‘कंचनजंघा’ के पिछले अंक में ‘रंगभेद, नस्ल
और अश्वेत समस्या’ शीर्षक लेख के प्रकाशित होने के कुछ समय बाद ही दुर्भाग्य से
अमेरिका में जार्ज फ़्लायड नामक एक अश्वेत नौजवान की हत्या हो गयी । उस बर्बर हत्या
के विरोध में उमड़े आंदोलन ने आगामी राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे तय कर दिये ।
आंदोलन के दौरान गुस्साये प्रदर्शनकारियों ने जब तोड़फोड़ की तो राष्ट्रपति ट्रम्प
ने लूट शुरू होने पर गोलीबारी शुरू होने (शूटिंग बिगिन्स ह्वेन लूटिंग बिगिन्स) को
जायज ठहराया । उनके विरोधी डेमोक्रेट प्रत्याशी ने एक अश्वेत महिला कमला हैरिस को
उप-राष्ट्रपति पद के लिए चुना । इस तरह घटनाक्रम ने राजनीतिक मोर्चेबंदी का रूप ले
लिया । सौभाग्य से वहां किसी ने भी मुद्दे को राजनीतिक रंग देने की शिकायत नहीं की
। हमारे देश में तो राजनीतिक सवाल पर भी राजनीति न करने का संदेश दिया जाता है
मानो राजनीति करने का अधिकार किसी खास समुदाय को ही हो ! बहरहाल इस भारी उथल पुथल
के चलते न केवल राजनीति बल्कि बहुतेरे क्षेत्रों में हलचल पैदा हुई । इस अंक में
हम इस आलोड़न की एक झलक देखने की कोशिश कर रहे हैं । अश्वेत समुदाय के साथ हिंसा के
इस दौर की शुरुआत को रेखांकित करते हुए 1997 में
टाइम्स बुक्स से लोउ कैनन की किताब ‘आफ़िशियल नेगलिजेन्स: हाउ रोडनी किंग ऐंड द
रायट्स चेंज्ड लास एंजेल्स ऐंड द एल ए पी डी’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि
1992 के वसंत में पांच दिनों तक लगातार बीसवीं सदी के सबसे भीषण शहरी फ़साद लास
एंजेल्स में हुए । इन फ़सादों के पीछे की छिपी कहानी इस किताब में सुनाई गयी है ।
उन फ़सादों ने लास एंजेल्स को हमेशा के लिए बदल दिया । लेखक ने दो साल के लिए इसके
लेखन की परियोजना तय की थी लेकिन लेखन में पांच साल लग गये । अश्वेतों के विरुद्ध ढांचागत हिंसा का संगठित रूप पुलिस की हिंसा है । पुलिस के साथ पूरा तंत्र खड़ा होता है इसलिए उसकी हिंसा को राजकीय हिंसा कहा जा सकता है । पुलिस नामक इस संस्था का जन्म ही मालिकों के अत्याचार से बचने के लिए भागे गुलामों को पकड़ने और दंडित करने के लिए हुआ था इसलिए फ़्लायड की हत्या के बाद पुलिस को खत्म करने की मांग जोरों से उठी है । इस संस्था के जरिए शासक वर्ग विरोधियों को तो दंडित करते ही हैं, खुद इसमें कार्यरत सिपाही तमाम तरह की हिंसा और भेदभाव के शिकार होते हैं । अश्वेत आंदोलन और नस्ली भेदभाव बीते जमाने की बातें नहीं हैं बल्कि खास इसी समय उनका भीषण रूप प्रकट हुआ है । इसे साबित करने के लिए हमने केवल पिछले तीन सालों की उन किताबों का उल्लेख किया है जिनकी चर्चा पिछली बार नहीं हो सकी थी ।
2020 में बेरेट-कोएह्लर पब्लिशर्स से मेरी-फ़्रांसेस विंटर्स की किताब ‘ब्लैक फ़टीग: हाउ रेसिज्म इरोड्स द माइंड, बाडी, ऐंड स्पिरिट’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब से रंगभेद के व्यापक सामाजिक प्रभावों
के साथ मनोवैज्ञानिक असरात का अंदाजा लगता है । लेखिका का मानना है कि अश्वेत
व्यक्ति को प्रतिदिन जिस तरह के भय, कुंठा और क्रोध का सामना करना पड़ता है उसे
संगठित हिंसा के अतिरिक्त अन्य किसी तरह नहीं देखा जा सकता । कोरोना की हालिया महामारी
ने इस हालत को और भी उजागर कर दिया है । इससे मरने वालों में अश्वेतों की दर गोरों
के मुकाबले दोगुनी से लेकर चार गुनी तक रही । उनके संक्रमित होने की सम्भावना अधिक
थी क्योंकि उनके रोजगार की प्रकृति ऐसी थी । बदहाली के बीच बेरोजगारी भी उन्हें
अपेक्षाकृत अधिक झेलनी होगी । इसी दुरवस्था के बीच निहत्थे युवकों की पुलिस के
हाथों हत्या के समाचारों ने आग में घी का काम किया ।
2020 में हाट बुक्स से आर्मस्ट्रांग विलियम्स की किताब ‘ह्वाट ब्लैक ऐंड ह्वाइट अमेरिका मस्ट डू नाउ: ए प्रेसक्रिप्शन टु मूव बियान्ड रेस’ का प्रकाशन हुआ । इसकी प्रस्तावना डाक्टर बेन कार्सन ने लिखी है । उनका कहना है कि
मिनेसोटा में पुलिस अफ़सर के हाथों जार्ज फ़्लायड की हत्या ने नस्लभेद के बारे में
विवाद को जन्म दिया है । विवाद इस सवाल पर है कि नस्ली संबंध सुधर रहे हैं या खराब
होने की ओर हैं । इसका जवाब उत्तर देने वाले के परिप्रेक्ष्य और जीवन के हालात पर
निर्भर है । फ़्लायड की हत्या के बाद अमेरिकी लोगों में गुस्से, अपराधबोध से लेकर
असहायता तक की भावना का उभार नजर आया । किताब के लेखक अश्वेत होते हुए भी संकट के
प्रबंधन में दसियों साल से विभिन्न भूमिकाओं में सक्रिय रहे हैं । वे गोरों के
भीतर समझ पैदा करने की कोशिशों के साथ जुड़े रहे हैं । उनका मानना है कि लोगों की
सोच उनकी चमड़ी के रंग से तय नहीं होती । इसका संबंध उनके शुरुआती वातावरण और अनुभव
से होता है । दूसरी बात कि अन्य लोगों के सांस्कृतिक सवालों की जानकारी न होने से
ही कोई व्यक्ति नस्लवादी नहीं हो जाता है । रचनात्मक संवाद के जरिए ही व्यक्ति के
अनुभव का विस्तार होता है और इसी क्रम में किसी देश के नागरिक का निर्माण होता है
। इस बात को समझने की जगह बहुत जल्दी किसी पर भी नस्लवादी होने का आरोप लगा दिया
जा रहा है । ऐसे हालात में लोगों की प्रतिक्रिया सहज न होकर या तो अपराधबोध से भरी
होती है या भय से उपजी होती है । किताब को पढ़ने के बाद नस्ली तनाव की स्थिति में
भी गोरे लोग अपना सहज स्वभाव कायम रखने में कामयाब रहेंगे । समाज में काम्य
परिवर्तन की शुरुआत व्यक्ति में परिवर्तन से होती है यह मानकर लेखक ने यह किताब
लिखी है ।
2020 में हाट बुक्स से कोंडवानी फ़िदेल की किताब ‘द एन्टीरेसिस्ट: हाउ टु स्टार्ट द कनवर्सेशन एबाउट रेस ऐंड टेक नेशन’ का प्रकाशन हुआ । इसकी प्रस्तावना डेविड एलन ने लिखी है । उनका कहना है कि
काली चमड़ी वाले किसी अमेरिकी व्यक्ति के लिए जीवित बने रहना सबसे बड़ी प्राथमिकता
की चीज होती है । अश्वेत बच्चों को भी अक्सर हिंसा का शिकार होना पड़ता है । जीवन
में कुछ बनने की कल्पना उनके लिए कठिन होती है । सिर नवाकर चलने, कानून का पालन
करने और व्यवस्था में यकीन करने की सीख उन्हें बचपन से दी जाने लगती है ।
दुर्भाग्य से यह सब करने के बावजूद उनको कभी भी गोली का शिकार होना पड़ सकता है । अगर
बच भी गये तो किसी किस्म के सृजन के लिए आवश्यक साहस समाप्त हो चुका होता है ।
इसके चलते पीढ़ी दर पीढ़ी हालात एक समान बने रहते हैं । कुछ भी कलात्मक रचने की
क्षमता अर्जित करने के लिए प्रशिक्षण हासिल करने गोरों की संस्थाओं में जाना पड़ता
है । उनके समक्ष किसी अश्वेत कलाकार का आदर्श नहीं होता जिसका अनुसरण किया जा सके
। नवोदित कलाकार पुलिसिया जुल्म के शिकार होकर बेकार हो जा सकते हैं । ऐसे में
अश्वेत लोग सभी विरोध प्रदर्शनों में शामिल होते हैं । उन्हें अपने समुदाय के बारे
में किसी और के बयान पर यकीन नहीं होता और खुद ही अपनी आवाज उठाते हैं । इसी क्रम
में उनकी कला का निर्माण होता है । वे अपने समुदाय के आकांक्षी युवाओं को आगे बढ़ाने
की हरचंद कोशिश करते हैं । इस किताब के लेखक इसी तरह के एक महात्वाकांक्षी युवा
कलाकार हैं । उनकी सभी रचनाओं और गीतों में दुख और अनगढ़ क्षोभ व्यक्त हुआ है ।
अश्वेत कलाकार कला को अपने इसी क्षोभ की अभिव्यक्ति का हथियार बना लेते हैं । इससे
जनता को हालात में बदलाव लाने की गहरी सीख मिलती है । इस देश में किसी भी अश्वेत
कलाकार को ऐसे नस्लभेद का सामना करना पड़ता है जिसमें अश्वेत की हत्या बहुत ही सामान्य
बात मानी जाती है ।
2020 में हेमार्केट बुक्स से फ़्रैंक बारात के संपादन में मार्क लेमोंत
हिल की किताब ‘वी स्टिल हेयर: पैंडेमिक, पुलिसिंग, प्रोटेस्ट, & पासिबिलिटी’
का प्रकाशन हुआ । कीनांगा-यामाता टेलर ने इसकी प्रस्तावना लिखी है । उनका कहना है
कि अश्वेत उभार के पचास साल बाद भी समय समय पर फूट पड़ने वाले संघर्षों से पता चलता
है कि नस्ली भेदभाव के कानूनी खात्मे के बावजूद समाज से इसका खात्मा नहीं हुआ है ।
आम तौर इन घटनाओं का विस्फोट अचानक होता है जिससे वर्तमान पर इतिहास की छाया का
अहसास होता है मानो इस दु:स्वप्न से बाहर निकलना सम्भव नहीं रह गया है । हालिया
