बीसवीं सदी के आखिरी दशक में एक शब्द सबसे अधिक चर्चित
हुआ । अंग्रेजी में उसे ‘ग्लोबलाइजेशन’ और हिंदी में कभी वैश्वीकरण तो कभी
भूमंडलीकरण कहा गया । उसके अधिकतर आलोचकों ने कहा कि इसके तहत केवल पूंजी का
वैश्वीकरण हो रहा है । रणधीर सिंह ने तो कहा कि उपनिवेशवाद भी हमारे देश का
वैश्वीकरण ही था । आलोचकों ने कहा कि मानव श्रम को पूंजी की तरह सीमाओं के आर पार
आने जाने की छूट नहीं मिली है । उस समय भी अमीर मुल्कों में संरक्षण के तमाम
उपायों में राष्ट्रवाद का उभार देखा जा रहा था । इसके बावजूद पूंजी के साथ ही श्रमिकों
का भी सीमाओं के आर पार आना जाना शुरू हुआ । धीरे धीरे इस प्रवास के राजनीतिक पक्ष
सामने आने लगे । श्रमिक जिन देशों में गये उन देशों में उनको घुसने से रोकने के नाम
पर नयी उग्र राष्ट्रवादी राजनीति का उभार देखा गया । इस लेख में हमने प्रवास के उन
रूपों को नहीं लिया है जो देशों के भीतर हो रहा था । तमाम देशों खासकर चीन में नगरीकरण
की तेज रफ़्तार के चलते देहात से उखड़कर लोग शहरों की ओर आये । हमने केवल सीमाओं के पार
प्रवास पर ही ध्यान दिया है ।
दूसरी बात कि मनुष्यों का सरहदों के आर पार आना जाना कोई
नयी परिघटना नहीं है । हमेशा ही उन्हें आजीविका के इंतजाम के लिए दूर दूर की
यात्रा करनी पड़ती रही है । इसके चलते अलग अलग लोगों के बीच संवाद के साथ संघर्ष भी
होता रहा है लेकिन सदा से जारी इस प्रवास के मुकाबले हालिया प्रवास की प्रकृति
भिन्न रही है । इसकी वजहों में अन्य चीजों के अतिरिक्त गरीब मुल्कों में जारी
युद्धों के साथ पर्यावरणिक बदलाव भी हैं । समुद्र की सतह के ऊपर उठने के चलते ढेर
सारी जगहों से लोगों का रोजी के चक्कर में बड़े पैमाने पर अमीर मुल्कों में आने की
प्रक्रिया तेज हो गयी है । एक मोटे अनुमान के मुताबिक अपना देश छोड़कर दूसरे देश
में अवैध तरीके से घुसकर नागरिकता पाने के इंतजार में या यात्रा में दुनिया की
इतनी विशाल आबादी है कि उसे पांचवां सबसे बड़ा देश कहा जा सकता है । जिन देशों में
इनका प्रवेश होता है वहां की राजनीति और समाज के साथ उनका रिश्ता पेचीदा होता जा
रहा है । आशा है कि इस पुस्तक सूची से इस वर्तमान वैश्विक समस्या की जटिलता को
समझने में मदद मिलेगी ।
2021 में स्प्रिंगेर से करीमा कुर्तित, ब्रूस न्यूबोल्ड, पीटर
निजकाम्प और मार्क पार्ट्रिज के संपादन में ‘द इकोनामिक जियोग्राफी आफ़
क्रास-बार्डर माइग्रेशन’ का प्रकाशन हुआ । किताब के पांच हिस्सों में पचीस लेख
संकलित हैं । पहले हिस्से में प्रवास के धारणात्मक और ऐतिहासिक प्रसंगों का विवेचन
करनेवाले लेख हैं । दूसरे हिस्से के लेखों में अंतर्राष्ट्रीय प्रवास का विश्लेषण
किया गया है । तीसरे हिस्से में ऐसे लेख शामिल हैं जिनमें नयी जगह पर प्रवास के
असर का विवेचन है । चौथे हिस्से के लेखों में उन जगहों पर ध्यान दिया गया है
जिन्हें छोड़कर ये प्रवासी आते हैं । आखिरी पांचवें भाग में प्रवास से जुड़े नीति
संबंधी सवालों की छानबीन है । संपादकों का कहना है कि यह समय प्रवास का समय है । देशों के भीतर स्थानीय और क्षेत्रीय प्रवास तो हो ही रहा है सीमाओं के आर पार भी बड़े पैमाने पर आवाजाही हो रही है । साथ ही इस प्रवास के समाजार्थिक पहलुओं पर काफी बात भी हो रही है । प्रवास की परिघटना के आर्थिक पक्ष पर थोड़ा अधिक ध्यान दिया गया है । फिर भी मानना होगा कि प्रवास केवल आर्थिक और जनांकिकीय परिघटना नहीं है । लोग जिस जगह को छोड़कर जाते हैं और जिस जगह पहुंचते हैं उन दोनों के भूगोल में कुछ समाजार्थिक चालक होते हैं और इस प्रवास के प्रभाव भी इन दोनों ही इलाकों पर पड़ते हैं । इसलिए इन पर भी ध्यान देना जरूरी हो गया है ।
2020 में जीरो बुक्स से क्रिस मैकमिलन की किताब ‘द लंदन ड्रीम:
माइग्रेशन ऐंड द माइथोलाजी आफ़ द सिटी’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब का लेखन लंदन में
काम के हालात की आलोचना के रूप में शुरू हुआ था । लंदन में रहनेवालों से साक्षात्कार के आधार पर किताब तैयार की गयी है । लेखक का मानना है कि विषमता और अन्याय के मामले में पूंजीवाद के तर्क
और लंदन के अर्थतंत्र में विक्टोरियाई समय के मुकबले कोई खास बदलाव नहीं
आया है । फिर भी यहां आये हुए लोग तमाम असंतुष्टि के बावजूद इसे छोड़कर जाना नहीं
चाहते । उनकी बातचीत में उम्मीद और सपने सुनायी पड़ते हैं । इसी उम्मीद और आकांक्षा के बल पर लंदन और पूंजीवाद कायम हैं । लंदन का यह सपना आकर्षक होने के साथ ही शोषणकारी भी है । पश्चिमी देशों की ओर प्रवास की विडम्बना को इस प्रतीक के सहारे अच्छी तरह से व्यक्त किया गया है ।
2020 में मेट्रोपोलिटन बुक्स से काओ कालिया यांग की किताब ‘समह्वेयर
इन द अननोन वर्ल्ड: ए कलेक्टिव रिफ़्यूजी मेमायर’ का प्रकाशन हुआ । किताब सभी जगहों
के प्रवासियों को समर्पित है जिनका भाग्य विभिन्न देशों के संकीर्ण हितों से
प्रभावित होता है, जिनके अधिकार छीन लिये जाते हैं तथा जिनकी भूख प्यास अनजानी और
अनसुनी रह जाती है । एक प्रवासी की ओर से लिखी होने के बावजूद किताब शरणार्थियों
के हालात को प्रस्तुत करने की कोशिश करती है । लेखिका दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों
की उथल पुथल का शिकार होने के चलते थाइलैंड के एक शरणार्थी शिविर में लम्बे समय तक
रहीं फिर भी लोग इसे घर नहीं मानते थे । घर तो पीछे छूट गया था और अब समुद्र के
दूसरे किनारे नये सिरे से बनना था । जिस युद्ध के चलते उनकी यह हालत हुई थी उसका
प्रत्यक्ष अनुभव न होने के बावजूद उसके नतीजे चारों ओर बिखरे हुए थे । बुजुर्ग लोग
लाओस की घटनाओं के बारे में बताते थे । उनकी नींदें बुरे सपनों से भरी रहती थीं ।
लेखिका को बचपन में ही अपने नागरिकहीन होने का पता था । अमेरिका में पहुंचने पर
उनका दाखिला उनके इलाके के शरणार्थियों के स्कूल में हुआ । वहां उनके अलावे
कम्बोडिया और वियतनाम से आये परिवारों के बच्चे भी थे । वे पीछे छूट गयी चीजों की
तस्वीरें बनाते ।
2020 में ज़ाइना स्लीमै-लांग की किताब ‘सैंक्चुअरी रीजन्स ऐंड द स्ट्रगल फ़ार बिलांगिंग: अनडाकुमेन्टेड इमिग्रैन्ट्स इन द यूनाइटेड स्टेट्स’ का प्रकाशन हुआ । इसमें अमेरिका आये
कागजहीन लोगों के चलते उत्पन्न तनावों की छानबीन की गयी है । जो लोग आये हैं उनके
दैनन्दिन में तमाम किस्म की दिक्कतें देखने में आ रही हैं । साथ ही यह भी समझने की
कोशिश है कि किस तरह की राजनीतिक संरचना के चलते उन्हें अपने देशों का त्याग करना
पड़ा । लेखिका ने अमेरिका में इन प्रवासियों को स्थायी कानूनी हैसियत प्राप्त होने
में मौजूद बाधाओं का भी अध्ययन किया है । इन प्रवासियों में शरणार्थियों के साथ
राज्यविहीन और कागजविहीन लोग भी शामिल हैं । हमारे देश से अमेरिका जाने वालों में
कागजविहीन लोगों की परिघटना बहुत आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए । कुछ ही समय
पहले भारतीय दूतावास में कार्यरत महिला अधिकारी के साथ घरेलू सहायक के रूप में गयी
