कनक तिवारी की 2021 में सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर से प्रकाशित किताब ‘विद्रोही वेदान्ती का भारत बोध (विवेकानन्द को समझने की कोशिश)’ को इस दौर की महत्वपूर्ण पुस्तक के बतौर देखा जाना चाहिए । बताने की जरूरत नहीं कि आधुनिक काल में सांस्कृतिक अनुपनिवेशन के प्रयासों का भरपूर गहरा रंग आध्यात्मिक भी था । उस समय धर्म के आवरण में जिन लोगों ने भारत को जगाने की कोशिश की उन सबमें स्वामी सहजानन्द सरस्वती, स्वामी दयानन्द सरस्वती और महर्षि अरविन्द के साथ ही विवेकानन्द का नाम अग्रणी रूप से शामिल किया जाता है । वह समय जिस विराट आलोड़न का था उसमें ढेर सारे धार्मिक लोग राजनेता की तरह दिखाई देते हैं तो अनेक राजनेता धार्मिक भाषा में बातचीत करते सुनाई पड़ते हैं । रोमांचक यह तथ्य है कि इन सबसे किसी न किसी तरह हिन्दी के साहित्यकारों का भी रिश्ता रहा है । इस रिश्ते की सबसे जीवंत कड़ी राहुल सांकृत्यायन हैं जिन्होंने तमाम धर्मों के भीतर की आवाजाही तो की ही, धर्म की सीमा लांघकर समाज के क्षेत्र में भी उतरे । यह आलोड़न केवल हिन्दू धर्म तक सीमित नहीं था । इस्लाम के भीतर भी अल्लामा इकबाल से लेकर मौलाना अबुल कलाम आजाद तक तमाम ऐसे लोग रहे जिन्हें इस ढांचे के सहारे देखा जा सकता है । उस समय के इन प्रयासों की निरंतरता आज तक कायम है । इसी वजह से इनके नाम का उपयोग या दुरुपयोग चलता रहता है ।
किताब में नन्दकिशोर आचार्य और डाक्टर
नरेन्द्र देव वर्मा की लिखी भूमिकाओं को भी शामिल किया गया है । इस तरह की किताबों
में भूमिका की उपयोगिता पर विचार किया जाना चाहिए । लेखक की राय उसके विश्लेषण में
अनुस्यूत होती है, भूमिका उसके सीधे अभिग्रहण में मध्यस्थ की अनावश्यक चेष्टा बनकर
रह जाती है । आचार्य जी की भूमिका तो फिर भी पुस्तक के लिए पाठक को तैयार करती है
लेकिन नरेन्द्र जी की भूमिका पाठक को अपनी संस्कृतनिष्ठ भाषा और समझ से डरा देती
है । किताब में जिस व्यक्ति की चर्चा है वह फ़ुटबाल प्रेमी भी था । अज्ञेय ने असम
के सत्राधिकारों की चर्चा करते हुए धार्मिकों के मानवीय पक्ष को उभारने पर जोर
दिया था । नरेन्द्र जी ने अपनी भूमिका से मनुष्य विवेकानन्द को दैवी स्वरूप प्रदान
कर दिया है । सबसे बेहतर तो बिना किसी भूमिका के किताब का प्रकाशन होता लेकिन
भूमिका को कम से कम कथ्य पर अर्थ थोपने का दायित्व नहीं निभाना चाहिए ।
इन भूमिकाओं के बिना भी पुस्तक का कथ्य अत्यंत
संप्रेषणीय बन पड़ा है । कनक तिवारी ने स्पृहणीय स्पष्टता और बल के साथ विवेकानन्द
के सहारे ऐसे योद्धा वेदान्ती की छवि प्रस्तुत की है जिसने न केवल दुनिया में
हिंदू धर्म और तत्व दर्शन का डंका बजाया बल्कि उसे इतना समावेशी बताया कि इस समय
उसमें कट्टरता प्रविष्ट कराने के लिए उसके इस समावेशी स्वरूप को समाप्त करना खास
विचार के अंध पथिकों का एकमात्र लक्ष्य बन गया है । अमेरिका में आयोजित धर्म संसद
में विवेकानन्द की मौजूदगी के रोमांचक वर्णन से किताब की शुरुआत होती है । इस अनोखी
धर्म संसद में, जो फिर कभी न हो सकी, विवेकानन्द का संबोधन ही अद्भुत था ‘मेरे अमेरिकी बहनों
और भाइयों’ । इस संबोधन की विशेषता को खोलते हुए लेखक ने कहा
कि किसी भारतीय की ओर से गोरे अमेरिकी लोगों को बंधु कहना भारत देश को ऊपर उठाकर संसार
में नस्ली बराबरी की आकांक्षा को व्यक्त करना है । दूसरी विशेषता इस संबोधन में भाइयों
