1992 में रटलेज से
रोजर एस गाटलिएब की किताब ‘मार्क्सिज्म 1844-1990: ओरिजीन्स, बिट्रेयल, रीबर्थ’
का प्रकाशन हुआ । किताब के नौ अध्याय चार हिस्सों में हैं । पहले
हिस्से में शुरुआत, दूसरे में विश्वासघात, तीसरे में पुनर्जन्म और चौथे में
वर्तमान तथा भविष्य के प्रसंगों का विश्लेषण है । खास बात कि विश्वासघात के मामले
में यूरोप की सामाजिक जनवाद की धारा के साथ ही सोवियत संघ के मार्क्सवाद को भी
शामिल किया गया है । इसी तरह पुनर्जन्म के प्रकरण में पश्चिमी मार्क्सवाद और
समाजवादी नारीवाद को विवेचित किया गया है । वर्तमान और भविष्य के प्रसंग में
समकालीन पूंजीवाद, हालिया उत्तर मार्क्सवादियों और आध्यात्मिकता को विश्लेषित किया
गया है । किताब समकालीन समाज और सभ्यता के समक्ष चुनौती पेश करती है । इस चुनौती
के मूल में मनुष्य के कष्टों की गहन अनुभूति और इस जानकारी से उपजा प्रचंड विक्षोभ
है कि इन कष्टों से बचा जा सकता है । बेघर और भूखे होने, स्त्रियों और बच्चों का
बलात्कार और यौन उत्पीड़न, मेहनत और जमीन की चोरी तथा उम्मीद और स्वाभिमान के हनन
को क्रांतिकारी लोग ईश्वर की करतूत नहीं मानते । उनको यकीन है कि इनका कारण
अन्याय, शोषण, हिंसा और संगठित क्रूरता हैं जिन्हें दूर किया जा सकता है । अगर हम
समता, न्याय और मनुष्य की खुशी को सामाजिक ढांचे का लक्ष्य बनायें तो वर्तमान की
क्रूरता के स्थान पर भौतिक सुरक्षा, सामाजिक समरसता और आकांक्षा के साकार होने की
राह खुलेगी । सुधारवादी और परोपकारी लोग भी इन चिंताओं में शरीक होते हैं लेकिन
उनके मुकाबले क्रांतिकारी लोग अन्याय की समूची व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं । इस
व्यवस्था के तहत खास लोगों को अपमानित किया जाता है, उनके अधिकार छीन लिये जाते
हैं और उन पर अनुचित नियंत्रण रखा जाता है । इस अन्यायी तंत्र में मुट्ठी भर लोग
अमीर होते जाते हैं और ज्यादातर लोग गरीबी या आर्थिक असुरक्षा का सामना करते हैं ।
भाग्यशाली लोग विशेषाधिकारों का उपभोग करते हैं जबकि अधिकतर लोग अपमानित होते हैं
। अनंत उपभोग की हमारी आदत के चलते प्रकृति में जहर घुलता जाता है । सत्ताधारी
लोगों को इससे मुनाफ़ा मिलता है जबकि इनका दोष इनके शिकार लोगों पर ही मढ़ दिये जाते
हैं । इन सबके चलते लोगों की तकलीफ का कोई दीर्घकालीन समाधान व्यवस्थागत होना
लाजिमी है । दमन और बहिष्करण की इस व्यवस्था ने सरकारों और अर्थतंत्र, परिवार और संस्कृति
तथा विज्ञान और मनोविज्ञान को आकार दिया है । इसके कारण क्रांतिकारी लोग आंशिक
सुधार पर आधारित सपनों की जगह रोज ब रोज के संघर्ष में सत्ता के समुचित वितरण,
मानव गरिमा और मनुष्य के जीने लायक पर्यावरण पर जोर देते हैं । उनका मानना है कि आधुनिक
अर्थतंत्र को लोकतांत्रिक नियंत्रण में लाकर उसे मुनाफ़े की जगह मनुष्य की जरूरत पूरा
करने में लगाया जा सकता है, संपत्ति और सत्ता में भारी अंतर मिटाया
जा सकता है और धरती को बरबाद करने की जगह उसे संरक्षित किया जा सकता है । उनका दावा
है कि असली लोकतंत्र में सामान्य लोग केवल मतदान केंद्र जाने की जगह राजनीतिक और आर्थिक
नीतियों को बनाने में सक्रिय भागीदारी करते हैं । इन बुनियादी बदलावों को अमल में लाने
के लिए क्रांतिकारियों ने राजनीतिक पार्टी बनाने से लेकर विद्रोह संगठित करने तक तमाम
तरीके अपनाये । इसके लिए व्यापक जन समूह की भागीदारी जरूरी है । नौकरशाही की ओर से
क्रांति के साथ विश्वासघात रोकने का एकमात्र रास्ता शुरू से खुली बहस, आपसी सम्मान और सामूहिक सबलीकरण की आदत डालना है । कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास
से यही सीख मिलती है ।
बहुत सारे लोग
