अगस्त 1880 में जान स्विंटन (1829-1901) जो मशहूर अमेरिकी प्रगतिशील पत्रकार थे यूरोप घूमने आए । वहां वे इंग्लैंड के धुर दक्षिणपूर्वी छोर से कुछ किलोमीटर दूर स्थित छोटे से खाड़ी नगर केन्ट के पास राम्सगेट गए । यह यात्रा उन्होंने तत्कालीन अमेरिका में सबसे व्यापक पाठक समुदाय वाली खुद द्वारा संपादित पत्रिका सन के लिए एक साक्षात्कार हेतु की थी । जिनसे साक्षात्कार लेना था वे अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन के एक प्रमुख प्रतिनिधि बन चुके कार्ल मार्क्स थे ।
जन्म से जर्मनी के नागरिक मार्क्स फ़्रांसिसी, बेल्जियाई और प्रशियाई सरकारों द्वारा 1848-49 में अपने देशों में उभरे क्रांतिकारी आंदोलनों का दमन करने के क्रम में बहिष्कृत होने के बाद राष्ट्रविहीन हो चुके थे । 1874 में जब उन्होंने ब्रिटेन की नागरिकता के लिए आवेदन किया तो उनकी अर्जी खारिज कर दी गई क्योंकि स्काटलैंड यार्ड की एक रिपोर्ट में उन्हें ऐसा 'बदनाम जर्मन आंदोलनकारी और कम्यूनिस्ट सिद्धांतों का वकील' बताया गया था जो 'अपने राजा और देश के प्रति निष्ठावान नहीं' रहा था ।
दस साल से अधिक समय तक मार्क्स न्यू यार्क ट्रिब्यून के संवाददाता रहे; 1867 में 'पूंजी' नामक ग्रंथ में पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की आलोचना प्रकाशित की थी और 1864 के बाद आठ सालों तक इंटरनेशनल नामक मजदूर संगठन के नेता रहे थे । 1871 में उनका नाम यूरोप के तमाम अखबारों में छपा था जब 'फ़्रांस में गृहयुद्ध' में पेरिस क्म्यून के बचाव के कारण प्रतिक्रियावादी अखबारों नें उन्हें 'लाल क्रांति का डाक्टर' कहकर बदनाम किया था ।
1880 की गर्मियों में मार्क्स अपने परिवार के साथ राम्सगेट में ‘कुछ भी न
करने’ और इस तरह ‘स्नायविक तंत्र को दुरुस्त करने’ के डाक्टर के आदेश पर रह रहे थे
। पत्नी की सेहत तो उनसे भी बुरी थी । जेनी फान वेस्टफालेन कैंसर से पीड़ित थीं और
उनकी हालत ‘अचानक इतनी बिगड़ गई कि सबको घातक अंत की आशंका’ हो गई । ऐसी ही स्थिति
में समूचे 1860 दशक में न्यू यार्क टाइम्स के प्रधान सम्पादक रहे स्विंटन को
मार्क्स के बारे में पता चला और उन्होंने उनकी सहानुभूतिपूर्ण, चटक और सही तस्वीर
खींची ।
थोड़ा निजी स्तर पर स्विंटन ने मार्क्स को ‘साठ के लपेटे में दाखिल भारी सिर, उभरे नक्श वाले, सज्जन और घने लहराते उलझे सफेद बालों वाला ऐसा उदारमना पुरुष बताया’, जो ‘नाना का दायित्व निभाने की कला को विक्टर ह्यूगो से कम बेहतर नहीं’ जानता । उनकी बातें ‘इतनी खुली, इतनी विस्तृत, इतनी रचनात्मक, इतनी बेधक, इतनी सच्ची’ थीं कि स्विंटन को ‘कटूक्तियों से संवलित, हास्य की चमक से भरे और क्रीड़ाभावी हास्य वाले’ सुकराती संवादों की याद हो आई । उनको यह भी लगा कि ‘इस व्यक्ति में दिखावे या प्रसिद्धि की कोई चाहत नहीं है, जीवन की तड़क भड़क का रंच मात्र स्पर्श नहीं है तथा शक्ति प्रदर्शन का तो सवाल ही नहीं’ उठता ।
फिर भी 6 सितम्बर 1880 को जब ‘सन’ के मुखपृष्ट पर जब यह साक्षात्कार प्रकाशित हुआ तो स्विंटन ने पाठकों के समक्ष मार्क्स की यह तस्वीर नहीं प्रस्तुत की । उन्होंने मार्क्स का सार्वजनिक चेहरा पेश किया ‘आज की दुनिया के सबसे उल्लेखनीय लोगों में से एक, जिन्होंने अबूझ तरीके से पिछले चालीस साल की
