2019 में शब्दलोक प्रकाशन
से छपी किताब ‘सत्ता की सूली’ को तीन पत्रकारों ने मिलकर लिखा है । इस किताब ने
वर्तमान पत्रकारिता को चारण गाथा होने से बचा लिया है । महेंद्र मिश्र, प्रदीप
सिंह और उपेन्द्र चौधरी की यह किताब जस्टिस लोया की हत्या के रहस्य पर से परदा
उठाने के मकसद से लिखी गयी है । समूची सत्ता जिसे स्वाभाविक मौत बताकर उसकी
जिम्मेदारी से नम्बर दो के आलाकमान को बरी करने पर आमादा हो उसकी छानबीन भी साहस
का काम है । जिस तरह राना अय्यूब को गुजरात फ़ाइल्स को खुद ही छापना पड़ा था लगभग
उसी तरह यह किताब भी सहकारी प्रयास से छपी है । इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं
होना चाहिए कि जिस तरह अंग्रेजों के चाटुकारों का कोई नामलेवा भी नजर नहीं आता
बल्कि औपनिवेशिक सत्ता से लोहा लेने वालों को ही याद किया जाता है उसी तरह गोदी
मीडिया के पतलकारों के मुकाबले भविष्य में सत्ता की आंख में आंख डालने वालों का ही
जिक्र होगा । हावर्ड ज़िन ने अपनी आत्मकथा में इस बात का जिक्र किया है कि जब शासक
समुदाय देशद्रोह पर आमादा हो तो उसका भंडाफोड़ ही कर्तव्य हो जाता है । इस राह पर
चलना साहस का काम होता है और इसमें कोई भी कोशिश छोटी नहीं होती । सत्ता के आतंक
की मुखालफ़त करने वालों को इस जिम्मेदारी के साथ ही कोई कदम उठाना उचित होता है ।
सभी लेखक पत्रकार हैं इसलिए उनकी भाषा में रवानी होनी अचरज की बात नहीं ।
मामला न्यायालय की
सांस्थानिक दुनिया से जुड़ा है इसलिए भी लेखकों ने उससे जुड़े मानकों का ध्यान रखा
है । किसी आम भारतीय के मन में न्यायालय की दुनिया रहस्य के घेरे में लिपटी होती
है । वैसे उसके मानस में न्याय की अत्यंत आदर्श छवि अंकित होती है । न्याय
व्यवस्था के पतन को देखते हुए लोक मानस ने न्याय संबंधी जिन मिथकों का निर्माण
किया उनके भी चलते न्यायाधीशों के ऊपर दबाव रहता है । इस आदर्श के साथ ही ध्यान
रखना होगा कि सभी संस्थाओं की तरह इसमें भी नौकरशाही का प्रवेश हुआ है । गाहे
बगाहे भ्रष्टाचार का प्रत्यक्ष गवाह होने के बावजूद सामान्य जनता के दिमाग से
न्याय की आदर्श छवि नहीं जाती । केवल जनता के मन में ही यह दुविधा नहीं होती बल्कि
खुद न्यायाधीश भी अक्सर इस द्वंद्व से दो चार होते रहते हैं । उनके पेशे का आदर्श
उनकी स्वाधीनता के लिए प्रेरित करता है जबकि शक्ति और सत्ता के असली स्रोत पूंजी
और राजनीति में मौजूद होते हैं । राजनीति के साथ न्यायालय के रिश्ते बहुमुखी होते
हैं । इन दोनों के बीच होने वाले टकराव की जड़ सत्ता और स्वाधीनता का उलझा हुआ
समीकरण होता है । न्यायालयों की सक्रियता से विक्षोभ इससे पहले की सरकार के समय भी
सुनायी पड़ता था लेकिन इस सरकार के आने के बाद से तो सबको दरबार में हाजिरी लगानी
ही होती है ।
हाल के पेगासस जासूसी
मामलों के खुलासे से भी उजागर हुआ है कि सरकार ने न्यायाधीशों को लोभ के साथ ही
निगरानी के घेरे में भी ले रखा है । वर्तमान सत्ता के साथ सर्वोच्च न्यायालय के
रिश्तों पर इतनी बातें हो चुकी हैं कि उन्हें दुहराने से लाभ नहीं । इन रिश्तों की
स्थापना के लिए तरह तरह के हथकंडे राजसत्ता ने अपनाये । इनकी सचाई जब सामने आयेगी
तो राजसत्ता की करतूतों का यह दौर इतिहास में दर्ज होगा । किताब के आवरण पर संसद
भवन पर लटके लोया का रेखांकन अनायास नहीं है । राजनीतिक सत्ता की सूली पर चढ़ाये
गये न्यायमूर्ति की तस्वीर ही किताब का कथ्य है । यह कहानी एक व्यक्ति के उदाहरण
के सहारे कही जरूर गयी है लेकिन उनका अंत चरम स्थिति की मिसाल है । इसके थोड़ा
निचले स्तर का दबाव बहुतेरे लोगों को महसूस हो रहा होगा । हाल में झारखंड में एक
न्यायाधीश को टहलते समय टेम्पो की टक्कर सबने देखी । उसी घटना से अंदाजा लगाया जा
सकता है कि इस पेशे के साथ कितना दबाव और खतरा जुड़ा रहता है ।
किताब के आरम्भिक हिस्से
के अतिरिक्त चार खंडों में समूची सामग्री को व्यवस्थित किया गया है । इनमें पहला
और दूसरा खंड ही जस्टिस लोया की मौत से जुड़ा हुआ है । शेष दो खंडों में मुख्य
मामले से जुड़े अन्य प्रसंगों का जिक्र है । केवल यही घटना नहीं बल्कि हाल के दिनों