अतीत में कटरीना तूफान के समय समझ आया कि अमेरिका में गरीब और अश्वेत होने का मतलब
समाज के सबसे निचले पायदान पर मौजूद होने के बराबर है ।
2020 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से डेविन एल फीनिक्स की किताब
‘द एंगर गैप: हाउ रेस शेप्स इमोशन इन पोलिटिक्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखक बताते हैं
कि अमेरिकी राजनीति में गुस्से का बहुत जोर रहता है । दोनों ही पार्टियों के
समर्थकों की गोलबंदी में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । लेखक का मानना है कि इस
मामले में रंगभेद लागू होता है यानी अश्वेत आबादी को गुस्सा कम आता है जबकि गोरे लोगों में उसका प्रदर्शन अधिक है । इन सबके चलते भी विषमता में बढ़ोत्तरी होती है । जिनके भीतर क्रोध अधिक दिखायी देता है उनकी बात अधिक सुनी जाती है ।
2020 में रैंडम हाउस से जान मीचम की किताब ‘हिज ट्रुथ इज मार्चिंग आन:
जान लेविस ऐंड द पावर आफ़ होप’ का प्रकाशन हुआ । किताब में जान लेविस का पश्चलेख भी
शामिल है । लेखक ने किताब की शुरुआत लेविस की अस्सी साल की उम्र में किये प्रदर्शन
के वर्णन से की है । यह प्रदर्शन 2020 के मार्च महीने के एक रविवार को अलाबामा में
हुआ था । शामिल लोग ‘वी शैल ओवरकम’ गा रहे थे । लेविस गीत का महत्व जानते थे । ऐसे
ही माहौल में जो बातें किस्से कहानी की तरह कही जाती हैं वे सच हो जाया करती हैं ।
उनके जीवन का यह अंतिम अध्याय उम्मीद और इतिहास, याद और नवीकरण से बना था । उन्हें
लगता था कि अगर पचास साल पहले दक्षिण अमेरिका के नौजवान दुनिया बदल सके थे तो आज
भी ऐसा करना सम्भव है । उनके साथ ही पचपन साल पुरानी लड़ाई में शामिल योद्धा भी
जुलूस में थे । लेविस को पैंक्रियास कैंसर था और इसके चलते वे बहुत कमजोर हो गये
थे । इसके बावजूद उनकी आवाज में वही गूंज थी । उन्होंने उस पुराने जुलूस को याद
किया । तब उनकी उम्र कुल पचीस साल की थी और पांच साल पहले आंदोलन में शरीक हुए थे
। उस जुलूस में वे मार्टिन लूथर किंग के साथ अपने नब्बे साल के शांतिवादी अध्यापक
की प्रेरणा से शामिल हुए थे । मसला मताधिकार का था । पुलिस ने उन्हें पीटकर मरने
के लिए छोड़ दिया था । इसके बावजूद वे जीवित बच गये थे । इस जुलूस के साथ हुई हिंसक
बर्बरता के चलते राष्ट्रपति जानसन ने मताधिकार की गारंटी का कानून पारित किया ।
इसके बाद तो रंगभेद की समाप्ति के लिए लगातार कोई न कोई पहल होती रही । इन सबमें
लेविस शामिल रहे ।
2020 में बीकन प्रेस से डायना रामी बेरी और काली निकोल ग्रास की किताब ‘ए ब्लैक वूमन’स हिस्ट्री आफ़ द यूनाइटेड स्टेट्स: रीविजनिंग अमेरिकन हिस्ट्री’ का प्रकाशन हुआ । बात 1832 से शुरू
हुई है जब मारिया स्टीवार्ट नामक एक अश्वेत स्त्री ने सार्वजनिक भाषण देने का
फैसला किया । वह अश्वेत स्त्रियों को ज्ञान की दुनिया से बाहर रखने के विरोध में
बोलती थी । उससे पहले किसी अमेरिकी स्त्री ने सार्वजनिक रूप से बोलने का साहस नहीं
किया था । अफ़्रीकी अमेरिकी स्त्री अधिकारों के पक्ष में वह गोरे अमेरिकियों से
अश्वेतों और खासकर स्त्रियों के बारे में सोचने की दरखास्त करती थी । उसकी ही प्रेरणा
से इस किताब का लेखन हुआ है जिसमें अमेरिकी जीवन में अश्वेत स्त्री के योगदान को
रेखांकित किया गया है । लेखिकाओं को भी अश्वेत स्त्रियों की इस ताकत का पता
विभिन्न सवालों पर उनके हस्तक्षेप के जरिए चला । ‘ब्लैक इज ब्यूटिफ़ुल’ जैसे नारे
से इन स्त्रियों ने सच का पक्ष लिया था । दोनों लेखिकाओं के निवास, पालन पोषण और सामाजिक वातावरण
में अंतर के बावजूद उनका शिक्षण इतिहास में हुआ है । अश्वेत इतिहासकार के रूप में उन्हें
साझा समस्याओं का सामना करना पड़ा । उनकी क्षमता और उनके शोध के क्षेत्र पर लगातार संशय
जाहिर किया जाता रहा । एक ने गुलामी और दूसरे ने अपराध तथा हिंसा को केंद्र में रखकर
शोध किया । अमेरिका में अश्वेत स्त्री के इतिहास की सम्भावना से ही इनकार किया जाता
है । इसके उत्तर के रूप में दोनों लेखिकाओं ने इस किताब को तैयार किया है ।
2020 में मंथली रिव्यू प्रेस से गेराल्ड हार्ने की किताब ‘द डानिंग आफ़
द एपोकालिप्से: द रूट्स आफ़ स्लेवरी, ह्वाइट सुप्रीमेसी, सेटलर कोलोनियलिज्म, ऐंड
कैपिटलिज्म इन द लांग सिक्सटीन्थ सेन्चुरी’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि इसमें कोई अचरज की बात नहीं कि 1977 में मार्टिन लूथर किंग के सहायक ने लंदन पर नस्लवाद की खोज का आरोप लगाया । असल में उस समय अमेरिका पर ब्रिटेन का ही शासन था जब नस्लभेद की नींव पड़ी थी । यूरोप से अमेरिका आये लोगों को आपस में जोड़ने
वाली चीज उनकी चमड़ी का रंग था । इंग्लैंड के उपनिवेशवादी सोच के पीछे गोरेपन की
श्रेष्ठता का भाव था । कुछ लोगों के मुताबिक तेरहवीं सदी से ही वह पश्चिम का पहला
नस्ली राज्य बन चुका था । धर्मयुद्धों के अनुभव से उसे विस्तारवाद की लत लग चुकी
थी । इस आदत की निरंतरता में जब उसने विदेशों में बसावट के साथ उपनिवेश कायम किये
तो अपने साथ नस्ली श्रेष्ठता भी ले गये । यहूदी समुदाय के बारे में गंदगी और
मानवभक्षी होने के प्रवाद इंग्लैंड में पहले से मौजूद थे, अमेरिका में अश्वेतों के
बारे में ये प्रवाद उसी तर्ज पर फैलाये गये ।
2020 में रैंडम हाउस से इजाबेल विलकेर्सन की किताब ‘कास्ट: द ओरीजिन्स आफ़ आवर डिसकांटेन्ट्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब में लेखक ने नस्ली भेदभाव के विश्लेषण के लिए जाति की धारणा का इस्तेमाल करके इस बहस को आनुवंशिकी के मुकाबले समाजशास्त्र की दुनिया में खींच लिया है । इस किताब की इतनी
चर्चा हुई कि इसे स्कूली बच्चों में मुफ़्त बांटने के लिए खरीदा गया । इसमें भेदभाव
की तीन किस्मों पर चर्चा की गयी है । अमेरिका में रंगभेद और भारत की जातिप्रथा के साथ
ही हिटलर के शासन में यहूदी समुदाय के साथ बरताव को भी विश्लेषण का विषय बनाया गया
है । मानवता के साथ व्यवस्थित रूप से आपराधिक भेदभाव के इन रूपों को इकट्ठा देखने से
एक सामाजिक यांत्रिकी का पता चलता है जिसके जरिए अलग अलग जगहों पर शासक वर्ग ने समाज
पर अपना नियंत्रण कायम रखा ।
2020 में पालग्रेव मैकमिलन से जारेद ए बाल की किताब ‘द मिथ ऐंड
प्रोपैगैन्डा आफ़ ब्लैक बाइंग पावर’ का प्रकाशन हुआ । शीर्षक से ही स्पष्ट है कि
इसमें अश्वेतों की क्रयशक्ति के बारे में वास्तविकता से पूरी तरह कटा हुआ जो झूठ
फैलाया गया है उसकी पोल खोली गयी है । इस झूठ को बड़े मीडिया घरानों की ओर से रोज
रोज प्रसारित किया जाता है । इसे अश्वेत समुदाय के प्रति अमेरिकी मीडिया के रुख का
विश्लेषण भी समझा जा सकता है । लेखक के मुताबिक संचार के नये माध्यमों के आगमन के
बाद भी प्रचार और मनोवैज्ञानिक युद्ध के पुराने तौर तरीके ही अपनाये जा रहे हैं ।
इस किताब में गोरों के कब्जे वाली मुख्य धारा की मीडिया में छायी हुई व्यावसायिक
पत्रकारिता की आलोचना की गयी है । उसकी ओर से प्रसारित इस झूठ को बहुधा अश्वेत व्यावसायिक
मीडिया भी दुहराती है । दस साल से लेखक इस झूठ के प्रचार और प्रभाव का अध्ययन कर
रहे हैं । सच के साथ इस प्रचार का मिलान करके उन्होंने भंडाफोड़ तो किया ही है, यह
भी कहा है कि ऐसा करके अश्वेत समुदाय की आर्थिक विषमता पर परदा डाला जाता है ।
किताब में अमेरिकी अर्थतंत्र की कार्यपद्धति और उसका लाभ उठाने वालों की असलियत
बयान की गयी है ।
2020 में सोर्स बुक्स से लायला एफ़ साद की किताब ‘मी ऐंड ह्वाइट
सुप्रीमेसी: कम्बैट रेसिज्म, चेंज द वर्ल्ड, ऐंड बीकम ए गुड एनसेस्टर’ का प्रकाशन
हुआ । लेखिका गोरी हैं और गोरों को नस्लवाद विरोधी प्रशिक्षण प्रदान करती हैं ।
प्रत्येक सत्र के अंत में गोरे पूछते हैं कि वे क्या करें । लेखिका का अपने पचीस
साल के अनुभव के आधार पर कहना है कि यह सवाल इमानदार सवाल नहीं होता । अधिकतर गोरे
जानना नहीं चाहते कि वे इस मामले में क्या करें । अक्सर यह मासूम सा लगने वाला
सवाल नस्ली भेदभाव से उपजी असहजता को कम करने के लिए ही पूछा जाता है ।
