनकी एक अलक्षित कहानी ‘मनोवृत्ति’ में तो
उनकी यह कला चरम पर है । पार्क में अकेले लेटी स्त्री को देखकर सुबह टहलने वाले जो
कुछ बोलते हैं उसके सहारे प्रेमचंद इन पात्रों की मानसिकता को उजागर करते हैं । यह
बड़ा सवाल घलुए में कि पार्क जैसी सार्वजनिक जगह पर अकेली स्त्री की उपस्थिति आखिरकार
इतनी विचित्र क्यों है ।
गबन में उनकी मुख्य चिंता जालपा को उस अंतर्बाधा से मुक्त करने की है जो उसे 'बधिया स्त्री' बनाये रखती है । पति के पलायन के
साथ उसे इसकी व्यर्थता का अहसास होता है और एक झटके में वह इस अंतर्बाधा से आजाद
हो जाती है । यह आजादी उसे उसकी सामाजिक सार्थकता की ओर ले जाती है । यहीं
प्रेमचंद अपने समय की सीमाओं को भी तोड़ देते हैं । अकारण नहीं कि सुमन और जालपा
जैसी तर्कप्रवण स्त्रियों के तीखे सवालों के सामने तत्कालीन सामाजिक सुधार आंदोलन
के नेता वकील साहबान निरुत्तर हो जाते हैं । उनके ये सभी साहसी पात्र अपने पाठकों
के मन में दबी आकांक्षाओं को जैसे मूर्तिमान कर देते हैं । वे क्या किसी को अपने
साहित्य के जरिए सामाजिक भूमिका में उतार सके ? यह प्रश्न साहित्य से थोड़ा अधिक की माँग है । साहित्य का कर्तव्य अपने समय के
अंतर्विरोधों को वाणी देना है । उनका समाधान साहित्येतर प्रक्रम है ।
गौरतलब है कि अगर प्रेमचंद स्त्री मनोविज्ञान की गहराई में उतरते या उसकी देह
तक ही महदूद रहते तो शायद वह भी नहीं कर पाते जो उन्होंने किया । सही है कि आज के
स्त्री लेखन ने साहस के साथ नये समय की स्त्री की आकांक्षा को वाणी दी है । उसके
इस लक्ष्य से प्रेमचंद मतभेद नहीं रखते । यह
लेखन इस पुरखे से बहुत कुछ सीख सकता है । सबसे बड़ी बात कि प्रेमचंद की स्त्री को
स्वतंत्रचेता होने के लिए मध्यवर्गीय नहीं होना पड़ता । खेतिहर स्त्री तो हिंदी कथा साहित्य
में प्रेमचंद के अतिरिक्त
मुश्किल से ही मिलेगी । कामगार स्त्री को खेत में की गयी मेहनत
की बदौलत ही खास किस्म की आजादी हासिल होती है । फिर से गोदान की आदिवासी स्त्री
को याद कर लेना काफी होगा । पंच परमेश्वर को पढ़ते हुए उसके इस पहलू को अक्सर हम
निगाह से ओझल कर देते हैं कि उसमें मूल समस्या संपत्ति पर स्त्री के अधिकार को
लेकर विवाद है । इसी तरह अलग्योझा में भी संपत्ति का विवाद ही मूल में है ।
अनेकानेक कहानियों में आपको सामंती समाज में गोपनीय रूप से संचालित कुछ हद तक
स्वतंत्र स्त्री अर्थतंत्र की झलक भी मिल सकती है । उस समाज में जब संपत्ति पर
स्त्री का कोई अधिकार नहीं समझा जाता था तब भी प्रेमचंद के स्त्री पात्र एक
समानांतर किस्म का अर्थतंत्र चलाते हुए नजर आते हैं जो बहुधा पुरुष की नजर से
गुप्त ही रहता है । स्त्री लेखकों की नयी पौध को इस पुरोधा की रचनात्मक क्षमता
से टकराते हुए प्रेरणा लेनी चाहिए ।
हिंदी में दलित साहित्य और स्त्री लेखन ने प्रगतिशील आंदोलन (जिसके नेता प्रेमचंद थे) के बाद साहित्य को देखने का वह नजरिया विकसित किया है
जिसके हामी प्रेमचद थे । कहने की जरूरत