के बहुतेरे राजनीतिक प्रसंग किसी रोमांचकारी जासूसी उपन्यास या फ़िल्म की पटकथा की
तरह सामने आ रहे हैं जिनमें राजसत्ता, प्रशासन, अपराध जगत और अर्थतंत्र का
जबर्दस्त घालमेल नजर आ रहा है । सम्भव है आगामी दिनों में कथा साहित्य की दुनिया
में चर्चित जादुई यथार्थ हेतु सामग्री हमारे देश से ही मिले । किताब के लेखकों का
मानना है कि गुजरात में उन्हें ऐसी कहानियों को सुनना पड़ा जो दिल्ली में रहनेवाले
को अविश्वसनीय लगेगी । उसे महज इस मामले के जरिए संकेतित किया गया है । इस मामले
से जुड़ी अधिकांश बातें मीडिया या अदालत के जरिए सार्वजनिक मंचों पर सहज सुलभ हैं ।
इन बिखरे हुए सूत्रों को लेखकों ने आपस में पिरोकर न्याय के व्यवस्थित विध्वंस की
यह भयावह तस्वीर बनायी है ।
जस्टिस बृजगोपाल हरकिशन
लोया की मौत जब हुई उस दौरान वे सोहराबुद्दीन शेख की पुलिसिया मुठभेड़ में संदिग्ध मौत के मामले की सुनवाई कर रहे थे । उस मामले में
वर्तमान गृहमंत्री की पेशी जरूरी थी । पिछली तमाम तारीखों के दौरान वे नगर में
मौजूदगी के बावजूद पेशी से बचते रहे थे । लोया ने कड़ाई से आगामी सुनवाई के दौरान
पेशी की हिदायत दी थी । इसके कारण लोया साहब की मौत को स्वाभाविक मानने में
बहुतेरे लोगों को संदेह रहा है ।
सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने किताब के आमुख में बताया है कि ‘सोहराबुद्दीन की संदिग्ध मृत्यु से एक सिलसिला शुरू हुआ जिसमें उसकी बीबी कौसर बी को भी मार दिया गया । उसके बाद एक गवाह तुलसीराम प्रजापति को भी मार दिया गया ।’ गुजरात फ़ाइल्स की लेखिका राना अय्यूब ने बताया है कि गुजरात में इस तरह के काम पुलिस के जरिए करवाने का रिवाज रहा है । बहरहाल इन मौतों के मामले में ‘सीबीआई ने पूरी गहराई से जांच कर करीब एक हजार पेज की चार्जशीट फ़ाइल की थी जिसमें उसने लिखा कि कैसे वंजारा (पुलिस अधिकारी) और उसके लोगों ने अमित शाह के साथ मिलकर सोहराबुद्दीन, प्रजापति और कौसर बी का कत्ल किया ।’ इतनी सारी हत्याओं की मूल वजह राजनीतिक थी । जांच में सामने आया कि असल में गुजरात के एक भाजपा नेता ‘हरेन पंड्या को मारने की सुपारी (वंजारा ने ही) सोहराबुद्दीन को दी थी और सोहराबुद्दीन (ने) वह हत्या तुलसीराम प्रजापति के जरिये करवा(यी) ।’ राजनीतिक द्वेष की इस मारक परिघटना के चलते हत्याओं का वह सिलसिला शुरू हुआ था जिसके निशानात मिटाने के लिए फिर से हत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ था । सर्वोच्च न्यायालय की ही एक अन्य अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने भी दर्ज किया है ‘कि हत्याओं का ‘यह सिलसिला उस वक्त तक चलता रहता है जब तक कि राजनेता, आम स्त्री और पुरुष, गवाह और जज सभी की मौत नहीं हो जाती है ।’ राना अय्यूब ने भी एक किरदार माया कोदनानी के हवाले से दर्ज किया है कि तबके मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने तत्कालीन गृहमंत्री से डरते थे । इसके बावजूद भय के सहारे हासिल सत्ता को लगातार भय को कायम रखने की जरूरत पड़ती है । कहावत भी है कि अपराध को कभी पूरी तरह दफ़्न नहीं किया जा सकता । सात परत नीचे दबाने से भी उसके जाहिर हो जाने की सम्भावना बनी रहती है । प्रसंगवश पाठकों को याद होगा कि महाराष्ट्र की सरकार ने गठन के तत्काल बाद लोया मामले की जांच का एलान किया था । शायद इसी वजह से शपथ ग्रहण के बाद एक दिन भी उसे चैन से बैठने नहीं दिया गया ।
मामले की अतिशय
संवेदनशीलता के चलते पूरी किताब में सारे तथ्यों को प्रामाणिक स्रोतों के सहारे
प्रस्तुत किया गया है । यहां तक कि जस्टिस बीजी कोलसे पाटिल और जस्टिस अभय एम
थिप्से की राय को भी किताब में शामिल किया गया है । यह किताब हमारे सामने सत्ता के
उस क्रूर चेहरे को खोलकर रख देती है जिसमें मध्ययुगीन दरबारों के षड़यंत्रों की तरह
लोगों को रास्ते से हटाया जाता है । भय पर आधारित यह शासक समुदाय ही जासूसी और
निगरानी की पेगासस जितनी विकराल व्यवस्था खड़ा कर सकता है । लोकतंत्र की रक्षा के
लिए स्वतंत्र न्यायपालिका के पक्ष में जोरदार अपील के रूप में इस किताब को देखा
जाना चाहिए ।
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