2020 में बीकन प्रेस से डैन सी गोल्डबर्ग की किताब ‘द गोल्डेन 13: हाउ
ब्लैक मेन वन द राइट टु वीयर नेवी गोल्ड’ का प्रकाशन हुआ । किताब में द्वितीय
विश्वयुद्ध में नौसेना में शामिल होने वाले अश्वेतों की बहादुरी की कहानियों को
सुनाया गया है । इस जिम्मेदारी से पहले वे तमाम छोटे समझे जाने वाले काम ही करते
रहे थे । कामों की यह व्यवस्था नस्लभेद पर आधारित थी । पहली बार उन्हें जंगी जहाज
पर काम करने का मौका मिला था । जर्मनी की लड़ाकू नावों ने इंग्लैंड में हथियार,
भोजन और ईंधन पहुंचाने की अमेरिकी कोशिशों को भारी धक्का पहुंचाया था । इन अश्वेत
नौ सैनिकों को इन्हीं नावों का मुकाबला करना था ।
2020 में हेमार्केट बुक्स से डेविड मैकनेली की किताब ‘ब्लड ऐंड मनी:
वार, स्लेवरी, फ़ाइनैन्स, ऐंड एम्पायर’ का प्रकाशन हुआ । आधुनिक पूंजीवाद को समझने
के लिए आलोचनात्मक धारणा के रूप में विश्व मुद्रा का अर्थ लगाने की प्रक्रिया में
इस किताब का जन्म हुआ । इसके साथ ही दासता और पूंजीवाद के उदय में भी रुचि पैदा
हुई । इस खोज में लेखक को अप्रत्याशित रास्तों पर यात्रा करनी पड़ी । ग्रीस और रोम
की प्राचीन दुनिया में सम्पत्ति और गुलामी की आपसदारी से लेकर आधुनिक काल के
युद्ध, गुलामी, वित्त और साम्राज्य के एक दूसरे से उलझे धागों तक को सुलझाना पड़ा
। इसके चलते हमारी दुनिया के निर्माण में
सम्पत्ति और सत्ता की अद्भुत ऐतिहासिक व्याख्या नजर आई । 2013 में किताब का ढांचा
पहली बार एक व्याख्यान के लिए तैयार हुआ था । इस किताब को लिखने में लेखक को कुछ
मजदूर संगठनों के साथ काम करने के अनुभव से भी लाभ हुआ । लेखक के अनुसार जब मुद्रा
की बात आती है तो प्रगतिशील विचारक भी श्रद्धाभाव से बच नहीं पाते । मुख्य धारा के
अर्थशास्त्र की आलोचना करते हुए भी मौद्रिक और वित्तीय व्यवस्था को वे मानव समाज
की सबसे बड़ी सांस्कृतिक और आर्थिक उपलब्धि घोषित करते हैं । वस्तुओं के विनिमय को
प्रोत्साहित करने के माध्यम की बजाए मुद्रा शक्ति संबंधों की तकनीक रही है । कहने
का तात्पर्य कि मुद्रा और वित्त, सामाजिक शक्ति संबंधों के साथ गुंथे रहे हैं और
उनका पुनरुत्पादन करते हैं । असल में कोई भी वस्तु इतिहास से बाहर नहीं है । बात
जब मुद्रा की आती है तो दिखाई पड़ता है कि गुलामों, सिपाहियों, उपनिवेशितों,
शोषितों और उत्पीड़ितों के खून में उसका पोर पोर डूबा हुआ है । मुद्रा प्रणाली की
तमाम विविधता के बावजूद यह चीज उसकी आत्मा है । किताब में यही बताया गया है कि
वित्त का इतिहास गुलामी, युद्ध और साम्राज्य के रास्ते में बहने वाले लहू में
लिपटा हुआ है । इसके लिए किताब में कुछ नये तर्क प्रस्तुत किये गये हैं । इसका
कारण यह है कि गुलामी प्रथा वाले अमेरिका तक में पूंजीवाद के इतिहास को लहू से
अलगाने की कोशिश की जाती रही है । इस छवि को पुख्ता करने के लिए हालिया वित्तीय
संकट की व्याख्या केवल वित्तीय साधनों के इर्द गिर्द की गयी मानो बंधक बाजार और
इंटरनेट के जरिए व्यापार का कोई रिश्ता पसीने की गंध में डूबे कारखानों, गोदामों
और कामगारों से एकदम न हो । ऐसा पेश किया जा रहा था मानो वित्तीय मुनाफ़े का स्रोत
कामगार की मेहनत न हो । इन जगहों और मेहनती श्रमिक को भूल जाना जड़ पूजा है । ऐसा
करना अमूर्त वित्तीय तकनीकों के साथ अभिन्न रूप से जुड़े मानव श्रम की अनदेखी करने
के बराबर है । इस मामले में यह किताब मौद्रिक और वित्तीय इतिहास को कामगार के
दैहिक श्रम के साथ जोड़कर देखती है । इसके लिए मार्क्स की अंतर्दृष्टि से मदद ली
गयी है । वे कहते हैं कि मुद्रा के पीछे कामगार का शरीर और उसकी पीड़ा मौजूद होते
हैं ।
2020 में प्रोमेथियस बुक्स से अलोन्द्रा आउब्रे की किताब ‘साइंस इन
ब्लैक ऐंड ह्वाइट: हाउ बायोलाजी ऐंड एनवायरनमेन्ट शेप आवर रेशियल डिवाइड’ का
प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि अमेरिका में नस्लभेद की समस्या से जुड़ी किसी भी
किस्म की बातचीत में उनकी दिलचस्पी रही है । इसके नाम समय के साथ बदलते रहे हैं ।
उन्नीसवीं सदी में आम तौर पर इसे ‘नीग्रो’ समस्या कहा जाता था । आज भी बहुतेरे
हलकों में दबी जुबान से ही सही कहा जाता है कि मनुष्यों की सभी नस्लें समान नहीं
होतीं । उनके रुझान और नियति में अंतर होता है । काले लोगों में अनेक मानसिक और
नैतिक विशेषताएं ऐसी होती हैं जिनसे उनकी सीमा निर्धारित होती है । जो लोग ऐसा
मानते हैं उनकी निगाह में नस्ल आधारित प्रवृत्तियों को बदला नहीं जा सकता, वे
सहजात और स्थिर होती हैं तथा उनमें बहुत रूपांतरण सम्भव नहीं होता । हालात सुधारने
के लिए पर्यावरण बदल देने से भी कोई अंतर नहीं आता । अश्वेत लोगों की बात आते ही
तरह तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिलती है । गोरों के साथ उनके सम्पर्क में
बढ़ोत्तरी के बावजूद जातीय या नस्ली विषमता के अंतर्निहित कारणों पर ही बात होती है
।
2020 में लिवराइट पब्लिशिंग से केरी जी ग्रिनिज की किताब ‘ब्लैक
रैडिकल: द लाइफ़ ऐंड टाइम्स आफ़ विलियम मुनरो ट्राटर’ का प्रकाशन हुआ । उनका जन्म
1872 में हुआ था । 1895 में हार्वर्ड से पढ़ाई पूरी हुई । 1901 में पहली बार
गार्जियन नामक साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया । प्रत्येक शनिवार की सुबह उसका
प्रकाशन होता था । बत्तीस साल बाद महामंदी ने उस अखबार की जान ले ली । इस गम में
1934 में उन्होंने आत्मघात कर लिया । उस दिन ही उनका बासठवां जन्मदिन था । बीसवीं
सदी के मोड़ पर उन्होंने अपने इस अखबार के जरिए क्रांतिकारी अश्वेत चेतना को
प्रसारित करने में सबसे अधिक योग दिया । उस समय के अखबार अश्वेत आंदोलन की खबरें
छापने में हिचकते थे । तब उन्होंने अश्वेत कामगारों को अपनी राजनीतिक क्षमता को
पहचानने में निर्णायक मदद की । अश्वेत कुलीनों की आलोचना में उन्हें रत्ती भर हिचक
नहीं होती थी न ही वे गोरे प्रभावी जनमत से घबराते थे । इसी तरह उन्होंने मुक्ति
और पुनर्निर्माण के समय के नागरिक अधिकार और नस्ली न्याय के वादों को पूरा करने के
लिए अश्वेतों को जूझना सिखाया । इस समय गुस्सा जाहिर करना जितना आसान हो गया है
उसमें याद करना मुश्किल है कि बीसवीं सदी के आरम्भ में अश्वेतों का गुस्सा जाहिर
करना स्वीकार्य नहीं था । दक्षिणी प्रांतों की भीड़हत्या, मताधिकार से वंचित करने,
पार्थक्य और आर्थिक हाशियाकरण के बारे में विक्षोभ जताना उचित नहीं माना जाता था ।
ड्यु बोइस उनके मित्र और समकालीन थे । बुकर टी वाशिंगटन भी मताधिकार से वंचित करने
और पार्थक्य के सवाल पर खामोश रहे थे । जीवन भर वे अश्वेत की धारणा का ही उपयोग
करते रहे क्योंकि इस समुदाय की समूची विविधता को किसी और तरह से व्यक्त करना
उन्हें मुश्किल लगता था ।
2019 में बीकन प्रेस से एंजेला सैनी की किताब ‘सुपीरियर: द रिटर्न आफ़ रेस साइंस’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका ने अपनी बात ब्रिटिश म्यूजियम से शुरू
की है । इस संग्रहालय में रखी वस्तुओं से दुनिया में ब्रिटेन की हैसियत का पता
चलता है । इस संग्रहालय के साथ ब्रिटेन के साम्राज्य विस्तार का प्रत्यक्ष संबंध
है । ब्रिटेन ने खुद को पुराने साम्राज्यों की तर्ज पर ढाला था । ग्रीक और रोमन
साम्राज्य की तरह का स्थापत्य ब्रिटेन में अपनाया गया । वही स्थापत्य बाद में
अमेरिका की खूबी बना । ब्रिटेन नामक यह छोटा सा द्वीप इतना ताकतवर बना कि धरती के
हरेक कोने से बहुमूल्य वस्तुओं को हथियाकर यहां तक ले आया था । यह संग्रहालय शक्ति
और सम्पदा का जीता जागता सबूत है । इसमें वस्तुओं के संग्रहित होने के साथ ही नस्ल
संबंधी यूरोपीय वैज्ञानिक सोच को भी आकार मिलना शुरू हुआ । 1795 में एक जर्मन
डाक्टर ने मनुष्यों को पांच किस्मों में बांटा था । उसमें भूगोल के आधार पर
प्रजातियों के विभाजन के सूत्र थे । 1997 में अमेरिका में कानूनन माना जाता था कि
यूरोप, मध्य पूर्व और उत्तरी अफ़्रीका में पैदा हुए मनुष्य अपने आप गोरे माने
जायेंगे । भूगोल और चमड़ी के रंग से आगे बढ़कर यह विभाजन सामाजिक मान्यताओं तक पहुंच
