अलेक्स कलिनिकोस की
किताब ‘द रेवोल्यूशनरी आइडियाज आफ़ कार्ल
मार्क्स’ का प्रकाशन वैसे तो पहली बार 1983 में हुआ था लेकिन उसका एक नया संस्करण 2011 में हेमार्केट
बुक्स से छपा है । इससे पहले 1995 में इसे छापा गया था । इस नए
संस्करण के लिए लेखक ने अलग से विषयप्रवेश तो लिखा ही है, पिछले
दोनों संस्करणों की भूमिकाएं भी शामिल की गई हैं । इसकी शुरुआत वे इस बात से करते हैं
कि मार्क्स के जीवन का मकसद पूंजीवाद को समझना और उसे उखाड़ फेंकना था । उस समय औद्योगिक
पूंजीवाद की स्थापना ब्रिटेन, बेल्जियम और अमेरिका के उत्तर पूर्वी
समुद्री तटीय क्षेत्र तक ही हुई थी लेकिन मार्क्स ने समझ लिया कि भविष्य में यही आर्थिक
प्रणाली पूरी दुनिया में फैलनेवाली है । साथ ही उन्होंने इसकी बुनियादी खामी को भी
समझ लिया था । इसमें पूंजी और पगारजीवी श्रमिक के बीच स्थायी शत्रुता बनी रहनेवाली
थी ।
असल में पूंजीपति को
मिलनेवाला मुनाफा श्रमिक के शोषण से ही पैदा होता है । जाहिर है कि इस वजह से उनके
बीच टकराव पूंजीवाद के लिए कोई दुर्घटना या भूल नहीं, बल्कि उसकी आत्मा है । पूंजीपति और
मजदूर के बीच का यह वर्गसंघर्ष व्यवस्थाजन्य नियमित, आवर्ती और विनाशकारी आर्थिक संकट
से तेज हो जाता है । मार्क्स ने ही पहली बार माना था कि पूंजीवाद तेजी और मंदी के नियमित
चक्रों के जरिए चलता है और अपने आर्थिक लेखन में उन्होंने इसका कारण समझने की कोशिश
की थी । उनको लगा कि पूंजीपतियों के बीच प्रतियोगितामूलक संघर्ष के कारण वे मुनाफ़े
से अधिक निवेश करते हैं । इस प्रवृत्ति के चलते मुनाफ़े की गिरती दर आर्थिक संकट को
जन्म देती है । पूंजीवाद के संचालन में ॠण व्यवस्था की भूमिका के बारे में भी उन्होंने
काफी कुछ लिखा था । इसी को आजकल हम वित्त प्रणाली के नाम से जानते हैं । इससे थोड़े
दिनों के लिए संकट टल तो जाता है लेकिन उसकी मारकता बढ़ जाती है । इस विवरण से ही साफ
है कि मार्क्स क्यों अब भी प्रासंगिक बने हुए हैं ।
पिछले बीस सालों से
हम सब तथाकथित वैश्वीकरण के युग में रह रहे हैं । न केवल दुनिया का महत्तर आर्थिक एकीकरण
हुआ है बल्कि नवउदारवादी पूंजीवाद की विश्व विजय भी हुई है लेकिन इस विजय में झटके
भी लगते रहे हैं । 1997-98 में पूर्वी एशियाई शेरों की हालत खस्ता हो गई थी । फिर 2001-02 में तेजी का बुलबु्ला फूटा था । इसके बाद आखिरकार 2008 के वित्तीय संकट ने महामंदी के बाद की सबसे बड़ी आर्थिक दुर्घटना को जन्म दिया
। प्रत्येक आर्थिक झटके के बाद मार्क्स की वापसी की बातें उठीं लेकिन मार्क्स के ग्रंथ
‘पूंजी’ के बारे में डेविड हार्वे के व्याख्यानों की अपार सफलता तो अनूठी थी । इस
सफलता से ही कलिनिकोस को अपनी बहुत पुरानी इस किताब को फिर से छपाने की प्रेरणा मिली
। किताब में मार्क्स के जीवन और चिंतन की एकरूपता पर सबसे अधिक बल दिया गया था । मार्क्स