संगीता रिचार्ड्स का प्रकरण सामने आया था जिसे वादे के अनुरूप वेतन न देने के चलते
अमेरिका में अधिकारी पर मुकदमा दर्ज हुआ था । उस समय वह सहायिका अधिकारी के घर से
भागकर अमेरिका के कागजविहीन श्रमिकों के समुद्र में गुम हो गयी थी । इन प्रवासियों
की मौजूदगी के चलते न्याय, मान्यता और संबद्धता की धारणा को फिर से परिभाषित करने
की जरूरत पड़ती है । उनकी हैसियत के कारण नागरिकता और सत्ता की धारणा पर भी
पुनर्विचार करने की बौद्धिक जरूरत पैदा हुई है । इनके चलते किसी भी राजनीतिक
समुदाय में समेकन के नये रूप भी पैदा हो रहे हैं । पहले यह काम केवल सरकारी
संस्थाओं के जरिये होता था । इन कागजविहीन प्रवासियों के अधिकारों हेतु संचालित
आंदोलनों ने देश की सीमाओं पर ऐसे सुरक्षित ठिकानों को जन्म दिया है जहां राज्य के
अधिकार सीमित हैं । इन ठिकानों के निर्माण ने अमेरिका में आंदोलन की शक्ल ले ली । इनमें
रहने वाले प्रवासी निर्भय होकर सामुदायिक मामलों में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं ।
इस आंदोलन को चर्च जैसे पवित्र स्थानों को कागजविहीन प्रवासियों के लिए सुरक्षित ठिकाना
बनाने से गति मिली । इसके बाद स्थानीय शासन, संस्था
या संगठन जैसे अन्य जगहों तक इन ठिकानों को विस्तारित किया गया । इस आंदोलन से देश
की सीमा, संप्रभुता और सरकारी नागरिकता जैसे मुद्दों के बारे
में नये तरीके से सोचने की प्रेरणा मिली है ।
2020 में पालग्रेव मैकमिलन से अन्ना मैककीवर की किताब ‘इमिग्रेशन
पालिसी ऐंड राइट-विंग पापुलिज्म इन वेस्टर्न यूरोप’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का सवाल
है कि आखिर यूरोपीय देशों में आप्रवासियों की आमद पर तमाम प्रतिबंधों की वजह क्या
है । तमाम देशों में सरकारों और अनुदार पार्टियों को आप्रवास के मामले पर इतना
कठोर रवैया अपनाने को किसलिए मजबूर होना पड़ रहा है । इस सवाल का जवाब पाने के लिए
लेखक ने ब्रिटेन, स्विट्ज़रलैंड और फ़्रांस की सरकारी नीतियों के बनने की प्रक्रिया
का ठोस अध्ययन किया है । कहने की जरूरत नहीं कि बहुतेरे यूरोपीय देशों में
दक्षिणपंथी राजनीति के वर्तमान उभार में आप्रवास महत्वपूर्ण सवाल के बतौर उभरा है
।
2020 में वन वर्ल्ड से काथी पार्क हांग की किताब ‘माइनर फ़ीलिंग्स: ऐन
एशियन अमेरिकन रेकनिंग’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका ने अपनी बात चेहरे से शुरू की है
। हम सभी जानते हैं कि गोरे अमेरिका में एशियाई लोगों की पहचान उनकी चमड़ी के रंग
और चेहरे की बनावट से आसानी से हो जाती है । इसके आधार पर लेखिका बताती हैं कि
चेहरा हमारे बदन का सबसे नग्न हिस्सा होता है और उसके प्रति बहुत अधिक संवेदनशीलता
एशियाइयों में पायी जाती है । सूरत को लेकर इस मनोग्रस्ति के चलते बहुधा इस अमेरिकी
समाज के साथ अलगाव पैदा होता है । कभी कभी यह तनाव इतना तेज हो जाता है कि कोई
व्यक्ति भाषा भी ठीक से बरत नहीं पाता । ऐसे हालात में व्यक्ति कभी निश्चिंत नहीं
हो पाता । खुशी के मौकों पर भी दुर्घटना की आशंका बनी रहती है । अपनी मानसिक व्यथा
की चिकित्सा के लिए उन्हें अपने ही समुदाय के चिकित्सक को तलाशना पड़ता है ।
2020 में वन वर्ल्ड से कार्ला कोर्नेजो विलाविचेन्सियो की किताब ‘द
अनडाकुमेन्टेड अमेरिकन्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका ने मजेदार किस्म से किताब की
शुरुआत की है । उन्हें अंदाजा था कि 2016 के चुनावों में ट्रम्प जीतने जा रहे हैं
। नतीजे घोषित होने की रात उन्होंने सबसे अच्छे वस्त्र पहने । ऐसा करने की वजह
टाइटैनिक फ़िल्म का दृश्य था जिसमें डूबती महिलाओं ने सर्वोत्तम परिधान धारण किये
थे । वे कागजविहीन अमेरिकी थीं । नतीजे के बाद पिता ने फोन करके सब कुछ खत्म होने
की सूचना दी । सुबह उठकर उन्होंने लिबर्टी की मूर्ति के सामने अपनी तस्वीर उतरवायी
। वहां जाकर थोड़ा चैन मिला । प्रकाशक से इस किताब को लिखने का वादा किया । बहुत
पहले उन्होंने एक अखबार में अपने कागजविहीन होने का रहस्य लिखकर भेजा था । तब कुछ
लोगों ने संस्मरण लिखने की गुजारिश की थी । इक्कीस साल की उम्र में वैसा कुछ लिखने
की प्रेरणा पैदा न हो सकी । ट्रम्प के जीतने के बाद बहुतेरे लोगों ने लेखिका को
अपने घर में पनाह देने की पेशकश की । प्रवासियों के बारे में लेखिका ने काफी कुछ
पढ़ रखा था और उससे बहुत मुतास्सिर नहीं थीं । उनमें लेखिका का अनुभव संसार
प्रतिबिम्बित नहीं होता था । इस किताब के लिए लेखिका ने अपने जैसे कागजविहीन लोगों
के साक्षात्कार लिये, हाथ से उन्हें लिखा और फिर उन्हें किसी मुसीबत से बचाने के
लिए नष्ट कर दिया । अंग्रेजी न बोल सकने वाले इन आप्रवासियों के बच्चे छुटपन से ही अनुवाद करना सीख जाते हैं । जिन लोगों के साक्षात्कार लेखिका ने लिये उनके इसी तरह के तत्काल अनुवाद भी किये । कागजविहीन परिवार का कागजविहीन आप्रवासी होकर उनके बारे में लिखते समय पत्रकारीय निष्पक्षता निभाना असम्भव होता है । उन्हें रोज ब रोज भय और तकलीफ से गुजरना पड़ता है । किताब की लेखन प्रक्रिया ही उस यातना को बताने के लिए पर्याप्त है जिससे होकर इन आप्रवासियों को गुजरना पड़ता है । इसीलिए वे इस किताब को बहुत खुशनुमा न बना पाने की माफ़ी मांगती हैं । इसमें ऐसे लोगों की कहानी सुनायी गयी है जो मजदूर के बतौर, सफाईकर्मी के रूप में, कुत्ते टहलाते हुए या सामान ढोने वालों के रूप में अपना जीवन बिताते हैं । इनके काम के बदले में कोई सम्मान पत्र नहीं तैयार कराया जाता । यह सितारों की नहीं, बल्कि भूमिगत लोगों की दुनिया है । युवा आप्रवासियों और उनकी संतानों के लिए यह किताब लिखी गयी है । लेखिका को यकीन है कि इससे उन्हें आत्मविश्वास के साथ हालात का मुकाबला करने में मदद मिलेगी ।
2020 में कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस से थामस बोर्स्तेलमान की किताब
‘जस्ट लाइक अस: द अमेरिकन स्ट्रगल टु अंडरस्टैंड फ़ारेनर्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखक
ने आठ साल की उम्र में पानी के जहाज से न्यू यार्क से आयरलैंड जाने की याद से
किताब की शुरुआत की है । उनके पिता को डबलिन विश्वविद्यालय में अध्यापन का काम
मिला था । इससे पहले वे अमेरिका से बाहर कभी नहीं गये थे । बंदरगाह पर ढेर सारे
आयरिश लोग अपने अमेरिका से घूमकर लौटे रिश्तेदारों को लेने आये हुए थे । तब प्रवास
के लिए अमेरिका उनकी मनचाही जगह थी । डबलिन में रहते हुए विदेशियों को जानने का
मौका उन्हें पहली बार मिला था । यहां वे विदेशी थे । लोग उनके जैसे ही थे बस तौर
तरीके अलग थे । उनके अंग्रेजी बोलने का लहजा, खेल, यातायात, भोजन सामग्री और पेय
पदार्थ भिन्न थे । वहां रहते हुए अमेरिकी चीजों की याद नहीं आयी लेकिन वापसी में
जहाज पर जब अमेरिका में प्रचलित पेय मिला तो लगा कि लौट आये हैं । उसके मुकाबले
वर्तमान समय उतनी भिन्नता का नहीं रह गया है । अब तो अमेरिकी लोग देश के भीतर और
बाहर विदेशियों के सम्पर्क में बहुत रहते हैं । इसके चलते उन्हें विदेशियों को
