Friday, December 11, 2020

मार्क्स के जीवन के आखिरी सप्ताह

 


मार्क्स तो यूरोपीय मजदूर आंदोलन की हलचलों को ठीक से देख पा रहे थे, ही उनका सैद्धांतिक काम आगे बढ़ पा रहा था हालांकि उन्होंने फिर सेसेहत दुरुस्तकरने की पूरी कोशिश की और हालांकि पुत्री एलिनोर से साल के अंत में आने पर कुछ किताबें ([जोहानेस] रांके की फिजियोलाजी [और एडवर्ड] फ़्रीमैन की कालानुक्रमणिका की जगह सड़ी हुई पतली सी (हिस्ट्री आफ़ यूरोप) लाने को कहा फिर भी सेहत की गड़बड़ी और बेटी जेनी को हाल में संतान पैदा होने के बाद उसकी स्थिति की चिंता के चलते उनकी हालत अधिकाधिक खराब होती गई

6 जनवरी को उन्होंने डाक्टर विलियमसन को बताया कि उठने पर 'अचानक लगातार खांसी रही थी और सांस लेने में इस कदर जूझना पड़ रहा था मानो दम घुट रहा हो' अचानक आई इस आफत का मतलब वे समझते थे बीती शाम को ही उन्हें पहली संतान के बारे में भयानक खबर वाली चिट्ठी मिली थी: 'जानता तो था कि उसकी बीमारी गंभीर है लेकिन यह सुनने के लिए तैयार नहीं था कि इस समय उसकी हालत खराब है'

उन्होंने एंगेल्स से यह भी बताया कि उन्हें 'दम घुटता' सा लगा, और कि 'आजकल कोई भी स्नायविक उत्तेजना उनका गला पकड़ लेती है' एलीनोर को उन्होंने लिखा:

यकीनन स्नायविक परेशानी- जेनीचेन के बारे में दुश्चिंता- की वजह से ऐसा हो रहा है !---तुरंत ही मैं अर्जिंत्यूल के लिए निकल जाता लेकिन फिर सोचा कि एक बीमार अतिथि का अतिरिक्त बोझ मेरी बच्ची क्यों उठाए ! कोई नहीं कह सकता कि यात्रा के चलते फिर से दौरा पड़ जाता जिससे अब तक संयोग से बचा हुआ हूं लेकिन फिर जाकर देख पाने की तकलीफ भी सता रही है

उस समय मार्क्स एक और ‘लम्बी घरबंदी’ से गुजर रहे थे । उनकी ‘थका देने वाली’ और लगभग ‘अर्ध-स्थायी खांसी’ जिसके साथ ‘प्रतिदिन की उल्टी’ भी जुड़ गई थी, ने उनकी हालत को तकरीबन असहनीय बना दिया था । फिर भी हालात इतने भी बेकाबू न हुए थे कि लगे कि अब सेहत सुधर नहीं सकती । एलिनोर से शिकायत के लहजे में कहा कि उनकी अवस्था ‘अक्सर काम करना असम्भव’ बना देती है । लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि ‘डाक्टर को यकीन है- और उसको अब भी यकीन है और यही खास बात है- कि (जो थोड़ा सा इलाज उसने अभी सुझाया है) उसके सहारे मुझे इस पीड़ा से मुक्ति दिला सकता है । जो बचेंगे तो देखेंगे ।’

बहरहाल प्यारी पुत्री जेनी की 11 जनवरी को लीवर कैंसर से हुई मृत्यु ने ऐसी उम्मीदों को धो पोंछ डाला । पत्नी की मृत्यु के तुरंत बाद यह धक्का जानलेवा था खासकर उस आदमी के लिए जो पहले ही गम्भीर रूप से बीमार था और तमाम तकलीफ़ों से जूझ रहा था बाद में एलीनोर ने जो लिखा वह उन दिनों की हालत की अपूर्व बानगी है:

हमें मूर की एक चिट्ठी मिली---, जिसमें उन्होंने लिखा कि जेनी की सेहत में आखिरकार सुधार हो रहा है और हमें- हेलेन (देमुथ) और मैं- को परेशान होने की जरूरत नहीं है चिट्ठी मिले एक घंटा भी गुजरा होगा कि जेनी की मौत की सूचना तार से पहुंची तुरंत मैं वेंटनर के लिए निकल पड़ी जिंदगी में दुख के तमाम मौके आए हैं लेकिन इस जैसा जानलेवा अहसास कभी नहीं हुआ था लगा कि पिता की मौत का परवाना देख रही हूं दिल को चीर देने वाली उस बीतने वाली यात्रा के दौरान मैं लगातार सोचती रही कि पिता को यह खबर कैसे सुनाई जाए लेकिन कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी मेरे चेहरे ने सब कुछ जाहिर कर दिया मूर ने तुरंत कहाहमारी गुड़िया जेनी नहीं रही!” और वे तत्काल पेरिस के लिए चल देना चाहते थे ताकि बच्चों की देखभाल में हाथ बंटा सकें मैं उनके साथ रहना चाहती थी लेकिन वे कोई बात सुनने को तैयार नहीं थे वेंटनर में बस आधे घंटे रुक सकी और उसके बाद टूटे और दुखी दिल से लंदन चल पड़ी ताकि पेरिस जाया जा सके बच्चों के भले के लिए मैंने वही किया जो मूर ने चाहा

13 जनवरी को मार्क्स भी आनन फानन लंदन के लिए निकल पड़े वाइट द्वीप से निकलने से पहले उन्होंने डाक्टर विलियमसन को समझाया कि निकलने की वजह ‘(उनकी) बड़ी लड़की की मृत्यु की घातक खबर है साथ ही यह भी जोड़ाभीषण सिरदर्द की वजह से थोड़ा आराम मिल रहा है शारीरिक तकलीफ ही मानसिक तकलीफ कोसुन्नकर पाती है ये ही आखिरी शब्द साबित हुए जो वे कागज पर लिख सके थे

एंगेल्स की चिट्ठियों के आधार पर हम मार्क्स के जीवन के आखिरी हफ़्तों की कहानी के विवरणों की कुछ झलक पा सकते हैं एडवर्ड बर्नस्टाइन को लिखी एक चिट्ठी से हमें पता चलता है कि वेंटनर से लौटने के बाद मार्क्सब्रांकाइटिस के चलते घर में ही रहे- संयोग से इस बार का दौरा हल्का ही था इसके बाद 8 फ़रवरी को फिर उन्होंने बर्नस्टाइन को लिखा कि पिछले तीन हफ़्तों से मार्क्स का गला ऐसा फटा हुआ है कि मुश्किल से बोल (पा) रहे हैं उस समय जर्मनी के सामाजिक जनवादी नेताओं में बर्नस्टाइन से एंगेल्स की काफी नियमित चिट्ठी पत्री होती थी इसके दो कारण थे एक तो वे पार्टी के अखबारडेर जोत्सियालडेमोक्राटके निदेशक थे और दूसरे क्योंकि विल्हेल्म लीबक्नेख्त के साथ पहले एंगेल्स का टकराव रहा था

16 फ़रवरी को एंगेल्स ने लौरा को पत्र लिखाहाल के दिनों में उन (मार्क्स) की रातें बुरी, निद्राविहीन गुजरी हैं जिनके चलते उनकी बौद्धिक भूख टूट गई है । इसलिए उपन्यासों की जगह पर उन्होंने प्रकाशन सूची पढ़ना शुरू कर दिया है’ । दूसरे दिन फिर लिखा कि अच्छी बात है कि ‘उन्होंने सूची छोड़ दी है और फ़्रेडेरिक सूली (1800-1847) की ओर लौट आए’ हैं । ये 1848 के पहले के सबसे अधिक लोकप्रिय लेखक थे । इसके बावजूद एंगेल्स के मन में शंका बनी हुई थी ‘सबसे बुरी बात कि उनका मामला बेहद जटिल हो गया है । इसमें सबसे चिंताजनक समस्या यानी सांस संबंधी तंत्र पर तुरंत ध्यान देना होगा, कभी कभी सोने के लिए दवा देनी होगी, अन्य चीजों मसलन पेट की फिलहाल उपेक्षा की जा सकती है ।’