को भरोसा था कि पूंजीवाद के आंतरिक अंतर्विरोधों की समझ मजदूरों को सचेत समूह में बदल
देगी और वे इस व्यवस्था को नष्ट करके वर्ग विहीन साम्यवादी समाज की स्थापना करेंगे
। लेकिन एक ओर पश्चिमी दुनिया में मजदूर आंदोलन को अनेक मोर्चों पर हार का मुंह देखना
पड़ा तो दूसरी ओर सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाजवादी शासनों का खात्मा हुआ । इन
सबके चलते अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथ को गंभीर धक्का लगा ।
फिलहाल पूंजीवाद विरोधी
वामपंथ की सेहत में आहिस्ता आहिस्ता सुधार आया है । असली बदलाव सिएटल में घटित विरोध
प्रदर्शनों से आया । उससे आंदोलनों के वैकल्पिक वैश्वीकरण की धारा पैदा हुई । कुछ
ही समय बाद इराक युद्ध के विरोध में उमड़े शांति प्रदर्शनों ने नया उत्साह पैदा किया
। लैटिन अमेरिकी देशों में नये तरह की ताकतों की सत्ता बननी शुरू हुई । इसी के साथ
बौद्धिक जगत में भी साम्यवाद को पूंजीवाद के सच्चे विकल्प के रूप में देखने का रुझान
बढ़ा । अमेरिका और यूरोप में वैश्विक आर्थिक और वित्तीय संकट की हानि को सरकारी सेवाओं
में कटौती के जरिए कामगारों और गरीब जनता पर लादने के कारण जुझारू प्रतिरोध आंदोलन
फूट पड़े । अरबी भाषाभाषी देशों के विद्रोहों ने मध्यपूर्व और उत्तरी अफ़्रीका में नवउदारवाद
की हवा निकाल दी । मतलब कि पूंजीवाद विरोधी राजनीति की उठान के समय मार्क्स के श्रोता
और पाठक बढ़ जाते हैं । यह सही भी है क्योंकि मार्क्स के लिए दुनिया को समझने और बदलने
के बीच अखंड रिश्ता था ।
इसके बाद 1995 वाले संस्करण की भूमिका दी गई
है । इसमें उनका कहना है कि यह किताब पहली बार मार्क्स के देहांत के सौ साल बाद छपी
थी । उस समय के राजनीतिक वातावरण में रीगन और थैचर के विचार प्रकट होना शुरू हुए थे
। मजदूर वर्ग के आंदोलन पर खुले बाजार का हमला आरम्भ हुआ था । दुनिया दूसरे शीतयुद्ध
के प्रभाव में थी । नाटो के हमलावर रुख के चलते भारी पैमाने पर शांति आंदोलनों की लहर
उठी थी । पोलैंड में सोलिडैरिटी आंदोलन के दमन से पूर्वी यूरोप की सोवियत खेमे की सत्ता
मजबूत हुई थी । सोवियत संघ में गोर्बाचेव उभर रहे थे । 1995 के
आते आते हालात बहुत बदल गये । पूर्वी यूरोप में सोवियत खेमा तो खत्म हुआ ही, खुद सोवियत
संघ भी बिखर गया । इनके चलते मार्क्स के विचारों को खंडित करने का प्रचंड उत्साह पैदा
हुआ । पूंजीवाद और खुले बाजार की जीत की मुखर घोषणा की गयी । फ़ुकुयामा ने तो इसे इतिहास
का भी अंत मान लिया । दक्षिणपंथ के लिए घटनाओं की ऐसी व्याख्या स्वाभाविक थी लेकिन
वामपंथियों के भी एक हिस्से ने कुछ हद तक फ़ुकुयामा की बात दुहरानी शुरू की । इससे साबित
हुआ कि दक्षिणपंथियों की तरह उनके लिए भी समाजवाद का मतलब सोवियत सत्ता ही थी । तत्कालीन
सत्ता के पतन को विश्वव्यापी वाम के पतन के रूप में देखा जाने लगा ।
निराशा के इस माहौल