समझने की चुनौती का सामना पहले के मुकाबले अधिक करना पड़ता है । अमेरिकी लोग खुद को
खास समझते हैं । जब भी कोई उन्हें अपने समान या अलग दिखायी देता है तो अचरज में पड़
जाते हैं । इसी प्रवृत्ति की छानबीन इस किताब में की गयी है ।
2020 में रटलेज से जेन अन्ना गोर्डन की किताब ‘स्टेटलेसनेस ऐंड माडर्न
एनस्लेवमेन्ट’ का प्रकाशन हुआ । आज की दुनिया में जिस विशाल पैमाने पर विस्थापन हो
रहा है उसमें राज्यविहीन आबादी लगातार बढ़ती जा रही है । लेखिका का कहना है कि
राज्यहीनता और समकालीन गुलामी के बारे में बात होती है तो इन दोनों को ही ऐसी
आपवादिक स्थिति माना जाता है जिनका जन्म चरम राजनीतिक विफलता से हुआ है । इन
सवालों पर सक्रिय कार्यकर्ता भी इनके शिकारों की संख्या को वास्तविकता से घटाकर
बताते हैं । इस दुनिया में बेहतरी की बहुतायत समझने वाले लोग इन दोनों हालात को
बुराई और भद्दगी मानते हैं । इन दोनों को किसी भी नैतिक या कानूनी समर्थन से रहित
माना जाता है । इन दोनों को ही ऐसी समस्या माना जाता है जिन्हें मौजूदा व्यवस्था
के भीतर हल किया जा सकता है । इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय कानून और पुलिस की चुस्ती
पर जोर दिया जाता है । सच यह है कि ये दोनों हालात अपवाद नहीं हैं । नागरिकता की
नस्ली प्रक्रिया के ये स्वाभाविक परिणाम हैं । जिनके साथ गुलामी की सबसे अधिक
सम्भावना है वे तमाम किस्म के अधिकारों से वैसे ही रहित हैं । इस तरह की बहुआयामी
अधिकारहीनता से किसी भी व्यक्ति की नागरिकता व्यावहारिक तौर पर निष्प्रभावी हो
जाती है । जिन समुदायों को लम्बे समय से राज्यविहीन स्थिति में रहना पड़ रहा है
उनकी गुलामी के हालात पैदा होते जा रहे हैं । आधुनिक यूरोपीय देशों में जो समुदाय
लम्बे समय से गुलामी की अवस्था में हैं उनके सदस्यों को उन देशों की सरकार अपना
नहीं मानती । अन्य किसी राजनीतिक इकाई को वे अपना कह भी नहीं सकते ।
2020 में पालग्रेव मैकमिलन से एरिकुर बेर्गमैन की किताब
‘नियो-नेशनलिज्म: द राइज आफ़ नेटिविस्ट पापुलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखक 2018 में
स्पेन से मोरक्को जा रहे थे तो उन्हें समुद्री रक्षकों द्वारा गिरफ़्तार अफ़्रीकी
शरणार्थियों का एक समूह नजर आया था । तीन दिन बाद लौटने पर भी वह समूह उसी तरह एक
समुद्री नाव पर मौजूद मिला । उन्हें वापस भेजा जा रहा था । इस समूह के विपरीत लेखक
को खूब आराम से स्पेन में घुसने दिया गया । लेखक तो पासपोर्ट की प्रभुता जानते थे
लेकिन उनकी बारह साल की पुत्री को यह अंतर समझ नहीं आया । असल में पिछली पचास साल की
राजनीति इन हालात के लिए जिम्मेदार है ।
2020 में वर्सो से डैनिएल डेनविर की किताब ‘आल-अमेरिकन नेटिविज्म: हाउ
द बाइपार्टीजन वार आन इमिग्रैन्ट्स एक्सप्लेन्स पोलिटिक्स ऐज वी नो इट’ का प्रकाशन
हुआ । लेखक ने बताया है कि राष्ट्रपति पद पर एक हफ़्ता बीतते न बीतते ट्रम्प ने 27
जनवरी 2017 को अमेरिका में मुस्लिम देशों से आनेवाले प्रवासियों के प्रवेश पर
नब्बे दिनों के लिए प्रतिबंध घोषित किया । इसके साथ ही उन्होंने सभी देशों के शरणार्थियों
के प्रवेश पर एक सौ बीस दिनों के लिए प्रतिबंध घोषित किया । चुनाव से पहले की
सभाओं में इसका जिक्र तो हुआ था फिर भी आदेश होते ही लोग सन्न रह गये । अनेक लोग
जो कानूनी रूप से अमेरिका में स्थायी रूप से बस गये थे उन्हें भी पहले तो आने से
और आ जाने के बाद भीतर घुसने से रोका जाने लगा । आदेश के विरोधियों ने हवाई अड्डों
पर आप्रवासियों के स्वागत में फूल बिछा दिये और वकीलों ने अदालतों से इस पर रोक
लगवायी । यह ट्रम्प की पहली हार थी । लेखक को लगता है कि इसके बावजूद ट्रम्प ने
बेशर्मी के साथ वही किया जो उसके पहले के मुखिया भी करना चाहते थे लेकिन कर नहीं
पाते थे । एक आम धारणा बन गयी है कि पहले के नेता देश के रोजगार दूर देश ले गये और
अमेरिका के भीतर बाहरी लोगों को लाकर रोजगार मुहैया कराया ।
2019 में प्लूटो प्रेस से अंतोनिस व्रादिस, एवी पपादा, जो पेंटर और
अन्ना पपौत्सी की किताब ‘न्यू बार्डर्स: हाटस्पाट्स ऐंड द यूरोपीयन माइग्रेशन
रिजीम’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का मानना है कि वर्तमान प्रवास संकट की समस्या
बहुआयामी है इसलिए उस पर विचार भी एक ही अनुशासन तक सीमित रहकर सम्भव नहीं है ।
इसमें मानव भूगोल, नगर अध्ययन, मानवशास्त्र, समाजनीति और समाजशास्त्र के जानकारों
को आपसी सहयोग करना होगा । इसके अतिरिक्त इस समस्या पर किसी भी अध्ययन को सामान्य
लोगों तक भी पहुंचना चाहिए । किताब को इसीलिए इस समस्या से जुड़े सामान्य पाठकों के
लिहाज से तैयार किया गया है । जिस समूह का निर्माण यूरोपीय संघ के विरोध में हुआ था
उनके ही कामकाज के विस्तार के रूप में इस किताब को ग्रहण किया गया है । आप्रवास के
संघर्ष और सीमाओं में निहित हिंसा तथा अन्याय की राजनीतिक समझ को जाहिर करना इसका
घोषित मकसद है ।
2019 में पालग्रेव मैकमिलन से ओस्कर गार्शिया आगस्तीन और मार्तिन बाक
जोर्गेनसेन की किताब “सोलिडेरिटी ऐंड द ‘रिफ़्यूजी क्राइसिस’ इन यूरोप” का प्रकाशन
हुआ । 2016 में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने अमेरिका में एक
सम्मेलन में लाखों लोगों के विस्थापन की समस्या पर बोलते हुए कहा कि हमारे समय का
सबसे विकराल शरणार्थी और विस्थापन का संकट आया हुआ है और संख्या का संकट होने के
साथ ही एकजुटता का संकट भी इसके साथ लगा हुआ है । वाजिब और गैर वाजिब तरीकों से
यूरोप में प्रवेश करनेवाले शरणार्थी, प्रवासी और विस्थापितों को ही ‘शरणार्थी
संकट’ कहा जा रहा है । इसकी बड़ी वजह उनके देशों की राजनीतिक अस्थिरता तथा सुरक्षा
और संरक्षा का अभाव तथा वैश्विक विषमता है । इस संकट में मात्र उतना ही नहीं है
जितना ऊपर से दिखाई दे रहा है । इस किताब में संकट की जगह एकजुटता पर जोर दिया गया
है जिसके चलते नये राजनीतिक रिश्ते कायम हो रहे हैं । इस एकजुटता से संकीर्ण राष्ट्रवाद
को भी चुनौती पेश की जा रही है तथा अधिक समेकित समाज बनाने के वैकल्पिक तरीके
खोजने का मौका पैदा हुआ है । विभिन्न यूरोपीय देशों में शरणार्थी स्वागत आंदोलन उठ
खड़े हुए हैं । 2016
में प्लूटो प्रेस से इनके ही संपादन में ‘सोलिडेरिटी विदाउट
बार्डर्स: ग्राम्शीयन पर्सपेक्टिव्स आन माइग्रेशन ऐंड सिविल सोसाइटी एलायन्सेज’ का
प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और उपसंहार के अतिरिक्त किताब के चार भागों
में ग्यारह लेख संकलित हैं । पहले भाग में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की विविधता के
बारे में बताया गया है । दूसरे भाग में एकजुटता और संश्रय का विवेचन है । तीसरे
भाग में गलत संश्रयों से परहेज करने के बारे में लेख हैं । चौथे भाग में प्रतिरोध
के स्थलों का विश्लेषण है ।
2019 में न्यू यार्क यूनिवर्सिटी प्रेस से शोभा शिवप्रसाद वाधिया की किताब ‘बैन्ड: इमिग्रेशन एनफ़ोर्समेन्ट इन द टाइम आफ़ ट्रम्प’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने बताया है कि