नहीं कि लम्बे अरसे तक साहित्य को समाज के संदर्भ में देखने का विरोध हिंदी में
व्यवस्थित रूप से किया गया । उस दौरान लेखक की प्रतिभा को उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि
से अलग करके देखा जाने लगा था । पाठक की सामाजिकता पर भी कोई विचार नहीं किया जाता था । रचना के विश्लेषण
में कथ्य के मुकाबले कहने के तरीके पर जोर ने ले ली थी । इस नजरिये को प्रगतिशील आलोचना के लिए पूरी तरह
मारक समझकर प्रतिष्ठान की ओर से भरपूर प्रोत्साहन दिया गया । अस्मिताओं के लेखन ने बहुत समय बाद साहित्य के संदर्भ में समाज का
सवाल खड़ा कर दिया है । प्रेमचंद के साहित्य चिंतन में इसके स्रोत आसानी से देखे जा
सकते हैं । साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा उन्होंने ‘जीवन की आलोचना’
बताया था । इसका सीधा मतलब दमघोंटू समाजी हालात की आलोचना था । नग्न यथार्थवाद की
जगह ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की माँग भी वांछित समाज की प्रेरणा देने वाले
परिवर्तनकामी यथार्थ चित्रण की तरफ़दारी करती है । साहित्य के बारे में इस तरह की
धारणा ने विमर्शों के साहित्य लेखन के लिए विरासत का काम किया । शुरुआती टकराव की
मुद्रा के बाद इस तरह से सोचना ही फिलहाल उचित होगा ।
असल में प्रेमचंद पर स्त्री मनोविज्ञान की
उपेक्षा का यह आरोप लगाने वालों की मंशा प्रेमचंद से चटक यौन चित्रण की होती है
लेकिन आरोप लगाने वाले लोग ध्यान भी नहीं देते कि ऐसा करके वे भी स्त्री को योनि
तक ही सीमित कर देते हैं । जिस तरह की मानसिक आजादी और खुलापन आज हमने अर्जित किया
है उसकी चाहत प्रेमचंद से करना पूरी तरह अनैतिहासिक है । यदि कोई कहे कि उनकी
अपेक्षा यौन चित्रण की नहीं, प्रेम चित्रण की है तो निवेदन है कि प्रेमचंद के
उपन्यासों में प्रेम का भरपूर चित्रण है । न केवल इतना बल्कि उसके तिरस्कार पर
भयंकर प्रतिहिंसा भी वर्णित है । इसके नमूने के बतौर गोदान से केवल दो प्रसंगों की
याद कर ले सकते हैं । पहला प्रसंग तब का है जब झुनिया को लेकर गोबर घर आया है और
धनिया के बुलाने पर होरी आया है । घर की ओर आते हुए रास्ते में वह खूब गुस्सा
दिखाता है । घर में प्रवेश से पहले धनिया होरी के गले में बांह डालकर मनुहार करती
है । होरी को लगा कि देवी प्रसन्न होकर वरदान दे रही है । इसकी सांकेतिकता को लोक
में पगा वही व्यक्ति समझ सकता है जिसे पता हो कि धरती पर बादलों के झुकने से
नागमती को आखिर क्यों रतनसेन की याद आती है । दूसरा प्रसंग तो बिना किसी विशेष
प्रयत्न के भी याद आना चाहिए । सोना से मिलने विवाह के बाद उसकी सखी नदी पारकर गयी
है । सोना का पति घर का दरवाजा खोलता है और सोना के पास पहुंचने से पहले उसकी सखी के
प्रति आकर्षण का अनुभव करता है । सोना इतनी दूर से आयी सखी को उलटे पांव लौटा देती
है । थोड़ी ही देर का यह प्रसंग तीक्ष्ण मानसिक घात प्रतिघात का बेहद जीवंत चित्रण
है । यदि आपको लगता हो कि प्रेमचंद की स्त्री प्रेम की अपनी इच्छा को व्यक्त नहीं