जाता है । इसमें यूरोपीय मूल के गोरे सबसे ऊपर की श्रेणी में गिने जाते हैं । वे
खुद को स्वाभाविक विजेता समझते थे और इसीलिए महान प्राचीन सभ्यताओं का वारिस मानते
थे । आज भी बहुतेरे लोग दुनिया में मौजूद असंतुलन और विषमताओं को प्राकृतिक मानते
हैं । उसी तरह यूरोपीय गोरों को अपनी अंतर्जात श्रेष्ठता में यकीन था । इसके चलते
वे दूसरे देशों और वहां के बाशिंदों पर कब्जा जमाना अपना प्राकृतिक अधिकार समझते
थे । उस जमाने का यह रुख आज भी गाहे ब गाहे पश्चिमी देशों में सुनने को मिल जाता
है ।
2019 में पालग्रेव मैकमिलन से जोहन्ना सी लुटरेल की किताब ‘ह्वाइट पीपुल ऐंड ब्लैक लाइव्स मैटर: इगनोरेन्स, एम्पैथी, ऐंड जस्टिस’ का प्रकाशन हुआ । नस्लभेद के सवाल पर न्याय हेतु अश्वेत लोगों के
नेतृत्व में होने वाले आंदोलनों के बारे में गोरों की प्रतिक्रिया की छानबीन इस
किताब में की गयी है । असल में गोरे लोगों की पहचान अपने बारे में उनकी खुद की राय
से नहीं तय होती । इसके लिए सार्वजनिक दुनिया में उनके संवाद पर गौर करने की जरूरत
होती है । इसका मकसद गोरेपन को परिभाषित करना नहीं, गोरों के भीतर अश्वेतों के
नेतृत्व में चलने वाले सामाजिक आंदोलनों के प्रति सम्मान पैदा करना है । अश्वेत
कार्यकर्ता समझते हैं कि गोरे लोग अपनी सहज मानवीय भावनाओं को रंगभेद संबंधी हिचक
के चलते कभी पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाते । गोरों की नैतिक निंदा करना लेखक का
मकसद नहीं है । उनका मकसद गोरों के भीतर की उस हिचक को समाप्त करना है जिसके चलते
उनकी मानवता का प्रस्फुटन नहीं होने पाता ।
2019 में पोलिटी से रूहा बेंजामिन की किताब ‘रेस आफ़्टर टेकनोलाजी:
एबोलीशनिस्ट टूल्स फ़ार द न्यू जिम कोड’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत लेखक की
बचपन की यादों से होती है । खेलने की उम्र में ही अश्वेत बच्चों को पुलिस पिटाई के
नजारे देखने पड़ते हैं । कभी घर की छत हिलाते हुए पुलिस के हेलिकाप्टर गुजरते तो
उनकी उपेक्षा कर दी जाती थी । लगातार लगता रहता है जैसे उन पर निगाह रखी जा रही हो
। समझा जाता है कि अन्य लोगों की सुरक्षा हेतु अश्वेत समुदाय की कड़ी निगरानी
अत्यंत जरूरी है । अब पुलिस की प्रत्यक्ष मौजूदगी या उनके हेलिकाप्टरों की धमक तो
नहीं सुनाई पड़ती लेकिन तकनीक के सहारे निगरानी की वही व्यवस्था बरकरार है । इसी
नयी व्यवस्था को लेखक ने नया जिम कोड कहा है । बताने की जरूरत नहीं कि अश्वेत
समुदाय के साथ भेदभाव संबंधी नियमों को जिम कोड कहा जाता है ।
2019 में रटलेज से मान्या सी ह्विटेकर और एरिक एन्थनी ग्रालमैन के
संपादन में ‘काउंटरनैरेटिव्स फ़्राम वीमेन आफ़ कलर एकेडमिक्स: ब्रेवरी,
वल्नरेबिलिटी, ऐंड रेजिस्टेन्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के साथ
किताब के तीन भागों में कुल बीस लेख संकलित हैं । पहले भाग में शिक्षा जगत की
रूढ़ियों के प्रतिरोध से जुड़े लेख हैं । दूसरे भाग में वैयक्तिक योग्यता के मुकाबले
सामूहिक प्रतिरोध के तर्क का विश्लेषण है । तीसरे भाग में अस्मिताजन्य प्रतिरोधों
की दास्तान सुनाई गई है । इनके अतिरिक्त वियांका सी विलियम्स का आमुख और अर्चना ए
पाठक का पश्चलेख शामिल किया गया है ।
2019 में प्लूटो प्रेस से बिल वी मुलेन की किताब ‘जेम्स बाल्डविन:
लिविंग इन फ़ायर’ का प्रकाशन हुआ । जेम्स बाल्डविन का जन्म न्यू यार्क की अश्वेत
बस्ती हार्लेम में 1924 में हुआ था । घर पर भयंकर गरीबी थी । अमेरिका के सट्टा
बाजार में मंदी चार साल बाद आई लेकिन उस अश्वेत बस्ती में तो मंदी स्थायी थी ।
पिता गुस्सैल स्वभाव के थे और बोतल में सोडा भरने के कारखाने में काम करते थे ।
गोरों से उन्हें प्रचंड नफ़रत थी । वेतन इतना कम मिलता कि नौ बच्चों का पेट भरना
मुश्किल हो जाता । बाल्डविन का जीवन इस नरक से येन केन प्रकारेण बाहर निकल आने की
कहानी है लेकिन उन दिनों की आंच को उन्होंने हमेशा बरकरार रखा । उनके छह उपन्यासों
में से पहले उपन्यास की अधिकतर घटनाओं के स्रोत हार्लेम के उनके अनुभव ही थे ।
चौबीस साल की उम्र में 1948 में उनका पहला महत्वपूर्ण लेख ‘द हार्लेम घेटो’
प्रकाशित हुआ । इसमें उन सामाजिक हालात की तीखी चीरफाड़ की गई है जिसमें उनके जैसे
बहुतेरे लोगों का जन्म हुआ था । वे जानते थे कि उन हालात से उनका बाहर निकलना
अपवाद ही था । लेखक के रूप में इसीलिए उन्होंने भोक्ता-योद्धा और गवाह की भूमिका
निभाने का संकल्प किया । वे अपने लेखन को अफ़्रीकी-अमेरिकी प्रतिरोध लेखन की लम्बी
परम्परा का अंग मानते थे जिसकी शुरुआत अमेरिकी दासता के वर्णनों से होती है जिनके
जरिए उस दुनिया से बाहर के पाठकों को उत्पीड़न और आर्थिक पराधीनता का अनुभव कराया
जाता था । इसे बाल्डविन सच बोलना या ‘शांतिभंग’ कहा करते थे । इसके जरिए उन्होंने
उत्पीड़न और उत्पीड़क को बर्दाश्त न करने और क्रोध को प्रतिरोध में बदल देने की
ऊर्जा अर्जित की । वे समलिंगी भी थे । इसने उनके बहिष्कार को द्विगुणित कर दिया था
। इस तथ्य का पता चलने पर उन्हें शर्मिंदगी का अनुभव हुआ था । 1948 में उनके पेरिस
प्रवास के पीछे रंगभेद और सेक्स संबंधी इन समस्याओं का भी हाथ था । उनके दूसरे
उपन्यास में फ़्रांस की पृष्ठभूमि में उनका समलिंगी जीवन व्यक्त हुआ है । उपन्यास
पर प्रतिबंध की धमकियों से वे थोड़ा परेशान भी रहे थे । ऐसा न होने के बावजूद उन पर
जो भी आरोप लगे उनमें समलिंगी दोषारोपण की हिंसक भाषा का लगातार इस्तेमाल हुआ ।
उनके उपन्यासों, नाटकों और लेखों की लोकप्रियता के बावजूद आर्थिक हालत कभी अच्छी
नहीं रही । इन सब मुश्किलों से हार मानने के मुकाबले उन्होंने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद
और उत्पीड़न के विरुद्ध अध्ययन तथा पूरी दुनिया के प्रतिरोधी आंदोलनों के साथ
संलग्नता और सृजन के बल पर जूझने की राह चुनी । 1961 में 37 साल की उम्र में
उन्होंने अपने प्रतिरोध को क्रांति का नाम दिया । यह कहना उनके लिए कोई खोखला शब्द
नहीं था । वे कम्युनिस्टों के सम्पर्क में रहे थे और अमेरिका की त्रात्सकीपंथी
राजनीति से उनका यह जुड़ाव गहरा था । फ़्रांस में रहते हुए उन्होंने अल्जीरियाई
क्रांति का समर्थन किया ।
2019 में वर्सो से डेविड आर रोडिजेर की किताब ‘हाउ रेस सर्वाइव्ड यू
एस हिस्ट्री: फ़्राम सेटलमेन्ट ऐंड स्लेवरी टु द एकलिप्स आफ़ पोस्ट-रेशियलिज्म’ के
पेपरबैक संस्करण का प्रकाशन हुआ । पहली बार यह किताब 2008 में छपी थी । लेखक का
कहना है कि जब उन्होंने इस किताब का पहला मसौदा तैयार किया उस समय राष्ट्रपति पद
के लिए ओबामा का दावा लगातार मजबूत हो रहा था । गोरे नौजवानों में उनकी लोकप्रियता
को देखकर लोगों को लगा कि बहुनस्ली यथार्थ के साथ वे सहज हो चुके हैं ।
2019 में बोल्ड टाइप बुक्स से पामेला न्यूकिर्क की किताब ‘डाइवर्सिटी,
इंक: द फ़ेल्ड प्रामिस आफ़ ए बिलियन-डालर बिजनेस’ का प्रकाशन हुआ । लेखक को
पत्रकारिता और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुछ करने की इच्छा थी । इन दोनों ही
क्षेत्रों में अश्वेत लोगों को बहुत कम जगह मिली हुई है । चार जगह नौकरी की जिनमें
से तीन जगहों पर अकेले अश्वेत पत्रकार थे । पत्रकारिता का अध्यापन करते हुए भी
बहुत कम अश्वेत अध्यापकों में शामिल रहे । तीस साल से विविधता के पक्ष में प्रचार,
अभियान आदि चलने के बाद भी अधिकतर उच्च अमेरिकी संस्थाओं में अश्वेत समुदाय की
भागीदारी नगण्य है । आबादी में नस्ली और नृजातीय अल्पसंख्यकों के चालीस फ़ीसद होने
के बावजूद उच्च शिक्षा के अध्यापन में उनका हिस्सा कुल सत्रह फ़ीसद ही है । मतलब कि
गोरों की कुल साठ फ़ीसद आबादी से बयासी फ़ीसद अध्यापक हैं ।
2019 में द यूनिवर्सिटी आफ़ नार्थ कैरोलाइना प्रेस से कीआंगा-यामात्ता
टेलर की किताब ‘रेस फ़ार प्राफ़िट: हाउ बैंक्स ऐंड द रीयल एस्टेट इंडस्ट्री
अंडरमाइंड ब्लैक होमओनरशिप’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि दूसरे विश्वयुद्ध
के बाद से अमेरिका में रहने के लिए आवास लोगों के लिए नागरिकता और लगाव की पहचान
