कोरोना
के चलते दुनिया दो साल से ठहरी हुई है । कोई नहीं जानता कि इसके बाद की तस्वीर
कैसी होगी । जो लोग भी इस महामारी से बचे रहे उनमें से लगभग सबको एक तरह की
दुश्चिंता ने ग्रसित कर रखा है । तत्काल की समस्या रोजगार से जुड़ी हुई है । कहने
की जरूरत नहीं कि इतनी लम्बी बंदी ने बड़े पैमाने पर रोजगार छीन लिये । नोटबंदी से
तबाह हुए अर्थतंत्र ने थोड़ा संभलना शुरू ही किया था कि महज चार घंटे की सूचना पर
की गयी क्रूर देशबंदी ने कामगारों को सड़क
पर ला दिया । पूरी दुनिया ने आंख फाड़कर पैदल या साइकिल पर हजारों किलोमीटर का सफर
करके घर लौटते मजदूरों का काफ़िला देखा । विभाजन के बाद दूसरी बार लोगों को किसी और
की सनक का नतीजा भुगतना पड़ा । इतिहास में दर्ज होने लायक इस महायात्रा की गवाह वे
खून सनी रोटियां भी बनीं जो रेल की पटरी के किनारे कटी लाशों के साथ बिखरी पड़ी थीं
। इस भयावह मानव त्रासदी को अभी कलाओं की दुनिया में दर्ज होना बाकी है । सरकारों
और फैसला करने में सक्षम अधिकारियों ने जैसी बेरुखी दिखायी वैसी बेरुखी तो गुलामों
के भी प्रति भी नहीं दिखायी जाती रही होगी! बुजुर्गों की मौत पर पेंशन की
जिम्मेदारी कम होने का जश्न भी मनाया गया । टीकों से कमाई के मामले में निजी
अस्पतालों ने खूब अंधेरगर्दी मचायी । सैनिटाइजर और मास्क के मामले में भी मुनाफ़ा
लूटने में कोई पीछे नहीं रहा । अस्पताओं में बिस्तर और चिकित्सा की सुविधा तो नहीं
ही मिली, उसकी शर्मिंदगी भी रत्ती भर नहीं नजर आयी । तभी तो दहाड़कर संसद में झूठ
बोला गया कि आक्सीजन की कमी से किसी मरीज की मौत नहीं हुई । निजी अस्पतालों में
सुविधा और दवाओं की उपल्बधता मुहैया कराने में भेदभाव बरता गया । शायद ही कोई होगा
जिसका निकट संबंधी या परिवारी इस महामारी में स्वास्थ्य की सरकारी व्यवस्था की
भेंट न चढ़ा हो! लोगों ने पुराने जमाने के हैजा और स्पैनिश फ़्लू से होनेवाली मौतों
को टूटकर याद किया मानो सौ सालों से चिकित्सा विज्ञान में कोई प्रगति न हुई हो!
इस
सिलसिले में सभी लोग कयास ही लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि आगे का समय कैसा और
क्या होगा । अगर हम कोरोना के बाद के भविष्य की चिंता करना चाहते हैं तो एक नजर
उसके ठीक पहले के बदलावों पर डालनी होगी । असल में तो कोरोना के दौरान भी वही हुआ
जो इसके पहले से चल रहा था । बस उसकी रफ़्तार काफी तेज हो गयी । हाल के दिनों में
हम अपने देश का जिक्र अमेरिका के साथ करने लगे हैं । पिछली लहर में उसके
राष्ट्रपति ट्रम्प ने जिस तरह का गैर जिम्मेदार आचरण किया था उसकी नकल हमने इस लहर
में की । कोरोना से ठीक पहले दुनिया की बड़ी चिंता के रूप में विषमता की चर्चा चल
रही थी । मशहूर अर्थशास्त्रियों के बीच बहस जारी थी कि इस समस्या का समाधान किस
तरह निकाला जाये । उनकी चिंता का कारण यह था कि अगर सामान्य लोगों के पास धन होगा
ही नहीं तो उत्पादित वस्तुओं की खरीदारी कौन करेगा । कोरोना के दौरान इसमें कोई
कमी आने की जगह बढ़ोत्तरी ही हुई है । अचरज की तरह दिखायी पड़ा कि कारखानों और
व्यापार ठप होने के बावजूद अमीरों की संपत्ति में इजाफ़ा होता जा रहा है । इसको
समझने की कोशिश में पता चला कि इसकी वजह बैंकों की लूट है । बैंकों का कर्जा लेकर