आंतरिक सुरक्षा विभाग का गठन 11 सितम्बर के हमले के बाद हुआ था और फिलहाल उसे आप्रवास
के नियमों को लागू करना होता है । इस विभाग के अलग अलग निकायों को अमेरिका से
आप्रवासियों को पकड़ने, कैद रखने और उनके देश वापस भेजने का काम करना होता है । 2016
के वित्तीय वर्ष में इन निकायों ने सवा पांच लाख लोगों की निशानदेही करके उन्हें
गिरफ़्तार किया । आप्रवास के नियमों को लागू करने के मामले में संदिग्ध आप्रवासियों
को केवल वापस भेजने से ही काम नहीं चलता, इसके लिए सड़क पर गिरफ़्तारी, कार्यस्थल पर
पूछताछ और किसी सुधार गृह में लम्बी कैद जैसे कदम भी उठाने पड़ते हैं । 2016 में ही
साढ़े तीन लाख लोगों को सुधार गृह भेजा गया और लगभग इतने ही लोगों को वापस भेजा गया
। यह पूरी प्रक्रिया काफी जटिल होती है और इसमें बहुत कुछ विवेकाधीन भी होता है ।
2019 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से ज़चरी क्रेमर की किताब
‘आउटसाइडर्स: ह्वाइ डिफ़रेन्स इज द फ़्यूचर आफ़ सिविल राइट्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखक
ने बेहद निजी प्रसंग से किताब की शुरुआत की है । उनके पुत्र को पालतू जानवरों के
मामले में भेदभाव पर आपत्ति हुआ करती थी । बड़े होने पर उसके इस भाव में व्यापकता
आयी । रंगभेद के मामले पर उसमें अन्याय के विरोध की चेतना पैदा हुई । सभी मनुष्यों
की आंतरिक समानता के आधार पर सबके साथ समान आचरण की मांग उसकी मूलवृत्ति बनती गयी
। नस्ल, सेक्स, सक्षमता और आयु के आधार पर कानूनी भेदभाव को वह व्यर्थ समझता था ।
सभी लोग ही असल में एक दूसरे से भिन्न होते हैं । समलैंगिक की भिन्नता भी इसी तरह
की एक भिन्नता है । यदि सख्ती से खोजबीन की जाये तो लगभग सभी लोग सामान्य से अलग
और बाहरी साबित हो सकते हैं । भिन्नता सार्वभौमिक है और अगर भीतरी को समानता के
आधार पर तय किया जायेगा तो सभी बाहरी सिद्ध होंगे । नागरिक अधिकारों का तात्पर्य
ही तमाम रुकावटों को तोड़कर हाशिये के समूहों को नागरिक जीवन में शरीक करना है ।
नागरिक अधिकारों के मामले में सबसे बड़ी चुनौती इस समय भिन्नता को समाहित करना हो
गयी है । भिन्नता संबंधी वर्तमान भेदभावपरक सोच के चलते पहचान और बराबरी को नये
सिरे से व्याख्यायित करना जरूरी हो गया है । नागरिक अधिकार का प्रावधान सबके लिए
उनकी भिन्नता के बावजूद आवश्यक हो चला है ।
2019 में मेलविल हाउस से जे जे मुलिगन सेपुलवेदा की किताब ‘नो ह्यूमन इज इल्लीगल: ऐन अटार्नी आन द फ़्रंट लाइन्स आफ़ द इमिग्रेशन वार’ का प्रकाशन हुआ । किताब अमेरिका में
उन्नीस साल से रहनेवाले एक व्यक्ति की विडम्बना से शुरू होती है जिसे चार साल से
अदालतों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं, डिटेंशन सेंटर के भीतर बाहर लगा हुआ है, जमानत
पर छूटता है और फिर कैद कर लिया जाता है । गलती बेहद छोटी है और गलतफ़हमी भारी है ।
आप्रवासियों की वकालत के चलते लेखक को ऐसी दुखद कहानियों से रोज दो चार होना पड़ता
है । ट्रम्प के शासन में प्रत्येक आप्रवासी हमेशा इसी आशंका में रहता है कि उसे
कैद करके कभी भी वापस भेजा जा सकता है । आप्रवासियों की रिहाइश के इलाकों में
सिर्फ़ शक की बिना पर छापा डाला जाता है और कागजविहीन आप्रवासियों को जेल जैसे
डिटेंशन सेंटर में भेज दिया जाता है । उनका भाग्य दुराग्रही जजों और पूछताछ
करनेवाले अफ़सरों के हाथ में होता है । उनके बच्चों को माता पिता से अलगाकर अनाथ की
तरह भटकने को छोड़ दिया जाता है । बुश और ओबामा से लेकर ट्रम्प तक आप्रवासी विरोधी
नीतियों की निरंतरता बनी हुई है । ट्रम्प के बाद इन नीतियों को जारी न रखने के
मकसद से यह किताब लिखी गयी है । लेखक खुद भी चिली के आप्रवासी दंपति की संतान हैं
जिन्होंने पिनोशे शासन से बचने के लिए देश छोड़ा था । इसके चलते उनको अन्य
आप्रवासियों के साथ सहानुभूति रहती है ।
2019 में वर्सो से माया गुडफ़ेलो की किताब ‘होस्टाइल इनवायरनमेन्ट: हाउ
इमिग्रैन्ट्स बीकेम इस्केपगोट्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका के मुताबिक ब्रिटेन में
2010 के चुनावों में आप्रवासियों का सवाल सबसे प्रमुख बन गया था और सभी नेता उनके
विरोध में जहर उगलने में एक दूसरे से होड़ कर रहे थे । नतीजा कि अनजाने लोग भी उन
पर सड़क चलते हमला कर रहे थे । उन्हें अकुशल, बेवकूफ, बोझ और तिलचट्टा या समस्या
कहा जा रहा था । यह जरूरी था कि उन्हें मनुष्य समझा जाए । कहने की जरूरत नहीं कि यही शब्दावली हमारे देश में बांगलादेश से आये लोगों के लिए भी इस्तेमाल की जाती है ।
2019 में पोलिटी से नीरा युवल-डेविस, जोर्जी वेमिस और कैथरीन कसीदी की
किताब ‘बार्डरिंग’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का मानना है कि सीमा और उसकी पहरेदारी
का सवाल इस समय राजनीतिक और सामाजिक जीवन के केंद्र में आ गया है । इसने नागरिकता,
पहचान और लगाव को पुनर्परिभाषित किया है और सामाजिक जीवन में बहुसंख्या का दबदबा
कायम करते हुए अल्पसंख्यकों के लिए मुसीबत को जन्म दिया है । इस प्रक्रिया में
स्थानीय और वैश्विक स्तर पर इनके लिए ढेर सारे अस्पष्ट बहिष्कारी क्षेत्र उभरे हैं ।
2019 में हेमार्केट बुक्स
से स्टीवेन मायेर्स और जोनाथन फ़्रीडमैन के संपादन में ‘सोलितो, सोलिता: क्रासिंग बार्डर्स विथ यूथ
रिफ़्यूजीज फ़्राम सेंट्रल अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । किताब की प्रस्तावना जेवियर ज़मोरा ने लिखी है । उनके मन में संकोच है कि जो आवाजें किताब में मौजूद हैं वे बेहद शक्तिशाली और जरूरी हैं । इन बयानों से जो तस्वीर बनती है वह बहुतेरे लोगों का अनुभव है । आज भले ट्रम्प अमेरिका के इतिहास से गोरों से भिन्न लोगों को बेदखल करने की कोशिश करें लेकिन सच यही है कि इस भूखंड पर गोरों के आने से पहले के स्थानीय लोगों और काले लोगों का अधिक अधिकार बनता है ।
2019 में फ़रार, स्त्रास ऐंड गीरू से सुकेतु मेहता की किताब ‘दिस लैंड इज आवर लैंड: ऐन इमिग्रैन्ट’स मेनिफ़ेस्टो’ का प्रकाशन हुआ । दुनिया भर में
दक्षिणपंथी संकीर्ण राष्ट्रवाद के उभार के चलते आप्रवासी समुदाय को दिक्कतों का
सामना करना पड़ रहा है । विस्थापन की समस्या इतनी गम्भीर हो गई है कि बेवतन लोगों
की आबादी बहुत सारे देशों से अधिक हो गई है । पूरी किताब निजी अनुभवों का बयान करते हुए लिखी गई है । पहला ही प्रसंग उनके नाना से शुरू होता है जिनसे लंदन में कुछ गोरे ब्रिटेन छोड़ देने की धमकी देते हैं और उनके लंदन में रहने की वजह पूछते हैं । नाना बताते हैं कि औपनिवेशिक समय में गोरे भारत रहे थे इसलिए वे लंदन रहने आए हैं और असल में भारत ने ब्रिटेन को कर्ज दिया है । सुकेतु का कहना है कि पश्चिमी देशों में आजकल ढेर सारे लोग गरीब मुल्कों से उनके देश में आने वालों की शिकायत करते पाए जाते हैं । दूसरी ओर आप्रवासियों को लगता है कि इन मुल्कों ने उपनिवेश कायम करके संपदा का दोहन किया और उन्हें उद्योग लगाने में बाधा पैदा की । फिर सदियों की लूट्पाट के बाद देश छोड़ते हुए नक्शे इस तरह से खींचे कि विभिन्न समुदाय आपसी झगड़ों में मुब्तिला रहें । अपने देशों में कामगार के बतौर ले गए और अब परिवार लाने में अड़ंगे डाल रहे हैं ।