बन चुका है । अफ़्रीकी अमेरिकी समुदाय के लिए तो यह बात विशेष रूप से लागू होती है
। इसका प्रतीक संपत्ति खरीदने का अधिकार है जिसके मुताबिक सभी अमेरिकी संपत्ति
खरीदने के हकदार घोषित किए गए हैं ।
2019 में वन वर्ल्ड से इब्राम एक्स केंडी की किताब ‘हाउ टु बी ऐन एन्टीरेसिस्ट’ का
प्रकाशन हुआ ।
2019 में बीकन प्रेस से अलेक्सांद्रा मिन्ना स्टर्न की किताब ‘प्राउड ब्वायेज ऐंड द ह्वाइट एथनोस्टेट: हाउ द
अल्ट-राइट इज वार्पिंग द अमेरिकन इमैजिनेशन’ का प्रकाशन हुआ
। किताब की भूमिका में लेखिका ने गोरे राष्ट्रवाद के नए और पुराने तत्वों की
छानबीन की है । लेखिका को ट्रम्प के राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी बनने के एक महीने
बाद ही शोध के सिलसिले में यूरोपीय गोरी श्रेष्ठता के प्रचारक प्रकाशन का पता चला
जिसने नस्ली सोच की बहुतेरी किताबें छाप रखी थीं । उनके लेखकों का मानना था कि
नस्ली शुद्धता के बल पर ही कोई सभ्यता ऊपर उठती या नीचे गिरती है । इसी तरह की सोच
के चलते अमेरिका में गोरी नस्ल की शुद्धता के लिए प्रवासियों की आमद का कोटा तय
किया जाता था और सीमा की पहरेदारी की जाती थी । इस किताब के लिखते समय लेखिका के
सामने सवाल उठा कि वर्तमान दक्षिणपंथी उभार में कितना नयापन है और कितना पुराना
तत्व है । जवाब पाने के लिए उन्होंने इंटरनेट पर मौजूद तमाम प्रचार सामग्री छान
मारी । इसी सामग्री के आधार पर उन्होंने ट्रम्प की जीत के बाद की दक्षिणपंथी
गोलबंदी के बारे में यह किताब लिखी है ।
2019 में विट्स यूनिवर्सिटी प्रेस से विश्वास सतगर के संपादन में
‘रेसिज्म आफ़्टर अपार्थाइड: चैलेन्जेज फ़ार मार्क्सिज्म ऐंड एन्टी-रेसिज्म’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की भूमिका और उपसंहार के
अतिरिक्त किताब के दस अध्याय दो भागों में संयोजित हैं । पहले भाग में समूची
दुनिया के नस्लवाद विरोध का बयान किया गया है । दूसरे भाग में दक्षिण अफ़्रीका के
नस्लवाद विरोध की कहानी कही गई है ।
2019 में बेसिक बुक्स से जोनाथन एम मेट्ज़्ल की किताब ‘डाइंग आफ़ ह्वाइटनेस: हाउ द पोलिटिक्स आफ़ रेशियल रिजेन्टमेन्ट इज किलिंग अमेरिका’ज हार्टलैंड’ का प्रकाशन हुआ ।
2019 में रटलेज से मिगुएल हर्नान्देज़ की किताब ‘द कू क्लक्स क्लान ऐंड
फ़्रीमेसनरी इन 1920ज अमेरिका: फ़ाइटिंग फ़्रेटर्निटीज’ का प्रकाशन हुआ । यह किताब
लेखक का शोध प्रबंध पर आधारित है । लेखक ने बताया कि 1921 में न्यू यार्क के पूर्व
न्यायाधीश से न्यू यार्क वर्ल्ड ने कू क्लक्स क्लान के बारे में अपने विचार लिख
भेजने का अनुरोध किया । वे मानते थे कि इसका देशीवाद अमेरिकी इतिहास और मूल्यों के
लिए नुकसानदेह है । उन्हें उम्मीद थी कि यह अस्थायी पागलपन की उपज है । वर्दी,
बिल्ला, मुखौटा, निशान, गुप्त बैठकों में शपथ जैसी चीजों के चलते इस संगठन के साथ
रहस्य जुड़ जाता था जिसके चलते नौजवान इसकी ओर आकर्षित होते थे । उन्हें किसी
अदृश्य साम्राज्य के साथ जुड़े होने का गर्व महसूस होता था । नस्ली एकता और आक्रामक
देशभक्ति को इन समारोहों के सहारे भव्यता प्रदान की जाती थी ताकि इसके सदस्यों को
किसी बड़े लक्ष्य का अनुभव होता रहे । वे अपने आपको 1866 के मूल संगठन का पुनरावतार
समझते थे । दासता विरोधी गृहयुद्ध के बाद की पुनर्रचना के दौर में वह संगठन सक्रिय
रहा था । इसके प्रशंसक अमेरिकी समाज में बहुतेरे लोग थे ।
2019 में हेमार्केट बुक्स से फ़्लिंट टेलर की किताब ‘द टार्चर मशीन:
रेसिज्म ऐंड पुलिस वायलेन्स इन शिकागो’ का प्रकाशन हुआ । अमेरिकी राज्य अब भी
नस्लवादी है । इसका सबसे बड़ा सबूत पुलिस की हिंसा है । लेखक युवा वकील हैं और
ब्लैक पैंथर के पुराने लोग इनकी संस्था के स्थायी मुवक्किल हैं ।
2019 में बीकन प्रेस से फ़ेमिनिस्ता जोन्स की किताब ‘रीक्लेमिंग आवर स्पेस: हाउ ब्लैक फ़ेमिनिज्म इज चेंजिंग द वर्ल्ड फ़्राम द ट्वीट्स टु द स्ट्रीट्स’ का प्रकाशन हुआ ।
2019 में डब्ल्यू डबल्यू नार्टन & कंपनी से स्टीव लुक्जेनबर्ग की किताब ‘सेपरेट: द
स्टोरी आफ़ प्लेसी वर्सस फ़र्गुसन, ऐंड अमेरिका’ज जर्नी फ़्राम स्लेवरी टु सेग्रेगेशन’ का प्रकाशन
हुआ । घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर लौटते हुए लेखक को रोज सार्वजनिक वाहन से यात्रा
करनी पड़ती थी । यात्रा में अगर आपके पास सही टिकट होता तो आप कहीं भी बैठने के लिए
स्वतंत्र हैं । रोज के इस अनुभव के आधार पर उन्होंने उन्नीसवीं सदी के उस अमेरिका
की कल्पना करने का प्रयास किया है जिसमें चमड़ी के रंग के आधार पर लोगों को अलग अलग
डब्बों में बैठना पड़ता था । इसके लिए उन्होंने उस समय की भाषा में लिखा है । यह
भाषा उन्हें आम लोगों के तत्कालीन पत्रों, डायरियों, दस्तावेजों, अखबारों और संस्मरणों में प्राप्त हुई ।
इस भेदभावपरक भाषा के इस्तेमाल के लिए लेखक ने माफी मांग ली है । उनके मुताबिक इसे
छोड़ देने से बेहतर है अपने अतीत को बेलौस देखकर उससे सीखना ।
2019 में द यूनिवर्सिटी आफ़ जार्जिया प्रेस से लेस्ली एम हैरिस, जेम्स टी कैम्पबेल और अलफ़्रेड एल ब्राफी के संपादन में ‘स्लेवरी ऐंड द यूनिवर्सिटी: हिस्ट्रीज ऐंड लीगेसीज’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और एवेलिन ब्रूक्स हिगिनबाथम के उपसंहार के अतिरिक्त किताब के सोलह अध्याय दो भागों में संयोजित हैं । पहले भाग में गुलामी के समर्थन और विरोध में चिंतन और कर्म का विश्लेषण करने वाले दस अध्याय हैं । दूसरे भाग के छह अध्यायों में विश्वविद्यालयों में गुलामी के स्मरण और विस्मरण पर विचार किया गया है । किताब में शामिल अधिकतर लेख 2011 में इसी विषय पर आयोजित तीन दिनों
की संगोष्ठी में पढ़े गए पर्चों के आधार पर तैयार किए गए हैं । उन दिनों में अलग
अलग संस्थाओं में इस विषय पर काम करने वाले अध्येताओं ने अपने हर्ष, जीत और निराशा पर विचार किया था ।
उत्तरी कैरोलाइना विश्वविद्यालय के मुख्य चौराहे पर दक्षिणी अमेरिका
के प्रांतों की मुक्ति के लिए लड़ने वाले योद्धाओं हेतु समर्पित एक मूर्ति लगी है
क्योंकि उनमें चालीस प्रतिशत योद्धा इसी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे । बीसवीं
सदी के पहले दशक में अनगिनत शिक्षा संस्थानों में इस तरह के स्मारक बनाए गए । इस
तरह अमेरिकी गृहयुद्ध को न केवल लड़ाई के मैदान में बल्कि शिक्षा जगत में भी यादगार
घटना समझा गया । यह गृहयुद्ध तो गौरवगाथा में शामिल हुआ लेकिन इससे जुड़ी गुलामी को
उतनी जगह प्राप्त नहीं हुई । हाल के दिनों में एक और स्मारक उसी जगह पर बनाया गया
है । यह स्मारक इस प्रांत के गुमनाम संस्थापकों की याद में निर्मित है । इस स्मारक
के निर्माण के साथ ही पुस्तकालय की ओर से गुलामी और विश्वविद्यालय का निर्माण नामक
प्रदर्शनी भी आयोजित की गई जिसमें विश्वविद्यालय के साथ गुलामी के रिश्तों को
उजागर किया गया था । दोनों स्मारक एक ही जगह पर होने के बावजूद अलग मूल्यों का
प्रतिनिधित्व करते हैं । विश्वविद्यालयों के साथ गुलामी के रिश्तों को लेकर इस समय
काफी बहसें हो रही हैं । अधिकतर विश्वविद्यालय अपने अतीत के उन पन्नों को खोलकर
देख रहे हैं जिनमें या तो गुलामों के मालिकान उनकी स्थापना से जुड़े थे या इनके
प्रमुख लोग गुलामी के समर्थक रहे थे ।
2018 में यूनिवर्सिटी प्रेस आफ़ केंटकी से निक ब्रोमेल के संपादन में ‘ए पोलिटिकल कम्पैनियन टु डब्ल्यू ई बी ड्यु बोइस’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में शामिल ग्यारह लेख चार भागों में बंटे हुए हैं । पहले भाग में उनके राजनीति दर्शन का, दूसरे में राजनीति और कविता का, तीसरे भाग में ज्ञात और कल्पना का और अंतिम चौथे भाग में अश्वेत राजनीति की चुनौतियों का जिक्र है ।
2018 में लुआथ प्रेस से नील डेविडसन, मिन्ना लिनपा, मौरीन मैकब्राइड
और सतनाम विर्डी के संपादन में ‘नो प्रोब्लेम हेयर: अंडरस्टैंडिंग रेसिज्म इन
स्काटलैंड’ का प्रकाशन हुआ । नील डेविडसन और सतनाम विर्डी की लिखी प्रस्तावना और