क्रांतिकारी राजनीति में ताकतवर भूमिका निभाई है ।’ स्विंटन ने उनके बारे में
लिखा:
‘(वे) न तो जल्दी में
हैं, न आराम करना चाहते हैं । शक्तिशाली, व्यापक और उन्नत मस्तिष्क का स्वामी यह
व्यक्ति दूरगामी परियोजनाओं, तार्किक पद्धतियों और व्यावहारिक लक्ष्यों से भरा हुआ
है । जिनसे गद्दियों पर बैठे लोग और सत्ताशाली धोखेबाज विस्मित और भयभीत रहते हैं
ऐसे देशों को हिला देने वाले और बादशाहतों को बरबाद करने वाले भूकम्पों की पीठ पर वे
यूरोप के किसी भी अन्य व्यक्ति से अधिक खड़े थे और अब भी खड़े हैं ।’
मार्क्स के साथ बातचीत से न्यू यार्क के इस पत्रकार को विश्वास हो गया कि
वह ऐसे व्यक्ति के समक्ष है जो ‘समय में गहरे धंसा’ है और जिसका हाथ ‘नेवा से लेकर
सीन तक, यूराल्स से लेकर पाइरेनीज तक’ नये युग के ‘आगमन की तैयारी में व्यस्त’ है
। मार्क्स से वह प्रभावित हुआ क्योंकि वे ‘एक एक देश की विशेषताओं, परिवर्तनों तथा
सतह के ऊपर और सतह के नीचे के नेताओं का संकेत करते हुए समूचे यूरोपीय संसार का
सर्वेक्षण’ करने में सक्षम थे । मार्क्स ने
‘यूरोप के विभिन्न देशों की राजनीतिक ताकतों और लोकप्रिय आंदोलनों- रूस की
भावना की विशाल धारा, जर्मन दिमाग की हलचल, फ़्रांस की कार्यवाही, इंग्लैंड की जड़ता
की बात की । रूस के बारे में आशा के साथ, जर्मनी के बारे में दार्शनिक भाव से,
फ़्रांस के बारे में प्रसन्नतापूर्वक और इंग्लैंड के बारे में गम्भीर होकर बातें
कीं । इंग्लैंड के प्रसंग में उन ‘अत्यल्प सुधारों’ का हिकारत से जिक्र किया जिस
पर ब्रिटिश संसद में लिबरल लोग समय खर्च करते हैं ।’
स्विंटन को अमेरिका के बारे में मार्क्स की जानकारी से भी अचरज हुआ । वहां
के घटनाक्रम को वे ध्यान से देख रहे थे और ‘अमेरिकी जीवन को आकार देने वाली
प्रभावी कुछ ताकतों के बारे में उनकी बातें सूझ से भरी हुई थीं’ ।
जीवंत बहस मुबाहिसे में दिन बीत गया । दिन ढलते समय मार्क्स ने अपने परिवार से मिलने के लिए ‘तट पर समुन्दर के साथ टहलते’ हुए चलने का प्रस्ताव किया । इसे स्विंटन ने ‘कुल मिलाकर दस लोगों की मजेदार पार्टी’ बताया । शाम उतर आने पर मार्क्स के दामाद चार्ल्स लांग्वे (1839-1903) और पाल लाफ़ार्ग (1842-1911) उन दोनों का साथ देने आए और साथ बने रहे । बातचीत ‘दुनिया, मनुष्य और विचारों के बारे में जारी रही और हमारे गिलास समुद्र किनारे खनकते रहे ।’ इसी तरह के किसी एक क्षण में ‘जीवन और जमाने भर
की यंत्रणा के बारे में बड़बड़ाहट के साथ सोचते हुए’ अमेरिकी पत्रकार ने ‘दिन की
बातचीत और शाम के नजारे’ में डूबकर सामने बैठे महान व्यक्ति से ‘अस्तित्व के अंतिम
नियम जैसा’ सवाल पूछने की हिम्मत की । उस समय क्षण भर की चुप्पी में क्रांतिकारी
और दार्शनिक से एक सांघातिक सवाल पूछा ‘(जीवन) क्या है?’, स्विंटन को लगा कि
मार्क्स का दिमाग ‘सामने गरजते समुद्र और तट पर अशांत भीड़ पर नजर डाले हुए एक क्षण
के लिए अंतर्मुखी हो गया ।’ आखिरकार मार्क्स ने गहरी और शांत आवाज में जवाब दिया
‘संघर्ष!’ ।
पहली बार में स्विंटन को लगा कि उस उत्तर में उन्होंने ‘निराशा की
प्रतिध्वनि’ सुनी । बहरहाल बाद में वे भी सहमत हुए- ‘संघर्ष’ ही ‘जीवन का सार’ है जिसे
समझने की कोशिश हमेशा से मानवता करती रही है ।
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