इस तरह उपनिवेशों के कच्चे माल और मेहनत की लूट से अपने अर्थतंत्र का निर्माण करने के बाद वे प्रवासियों से वापस जाने को कह रहे हैं । उन्होंने खनिजों की चोरी की और संसाधनों की चोरी जारी रखने के लिए सरकारों को भ्रष्ट बनाया । हवा और पानी को प्रदूषित किया, खेत बंजर बना डाले और समुद्र सोख डाले । अब जब उन मुल्कों से गरीब लोग चोरी नहीं, काम करने उनकी सीमा पर पहुंचे हैं तो वे रुकावट डाल रहे हैं । फिर भी उन्हें कंप्यूटरों की मरम्मत के लिए, बीमारों के इलाज के लिए और बच्चों की शिक्षा के लिए इन प्रवासियों की जरूरत पड़ी तो सर्वोत्तम शिक्षित लोगों को बुलाया । इतने स्तरों पर दोहन करने के बाद अब इन प्रवासियों के विरुद्ध नफ़रत पैदा की जा रही है । लेखक को अमेरिका आने के बाद जिस स्कूल में प्रवेश दिलाया गया उसमें नस्ली भेदभाव इतना गहरा था कि उन्हें चौदह साल की उम्र में एक गोरे विद्यार्थी से उत्पीड़न झेलना पड़ा ।
इसी प्रसंग में वे ट्रम्प की प्रवासियों के प्रति नफ़रत का जिक्र करते हैं । उनके लिए हैती के लोग एड्स फैलाते हैं, नाइजीरिया के लोग अमेरिका आने के बाद अपने झोपड़ों में नहीं लौटते, मेक्सिको के लोग नशाखोरी, अपराध और बलात्कार लेकर आते हैं । बहुतेरे लोगों को ये बयान अटपटे लगते हैं लेकिन लेखक ने इन्हें स्कूली दिनों में ही सुन रखा था इसलिए उन्हें अचरज नहीं होता । तीस साल से अमेरिकी नागरिक होने के कारण लेखक केवल अमेरिका में सहज अनुभव कर पाते हैं लेकिन ट्रम्प की जीत के साथ वह विश्वास हवा हो चला है । तमाम गोरे नस्लवादी अपने बिलों से बाहर निकल आए हैं और प्रवासियों का जीना दूभर किए हुए हैं । ट्रम्प की हरकतों के लिए लगभग एक तिहाई अमेरिकी लोगों का समर्थन है । लेखक अपने को शेष दो तिहाई का हिस्सा मानते हैं ।
2019 में पालिसी प्रेस से स्यू क्लेटन, अन्ना गुप्ता और केटी विलिस के संपादन में
‘अनएकम्पनीड यंग
माइग्रैन्ट्स: आइडेन्टिटी, केयर ऐंड जस्टिस’ का प्रकाशन हुआ । किताब की प्रस्तावना
अल्फ़ डब्स ने तथा भूमिका और उपसंहार संपादकों ने लिखा है । इसके अतिरिक्त तीन
भागों में दस लेख संग्रहित हैं । सभी लेखक और संपादक कानून, समाज विज्ञान, भूगोल,
मीडिया और मनोचिकित्सा से जुड़े प्रमुख जानकार हैं । डब्स ने बताया है कि 1938 और 1940
से ही ब्रिटेन में जर्मनी, आस्ट्रिया, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया के लगभग दस हजार
बच्चों को दाखिला दिया जाता है । इस परियोजना के चलते बहुतेरे लोग हिटलरी जर्मनी
से बच सके । इससे पहले भी ब्रिटेन ने स्पेनी गृहयुद्ध का शिकार होने से चार हजार
बच्चों को पनाह देकर बचाया था जो गुएर्निका की बमबारी से अनाथ हो गये थे । इस तरह
के बच्चों और युवाओं को पनाह देना ब्रिटेन की मानवतावादी परम्परा का अभिन्न अंग
रहा है । इसी भावना के तहत ब्रिटेन की आप्रवास नीति में लेखक ने संशोधन प्रस्तावित
किया ताकि आप्रवासियों के बच्चों को शरण दी जा सके । शुरुआती सरकारी हिचक के
बावजूद संशोधन पारित हुआ । इसके बावजूद सरकार ने 480 बच्चों को ही प्रवेश देने की
मनमानी सीमा तय कर दी । सवाल है कि आखिर ऐसा बदलाव क्योंकर हुआ । दरअसल वर्तमान
सरकार शरणार्थियों के प्रति शत्रुता का भाव रखती है । इसके चलते ही नेता और मीडिया
उन्हें अपराधी और बाहरी कहकर उनकी नकारात्मक तस्वीर पेश करते हैं । उनका कहना है
कि यह शत्रुता एक नयी बात है । दिक्कत है कि यह ढेर सारे अमीर मुल्कों में एक साथ
प्रकट हुई है । जब दक्षिणी गोलार्ध में युद्ध और तबाही का मंजर है उसी समय
अमेरिका, आस्ट्रेलिया और यूरोप में दीवारें खड़ी की जा रही हैं और सरहदों पर सख्ती
बरती जा रही है ।
2018 में वर्सो से डैनिएल ट्रिलिंग की किताब ‘लाइट्स इन द डिस्टैन्स: एक्जाइल ऐंड
रिफ़्यूज ऐट द बार्डर्स आफ़ यूरोप’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने साफ साफ कहा है कि आप्रवास का इतिहास अमीर
कुलीनों के अतिरिक्त शेष सबके आवागमन पर रोक लगाने का इतिहास है । पुराने जमाने
में गुलामी या भूदासता के जरिये जनता को देश की सीमाओं के भीतर भी आने जाने पर रोक
थी । फिलहाल देश के भीतर की आवाजाही पर 1948 की मानवाधिकार घोषणा के चलते कोई रोक
नहीं है । इसकी जगह अब प्रतिबंध अंतर्राष्ट्रीय आवागमन पर लग गया है जबकि दुनिया
की आबादी के औसतन कुल तीन फ़ीसद लोग ही अंतर्राष्ट्रीय प्रवासी हैं । यह अनुपात
1960 से लगभग स्थिर बना हुआ है । असल में वैश्वीकरण बेहद असमान प्रक्रिया है ।
प्रवासियों का अनुपात तो नहीं बढ़ा लेकिन जिन देशों से लोगों का पलायन हो रहा है
उनकी संख्या बढ़ती जा रही है जबकि जिन देशों में वे जा रहे हैं उनकी तादाद कम होती
जा रही है । लोग उन्हीं देशों की ओर जा रहे हैं जहां सत्ता और संपत्ति का
संकेंद्रण है । खासकर उत्तर पश्चिमी यूरोप में आनेवालों का तांता लगा हुआ है । इन
आप्रवासियों का महज दसवां हिस्सा ही अवैध तरीकों को अपनाता है । लेकिन अमीर देश इन
शरणार्थियों को रोकने की हरचंद कोशिश करते हैं जिनकी बहुसंख्या युद्ध या अत्याचार
के चलते भाग रही है । 1990 में कुल बीस देशों में सीमा पर दीवार या बाड़ लगी थी,
2016 के आते आते उनकी तादाद लगभग सत्तर हो गयी ।
2018 में वर्सो से मिमि शेलर की किताब ‘मोबिलिटी जस्टिस: द पोलिटिक्स आफ़ मूवमेन्ट
इन ऐन एज आफ़ एक्सट्रीम्स’ का प्रकाशन हुआ ।
किताब में एक देश से दूसरे देश में आवागमन को मनुष्य का बुनियादी अधिकार माना गया है और इस पर
प्रतिबंध लगाने के विरोध में आवाज उठायी गयी है ।
2018 में बीकन प्रेस से अवीवा चोम्सकी की किताब ‘“दे टेक आवर जाब्स!” ऐंड 20 अदर मिथ्स एबाउट इमिग्रेशन’ का विस्तारित संस्करण प्रकाशित हुआ । पहली
बार यह किताब 2007 में छपी थी । इसमें पहले संस्करण की भूमिका के साथ नई भूमिका भी शामिल
है । किताब के पहली बार छपने के बाद कुछ चीजें बदतर या बेहतर हुई हैं जबकि कुछ
चीजें पूर्ववत बनी हुई हैं । आप्रवास से जुड़े झूठ जस के तस बने हुए हैं । कहा जाता
है कि हमारे रोजगार पर आप्रवासी काबिज हो जाते हैं, टैक्स नहीं चुकाते हैं और अवैध
आप्रवासियों से देश भर गया है । उनको वापस भेजे जाने की मांग उठती रहती है । सच यह
है कि 2007 में कागजविहीन आप्रवासियों की तादाद सबसे अधिक थी । उसके बाद से इसमें
गिरावट आती गयी है । मेक्सिको से आप्रवास तो वस्तुत: न केवल घटता गया बल्कि
अमेरिका से वापस जानेवाले बढ़ते गये हैं । किताब में इसी तरह ठोस तथ्यों के सहारे
बहुत सारी भ्रामक मान्यताओं को बेनकाब किया गया है । इससे पहले 2014 में बीकन प्रेस से इनकी ही एक किताब ‘अनडाकुमेन्टेड: हाउ इमिग्रेशन बीकेम इललीगल’ का प्रकाशन हुआ था । 2007 में छपी
किताब पर बातचीत के समय लेखिका को लगा कि आप्रवासियों के अधिकारों को मानवाधिकार