महीने के अंत में एंगेल्स ने बर्नस्टाइन को ताजा हाल से दोबारा अवगत कराया ‘मार्क्स अब भी कोई काम करने की हालत में नहीं हैं । अपने कमरे से बाहर नहीं निकलते और फ़्रांसिसी उपन्यास पढ़ते हैं । उनका मामला कुछ ज्यादा ही जटिल लगता है ।’ अगले सप्ताह बेबेल को बताया कि मार्क्स की सेहत ‘उतनी नहीं सुधर रही जितनी सुधर जानी चाहिए थी ।’ आखिरकार 10 मार्च को डाक्टर डोंकिन के स्वास्थ्य परीक्षण के बाद लौरा को उन्होंने लिखा ‘(उन्होंने) कल शाम मूर को देखा और बताते हुए खुशी हो रही है कि पिछले पखवाड़े के मुकाबले सेहत के बारे में ज्यादा सकारात्मक तस्वीर पेश की । उन्होंने कहा कि मूर की सेहत उस समय के मुकाबले तयशुदा रूप से बिगड़ी तो नहीं ही है, सुधरी है ।’ बहरहाल मार्क्स ‘अब भी कमजोर हैं क्योंकि निगलने में उन्हें परेशानी हो रही है’ और कि ‘उन्हें जबरिया खिलाना पिलाना होगा ।’     

हालात जल्दी ही फिर से बिगड़ गए क्योंकि मार्क्स का शरीर तेजी से जवाब देने लगा । फेफड़े में उन्हें फिर से घाव हो गया । एंगेल्स को चिंता शुरू हुई कि उनके जिंदगी भर के दोस्त का अंत सचमुच निकट आ पहुंचा है ‘पिछले छह हफ़्तों से रोज सुबह जैसे ही मेरी आंख खुलती है घातक झुरझुरी होती है कि कहीं परदा गिर न गया हो ।’ जिस बात का उनको डर था आखिर जल्दी ही वह क्षण 14 मार्च 1883 को पौने तीन बजे शाम को आ पहुंचा । पूरी घटना का समूचा विवरण उन्होंने सर्वाधिक संवेदनशील शब्दों में फ़्रेडेरिक सोर्ज को लिखा जो इंटरनेशनल वर्किंग मेन’स एसोसिएशन का मुख्यालय 1872 में अमेरिका चले जाने के बाद उसके सचिव और कामरेड थे ।

‘कल शाम पौने दो बजे शाम को जब वे आगंतुकों से मिलना पसंद करते थे, उस समय जब मैं घर पहुंचा तो सभी लोग रो रहे थे । लगा जैसे वे अपने अंत के करीब पहुंच चुके थे ।--- बहुत हल्का रक्तस्राव हुआ था और उसके तुरंत बाद गिर पड़े थे । हम सबकी प्यारी लेंचेन ने उनकी देखभाल अपने बच्चे से अधिक बेहतर तरीके से की थी । वह ऊपर गई और फिर नीचे आकर बताया कि अर्धनिद्रा में हैं । मुझे साथ लेकर वह ऊपर गई । जब हम पहुंचे तो वे वहां लेटे हमेशा के लिए सो रहे थे । उनकी सांसें थम गई थीं और नब्ज डूब चुकी थी । दो मिनट के भीतर ही वे बिना किसी तकलीफ के शांतिपूर्वक गुजर चुके थे ।’

अपने सबसे प्यारे दोस्त को खो देने के दर्द के बावजूद एंगेल्स ने उनकी इस अपरिवर्तनीय स्थिति के नतीजों को सहसा समझ लिया ।