विदेश भागने वालों की खबरों से लगा मानो नया भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा हो! देश से
भागकर विदेश जा बसने वाले सभी पूंजीपति बैंकों का कर्जा डकार गये । इस मामले में
सर्वोच्च पद पर बैठे लोग भी सहयोगी के बतौर लिप्त पाये गये । जो भाग गये उनके बारे
में खबरें आयीं कि सत्तासीन पार्टियों को चुनावी चंदा देकर भागने का प्रबंध किया
है । भाग जाने वालों से बड़ी तादाद उनकी है जो देश में मौजूद हैं लेकिन बैंकों का
कर्ज नहीं लौटा रहे हैं । लोग इस बात को समझ नहीं रहे कि बैंक जो कर्ज देता है वह
हमारा ही धन है और अगर कोई पूंजीपति कर्ज की रकम डकार जाता है तो यह खुली डकैती ही
है । हाल के हिंदुस्तानी अरबपतियों में से अधिकतर इसी तरह की डकैती और लूट से अमीर
बन रहे हैं । इसे केवल अर्थतंत्र की बात समझना उचित नहीं होगा । इसका सबसे अधिक
असर देश की चुनावी राजनीति और लोकतंत्र पर पड़ रहा है ।
कोरोना
का गहरा प्रभाव देश की शिक्षा व्यवस्था पर भी पड़ने जा रहा है । हम सबने देखा कि शिक्षा
पाने की इच्छा के साथ जिन वंचित तबकों ने शिक्षा संस्थानों में प्रवेश किया था उन
पर अचानक आफत टूट पड़ी है । मंहगे फोन और इंटरनेट का बाजार खूब फल फूल रहा है ।
उम्मीद थी कि महामारी के बाद देश के शिक्षा संस्थान खुलेंगे लेकिन शिक्षा
मंत्रालय ने आपदा को अवसर में बदलते हुए
इस व्यवस्था को स्थायी बनाने का संकल्प कर लिया है । निश्चित है कि इससे शिक्षकों की तादाद में कमी आयेगी ।
विद्यार्थी न तो अपने साथ पढ़ने वालों से और न ही शिक्षकों से मिल सकेंगे और जिस संस्थान
से
भी उन्हें उपाधि मिलेगी उसका प्रत्यक्ष दर्शन किये बिना ही वे
सभी कक्षाओं में उत्तीर्ण होते चले जायेंगे ।
शिक्षण संस्थानों की जमीनों पर
बहुत दिनों से भू माफ़िया की नजर थी । अब उसका व्यावसायिक उपयोग का तर्क आसानी से
दिया जा सकेगा । संस्थान में जाकर कोई भी विद्यार्थी आम तौर पर थोड़ा खुलापन महसूस
करता है । उसे अपनी उम्र के सहपाठियों का
साथ मिलता है तो सामाजिक और जिम्मेदार नागरिकता का विकास होता है । इस महामारी के
दौरान ही हमें सावधानी के साथ बदलते माहौल को देखना होगा । कहने की जरूरत नहीं कि
किताब की पूरी मौजूदगी का रिश्ता अध्ययन अध्यापन के इस भौतिक वातावरण पर निर्भर है
।
समूची
दुनिया में विषमता के बढ़ने की प्रवृत्ति पहले से थी, कोरोना से उसकी गति तेज हो
गयी । इन नये अमीरों ने सरकार को लगभग अपनी जागीर बना रखा है और सरकार देश की
परिसंपत्तियों को औने पौने दाम पर इन अमीरों को बेच रही है । बदले में केवल उनसे
चुनाव लड़ने का चंदा ले रही है । चंदे के लिए पहले नियम था कि बीस हजार के ऊपर का
चंदा नकद नहीं लिया जा सकता इसलिए सभी पार्टियों को उन्नीस हजार नौ सौ निन्यानबे
रुपये का चंदा ज्यादा मिलता था । इस पर रोक लगाने के नाम पर सरकार ने व्यवस्था की
कि बैंक में पार्टियों के नाम से चुनावी बांड खरीदे जा सकते हैं । इनकी कोई सीमा
नहीं होगी और इसे गोपनीय रखा जायेगा । नतीजा यह हुआ कि किस पार्टी को कौन कितना
चंदा दे रहा है इसकी सूचना जनता को नहीं होती लेकिन सरकार को होती है । इस सूचना
के बल पर सरकार ने अपनी पार्टी के अलावा विपक्षी पार्टियों को चंदा देने वालों को