से पहले बहनों को रखना है । यह तो सचमुच बेहद क्रांतिकारी बात थी और इसे केवल भाषाई
चमत्कार या खेल नहीं समझा जाना चाहिए । अवश्य इसमें स्त्री की श्रेष्ठता स्वीकार करने
का आग्रह है । इस प्रसंग को पढ़ते हुए पाठक तथ्यों से आगे जाकर भावावेश का अनुभव
करने लगता है । असल में उनकी किताब वर्तमान वातावरण का ध्यान रखकर तैयार की गयी है
। इस समय हम सब देख रहे हैं कि विषमता और गरीबी पैदा करने वाली नीतियों के
वास्तविक प्रभाव को छिपाने के लिए झूठा गौरव बोध पैदा किया जा रहा है और इसके लिए
अतीत की मनमानी व्याख्या की जा रही है ।
लेखक ने विभिन्न शीर्षकों के तहत विवेकानन्द के
बारे में विचार किया है । ये लेख संवादधर्मी शैली में लिखे गये हैं । उनमें गहरे लगाव
और प्रचंड क्षोभ से उपजी भावावेशी रचनात्मकता भरी पड़ी है । इनके प्रांजल प्रवाह को
देखकर बहुधा प्रतीत होता है कि ये लिखित न होकर व्याख्यानों के मुद्रित रूप हैं । वैसे
किताब के अंत में शामिल तीन परिशिष्टों में से एक व्याख्यान है भी । ये तीनों परिशिष्ट
छतीसगढ़ के साथ विवेकानन्द के जीवंत जुड़ाव का संदर्भ लिये हुए हैं । रायपुर के रामकृष्ण
मिशन के एक स्वामी आत्मानंद इनके केंद्र में हैं । व्याख्यान में सूत्ररूप में किताब
में कही गयी बातों को लिख दिया गया है । शेष अध्याय वैसे तो अलग अलग शीर्षकों से विभाजित
हैं लेकिन कुछ बातों का दुहराव एकाधिक अध्यायों में हुआ है ।
भारत में विवेकानन्द की बौद्धिक उपस्थिति
लगातार बनी रही है । तमाम अन्य लोगों की तरह ही उनके प्रति पूजाभाव के चलते
व्यवहार में उनके विचारों की सक्रिय उपयोगिता बहुत सीमित कर दी गयी है । उनकी
लोकप्रियता के कारण उनको भुनाने की कोशिश भी निरंतर चलती रही है । इस समय तो खासकर
उन पर खास तरह के हिंदुत्व के निर्माण के लिए कब्जा जमाने की ललक विशेष बढ़ी हुई
नजर आ रही है । लेखक को इस माहौल का खयाल बना हुआ है । वे लिखते हैं ‘उनके शिकागो
सम्बोधन के सौ वर्ष पूरे होने पर बहुत सावधानी और चतुराई के साथ एक बार फिर विश्व
हिन्दू परिषद और संघ परिवार ने विवेकानन्द को अपने विचारों का पूर्ण आत्मविश्वास
के साथ अपनी भविष्यमूलक सियासी सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर प्रचार कर दिया’
(पृष्ठ 280) । लेकिन लेखक का निष्कर्ष है कि ‘विवेकानन्द
का राष्ट्रवाद पूरी तौर पर संघ के सैद्धांतिक सोच और रणनीतिक क्रियात्मकताओं के खांचे
में फिट नहीं बैठता । इसलिए राष्ट्रीय स्वयं संघ को विवेकानन्द से मूल नहीं,
अतिरिक्त लगाव है’ (पृष्ठ 283) ।
लेखक ने लम्बे समय तक विवेकानन्द की रचनाओं का
सावधान पाठ किया है इसलिए निश्चिंत है कि ऐसी कोई चेष्टा विवेकानन्द को किसी एक
विचार के भीतर सीमित न कर सकेगी । असल में विवेकानन्द की पारम्परिक रूप से गढ़ी
मूर्ति के विरोध में इतने तथ्य पड़ते हैं कि ऐसा करना आसान न होगा । उन अप्रचारित
तथ्यों पर लेखक ने इसीलिए कई बार जोर दिया है । उनके अपने भाई भूपेंद्रनाथ दत्त पर
समाजवादी विचारों का प्रभाव तो था ही, वे उन कुछ गिने चुने भारतीयों में थे
जिन्होंने रूस की यात्रा करके लेनिन से मुलाकात की थी । खुद विवेकानन्द भी इतने
विद्रोही तो थे ही कि कुछ विचारकों ने उन्हें ‘वेदान्ती समाजवाद’ का प्रवर्तक
बताने की गुंजाइश उनके भीतर पायी है । इसी सिलसिले में लेखक ने बहुधा इस तथ्य का
उल्लेख किया है कि उस समय के क्रांतिकारियों की गिरफ़्तारी पर उनके पास विवेकानन्द