मिन्ना तथा मैकब्राइड के उपसंहार के अतिरिक्त किताब के ग्यारह अध्याय तीन भागों
में बंटे हुए हैं । पहले भाग के अध्याय ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ऐतिहासिक विरासत
की चर्चा करते हैं । दूसरे भाग में आयरलैंड विरोधी नस्लवाद और संकीर्णता का विवेचन
है । तीसरे भाग में समकालीन नस्लवाद, नस्लवाद विरोध और नीतियों की छानबीन की गयी
है ।
2018 में हेमार्केट बुक्स से पाल एम हाइडमैन के संपादन
में ‘क्लास स्ट्रगल ऐंड द कलर लाइन: अमेरिकन सोशलिज्म ऐंड द रेस क्वेश्चन 1900-1930’ का प्रकाशन हुआ । ड्यु बोइस ने 1913 में ही कहा था कि नस्ल का सवाल अमेरिकी समाजवाद की
कसौटी है । बाद के समाजवादी भी उनसे सहमत होने के कारण वामपंथी रणनीति के केंद्र
में नस्लवाद विरोधी संघर्ष को जगह देते रहे । तबसे लेकर अब तक क्रांतिकारी लोग
अमेरिकी समाज के पुनर्निर्माण में नस्ली उत्पीड़न के विरुद्ध अश्वेत अमेरिकी जनता
के संघर्ष को बहुत ही जरूरी मानते रहे हैं । साथ ही इस बात पर भी लगभग सर्व सहमति
रही है कि 1930 से पहले अमेरिकी क्रांतिकारी ड्यु बोइस की परीक्षा में खरे नहीं
उतर सके थे । इसी समय से कम्युनिस्ट पार्टी ने अश्वेत समुदाय को नस्ली उत्पीड़न के
विरुद्ध संगठित करने का काम शुरू किया था । इससे पहले के वामपंथ पर वर्ग अपघटन का
शिकार रहने और अश्वेत अमेरिकी जनगण की समस्याओं की आम तौर पर उपेक्षा करने का आरोप
लगाया जाता रहा है । इस आरोप का जवाब देने के लिए यह किताब तैयार की गई है । इसके
लिए लेखक ने नेताओं के लेखों का पांच भागों में संग्रह किया है । पहले भाग में
सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं के, दूसरे भाग में दुनिया के औद्योगिक मजदूरों के रूप
में उनकी समस्या से जुड़े लेख, तीसरे भाग में वामपंथी पत्रिका ‘मेसेंजर’ तो चौथे
भाग में ‘द क्रूसेडर’ में प्रकाशित लेख तथा आखिरी भाग में कम्युनिस्ट पार्टी के
दस्तावेजों और नेताओं को शामिल किया गया है ।
2018 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से अविदित आचार्य, मैथ्यू ब्लैकवेल और माया सेन की किताब ‘डीप रूट्स: हाउ स्लेवरी स्टिल शेप्स सदर्न पोलिटिक्स’ का प्रकाशन हुआ । यह किताब तीनों
अध्यापकों की आपसी बातचीत से पैदा हुई है । वे सोचते थे कि अमेरिका के दक्षिणी
प्रांत कनजर्वेटिव प्रभाव में क्यों बने हुए हैं । अमेरिका अन्य पश्चिमी
लोकतांत्रिक देशों के मुकाबले अधिक अनुदार क्यों नजर आता है । इस क्रम में बार बार
उनकी बातचीत इतिहास की ओर मुड़ जाती थी । वे इन प्रांतों की समकालीन राजनीति और इस
इलाके के दासता के अतीत के बीच रिश्ता तलाशने लगे । इस क्षेत्र की वर्तमान
राजनीतिक रुझान में अतीत की मौजूदगी के बारे में लेखकों ने तर्क विकसित करना शुरू
किया । धीरे धीरे उन्हें अपनी राय किताब के जरिए सामने रखने का भरोसा पैदा हुआ ।
इसे अंतिम रूप देने से पहले उन्होंने शोधपत्रों के जरिए अपनी बात बहस के लिए
प्रस्तुत की । इस शोध के लिए उन्होंने राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र, अश्वेत
अध्ययन, स्त्री अध्ययन, समाजशास्त्र और सांख्यिकी के विशेषज्ञों से बात की । इन सब
चीजों से राजनीतिक चुनाव में इतिहास की भूमिका पुष्ट ही हुई ।
2018 में डब्ल्यू डब्ल्यू नार्टन & कंपनी से माइकेल के हनी की
किताब ‘टु द प्रामिस्ड लैन्ड: मार्टिन लूथर किंग ऐंड द फ़ाइट फ़ार इकोनामिक जस्टिस’
का प्रकाशन हुआ । इसमें लेखक ने बताया है कि मार्टिन लूथर किंग और उनका संगठन 1957
से ही कानून के समक्ष समानता, एकीकरण और सबको मताधिकार के जरिए अमेरिका की आत्मा
को जगाने के लिए संघर्ष कर रहे थे । उनके मुताबिक 1964 के नागरिक अधिकार कानून और
1965 के मताधिकार कानून ने मुक्ति संघर्ष का पहला चरण पूरा किया । आर्थिक समानता
के दूसरे चरण की लड़ाई अब वे शुरू करना चाहते थे । इसका मकसद सबको सेहत, शिक्षा और
आवास के साथ बुनियादी आमदनी या सम्मानजनक रोजगार हासिल करना था । उन्होंने सभी
अमेरिकी लोगों के आर्थिक अधिकार संबंधी कानून का विस्तृत मसौदा भी तैयार किया था ।
मेम्फिस आने से पहले देश भर का हफ़्तों तक दौरा करके वे युद्ध हेतु आवंटित धन को
मानव जरूरतों हेतु आवंटित करने के लिए संसद पर दबाव बनाने के मकसद से बहुनस्ली
गठबंधन कायम करने की अपील करते रहे थे । इसे वे नस्लभेद, गरीबी और युद्ध की आपस
में जुड़ी बुराइयों से अमेरिका को मुक्त कराने की अंतिम कोशिश भी कहते थे । उन्हें
लग रहा था कि पिछले चार सालों से अमेरिकी शहरों में जारी विद्रोहों और वियतनाम
युद्ध में जन धन की अपार हानि के चलते नस्लभेद में बढ़ोत्तरी के साथ तानाशाह सरकार
की स्थापना का खतरा है । एक ओर वे अश्वेत समस्या को इतने व्यापक स्तर पर देख रहे
थे तो दूसरी ओर नस्लभेद के समर्थक सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें बदनाम करने पर तुला हुआ
था । उन्हें कम्युनिस्टों को प्रशिक्षण देने वाला कहा जाता था । तमाम नाज़ी और
कम्युनिस्ट विरोधी संगठन उनको कम्युनिस्ट आतंकी बताते थे । 1968 तक उनके घर और
होटल पर बम से हमला किया जा चुका था, जान लेने के इरादे से उन पर पत्थरबाजी हो
चुकी थी, सभाओं में हल्ला मचाकर बोलने से रोका जा चुका था और हत्या की धमकी तो
मिलती ही रहती थी । अहिंसा का उनका प्रचार अमेरिकी हिंसक हालात से मेल नहीं खाते थे
। नस्ली और आर्थिक न्याय हेतु समर्थन जुटाने के लिए यूनियनों को साथ लेने की उनकी
नीति का विरोध बड़े व्यवसायी करते थे । आज भले ही उनकी मूर्तिपूजा होती हो लेकिन
अपने जमाने में उन पर हमले किये जाते थे ।
2018 में यूनिवर्सिटी आफ़ कैरोलाइना प्रेस से बार्बरा रैन्सबी की महत्वपूर्ण
किताब ‘मेकिंग आल ब्लैक लाइव्स मैटर: रीइमैजिनिंग फ़्रीडम इन द ट्वेन्टी-फ़र्स्ट
सेन्चुरी’ का प्रकाशन हुआ । ेइस किताब में ब्लैक लाइव्स मैटर के नाम से चलने वाले
नस्ली न्याय और सामाजिक बदलाव के आंदोलन का जायजा लिया गया है । इसकी शुरुआत
अमेरिका में अश्वेतों के साथ होने वाली पुलिसिया हिंसा के चलते हुई । इस आंदोलन की
वैचारिक-राजनीतिक जड़ें अश्वेत नारीवाद की परम्परा में धंसी हुई हैं । इस वैचारिक
परम्परा में माना जाता है कि उत्पीड़न के सभी रूपों को आपस में जोड़कर देखा जाना
चाहिए क्योंकि इनका उदय एक ही तरह की सोच से होता है । इस आंदोलन के संस्थापकों का
परिचय देकर साबित किया गया है कि इससे जुड़े तमाम लोग पहले से जारी राजकीय हिंसा का
प्रतिरोध करने वालों के सच्चे वारिस हैं । ट्रेवयान मार्टिन की 2012 में हुई
पुलिसिया हत्या से शुरू यह आंदोलन 2014 में ही माइकेल ब्राउन की हत्या के बाद
संगठित अश्वेत प्रतिरोध में बदल गया । इसके बाद तो पूरी दुनिया में आधिकारिक और
वैकल्पिक माध्यमों के जरिये इसकी अनुगूंज पैदा हुई । इसके एक साल बाद ही पुलिस
थाने में बीस साला अश्वेत युवक की मौत ने नये जन उभार को जन्म दिया । इस दौरान
तमाम लेखकों और कार्यकर्ताओं ने व्यवस्था के नस्ली चरित्र के बारे में लिखा और
बोला ।
2018 में ज़ेड बुक्स से अज़ीज़त जानसन, रेमी जोसेफ-सैलिसबरी और बेथ
कामुंगे के संपादन में ‘द फ़ायर नाउ: एन्टी-रेसिस्ट स्कालरशिप इन टाइम्स आफ़
एक्सप्लिसिट रेशियल वायलेन्स’ का प्रकाशन हुआ । क्रिस्टिना शार्पे की भूमिका और
संपादकों की प्रस्तावना तथा जार्ज यान्सी के पश्चलेख के अतिरिक्त किताब में शामिल
तेइस लेखों को चार हिस्सों में बांटा गया है । पहला भाग शिक्षा जगत के रूपांतरण के
बारे में, दूसरा अंतरसामुदायिक पहचानों और अंतरसामुदायिक
संघर्षों के बारे में, तीसरा इतिहास की सीख और देशगत
सम्पर्कों के बारे में और अंतिम चौथा उत्पीड़न के नए रूपों की समझदारी के बारे में
है ।
2018 में रौमान & लिटिलफ़ील्ड से
एडुआर्डो बोनीला-सिल्वा की किताब ‘रेसिज्म विदाउट रेसिस्ट्स:
कलर-ब्लाइंड रेसिज्म ऐंड द परसिस्टेन्स आफ़ रेशियल इनइक्वलिटी इन अमेरिका’ का पांचवां संस्करण प्रकाशित हुआ । पहली बार 2003 में
छपने के बाद 2006 में दूसरा, 2010 में तीसरा और 2014 में
चौथा संस्करण छपा था । इसके लिए लेखक ने नई भूमिका भी लिखी है । असल में प्रत्येक