घोषित करने का साहस जरूरी है । अमेरिका के शेष वासियों के मुकाबले आप्रवासियों को
भिन्न कानूनी दर्जा देना ही गलत है । उनको अलग कहकर उनके बुनियादी अधिकारों से
वंचित करना ही गैरकानूनी है । इसी गैरकानूनी काम को स्वाभाविक समझा जाने लगा है और
उसका विरोध किताब का घोषित मकसद है ।
2018 में वर्सो से
आइलीन ट्राक्स की किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘वी बिल्ट द वाल: हाउ द यू एस कीप्स आउट
एसाइलम सीकर्स फ़्राम मेक्सिको, सेंट्रल अमेरिका ऐंड बीयान्ड’ प्रकाशित हुआ । यह अनुवाद डायने स्टाकवेल
ने किया है । लेखिका पत्रकार हैं और इस किताब को उन्होंने पेशेवर दक्षता के साथ
लिखा है । किताब की शुरुआत उस महिला न्यायाधीश के जिक्र से होती है जिन्होंने मुस्लिम
देशों (लीबिया, सीरिया, इराक, इरान, सूडान, यमन और सोमालिया) से अमेरिका आने वालों
को रोकने के ट्रम्प के आदेश को खारिज किया था । ट्रम्प के शुरुआती आदेशों में से
इस आदेश का सबसे अधिक विरोध तत्काल हुआ था । उसके बाद से अमेरिका आने वालों को
प्रवेश देने या इनकार करने की नीति पर सार्वजनिक बहस जारी है । दशकों से अमेरिका
पूरी दुनिया में विविधता को प्रोत्साहित करने वाले एक लोकतांत्रिक देश के रूप में
खुद को प्रचारित करता रहा है । असल में दुनिया के किसी भी अन्य देश के मुकाबले
अमेरिका में सबसे अधिक आप्रवासी आते रहे हैं । फिर भी कुल आबादी में उनका अनुपात
कुल 14 फ़ीसद ही है । कनाडा और आस्ट्रेलिया में यही अनुपात क्रमश: 22 और 28 फ़ीसद है
। कतर में 75 फ़ीसद तो सऊदी अरब में 88 फ़ीसद आप्रवासी श्रमिक हैं ।
2018 में वर्सो से
निशा कपूर की किताब ‘डिपोर्ट डिप्राइव
एक्स्ट्राडाइट: 21स्ट सेन्चुरी स्टेट एक्स्ट्रीमिज्म’ का प्रकाशन हुआ । इसमें 11 सितम्बर के
हमलों के सिलसिले में गिरफ़्तार किये जानेवाले एक व्यक्ति से कहानी की शुरुआत की
गयी है । उसकी बीबी और भाई को भी कैद कर लिया गया था । कोई सबूत न मिलने से हफ़्ते
भर बाद रिहा करना पड़ा लेकिन फिर से उसे कैद कर लिया गया । साढ़े चार महीने उसे जेल
में बिना किसी अपराध के बिताना पड़ा । वह अल्जीरिया का निवासी था, लंदन में बस गया
था और उसे अमेरिका में गिरफ़्तार किया गया कि जिन आतंकवादियों ने 11 सितम्बर के
हमलों में हिस्सा लिया था उनमें से चार लोगों का वह शिक्षक रहा था । गिरफ़्तारी के
बाद अखबारों में उसे ‘आतंक का शिक्षक’ बताया गया । आतंकवादियों के साथ उसके रिश्ते
भी खोज लिये गये । पुलिस अधिकारियों ने उसे सबसे महत्वपूर्ण गिरफ़्तारी कहा और उसके
बैंक से भारी लेनदेन के सबूत भी सामने आ गये । इस गिरफ़्तारी से एक दिन पहले ही
पत्रकारों ने उसे पुलिस के संदेह की खबर दी थी । गिरफ़्तारी के बाद खबर बनी कि लंदन
में अमेरिका के 11 सितम्बर की तरह के हवाई हमले की योजना को पुलिस ने नाकाम कर
दिया है । फिर तो यह भी कहा जाने लगा कि ब्रिटेन के आतंकवादियों में घबराहट फैल
गयी है । लंदन में भी पुलिस ने काल्पनिक कहानियां सुनायीं । पूरी किताब ब्रिटेन और
अमेरिका में जारी इन हालात के इर्द गिर्द बढ़ते सरकारी शिकंजे और इसमें निहित नस्ली
नफ़रत का जायजा लेती है ।
2017 में ड्यूक
यूनिवर्सिटी प्रेस से निकोलस डि जेनोवा के संपादन में ‘द बार्डर्स आफ़ “यूरोप”:
आटोनामी आफ़ माइग्रेशन, टैक्टिक्स आफ़ बार्डरिंग’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की भूमिका
के अतिरिक्त किताब में ग्यारह लेख शामिल हैं । किताब प्रवास संबंधी यूरोपीय संकट
को लेकर चली बहसों से उपजी है । इस संकट को नजदीक से तब देखा गया जब 19 अप्रैल
2015 को 850 शरणार्थियों को ढो रही नाव समुद्र में पलट गई । उस दुर्घटना में केवल
28 लोग बच सके । शेष मृतकों के शव भूमध्य सागर के किनारे बहकर आ लगे । लगा कि यह
साल यूरोप की सीमाओं में घुसकर शरणार्थी का दर्जा चाहने वालों के लिए सबसे अधिक
मृतकों का साल साबित होगा । ढेर सारी शरणार्थी नौकाओं के डूबने से यह आशंका सच
साबित होने लगी । इसके चलते यूरोप की समुद्री सीमा कत्लगाह में बदल गई ।
2017 में वर्सो और
वायस आफ़ विटनेस से गैब्रिएल थाम्पसन के संपादन में ‘चेजिंग द हार्वेस्ट: माइग्रैन्ट वर्कर्स
इन कैलिफ़ोर्निया एग्रीकल्चर’ का प्रकाशन हुआ । कहानी युवा उपन्यासकार जान स्टाइनबेक से शुरू की गई
है जिन्होंने कैलिफ़ोर्निया के प्रवासी कामगारों की अवस्था का आंखों देखा वर्णन
करने के लिए वहां की यात्रा की थी । किताब मौखिक इतिहास की परियोजना के तहत तैयार
की गई है ।
2015 में स्टैनफ़ोर्ड
यूनिवर्सिटी प्रेस से थामस नेल की किताब ‘द फ़िगर आफ़ द माइग्रैन्ट’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब के लेखक का
कहना है कि यह सदी प्रवासी की सदी है । क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस
समय जितना प्रवास हो रहा है उतना ज्ञात इतिहास में कभी नहीं हुआ था । दशक दर दशक
देशों की आबादी में प्रवास का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है । इसका बड़ा कारण पर्यावरणिक, आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता में बढ़ोत्तरी
है । जलवायु परिवर्तन के साथ ही 2008 के वित्तीय संकट, सामाजिक कल्याणकारी मद में भारी कटौती तथा
तेजी से बढ़ती बेरोजगारी के कारण धनी देशों में मध्यवर्ग के दरिद्रीकरण के चलते भी
ऐसा हो रहा है । कर्ज संकट ने करोड़ों लोगों को उनके घरों से निकालकर सड़क पर खड़ा कर
दिया । गरीब देशों में किसानों की बेदखली ने भी जनता को भटकने के लिए मजबूर कर
दिया है । इस विराट प्रवास के चलते लोकतंत्र और प्रतिनिधित्व के समक्ष गम्भीर
चुनौती खड़ी हो गई है । ये सभी प्रवासी एक
ही तरह के नहीं हैं । कुछ को अस्थायी बहिष्करण के बाद अवसर और लाभ हासिल हुआ लेकिन
अधिकतर लोगों के लिए प्रवास खतरनाक साबित हुआ और उनका बहिष्करण लम्बा चला ।
2014 में स्टेट
यूनिवर्सिटी आफ़ न्यू यार्क प्रेस से कतारज़ाइना मार्सिनियाक और इमोजेन टाइलर के
संपादन में ‘इमिग्रैंट प्रोटेस्ट: पोलिटिक्स, ऐस्थेटिक्स, ऐंड एवरीडे डिसेन्ट’ का प्रकाशन हुआ ।
किताब में संपादकों की प्रस्तावना और पश्चलेख के बाद संकलित तेरह लेख दो हिस्सों
में हैं । पहले हिस्से के लेखों में प्रवासियों के प्रतिरोध के सौंदर्यपरक
प्रदर्शनों का विश्लेषण है । दूसरे हिस्से के लेख सड़क पर इस प्रतिरोध की
कार्यवाहियों का विवेचन करते हैं ।
2013 में वेस्टबोर्न
प्रेस से सियाओ-हुंग पई की किताब ‘इनविजिबुल: ब्रिटेन’स माइग्रैन्ट सेक्स वर्कर्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका पेशे से पत्रकार हैं । इस किताब में जिनका
वर्णन है उनके नाम बदल दिए गए हैं लेकिन कहानियों की सचाई संदेह से परे है । इस
विषय पर लिखने से सबको अचम्भा होता था । शुरू में चीनी आप्रवासी कामगारों पर लिखते
हुए इस विषय पर उनका ध्यान भी नहीं गया था । देखती थीं कि इन कामगारों में पुरुषों
की जगह स्त्री कामगार अधिक हैं । कभी सुनाई भी पड़ता था कि ये स्त्री कामगार
वेश्यावृत्ति करती हैं ।
2012 में वर्सो से