का साहित्य बरामद होता था । विवेकानन्द के इस पहलू को और भी अधिक उभारते हुए लेखक बताते
हैं कि ‘दुनिया के इतिहास में आज तक किसी भी
विचारक ने यह बात नहीं कही जो स्वामी जी ने सौ बरस से पहले कह दी थी कि हम सर्वहारा
की संस्कृति लाएं’ (पृष्ठ 298) । इसे
जरूर उन्होंने परम्परिक शब्दावली में पेश करते हुए ‘शूद्र राज’ के आगमन की घोषणा
के रूप में व्यक्त किया । इसके आगमन की सम्भावना का उन्होंने स्वागत किया था ।
इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देना होगा कि उनके
गुरु रामकृष्ण परमहंस में भी धार्मिक संकीर्णता न थी । प्रसिद्ध है कि वे विभिन्न
धर्मों का आचरण कुछ दिनों के लिए करते थे । इसी विरासत के चलते उनके इस
प्रतिभाशाली शिष्य ने गर्व से घोषित किया कि सभी धर्म सत्य हैं । न केवल इतना
बल्कि जाति से अब्राह्मण होने के चलते उन्हें गेरुआ वस्त्र धारण करने के बावजूद
यदा कदा अपमानित भी होना पड़ा था । अपने गुरु को वेलूर मठ तक सीमित रखने की जगह
उन्होंने ऐसा संस्थान बना दिया कि देश-विदेश में उनकी कीर्ति का स्थायी स्तम्भ खड़ा
रहेगा । रामकृष्ण मठ केवल भवन और परिसर नहीं होते, बल्कि वहां के साधुओं को किसी
भी आपदा में सामाजिक सेवा करते देखा जा सकता है । इसी वजह से लेखक ने विवेकानन्द
को ‘केवल भगवा साधु के रूप में स्वीकार करने से इंकार’ किया है और कहा है कि
‘विवेकानन्द इस देश के पहले साधु विचारक हैं जिन्होंने आध्यात्मिक उन्नति के साथ
गरीब आदमी की भौतिक समृद्धि की बात की थी’ (पृष्ठ 294) ।
1863 1902 तक कुल 39 साल की उम्र पाने वाले इस बेचैन संन्यासी की वैचारिक यात्रा बेहद रोमांचकारी
रही । इस यात्रा का विवेचन करते हुए लेखक ने तपन रायचौधुरी के मत का उल्लेख किया है
जिनके मुताबिक ‘उनके व्यक्तित्व के कम से कम तीन आयाम हैं’
। इन तीन आयामों को इस तरह गिनाया है ‘उनकी प्रतिक्रिया
या समझ स्वयं के आत्मिक विकास और उसे परिपूर्णता तक पहुँचाने की कशिश रही है’
। दूसरे आयाम को वे उनकी अमेरिका और यूरोप यात्रा से जोड़ते हैं और इसकी
विशेषता के रूप में ‘भारत की समस्याओं को देखकर—व्यथापूर्ण कोलाहल के चलते कोई रास्ता या हल तलाशने की कोशिश के कारण उनमें
अस्तव्यस्त लेकिन धार्मिक अवधारणाओं और वेदान्त की शिक्षाओं के प्रभाव से एक तरह की
समझ का यौगिक’ बताते हैं । इसके बाद ‘तृतीयत:
उन्होंने एक बेहतर विकल्प ढूंढा । संसार के सभी धर्मों में अन्तर्निहित
एक शाश्वत सत्य है’ (पृष्ठ 281) ।
विवेकानन्द की धार्मिक उदारता का उत्थान लेखक ने
महात्मा गांधी के रूप में देखा है । इस सिलसिले में एक तथ्य का उन्होंने एकाधिक बार
जिक्र किया है कि महात्मा गांधी विवेकानन्द से मिलने वेलूर मठ गये थे लेकिन विवेकानन्द
के अस्वास्थ्य के चलते वह विराट सम्भावना आकार न ले सकी । गांधी के छुआछूत विरोधी आंदोलन
के स्रोत को विवेकानन्द में देखते हुए वे कहते हैं ‘हम बहुत श्रेय
देते हैं कि छुआछूत के खिलाफ, दरिद्र नारायण को लेकर,
साध्य और साधन के रिश्ते का सारा आंदोलन महात्मा गांधी ने किया’
लेकिन सच यह है कि ‘वह सब का सब एक दशक या उससे
अधिक पहले सबसे पहले स्वामी विवेकानन्द ने इस धरती पर रोपा था’ (पृष्ठ 296) । इस सन्दर्भ में तिवारी जी ने इस बात पर
भी क्षोभ प्रकट किया है कि स्वामी जी के सरोकारों को संविधान में यथोचित जगह न मिल