संस्करण के लिए भूमिका अलग से लिखी गई है । किताबों की सफलता के तीन कारण लेखक ने
गिनाए हैं- प्रकाशन का समय, किताब की राजनीति और संयोग ।
प्रकाशन के समय से जरूरत और रुचि तय होती है । लेखक की किताब जब पहली बार छपी तो
उस समय शिक्षा जगत में गोरों के नस्ली नजरिए के बारे में नई व्याख्या सुनने के लिए
लोग तैयार थे । प्रमुख मान्यता तो थी कि गोरे लोग बहुत सहनशील हो गए हैं और अतीत
की तरह नस्ल कोई प्रमुख समस्या नहीं रह गई है । ऐसे माहौल में जगह जगह नस्ली
भेदभाव की घटनाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता था । फिर इस किताब के आने से उन घटनाओं को
देखने का नया रुख पैदा हुआ । इसे कोई आधिकारिक चर्चा नहीं मिली लेकिन अनौपचारिक
आपसी सूचना के जरिए बिक्री बढ़नी शुरू हुई । पचास जगहों से किताब के बारे में बोलने
का निमंत्रण मिला । समय इसके अनुकूल बन गया था । इसके अतिरिक्त इस किताब की
राजनीति स्पष्ट थी । इसमें वर्तमान नस्ली व्यवस्था को जायज ठहराने की गोरों की
कोशिशों की बेहद जोरदार आलोचना की गई थी । समाज विज्ञान के मान्य बौद्धिक तो इसके
तर्कों से नाखुश थे लेकिन शिक्षार्थी खुश थे कि इस मामले को किसी ने इस तरह उठाया
तो । अब भी वे इसके लिए लेखक को बधाई संदेश भेजते रहते हैं । लेकिन कुछ विद्यार्थी
और विद्वान भी उन पर अमेरिका में नस्लवाद भड़काने का आरोप लगाते हैं । इसके साथ ही
लेखक की निजी सक्रियता से भी किताब को लाभ मिला । इराक युद्ध के विरोध में वे
सक्रिय संगठक रहे । समाजशास्त्र में अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षकों की कमी को लेकर
भी उन्होंने सवाल उठाए । इनका नुकसान भी झेलना पड़ा । उनकी किताबें प्रतिष्ठित
प्रकाशकों ने नहीं छापीं । लेख उत्तम पत्रिकाओं में जगह नहीं पा सके । पुरस्कार या
सम्मान भी नहीं मिले । इस किताब के प्रकाशक को किताब अच्छी लगी और संयोग से
उन्होंने इसे छापा । कुछ अन्य प्रकाशकों ने तो पांडुलिपि मंगाकर देखने के बाद लेखक
को नस्ली भेदभाव को खास तरह से समझने की सलाह दी थी । किताब में सर्वानुमति पर
सवाल उठाया गया था । लेखक का मानना है कि सभी समाजशास्त्रियों को सामाजिक बदलाव के
लिए लिखना चाहिए । इसके लिए आम समझ की धारा के विपरीत तैरना होता है । खूबसूरत
मुस्कान के परदे में कार्यरत शक्ति संरचना को उजागर करना होता है और सत्ता के
बरक्स सत्य का साथ देना होता है । दूसरे संस्करण के समय लेखक ने कुछ बदलाव किए हैं
। चूंकि किताब पाठ्यक्रम में शामिल हुई
इसलिए गम्भीर पाठकों के सम्भावित सवालों के जवाब का एक अध्याय लिखा गया है । इसके
अतिरिक्त किताब के लिए आंकड़ा जुटाने हेतु साक्षात्कार की जिस प्रश्नावली का उपयोग
किया गया था उसे भी शामिल कर लिया गया है । किताब के तर्क में एशियाई या लातिनी
जैसे अन्य अल्पसंख्यक समूह किस तरह शामिल हैं इसके लिए नस्लवाद की बहुस्तरीयता को
उभारा गया है । किताब के अंत में पश्चलेख के रूप में करणीय भी स्पष्ट करने का
प्रयास है । चौथे संस्करण की भूमिका में लेखक ने एक गीत में अश्वेत गायक द्वारा
प्रेमिका को एक बार फिर देखने की इच्छा का जिक्र करते हुए कहा है कि किताब में
वर्णित मसले को वे पाठकों के लिए एक बार फिर दुहराना चाहते हैं । इसका एक कारण तो
ओबामा परिघटना है । 2012 में दूसरी बार निर्वाचित होने के बाद तो उन्हें
चामत्कारिक हैसियत मिल गई है । तीसरे संस्करण में लेखक ने उनके निर्वाचन को
चमत्कार नहीं माना था । दूसरा कारण अमेरिका में अल्पसंख्यक विरोधी क्रूर भाव और
आचरण के साथ ही नस्ली भेदभाव की मौजूदगी से आंख मूंदे रहने की प्रवृत्ति का बने
रहना है । पांचवें संस्करण की भूमिका की शुरुआत ही ट्रम्प के निर्वाचन के जिक्र से होती है । सही है कि ट्रम्प ने चुनाव प्रचार के दौरान गोरी नस्लीयता के समर्थक व्यक्तियों और संगठनों को गोलबंद किया । लातिनी लोगों के विरुद्ध भावनाएं भड़काईं और मुस्लिम समुदाय पर प्रतिबंध लगाने का पक्ष लिया । व्यक्तिगत रूप से भी उन पर दो बार काले लोगों के साथ भेदभाव करने का आरोप लग चुका है । उनके पिता ने भी अपनी युवावस्था में गोरा राज की समर्थक जुटानों में भाग लिया था । अब नस्ली भेदभाव की सचाई से आंख नहीं चुराई जा रही, बल्कि उसके पक्ष में बयान जारी किए जा रहे हैं । इसके बावजूद लेखक का कहना है कि विचारधारा के रूप में नस्ल से आंख चुराने की प्रवृत्ति ही प्रबल बनी हुई है । ट्रम्प के चलते कुछ बुनियादी बातें उजागर हो गईं । पहली कि शुद्ध नस्ली शासन जैसी कोई चीज नहीं होती । उसे दमन के विविध तरीकों को आजमाना पड़ता है । अश्वेतों के साथ अमानवीय भेदभाव के कानून कभी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुए । गोरों के बीच उनकी विचारधारा के मानने वाले कुछ लोग देश के विभिन्न हिस्सों में हमेशा मौजूद रहे हैं । दूसरी कि नस्ली शासन हमेशा एक ही स्तर पर कायम नहीं रह सकता । उसमें भी अर्थतंत्र की तरह उतार चढ़ाव आते रहते हैं । ट्रम्प शासन में रीगन के दौर की वापसी हुई है जब रीगन ने खैरातजीवी जैसे अपने विवादास्पद बयानों के जरिए नस्ली अपराधियों को हरी झंडी दिखाई थी । तीसरी कि विचारधाराओं की अभिव्यक्ति भी हमेशा एक ही सुर में नहीं होती । पहले ही संस्करण में गोरे कामगारों और शिक्षित युवाओं की अभिव्यक्ति में अंतर चिन्हित किया गया था । इन सभी वजहों से लेखक का मानना है कि ट्रम्प के बावजूद अमेरिका में नस्ली निजाम की सही समझ के लिए नस्ल की मौजूदगी से इनकार की विचारधारा ही सही उपाय है । चुनाव प्रचार के दौरान ट्रम्प ने भी खुद को नस्ल विरोधी कहा था ।
2018 में प्लूटो प्रेस से डेविड आस्टिन के संपादन
में उनकी प्रस्तावना के साथ ‘मूविंग अगेंस्ट द सिस्टम: द 1968 कांग्रेस आफ़ ब्लैक राइटर्स ऐंड द
मेकिंग आफ़ ग्लोबल कांशसनेस’ का प्रकाशन हुआ । किताब में संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त पंद्रह
लेख शामिल किए गए हैं । संपादक का कहना है कि सम्मेलन में तमाम तबकों के लोग और
संगठन शामिल हुए थे । पचास साल ही बीते हैं लेकिन इन सालों में बहुत कुछ घटित हुआ
है । समय सापेक्ष होता है और उस समय के बहुत सारे सवाल आज भी हमारे दौर में जिंदा
हैं । सम्मेलन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की सबसे बड़ी अश्वेत अंतर्राष्ट्रीय जुटान
था । इसे वाम राजनीति के लिहाज से भी महत्व की जुटान समझा जाना चाहिए । उसकी
प्रासंगिकता आज और बढ़ गई है । इसलिए सम्मेलन के घटनाक्रम को आज के समाजार्थिक और
राजनीतिक हालात में फिर से देखना जरूरी लगता है । उस दशक की अनेक युगांतरकारी
घटनाओं का चरम 1968 में प्रकट हुआ । वियतनाम युद्ध और फ़्रांस की आम हड़ताल इस दशक
की ऐसी घटनाएं थीं जिनके साथ युद्ध विरोध और अश्वेत अस्मिता के सवाल भी जुड़ गए ।
पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया की घटनाओं ने इसे कम्यूनिस्ट खेमे तक विस्तारित किया ।
अफ़्रीकी देशों में भी उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों का उभार इस दशक में हुआ ।
मार्टिन लूथर किंग और केनेडी की हत्या इसी दशक में हुई । इन हत्याओं से अमेरिकी
लोकतंत्र का मुखौटा उतर गया । अश्वेत आंदोलन में क्रांतिकारी धारा का उत्थान हुआ
जिसका मंच ब्लैक पैंथर आंदोलन बना ।
2018 में बीकन प्रेस से रोबिन डिएंजेलो की किताब ‘ह्वाइट फ़्रेजिलिटी: ह्वाइ इट’स
सो हार्ड फ़ार ह्वाइट पीपुल टु टाक एबाउट रेसिज्म’ का प्रकाशन
हुआ । किताब की प्रस्तावना माइकेल एरिक डायसन ने लिखी है । उनका कहना है कि नस्ल
बेहद जटिल सचाई है । इसे अनेक तरीकों से देखना होगा । वह एक स्थिति है, एक बीमारी
है, चाल है, प्लेग है और पाप है । अमेरिकी इतिहास में नस्ल और नस्लवाद अश्वेत
समुदाय की समस्या समझे जाते रहे हैं । गोरापन स्थायी भाव रहा है । वह हमेशा
श्रेष्ठ रहा है । लेखक का कहना है कि गोरापन भी एक निर्मिति रही है । उसकी मौजूदगी
से इनकार करना ही उसकी सबसे बड़ी ताकत है । उसका अदृश्य होना उसके सर्वव्यापी होने