मानते हैं कि क्रांतिकारी विचार अव्यवहार्य सपना है । लेकिन अगर इस सपने को छोड़
दिया जाये तो मानवता को वर्तमान तकलीफ में ही रहने देना होगा । केवल प्रतीकात्मक
सुधार होते रहेंगे । क्रांतिकारियों का यकीन है कि बुनियादी तौर पर अलग और
मुक्तिकारी जीवन पद्धति के निर्माण की क्षमता मनुष्यों में है । बेहतर दुनिया का
सपना तो हमेशा ही लोगों ने देखा था लेकिन अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध से कुछेक
संगठित समूहों ने सामाजिक जीवन की व्यवस्थित सैद्धांतिक आलोचना शुरू की । इस
आलोचना को उन्होंने ऐसे राजनीतिक आंदोलनों में साकार किया जिनका मकसद तत्कालीन
आर्थिक मालिकाने और राजनीतिक नियंत्रण की व्यवस्था को उखाड़ फेंकना था । अमेरिकी
क्रांतिकारियों ने सबके अनुल्लंघनीय अधिकारों को मान्यता दी और फ़्रांसिसी
क्रांतिकारियों ने समता, स्वतंत्रता और भाईचारे की बात की । उसके बाद मार्क्सवादी,
समाजवादी, नारीवादी, राष्ट्र मुक्ति, नागरिक अधिकार, स्त्री पुरुष समलिंगी मुक्ति
और पारिस्थितिकी आंदोलनों का जन्म हो चुका है । सबने पहले के आंदोलनों की
उपलब्धियों का लाभ उठाया, उनकी सीमाओं की आलोचना की और नयी जमीन तोड़ी । कभी कभी इन
सभी आंदोलनों से भारी गलतियां हुईं और उन्हें विफलता भी मिली । आज वे अधिक
प्रत्यक्ष हैं । समाजवादी खेमे का अंत हुआ और शीतयुद्ध में अमेरिका की जीत हुई ।
पूंजीवाद और मुक्त बाजार का बोलबाला कायम हुआ । जो लोग कभी कम्युनिस्ट या समाजवादी
कहलाते थे वे विदेशी पूंजी निवेश और आर्थिक सलाह के लिए होड़ लगाये हुए हैं ।
इसके बावजूद इन
आंदोलनों को कुछ सफलता भी हासिल हुई । क्रांतिकारियों ने बेहतरी की दिशा में
सामाजिक जीवन को बदला । मूलभूत आजादियों, अधिकारों और आधुनिक जीवन की भौतिक
सुविधाओं के लिए ये क्रांतिकारी ही लड़े । आठ घंटे काम और यूनियन बनाने का अधिकार,
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और नस्ली भेदभाव का विरोध, युद्ध विरोध और बेरोजगारी
भत्ता जैसी चीजों को हासिल करने में क्रांतिकारी आगे बढ़कर लड़ते रहे । उनकी समझ के
चलते जिन समस्याओं के कारण अलग अलग नजर आते थे उनमें आपसी रिश्ता नजर आने लगा ।
उन्होंने यह बताया कि स्त्री के प्रति यौन व्यवहार और पारिस्थितिकी विध्वंस का मूल
समान है । उन्होंने निजी संपदा और विस्तारवादी विदेश नीति का आपसी सम्पर्क स्पष्ट
किया । उन्होंने परिवार, कारखाने, सेना और सरकार में नियंत्रण की एक ही व्यवस्था
का प्रसार सिद्ध किया ।
उनकी विफलता का कारण यह भी था कि कई बार वे उतने क्रांतिकारी नहीं रहे जितना उन्हें होना चाहिए था । वे यथोचित रूप से समावेशी और ईमानदार नहीं रहे और यह देखने को तैयार नहीं हुए कि कैसे क्रांतिकारी राजनीतिक कार्यक्रम और उनका सामूहिक आचरण दमनकारी और अन्यायी समाज का पुनरुत्पादन कर रहा है । इनकी भारी विफलताओं से पता चलता है कि क्रांतिकारी विचार को व्यापक समाज की आलोचना तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, उसे आत्मालोचन की आदत भी डालनी चाहिए । यह प्रक्रिया क्षुद्र संकीर्ण छिद्रान्वेषण में पतित न हो जाये इसके लिए इसे अतीत से सीखकर भविष्य को संवारने की कोशिश बनाना होगा । उदाहरण के लिए उत्पीड़ितों के बीच एकजुटता कायम करने की कोशिश के दौरान इस विरोधाभास का पता चला कि कोई व्यक्ति दमन की किसी एक व्यवस्था का शिकार रहते हुए भी दूसरे मामले में दमनकारी की भूमिका निभा सकता है । लेखक को आशा है कि क्रांतिकारी बदलाव और निरंतर आत्म परीक्षण में उनकी किताब मदद करेगी । इस समय इसकी जरूरत बहुत अधिक है ।
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