करती तो केवल याद कर लीजिये कि झुनिया ने गोबर को पसंद किया था । न केवल इस मामले
में बल्कि अन्य मामलों में भी झुनिया का व्यक्तित्व स्वतंत्रचेता है । यह तो याद
दिलाना न होगा कि दूध पहुंचाने के क्रम में उसे कैसे कैसे लोगों की निगाहों और
लोभी आचरण का सामना करना पड़ता है और इनसे वह कैसे निपटती है । मातादीन के प्रसंग
में यह भी देखा जा सकता है कि प्रेम कोई नितांत व्यक्तिगत चीज नहीं होता, उसके
सामाजिक पहलू हमेशा होते हैं । अलग बात है कि उसकी अभिव्यक्ति में रचनाकार सक्षम
है या नहीं ।
प्रेमचंद के औपन्यासिक लेखन में
किसान समस्या के साथ ही स्त्री समस्या शुरू से रही है । गोदान में आकर इन दोनों
धाराओं का मेल हो जाता है । इसीलिए गोदान में बहुस्वरीयता भरपूर है । गोदान की यह बहुस्वरीयता
हम कई बार सुनना ही नहीं चाहते । मालती की छोटी बहन सरोज का जिक्र करने से पूर्व
धारणा बन सकती है कि उसकी बड़ी बहन तो आधुनिका है ही । राय साहब की पुत्री मीनाक्षी
तो जरूर याद होगी । उसकी शादी जिस अय्याश ठाकुर साहब से हुई है वे महफ़िलों के
शौकीन हैं । ऐसी ही किसी रंगीन महफ़िल में मीनाक्षी कोड़ा लेकर पहुंच जाती है । उनके
समय में ऐसी साहसी स्त्री रही हो या नहीं, प्रेमचंद स्त्री की इस मुखर सक्रिय हस्तक्षेप
की आकांक्षा को स्वर तो दे ही रहे हैं । उस समय के समाज में सामाजिक उपस्थिति की
स्त्री आकांक्षा को देखना हो तो इसके लिए ‘पिसनहारी का कुँआ’ कहानी को देखना
पर्याप्त होगा । इसे केवल किसी अतिशय वंचित स्त्री द्वारा सार्वजनिक कल्याण के काम
में अपनी उपस्थिति को दर्ज कराने की प्रेमचंद की क्षमता के बतौर न देखा जाये बल्कि
प्रेमचंद के पात्र के सहारे अभिव्यक्त उनके स्त्री पाठकों की चाहत या प्रेमचंद की
ओर से इसकी प्रेरणा के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए ।
साहित्य को पढ़ने की संवेदनशील
दृष्टि का ह्रास सबके अनुभव का अंग है । रामचंद्र शुक्ल ने अभिधा को जब उत्तम
काव्य कहा था तो उनका तात्पर्य यह नहीं था कि लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ पर ध्यान
ही न दिया जाये । दो बैलों की कथा में जब हीरा और मोती कहते हैं कि औरत जात पर
सींग चलाना मना है तो इसे केवल पारम्परिक सोच का अनुगमन समझना थोड़ा सरल भाष्य कहा
जायेगा । यह उस समाज के बारे में अपना मतविरोध दर्ज कराना है जिसमें परिवार के
भीतर स्त्री के साथ मारपीट आपत्तिजनक बात न समझी जाती थी । निवेदन यह है कि
प्रेमचंद को पढ़ने के लिए उनके लेखन में व्यक्त भावों और आकांक्षाओं को केवल
उपनिवेशवाद का विरोधी नहीं, सामाजिक भेदभाव का विरोधी भी समझा जाना चाहिए । इस
लिहाज से जातिप्रथा के उनके विरोध को बहुधा रेखांकित किया गया है लेकिन समय आ गया
है कि सामाजिक बदलाव के स्त्री मुक्ति वाले पहलू से भी उनके लेखन की कड़ी परीक्षा
हो ताकि पितृसत्ता की वर्तमान उठान के समय इस पुरखे की थाती को सहेजा जा सके
।
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