दंडित करना शुरू किया । फिलहाल केवल सत्ताधारी पार्टी को ही सारा चंदा जा रहा है ।
इसका बड़ा हिस्सा उन पूंजीपतियों ने दिया है जो बैंकों से कर्ज लेकर उसे लौटा नहीं
रहे हैं । इस तरह लोकतंत्र मुट्ठी भर थैलीशाहों की जेब में चला गया है । सबने अचरज
के साथ देखा कि आस्ट्रेलिया में खनन के लिए एक ठेका जिस पूंजीपति को मिला उसे कर्ज
देने के लिए भारतीय स्टेट बैंक की महाप्रबंधक भी साथ ही गयी थीं । प्रधानमंत्री,
संबंधित पूंजीपति और महाप्रबंधक की एक साथ की वह तस्वीर ही हमारे समय का सबसे बड़ा
मुहावरा बनी । कोरोना को अवसर समझकर उस पूंजीपति के हाथ हवाई अड्डों से लेकर रेल
स्टेशन तक सब कुछ बेशर्मी के साथ बेचा जा रहा है । इसके लिए तमाम तरह के कानून आनन
फानन में पारित कराये जा रहे हैं । जब अध्यादेशों से काम नहीं चल रहा है तो संसद
तक को कैद कर लिया जा रहा है ।
इससे
होनेवाली बदहाली से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए झूठी देशभक्ति का उन्माद पैदा
किया जा रहा है । पहले देशभक्ति का मतलब देश के बाशिंदों की खुशहाली के लिए चिंतित
होना समझा जाता था । फिलहाल इसका मतलब देश के ही कुछ लोगों को उत्पीड़ित करना हो
गया है । सांप्रदायिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव बहुत ही व्यवस्थित शक्ल लेता जा
रहा है । सरकार का काम नागरिकों की सेवा करना होता है लेकिन सरकार ने इसे उलटकर
नागरिक तय करने का मनमाना कायदा बना लिया है । नागरिकों पर संदेह की इस सरकारी
प्रवृत्ति ने निगरानी के इतने बड़े और खर्चीले साधन पर जनता का धन पानी की तरह
बहाने का कारण खोज लिया है कि सोचकर भी झुरझुरी होती है । आखिर इतने भयभीत लोग देश
और जनता की सेवा कैसे करेंगे! हिंदी कवि जयशंकर ‘प्रसाद’ की कविता याद आ रही है-
भयभीत सभी को भय देता, भय की उपासना में विलीन । यह पूरी परिस्थिति सिक्के का केवल
एक पहलू है । अमेरिका में इसी कोरोना के दौरान अश्वेतों ने ऐतिहासिक आंदोलन खड़ा
किया और ट्रम्प को चुनावी शिकस्त खानी पड़ी । हमारे देश में भी किसानों की भारी
तादाद ने पिछले आठेक महीनों से राजधानी के चारों ओर डेरा डाल रखा है ।
ऐसे हालात में ढेर सारे लोगों ने बताया है कि कोरोना के बाद की दुनिया वही होगी जिसे हम इस समय बनायेंगे । एक ओर इस महामारी का बहाना लेकर लोकतांत्रिक हकूक का गला घोंटा जा रहा है तो दूसरी ओर सामान्य लोग अपने साथ होनेवाले भेदभाव की मुखालफ़त के जरिये अपने लोकतांत्रिक अधिकारों पर दावा ठोंक रहे हैं । यह लड़ाई कोरोना के पहले से जारी थी, कोरोना के दौरान जारी है और कोरोना के बाद भी जारी रहेगी । आखिरकार भविष्य की दुनिया वही होती है जिसका हम निर्माण करते हैं । प्रत्येक पीढ़ी अपने पहले की सामाजिक समस्याओं को ही हल करने के क्रम मे नये समाज का ताना बाना बुनती है । इस महामारी के दौरान हम सबने न केवल दुनिया भर में झूठ, नफ़रत और तानाशाही का उभार देखा बल्कि उससे लगातार जूझते हुए अपनी आजादी को बरकरार रखने के अटूट संकल्प के गवाह भी हम सभी रहे हैं । इस महामारी के दौरान अमेरिका का पराभव और चीन का उभार ऐसी चीज है जो आगे की दुनिया में ढेर सारे उलटफेर का कारण बनेगी ।
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