को हाब्सबाम ने वाणी दी । मार्क्सवाद को रक्षात्मक रुख अख्तियार करना पड़ा । शैक्षिक
मार्क्सवाद तो पहले ही विश्वविद्यालयों तक सीमित हो चला था । ऐसे ही वातावरण में मार्क्सवाद
समेत सभी महान वृत्तांतों को संदेह के घेरे में खड़ा करनेवाले उत्तर आधुनिकतावाद का
उभार हुआ । किसी क्रांतिकारी विचार की अनुपस्थिति में ये ही लोग क्रांतिकारी महसूस
होने लगे । विकल्पहीनता की बात जड़ पकड़ने लगी । ब्रिटेन की लेबर पार्टी ने पाला बदला
। उनके लिए समाजवाद का अर्थ मानवीय चेहरेवाला बाजार हो चला । ब्लेयर के नेतृत्व में
पार्टी ने पूंजीवाद के सामने समर्पण कर दिया । विडंबना यह थी कि जिस समय वाम के इस
धड़े की ओर से पूंजीवाद को गले लगाया जा रहा था उसी समय पूंजीवाद की हालत खस्ता हो चली
। 1990 दशक के आरम्भ से ही विश्व अर्थतंत्र
में गहन मंदी के संकेत मिलने लगे थे । साफ है कि इस संकट का कोई समाधान अनियंत्रित
खुले बाजार वाले पूंजीवाद के पास नहीं है ।
आज संपत्ति और आमदनी
का संकेंद्रण अमीर तबके के पास होने लगा है । इसके कारण समाजार्थिक विषमता में भारी
बढ़ोत्तरी आई है । इस प्रचंड सामाजिक ध्रुवीकरण से तमाम किस्म के विस्फोटक टकरावों का
जन्म हो रहा है । दक्षिणपंथी नेताओं की नयी पीढ़ी उसी ध्रुवीकरण को आगे बढ़ा रही है ।
पूंजीवाद को बुनियादी रूप से शोषक और संकट की व्यवस्था मानने की मार्क्स की बात सही
साबित हो रही है । लेखक का कहना है कि सही मार्क्स को स्थापित करने के लिए उनके नाम
पर बनी सत्ताओं से उन्हें अलगाना होगा । मार्क्स के लिए समाजवाद ऐसा लक्ष्य था जिसे
जनता अपने संगठनों और अपने संघर्षों के जरिए अपने लिए अर्जित करेगी । तभी वह मजदूर
वर्ग की आत्ममुक्ति सिद्ध होगा । लेखक का प्रस्ताव है कि सच्ची मार्क्सवादी परम्परा
को उसकी तरह तरह की विकृतियों से अलगाना होगा । उनके अनुसार सच्चे मार्क्सवाद को ‘नीचे से समाजवाद’ जैसी व्यवस्था बनना होगा । चूंकि इसका निर्माण व्यापक मजदूर वर्ग करेगा इसलिए
इसे लोकतांत्रिक होना ही होगा । लेखक ने इस किस्म के समाजवाद को मार्क्स-एंगेल्स के उपरांत लेनिन, त्रात्सकी और रोजा की मान्यताओं
और प्रयासों में निहित माना है । परवर्ती रूस की शासकीय सत्ता और पश्चिमी मार्क्सवाद
को वे इसके विकार मानते हैं । लेनिन के बाद के रूस को वे समाजवाद की जगह राजकीय नौकरशाहाना
पूंजीवाद मानते हैं । इसलिए वे पूर्वी यूरोप और रूस की सत्ताओं के पतन पर खुशी जाहिर
करते हैं । उनका कहना है कि इनके पतन से मार्क्सवाद की पराजय नहीं हुई बल्कि अधूरे
काम को पूरा करने का संकल्प पैदा हुआ है । इस बोझ से मुक्ति के बाद मार्क्स के समय
से भी अधिक बर्बर हो चुके पूंजीवाद को चुनौती देने में आसानी हुई है । लेखक ने जोर
देकर कहा है कि मार्क्स को समझना बौद्धिक व्यायाम मात्र नहीं है । उनके विचार अधिकाधिक
अराजक होती जा रही दुनिया को समझने में सहायता करते हैं लेकिन इस समझ की जरूरत भी इसे