का सबूत है ।
2018 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से माइकेल जार्ज हैनशार्ड की
किताब ‘द स्पेक्टर आफ़ रेस: हाउ डिसक्रिमिनेशन हांट्स वेस्टर्न
डेमोक्रेसी’ का प्रकाशन हुआ । किताब राजनीतिक
अर्थशास्त्रियों के लिए तो लिखी ही गई है, नस्लवाद, संस्थाओं और आधुनिक राजनीति की
आपसदारी में रुचि रखने वाले आम पाठक भी इससे फायदा उठा सकते हैं ।
2018 में यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से मार्कुस एन्थनी हंटर
और ज़ांद्रिया एफ़ रोबिन्सन की किताब ‘चाकलेट
सिटीज: द ब्लैक मैप आफ़ अमेरिकन लाइफ़’ का प्रकाशन हुआ । किताब
सभी जगहों के काले लोगों को समर्पित है । लेखक का कहना है कि राजनीतिक वादों के
पूरा होने का इंतजार किए बिना अमेरिका के काले लोग शहरी इलाकों के विभिन्न अवसरों
पर काबिज होते जा रहे हैं । तरह तरह के वाद्ययंत्रों के जरिए वे सुर और संगीत के
रचयिता बन बैठे हैं । तमाम नगरों में उनकी मौजूदगी अनदेखी नहीं की जा सकती । इन
सभी नगरों में काले बौद्धिकों के साथ संस्कृति के सृजनकर्ता और जन सामान्य ने
मिलकर नये अमेरिकी यथार्थ का निर्माण किया है ।
2018 में द बेल्कनैप प्रेस आफ़ हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से टामी
शेल्बी और ब्रैन्डन एम टेरी के संपादन में ‘टु
शेप ए न्यू वर्ल्ड: एसेज आन द पोलिटिकल फिलासफी आफ़ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर’ का प्रकाशन हुआ । मार्टिन लूथर किंग की
हत्या की पचासवीं बरसी के अवसर पर इस किताब को तैयार किया गया है । संपादकों की
प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में शामिल पंद्रह लेख चार भागों में हैं । पहले भाग
के लेखों में किंग की पूर्व परम्पराओं की छानबीन की गई है । दूसरे भाग के लेखों
में उनके आदर्शों का विवेचन है । तीसरे भाग के लेख न्याय के सवाल को विभिन्न
संदर्भों में पेश करते हैं । चौथे भाग के लेखों में अंत:करण का प्रश्न उठाया गया
है । अंत में एक पश्चलेख में जोनाथन एल वाल्टन ने प्रेम के हथियार के बतौर
स्वाभिमान को समझने की कोशिश की है ।
2018 में रौमान & लिटिलफ़ील्ड से जार्ज यान्सी की किताब ‘बैकलैश: ह्वाट हैपेन्स ह्वेन वी टाक आनेस्टली एबाउट रेसिज्म इन अमेरिका’
का प्रकाशन कार्नेल वेस्ट की प्रस्तावना के साथ हुआ । इसमें उनका
कहना है कि यान्सी यूरोपीय और अमेरिकी दर्शन के क्षेत्र में विद्वत्ता के चलते
खासे सुपरिचित नाम हैं । इसके बावजूद ध्रुवीकरण को जन्म देने वाली नस्ल संबंधी बहस
में भाग लेने से भी परहेज नहीं करते । ट्रम्प शासन की नवफ़ासीवादी प्रवृत्तियों,
सभ्य सार्वजनिक बहस की समाप्ति और बाजार अर्थतंत्र के प्रशंसकों के
कारण श्वेत प्रतिक्रिया का जबर्दस्त उत्थान हुआ है ।
2018 में एमिस्टाड से ज़ोरा नील हर्स्टन की
डेबोरा जी प्लांट द्वारा संपादित किताब ‘बैराकून:
द स्टोरी आफ़ द लास्ट “ब्लैक कार्गो’’ का
प्रकाशन हुआ । इसकी प्रस्तावना एलिस वाकर ने लिखी है । बैराकून स्पेनी शब्द है जो
बैरक के लिए इस्तेमाल होता है । अफ़्रीका से यूरोप में बिक्री के लिए लाये जाने
वाले गुलामों को जहाज पर चढ़ाने से पहले समुद्र के किनारे रहने के लिए घेरकर बनायी गयी
जेलनुमा जगह को उस जमाने में बैरक कहा जाता था । इन जगहों पर ऊपरी मंजिल यूरोपीय
प्रशासकों की आवासीय व्यवस्था के लिए होता था जबकि तहखानों में अफ़्रीकी लोगों को
रखा जाता था । इन्हें अपहरण करके, स्थानीय लड़ाइयों में कैद करके या भीतरी इलाकों
से यूं ही पकड़कर ले आया जाता था । इन बैरकों में ही अधिकतर लोग मर जाते थे । ले
जाने वाली जहाज के आने में देरी होने से भी बहुतेरे लोगों की इंतजार में जान चली
जाती थी । जहाज के भरने में भी तीन से छह महीने लगते थे । लेखिका ने यह किताब
साक्षात्कारों के आधार पर लिखी है ।
2017 में
रटलेज से राबर्ट बी विलियम्स की किताब ‘द प्रिविलेजेज आफ़ वेल्थ: राइजिंग
इनइक्वलिटी ऐंड द ग्रोइंग रेशियल डिवाइड’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब को तैयार करने
में लेखक को अमेरिका के केंद्रीय बैंक की ओर से अमेरिकी परिवारों की संपत्ति
संबंधी आंकड़ों से बहुत मदद मिली है । लेखक का मनना है कि अमेरिका में लगभग सभी लोग
अमेरिकी सपने के आकर्षण में बंधे रहते हैं । देश के संस्थापकों ने सभी मनुष्यों की
समानता को स्वयं सिद्ध माना था । उन्होंने सबको जीने, स्वतंत्र रहने और खुशी
तलाशने का अनुल्लंघनीय अधिकार प्रदान किया गया था । इन सबके चलते अमेरिका को
अवसरों का मुल्क होने की ख्याति प्राप्त हुई और बेहतर जीवन की खोज में लाखों लोग
चुम्बक की तरह इस देश में खिंचे चले आये । पहली बार यहां आये लोगों के वंशजों में
आज भी उस अमेरिकी सपने का आकर्षण बना हुआ है । इसमें माना गया था कि जन्म या
हैसियत का ध्यान दिये बिना व्यक्ति की क्षमता के अनुरूप उसे जीवन को बेहतर बनाने
का अवसर मिलेगा । इसमें ऊपर की ओर गतिशीलता बने रहने का वादा था । शिक्षा या
व्यवसाय के सहारे यह गतिशीलता बनी रहनी थी । यह सुविधा सभी अमेरिका वासियों को
सुलभ होनी थी । जहां तक आम सुधार की बात है तो यह गतिशीलता आज भी बनी हुई है लेकिन
कुछ लोगों को इससे बाहर रखा गया है । मूलवासियों, अफ़्रीकी अमेरिकी समुदाय और
एशियाइयों तथा लातिनी लोगों को अवसर की इस समानता से बाहर रखा गया है । कुल मिलाकर
ये अवसर गोरों को ही अधिक प्राप्त रहे हैं । इस समय आर्थिक विषमता इस अमेरिकी सपने
के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरी है । अधिकाधिक मध्यवर्गीय परिवार नीचे की ओर
खिसकते जा रहे हैं । सेहत, घर और शिक्षा का खर्च बढ़ते जाना इसकी सबसे बड़ी वजह है ।
महामंदी की आशंका में डूबे हुए अमेरिकी जनता को उस सपने की मौजूदगी पर भरोसा नहीं
रह गया है । आर्थिक विषमता का नस्ली आयाम बहुत प्रत्यक्ष है ।
2017 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से क्रिस्टोफर जे लेब्रान की किताब ‘द मेकिंग आफ़ ब्लैक लाइव्स मैटर: ए ब्रीफ़ हिस्ट्री आफ़ ऐन आइडिया’ का प्रकाशन हुआ । बताने की जरूरत
नहीं कि यह नारा हालिया अश्वेत विद्रोहों का सबसे लोकप्रिय नारा साबित हुआ है ।
किताब लिखते हुए लेखक को उम्मीद है कि हालात बदलेंगे यद्यपि दिखाई से रहा है कि
जमीनी स्तर पर बदलाव बेहद कम और सुस्त है । कभी कभी तो हालात खराब होते भी नजर आ
रहे हैं । किताब की भूमिका लिखते हुए दो अश्वेत युवकों की पुलिसिया हत्या का
समाचार मिला । किताब में मृतकों की सूची में शामिल नाम निरंतर बढ़ते जा रहे हैं ।
दुखद है कि यह सूची सदियों की नहीं है । महज 2012 के बाद से पुलिस के हाथों मारे
गये अश्वेत युवकों की यह सूची पर्याप्त लम्बी है । इसकी शुरुआत फ़रवरी 2012 में
मार्टिन ट्रेवयान की हत्या से हुई थी ।
2017 में
वर्सो से अलेक्स एस विताले की किताब ‘द एन्ड आफ़ पुलिसिंग’ का प्रकाशन हुआ । लेखक
ने अश्वेत लोगों के साथ पुलिसिया हिंसा की हालिया बाढ़ के चलते यह किताब लिखी है ।
विभिन्न उदाहरणों के सहारे वे पुलिस में सुधार की जगह उसके उन्मूलन की वकालत करते
हैं । देखने में आया है कि बेघरों, वेश्याओं, नशेड़ियों, गिरोहों, सीमाई इलाकों या
आंदोलनों से निपटने के मामलों में पुलिस का रुख अक्सर नस्ली नजर आता है ।
इस सूची को
तैयार करना किसी काली नदी की यात्रा करने की तरह का अनुभव है । इतिहास और वर्तमान
से लेकर तमाम संस्थाओं की चीरफाड़ इनमें नजर आती है । जिसे सचमुच सर्वहारा कहा जा
सके ऐसी आबादी का यह महाकाव्यात्मक संघर्ष अत्यंत बहुमुखी है । कोई भी वैचारिक
घटाटोप उनकी यातना को लम्बे अरसे तक परदे में छिपाकर नहीं रख सकता । इसने दुनिया
के सबसे ताकतवर मुल्क होने का दावा करने वाले देश अमेरिका को अस्थिरता और विषमता
के स्थायी नमूने में बदल दिया है । आबादी के बड़े हिस्से के शरीर से लेकर आत्मा तक
यह विभाजन फैला हुआ है । सदियों तक फैले इस संघर्ष के परिचय से मनुष्य की कड़ियल
प्रकृति और उसकी अपराजेय जिजीविषा में भरोसा पैदा होता है ।
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