सकी, उन्हें राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के खाते में डाल
दिया गया ।
स्वामी जी की शिष्या सिस्टर निवेदिता की मार्फत
लेखक ने बहुत ही महत्व के पहलू को उजागर किया है । उनके मुताबिक
‘राजनीतिक नस्ल का औपचारिक राष्ट्रवाद यूरोप में अवतरित और विकसित हो
चुका था । उससे अलग हटकर विवेकानन्द ने भारत को एक औपचारिक राजनीतिक इकाई के राष्ट्रवाद
के रूप में परिणित करने का विकल्प ढूंढने से पहले राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत
कर दिया था’ (पृष्ठ 280) । इसीलिए लेखक
श्री तिवारी विवेकानन्द को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतीक मानने के मुकाबले ‘भारत की सांस्कृतिक राष्ट्रीयता’ का प्रतीक कहना बेहतर
समझते हैं ।
विवेकानन्द को धर्म तक सीमित करने के आग्रह का
खंडन करते हुए लेखक ने जोर देकर कहा है ‘उन्होंने वेदान्त
का प्रचार करने से ज्यादा युवकों को फ़ुटबाल खेलने की प्रतीकात्मक सलाह भी दी थी’
(पृष्ठ 252 ) । विवेकानन्द के लेखन के इसी पहलू
ने इस समीक्षक को भी सबसे पहले इस संन्यासी की ओर खींचा था । उनके सक्रिय वेदान्त का
एक रूप प्रस्तुत करते हुए तिवारी जी कहते हैं ‘विवेकानन्द हजारों
युवजनों की एक तरह की सेना संगठित कर उनके जरिए शिक्षा को प्रत्येक द्वार तक ले जाना
चाहते थे’ (पृष्ठ 230) । विवेकानन्द के
इसी किस्म के विचारों के चलते धर्म के सक्रिय सामाजिक इस्तेमाल के एक अन्य हिमायती
तलस्तोय को उनकी ओर आकर्षित किया था । तिवारी जी ने तलस्तोय के विवेकानन्द के लेखन
से परिचय के पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत किये हैं । लेखक ने देश की सेवा में अमीरों से विवेकानन्द
की निराशा का भी उल्लेख किया है । धर्म को भोजन तक सीमित कर देने की मूढ़ता का मजाक
उड़ाते हुए ही उन्होंने इसे ‘रसोई धर्म’ कहा और इसकी संकीर्णता को द्योतित करने के लिए व्यंग्य का शब्द दिया-‘मतछुओवाद’ और लिखा ‘मतछुओवाद एक
मानसिक व्याधि है’ । छुआछूत का उनका विरोध इतना भीषण था कि
‘विवेकानन्द ने विदेशों में जाकर भी हिन्दू धर्म की इस कुप्रथा का उपहास
किया’ (पृष्ठ 211) । आज इस तरह का साहस
करने वाले को देशद्रोही साबित कर दिया जायेगा । अस्पृश्यता के उनके विरोध को सामने
लाते हुए लेखक ने इस बात पर परदा नहीं डाला है कि ‘वे वर्णव्यवस्था
और जाति प्रथा में भेद करते हैं’ । विवेकानन्द की इस किस्म की
भाषा के बारे में लेखक का ठीक ही निष्कर्ष है ‘क्रोध भरी उनकी
आक्रामक लगती भाषा उनके सन्तप्त अनुभवों के अनुपात में रही है’ (पृष्ठ 219) ।
लीक से हटकर चलने के कारण
‘उन पर आरोप लगा कि विवेकानन्द अपने गुरु श्रीरामकृष्णदेव की शिक्षाओं
से भटक गए प्रतीत होते हैं । रामकृष्ण मिशन की स्थापना को लेकर उन्हें कुछ गुरु भाइयों
का विरोध भी सहना पड़ा’ (पृष्ठ 203) । आश्चर्य
नहीं कि विवेकानन्द का मानना था कि जो दूसरों के लिए जीवित रहते हैं वे ही जीवित माने जा सकते हैं । अपने इस उत्तर जीवन के कारण भी वे जीवंत और प्रासंगिक
बने हुए हैं ।
लेखक ने विवेकानन्द के विचारों के एक ऐसे पहलू
को उभारा है कि दंग रह जाना पड़ता है । शुरू में उन्हें अवश्य अमेरिका पसन्द आया था
लेकिन कुछ ही समय बाद क्रांति की सम्भावना उन्हें रूस और चीन में नजर आने लगी थी ।
इस मामले में विवेकानन्द सचमुच एक भविष्यदर्शी सन्त नजर आते हैं ।
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