जेरेमी हार्डिंग की किताब ‘बार्डर विजिल्स: कीपिंग माइग्रैंट्स आउट आफ़ द रिच वर्ल्ड’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने बताया है कि
किताब की शुरुआत नब्बे दशक के अंत में पश्चिमी यूरोप में दाखिल होनेवाले
शरणार्थियों के बारे में एक रपट के बतौर हुई थी । उनकी तादाद साठ साल में कभी इतनी
न रही थी । शीतयुद्ध की समाप्ति के तत्काल बाद लाखों लोग धनी लोकतांत्रिक मुल्कों
के दरवाजे पर प्रवेश पाने के लिए आ पहुंचे । इनमें युगोस्लाविया, रेगिस्तानी
अफ़्रीका, एशिया और मध्य पूर्व के इलाकों से आनेवालों की बहुतायत थी । इन अभागों को
इतिहास का अंत नजर नहीं आया था । उन्हें शरण देने का फैसला सरकारों को करना था । सरकारें
इस जिम्मेदारी से पीछा छुड़ा रही थीं, शरणार्थियों पर अवैध तरीके से सीमा पार करने
का आरोप लगा रही थीं । किताब में उनकी साहसिक यात्राओं और यूरोप में घुसने के
रास्तों के बारे में बताया गया है ।
2012 में प्लूटो
प्रेस से फ़्रांसेस वेबर की किताब ‘बार्डरलाइन जस्टिस: द फ़ाइट फ़ार रिफ़्यूजी ऐंड माइग्रैन्ट राइट्स’ का प्रकाशन गारेथ पीयर्स की प्रस्तावना के
साथ हुआ । उनका कहना है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बहुत जरूरी समझकर ढेर सारे
अंतर्राष्ट्रीय समझौते किये गये । इनका लाभ लेने वालों की पहली पीढ़ी को अपने
जीवनकाल में ही समझ आ गया कि जिन नियमों को वे शाश्वत समझे थे वे अत्यंत भंगुर
साबित हुए । धीरे धीरे अहसास हुआ कि प्रत्येक पीढ़ी को इन समझौतों को कायम रखने के
लिए लड़ना होगा । मानवाधिकारों, कैदियों और शरणार्थियों से जुड़े तमाम समझौते इसी
किस्म के हैं जिनके अनुपालन के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ता है । उन्होंने याद
दिलाया है कि केवल सात साल पहले सरकार और सरकारी वकील टार्चर के जरिये हासिल सूचना
को अदालत में सबूत की मान्यता दिलाने के लिए आसमान के कुलाबे मिला रहे थे । यह
तर्क चंद शरणार्थियों के मामले में पेश किया गया जिन्हें बिना मुकदमा चलाये अनंत
काल के लिए कैद किया गया था । राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद को परास्त करने और परिणाम
से उपाय के औचित्य को साबित करने का सहारा लेकर तमाम अंतर्राष्ट्रीय करारों को
बेखटके तोड़ा जा रहा है और इसका सबसे आसान शिकार शरणार्थी हो रहे हैं ।
2011 में अमेरिकन इंटरप्राइज इंस्टीच्यूट प्रेस
से बैरी आर चिसविक के संपादन में ‘हाइ-स्किल्ड इमिग्रेशन
इन ए ग्लोबल लेबर मार्केट’ का प्रकाशन हुआ । किताब
में संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त चार भाग हैं जिनमें नौ लेख संकलित हैं ।
पहले भाग में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, दूसरे में अस्थायीकरण, तीसरे भाग में अति
कुशल आप्रवासियों के समेकन और चौथे में ऐसे आप्रवासियों के प्रभाव और उनसे जुड़ी
नीतियों की चर्चा की गयी है । संपादक का कहना है कि पिछले दशकों में शिक्षा, शोध,
नीतियों के निर्माण और मीडिया में अमेरिका आनेवाले अकुशल आप्रवासियों पर बहुत
ध्यान दिया गया । इस सिलसिले में कभी कागजविहीन आबादी की बढ़ोत्तरी तो कभी
कल्याणकारी योजनाओं के बोझ की बात की गयी । इसके चलते अति कुशल आप्रवासियों की
परिघटना पर यथोचित ध्यान नहीं दिया गया । इस बात को हम सूचना प्रौद्योगिकी के
क्षेत्र में अति कुशल कामगारों के अमेरिका पलायन के संदर्भ से समझ सकते हैं ।
2008 में
यूनिवर्सिटी आफ़ मिनेसोटा प्रेस से लिन फ़ुजिवारा की किताब ‘मदर्स विदाउट सिटिज़ेनशिप: एशियन
इमिग्रैन्ट फ़ेमिलीज ऐंड द कांसीक्वेन्सेज आफ़ वेलफ़ेयर रिफ़ार्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका का कहना है कि
आप्रवास संबंधी लड़ाई के मूल में अमेरिका की नस्लवादी और सांस्कृतिक संरचना से उपजे
तनाव हैं । बहुधा इसे संसाधनों की कमी, रोजगार के मोर्चे पर होड़ और सांस्कृतिक
समेकन की समस्या की तरह पेश किया जाता है । सभी जानते हैं कि वैश्वीकरण के बाद से
ही आप्रवास संबंधी नीति के साथ नागरिकता की राजनीति भी जुड़ गयी है और इसमें
अधिकारों के मामले में भेदभाव बरता जाता है । इस समय अमेरिका में आप्रवासियों के
बारे में जिस तरह बातें हो रही हैं उसके चलते आप्रवासियों को बाहरी और दुश्मन की
तरह पेश किया जाता है । असल में राष्ट्र-राज्य के इतिहास के साथ ही आप्रवास पर रोक
और नस्ली शुद्धता का तत्व जुड़ा रहा है । इसकी राजनीति से प्रभावित नीतियों में तय
किया जाता है कि कौन आयेगा, रहेगा, काम करेगा और नागरिकता पायेगा । पिछले दशक में
आप्रवासियों के अधिकारों को सीमित करने वाली ढेर सारी नीतियों का निर्माण किया गया
।
2008 में बीकन प्रेस
से डेविड बेकन की किताब ‘इललीगल पीपुल: हाउ
ग्लोबलाइजेशन क्रिएट्स माइग्रेशन ऐंड क्रिमिनलाइजेज इमिग्रेन्ट्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि
अमेरिकी राजनीति में अवैध शब्द का इस्तेमाल मंत्र की तरह हो रहा है । आप्रवासियों
के अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग बरसों से कागजविहीन शब्द के इस्तेमाल पर जोर
देते रहे हैं जिससे अमेरिकावासी आप्रवासियों की सही स्थिति का बोध होता है । अवैध
को संज्ञा की तरह बरतने से उनको एतराज है क्योंकि अवैध तो कर्म होते हैं । इसी वजह
से आप्रवासियों के जुलूसों में नारा होता है कि कोई भी मनुष्य अवैध नहीं होता ।
उनका आंदोलन अन्याय के विरुद्ध समता और अधिकारों का आंदोलन है । असल में अवैध शब्द
के व्यापक इस्तेमाल का स्रोत मुखर दक्षिणपंथी राजनीति में है जिसकी तासीर नस्लवादी है
। कागजविहीन लोगों को शैतान साबित करने से उनके राजनीतिक हित सधते हैं । इससे मोटा
मुनाफ़ा पैदा होता है । मीडिया में भी बेहिचक इस शब्द का इस्तेमाल हो रहा है । इससे
महज विषमता की सामाजिक सचाई का पता चलता है । सदियों से अमेरिका की सीमा में लोग
बिना किसी कागज के प्रवेश करते रहे हैं । अब भी यह बहुत छोटा कानूनी अपराध बनता है
। वास्तव में इस प्रचार से महज सामाजिक और राजनीतिक विभाजन पैदा किया जाता है । आखिर
अमेरिका के अर्थतंत्र में उनकी अनिवार्य मौजूदगी से किसी को भी दिक्कत नहीं ही
होती ।
2006 में हेमार्केट बुक्स से जस्टिन एकर्स
चाकों और माइक डेविस की किताब ‘नो वन इज इललीगल: फ़ाइटिंग वायलेन्स ऐंड स्टेट रिप्रेशन आन द यू एस-मेक्सिको बार्डर’ का प्रकाशन हुआ । किताब में शामिल चित्र
जूलियान कारडोना के हैं । लेखकों ने अमेरिका और मेक्सिको की सीमा पर होनेवाले
प्रदर्शन के जिक्र से किताब की शुरुआत की है । आप्रवासियों के अधिकारों के लिए वह
विराट प्रदर्शन जैसे सोये शेर का जागरण था । यह आंदोलन अश्वेतों के नागरिक
अधिकारों के लिए चले आंदोलन से तुलनीय है । अब तक आप्रवासियों के सवाल पर होनेवाली
राजनीति बड़े पूंजी संस्थानों और चरम दक्षिणपंथ तक ही सीमित रही थी सहसा उसमें
सामान्य नागरिकों का बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप हुआ । जनता की दैनन्दिन बातचीत में