बदलने से अलग नहीं है । पूंजीवादी संकट कोई निर्वैयक्तिक आर्थिक प्रक्रिया नहीं होते
। इनके चलते अमीर मुल्कों में भारी बेरोजगारी और तीसरी दुनिया के देशों में अकाल और
महामारी का जन्म होता है । इनसे उपजी तकलीफों से जो राजनीतिक प्रतिक्रिया पैदा होती
है वह मानव प्रजाति को बर्बरता की ओर तेजी से ले जाती है । पश्चिम में फ़ासीवाद का बड़े
पैमाने पर उभार, पूर्वी यूरोप में बेवकूफाना गृहयुद्ध और अफ़्रीकी
देशों में लड़ाकू गिरोहों के चलते समाजों का विघटन तो प्रत्यक्ष हैं ।
इसके बाद मूल संस्करण
की भूमिका में लेखक ने सबसे पहले मार्क्स के देहांत की सौवीं बरसी को याद किया है ।
इन सौ वर्षों के दौरान दो विश्वयुद्ध हुए,
परमाणु बम गिराया गया, टेलीविजन आया और माइक्रोचिप
का आविष्कार हुआ । इन सारे बदलावों के बावजूद मार्क्स की प्रासंगिकता के बारे में तर्क
देते हुए लेखक कहते हैं कि मार्क्स दुनिया को देखने का तरीका बुनियादी रूप से बदल देने
वाले कुछेक चिंतकों में शामिल हैं । इतिहास का भौतिकवादी नजरिया ऐसी चीज है जिसकी ताकत
से मार्क्स के विरोधी भी इनकार नहीं कर सकते । सबसे बड़ी बात कि मार्क्स सबसे पहले क्रांतिकारी
थे । उनके लिए दुनिया को समझने का सिद्धांत उसे बदलने का साधन था । उनके समस्त लेखन
का एकमात्र लक्ष्य मजदूर वर्ग की आत्ममुक्ति था । इतने विराट काम के साथ महानता अपने
आप जुड़ जाती है । उन्होंने अपना सारा जीवन समाजवादी क्रांति के लिए समर्पित कर दिया
था । नतीजतन उन्हें और उनके परिवार के अन्य सदस्यों को समूचे यूरोप में इधर से उधर
भगाया जाता रहा । दरिद्रता ने कभी साथ नहीं छोड़ा । एंगेल्स की त्यागभरी सहायता से ही
जीवन चलता रहा । उनके देहांत का समाचार इंग्लैंड के अखबारों को फ़्रांसिसी अखबारों से
मिला । उनके विचार ऐसे सभी लोगों के लिए प्रासंगिक हैं जो शोषण, कष्ट और हिंसा से मानवता की मुक्ति चाहते हैं । तमाम देशों में इसके लिए प्रयास
हुए लेकिन कहीं भी उनके विचारों का पालन नहीं हुआ और इसके कारण असफलता हाथ लगी । मार्क्स
पूंजीपति वर्ग की संगठित सत्ता को बलपूर्वक तोड़कर उसकी जगह पर मजदूरों की नई और मूलगामी
लोकतांत्रिक सत्ता की स्थापना के हामी थे । मार्क्स के चिंतन की उपेक्षा संभव नहीं
क्योंकि उन्होंने संकट और बेरोजगारी, क्रांति और बदलाव जैसी समस्याओं
पर गहराई से विचार किया था । मार्क्स के विचारों को समझने में कठिनाई का कारण उनके
विचारों का उलझाव नहीं है । उनका लेखन बहुत स्पष्ट है । असल में जटिल वह विषयवस्तु
थी जिस पर मार्क्स ने जीवन भर विचार किया ।
इस किताब को लिखने का
एक और कारण लेखक ने मार्क्स के मूल विचारों को स्पष्ट करना भी घोषित किया है । मार्क्स
के विरोधियों ने उनके बारे में झूठ बहुत बोला है । इन विरोधियों के झूठ का खंडन लेखक
को उतना कठिन नहीं लगा जितना मुश्किल उन्हें मार्क्स के समर्थकों की ओर से निर्मित