प्राकृतिक अपरिहार्यता के साथ आने वाली सभी घटनाओं, चाहे वे कितनी ही भयानक क्यों हों, के साथ कुछ सांत्वना की बात भी रहती है इस मामले में भी यही है दवाओं की ताकत के चलते शायद वे कुछ और साल जीवित भर बचे रह गए होते लेकिन वह ऐसे असहाय प्राणी का जीवन होता जो अचानक मरने की जगह इंच दर इंच मौत के मुंह में जाता वह जीवन डाक्टरों के कौशल की जीत का सबूत होता लेकिन ऐसी हालत हमारे मार्क्स शायद कभी झेल पाते निगाह के सामने इतनी सारी अपूर्ण रचनाओं के साथ उन्हें पूरा करने की उत्तेजक इच्छा दिल में लिए हुए लेकिन पूरा करने में असमर्थ- ऐसी जिंदगी उनके लिए इस शांत देहांत के मुकाबले हजार गुना तकलीफदेह रही होती एपीक्यूरस की एक बात वे अक्सर बताते थेमौत मरने वाले के लिए नहीं बल्कि जिंदा बच गए मनुष्य के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होती है और इस प्रतिभा के शक्तिपुंज को चिकित्साशास्त्र के गौरव हेतु जिंदा लाश की तरह उन मूर्खों के लिए हास्यास्पद अस्तित्व बने रहना जिन्हें वे अक्सर पटककर धूल चटा चुके थे- नहीं! इससे तो कई हजार गुना बेहतर है जो हुआ, कई हजार गुना बेहतर है कि हम उन्हें परसों उसी कब्र में लिटा आएं जिसके पड़ोस में उनकी पत्नी चिरनिद्रा में लेटी हैं और कुल मिलाकर इससे पहले जो कुछ भी घटित हुआ, जिससे डाक्टर उतना परिचित नहीं हैं जितना मैं, उसे देखते हुए यही एकमात्र विकल्प रह गया था अब जो होना है वह हो मानवता जिस पर आज गर्व कर सकती है ऐसी प्रतिभा, असल में सबसे महत्वपूर्ण प्रतिभा से विरहित हो चुकी है सर्वहारा आंदोलन अपनी राह चलता रहेगा लेकिन उसने अपना केंद्रक खो दिया है उस केंद्रक की ओर ही फ़्रांसिसी, रूसी, अमेरिकी और जर्मन कार्यकर्ता संकट के समय देखते थे और प्रत्येक अवसर पर उन्हें साफ तथा निर्विवाद सलाह मिलती थी ऐसी सलाह विलक्षण और पूर्ण विशेषज्ञ ही प्रदान कर सकता था अब तो धोखेबाजों की नहीं लेकिन गली के शेरों और स्थानीय छुटभैयों की चांदी हो जाएगी अंतिम जीत तो निश्चित है लेकिन पहले से जारी विचलन, अस्थायी और स्थानीय भटकाव अभूतपूर्व रूप से बढ़ जाएंगे सच है हमें इससे पार निकलना होगा, आखिर और हम कर ही क्या सकते हैं इन सबके चलते हमें दिल छोटा नहीं करना है, रत्ती भर भी नहीं

मार्क्स के देहांत के बाद यही सब हुआ तमाम लोगों ने उनका झंडा उठा लिया । लैटिन अमेरिका से लेकर धुर पूरब तक विपन्न हाशियों के ट्रेड यूनियन दफ़्तरों या प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के विराट सभा कक्षों में लाखों लाख मजदूरों और विद्यार्थियों ने उनकी रचनाएं पढ़ीं, उनसे उत्पीड़ितों के सच्चे हालात की समझ हासिल की, नए नए संघर्षों में शामिल होने की प्रेरणा पाई और हड़ताल करने, सामाजिक आंदोलन चलाने तथा राजनीतिक पार्टियों को गठित करने का तरीका सीखा । वे रोटी और गुलाब के लिए, अन्याय के विरुद्ध आजादी लिए लड़े और इस लड़ाई में उन्होंने मार्क्स के सिद्धांतों को पूरी तरह साकार किया ।

इस लम्बी प्रक्रिया के दौरान उनका गहराई से अध्ययन हुआ, उनको मूर्ति में बदल दिया गया, सरकारी नियमावली में स्थिर कर दिया गया, गलत समझा गया, प्रतिबंधित किया गया, मृत घोषित किया गया और फिर फिर पुन:प्राप्त किया गया । कुछ लोगों ने उनके विचारों को सिर के बल खड़ा कर दिया, ऐसे सिद्धांत और व्यवहार का चलन किया जिससे अगर वे जीवित रहते तो कड़ाई से लड़े होते । बहरहाल कुछ और लोगों ने उनके विचारों को समृद्ध किया, उनका नवीकरण किया और उनके ही द्वारा अपनाई गई प्रबल आलोचनात्मक भावना के साथ उनमें मौजूद कुछेक समस्याओं को हल किया और अंतर्विरोधों को दूर किया । ऐसी कोशिशों की उन्होंने तारीफ ही की होती ।

जो लोग आज मार्क्स के लेखन को फिर से खंगाल रहे हैं या जो उनके लेखन को पहली बार पढ़ रहे हैं वे संसार की व्याख्या हेतु तैयार उनकी समाजार्थिक विश्लेषण की क्षमता से मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते । उनके समस्त लेखन से एक संदेश लगातार प्रसारित होता रहता है- पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के खात्मे और पूंजी की गुलामी से संसार के मजदूरों की मुक्ति के लिए संघर्ष संचालित करना अनिवार्य है

No comments:

Post a Comment