यह मुद्दा शामिल हो गया । स्वत:स्फूर्त तरीके से लोग संगठित और गोलबंद होने लगे ।
इन समुदायों के लिए काम करनेवाले पारम्परिक संगठन पीछे छूट गये और इस नये आंदोलन
में नेताओं से आगे आकर सामान्य लोगों ने हिस्सेदारी शुरू कर दी । इस आंदोलन का
नेतृत्व आप्रवासी और लैटीनो विद्यार्थी कर रहे हैं और उनकी बराबरी की मांग की धमक अमेरिकी कांग्रेस तक सुनायी पड़ रही है । इन लोगों ने जिस तरह अपराधी न होने का एलान किया
उससे पता चलता है कि उनके साथ कितना अपमानजनक आचरण होता है । वे अब अदृश्य नहीं
रहना चाहते । इस व्यापक आंदोलन की ज़द में युवा, बुजुर्ग और किशोर सभी आ चुके हैं ।
भागीदारों का कहना है कि वे लोकतंत्र को व्यवहार में लागू कर रहे हैं । अब आंदोलन
रक्षात्मक नहीं रह गया है और अमेरिका के आगामी इतिहास का लेखन इन आप्रवासी
श्रमिकों के हाथों होना निश्चित है । आंदोलन की प्रतिक्रिया में ऐसे कानून बन रहे
हैं जिससे इन आप्रवासियों की मदद करनेवाले भी अपराधी माने जायेंगे । इन नये
कानूनों के हिमायती लोगों को अब रक्षात्मक रवैया अपनाना पड़ रहा है । यह आंदोलन अब
कामगारों का आंदोलन बन चुका है और उनके सभी आंदोलनों की तरह ही इसे तमाम बाधाओं और
चुनौतियों का सामना करना होगा । उतार चढ़ाव भी आयेंगे, धक्के भी लगेंगे लेकिन इसमें
वैकल्पिक दुनिया बनाने की सम्भावना निहित है जिसमें कामगार लोग न केवल अपनी किस्मत
के मालिक होंगे बल्कि लोकतंत्र की नयी परिभाषा गढ़ेंगे ।
2005 में प्लूटो प्रेस से गार्गी भट्टाचार्य की
किताब ‘ट्रैफ़िक: द इल्लिसिट मूवमेन्ट आफ़ पीपुल ऐंड थिंग्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका के अनुसार इस
किताब का काम उन्होंने 2001 में शुरू कर दिया था । तब बहुतेरे लोग वैश्वीकरण से
आये बदलावों के इस पहलू से सहमत नहीं थे । वे मानती हैं कि जबसे मनुष्य ने व्यापार
शुरू किया तभी से हथियारों, मादक द्रव्य और मनुष्य का भी व्यापार जारी है । लेकिन
2001 के बाद सहसा लोगों ने वैश्विक गतिशीलता को नियमित करने की बात शुरू कर दी ।
विश्व स्तर पर जारी धन की गोपनीय आवाजाही के खतरों का जिक्र होने लगा और वैश्वीकरण
पर रोक लगाने का उपाय खोजा जाने लगा । उसके बाद से लगातार आपस में जुड़ी इस दुनिया
में आवागमन को नियमित करने की चिंता कभी समाप्त नहीं हुई । इसके समाधान के तरीके
पर कोई सहमति तो नहीं बन सकी है लेकिन इसकी जरूरत अवश्य महसूस की जा रही है । असल
में उन्नीसवीं सदी में यूरोप में जो सामाजिक बदलाव आये उनसे ही हमारी आज की दुनिया
की तस्वीर बनी है । नगरीकरण, उद्योगीकरण, साक्षरता, शासन, अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क
और राष्ट्रीय पहचान जैसी चीजों के हम इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि इनसे आजाद दुनिया
की कल्पना भी मुश्किल है । इन्हें सहज स्वीकार कर लेने से हम बदलाव की प्रक्रिया
की कल्पना नहीं कर पाते या चीजों के वर्तमान स्वरूप से भिन्न होने की सम्भावना को
खारिज कर देते हैं । उनका कहना है कि हमारा समय भी ऐसा समय है जो बड़े बदलावों के
अन्य दौरों की तरह ही अचरज और आशंका से भरा हुआ है ।
2004 में प्लूटो प्रेस से टेरेसा हेटर की किताब
‘ओपेन बार्डर्स: द
केस अगेंस्ट इमिग्रेशन कंट्रोल्स’ के दूसरे संस्करण का प्रकाशन हुआ । पहली बार 2000 में यह किताब छपी थी । इससे ही इस सवाल और
रुख की लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है । पहले संस्करण की भूमिका में
लेखिका ने सूचित किया है कि आप्रवासियों के एक डिटेंशन सेंटर के विरोध में उसे बंद
कराने के लिए छह साल से जारी अभियान पर यह किताब आधारित है । जिन्हें वहां कैद रखा
गया था उनके अनुभवों के आधार पर शरणार्थियों के साथ दुर्व्यवहार के उदाहरण दिये
गये हैं । उनका कहना है कि शरणार्थियों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार कोई अपवाद नहीं, आम
बात है । 1993 में जबसे वह सेंटर खुला तबसे प्रत्येक माह होने वाले विरोध प्रदर्शन
में लेखिका जाती रही हैं । जिन शरणार्थियों से उनकी मुलाकात होती रही उनके साथ
बातचीत ही इस किताब की स्रोत सामग्री है । उन्होंने अदालतों में इनकी रिहाई के
मुकदमे दायर किये और वकीलों की व्यवस्था की । घर में भी बहुतेरे लोगों को सालों
साल रखा । राजनीतिक शरणार्थियों और रोजगार की तलाश में सीमा पारकर आने वालों में
वे नैतिक अंतर नहीं करतीं । जो लोग रोजगार की तलाश में आते हैं उनके बाहर निकलने
के हालात पैदा करने में उन देशों का हाथ होता है जहां वे जाते हैं । वे मानती हैं
कि आवागमन और निवास की आजादी दुनिया भर में होनी चाहिए ।
2003 में पालग्रेव मैकमिलन से दाइवा के
स्तास्यूलिस और अबिगेल बी बकान के संपादन में ’नेगोशिएटिंग सिटिज़ेनशिप: माइग्रेन्ट वीमेन इन कनाडा ऐंड द ग्लोबल
सिस्टम’ का प्रकाशन हुआ ।
संपादकों का कहना है कि 2000 में आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में तेरह
करोड़ लोग मान्य प्रवासी थे, 1965 में यह संख्या साढ़े सात करोड़ थी । अगर इस संख्या
में कागजविहीन लोगों की संख्या जोड़ लें तो प्रवासी लोगों की तादाद पंद्रह करोड़
होने का अनुमान है । अधिकांश प्रवासी दुनिया के गरीब क्षेत्रों के रहने वाले हैं
और इनमें स्त्रियों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है । इन प्रवासियों में स्त्रियों की
बढ़ती संख्या के चलते नागरिकता की हमारी स्थापित धारणा को चुनौती मिल रही है ।
2002 में रटलेज से
जोसेफ नेविन्स की किताब ‘आपरेशन गेटकीपर: द
राइज आफ़ द “इललीगल एलिएन” ऐंड द मेकिंग आफ़ द यू एस-मेक्सिको बाउंडरी’ का प्रकाशन हुआ । इसकी प्रस्तावना माइक
डेविस ने लिखी है । लेखक ने इस किताब को सहकारी उद्यम बताया है । इसकी शुरुआत लेखक
के शोध से हुई । माइक डेविस ने मेक्सिको के आप्रवासियों के साथ हत्यारी बर्बरता की
याद से अपनी प्रस्तावना को शुरू किया है । असल में लैटिन अमेरिका के साथ अमेरिका
की सीमा मेक्सिको में है । जो लोग भी लैटिन अमेरिका से अमेरिका में घुसना चाहते
हैं वे इसी सीमा से प्रवेश करते हैं । इस कोशिश में प्रत्येक वर्ष सैकड़ों लोगों को
जान से हाथ धोना पड़ता है । ज्ञातव्य है कि इसी सीमा पर बाड़ लगाने की योजना ट्रम्प
अक्सर बनाते रहे थे । डेविस को ऐसे मृतकों की तस्वीर देखने में आयी जिन्हें सीमा
के प्रहरियों ने गोलियों से भून डाला था । वह तस्वीर उनके दिमाग में ताउम्र बनी
रही । उनका कहना है कि सीमा राज्य प्रायोजित भौतिक, पर्यावरणिक, आर्थिक और
सांस्कृतिक हिंसा का सुनियोजित तंत्र होती है । इसकी भूमिका तीसरी दुनिया की
दरिद्रता को अमेरिका के भीतर प्रवेश करने से रोकने के मामले में बहुत महत्व की है
। कुछ भलेमानुस इसे आर्थिक अराजकता को नियंत्रित करने वाली चीज समझते हैं क्योंकि
इससे घुसने वाले कामगारों की तादाद को नियंत्रण में रखा जा सकता है । लेकिन सच यह
है कि श्रम सस्ती दर पर तभी मिल सकता है जब उसे लगातार संदिग्ध बनाये रखा जाये
।
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