मिथकों की सफाई प्रतीत होती है । इसके लिए वे दो तरह की चीजों को जिम्मेदार समझते हैं
। पहला, रूस और चीन जैसे साम्यवादी देशों
में शासन की ओर से निर्मित ‘मार्क्सवाद-लेनिनवाद’ । इस तरह के राजकीय समाजवाद के विपरीत लेखक
का कहना है कि खुद मार्क्स ‘नीचे से समाजवाद’ के पक्षधर थे । मार्क्स ऐसा मानते थे कि मजदूर वर्ग अपनी सक्रियता के जरिए
मुक्ति हासिल करेगा और समूचे समाज को अपने मुताबिक गढ़ेगा । इसके उलट ये समाजवादी शासन
मजदूर वर्ग की सक्रियता के विरोधी साबित हुए थे । पोलैंड में सोलिडैरिटी आंदोलन के
उदाहरण से यह साफ हो गया था । उनके अनुसार विकृति का दूसरा स्रोत था पश्चिमी देशों
के विश्वविद्यालयी विद्वानों की ओर से आविष्कृत ‘पश्चिमी मार्क्सवाद’
। असल में यह शैक्षणिक मार्क्सवाद था हालांकि लेखक ने इनके समस्त लेखन
को खारिज करने का विरोध किया है । कुछ धारणाओं को स्पष्ट करने में उनके लेखन से मदद
मिलती है लेकिन उनकी व्याख्या ही उनके लिए साध्य हो गयी थी ।
किताब का मकसद इन विकृतियों
से बचाकर मार्क्स के मूल विचारों को प्रस्तुत करना है । यह भी कोई आसान काम नहीं क्योंकि
रंग बिरंगे समाजवादी अपने विचारों को औचित्य प्रदान करने के लिए मार्क्स का सहारा लेते
हैं । इसलिए लेखक ने साफ कर दिया है कि किताब में क्रांतिकारी समाजवादी रुख अपनाया
गया है । वे मानते हैं कि पूंजीवाद शोषक सामाजिक व्यवस्था है जिसके अंतर्विरोधों के
चलते समाज या तो बर्बरता की ओर जाएगा या समाजवाद की ओर । मानवता के लिए उम्मीद इस संभावना
में ही है कि मजदूर वर्ग इस व्यवस्था का विनाश करके अपना राज स्थापित करेगा । इसका
तात्पर्य यह नहीं कि किताब में मार्क्स की आलोचना नहीं है । जिस व्यक्ति का आदर्श वाक्य ‘सब कुछ पर संदेह’ था वही इस रुख को अनुचित मानेगा । मार्क्स के विचारों का कोई भी विवेचन विवादास्पद
होगा । उनके लेखन की इतनी विविध व्याख्या हुई है कि मूल अर्थ समझना बारूद पर चलने की
तरह है । मनुष्य होने के नाते उनके विचार कभी कभी अस्पष्ट होते थे । इसके अतिरिक्त
विभिन्न मामलों में उन्होंने अपने विचार बदले भी थे । ‘मार्क्स ने क्या कहा’ से ‘मार्क्स
ने क्या कहा होता’ में विचलन बहुत आसानी से हो सकता है । इसके साथ ही एक मुश्किल एंगेल्स
की व्याख्या भी है । सवाल उठता है कि किस हद तक मार्क्स के विचारों की एंगेल्स द्वारा
की गयी व्याख्या पर भरोसा किया जाये । पश्चिमी दुनिया में लोग उन्हें मार्क्स का भरोसेमंद
व्याख्याता नहीं मानते । खुद एंगेल्स मार्क्स के मुकाबले अपने को मौलिक नहीं मानते
थे । फिर भी विज्ञान, दर्शन, राजनीति और
सैनिक मामलों में उनके विचार कुछ मौलिक लगते हैं । इसलिए लेखक ने उनके विचारों को उसी
हद तक सही समझा है जहां तक वे मार्क्स के विचारों के या तो पूरक या विकास नजर आते हैं
।
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