समूची मानवता को एक अभूतपूर्व अनुभव से गुजरना पड़ रहा है । कोई नहीं
जानता कि यह यातना कब समाप्त होगी । हमारी पीढ़ी के लोगों ने इस तरह की स्थिति का
कभी सामना नहीं किया था । अत्यंत निकट संबंधियों और परिचितों की मृत्यु के
समाचारों से लगभग सभी स्तब्ध हैं । जिसे सामाजिकता कहा जाता है उसके हरेक लक्षण पर
खतरा नजर आ रहा है । इतने लम्बे समय तक निरतंर भय का सामना शायद ही कभी किया गया
होगा ! रूसो के कहने से नहीं बल्कि मनुष्य वास्तव में सामाजिक प्राणी है । उसका
कोई काम ऐसा नहीं जिसे अकेले संपन्न किया जा सके ! प्रत्यक्ष मुलाकात और स्पर्श,
जैविकीय और भावनात्मक स्तर पर उसके जीवन और संवेदना के विकास के लिए आवश्यक होते
हैं । लगभग एक साल से इन पर बंदिश लगी हुई है । इस अभूतपूर्व संकट के सम्मुख मनुष्य
की मेधा ने मानो समर्पण कर दिया है । सामाजिक दूरी के मंत्र ने मनुष्य को इतना भारी अकेलापन दिया कि अवसाद और आत्मघात की दर में अभूतपूर्व बढ़त देखी गयी । बाहर की दुनिया के साथ हमारे सम्पर्क मानसिक सेहत के लिए आवश्यक होते हैं । केवल एक आत्मघात (सुशांत सिंह) की खबर छाई रही लेकिन ढेर सारे लोगों के लिए यह समय दीर्घ घुटन का रहा । स्त्रियों के लिए घर वैसे भी कैदखाने ही होते हैं । इस दौरान वे वास्तविक कैदखानों में बदल गये । कामगार पुरुषों और
स्त्रियों की कमाई बंद होने और घरों में उनकी निरंतर मौजूदगी के चलते तनाव के माहौल
में बढ़ोत्तरी देखी गयी ।
दुनिया के भविष्य के बारे में तमाम किस्म के भयावह अनुमानों की
बाढ़ आयी हुई है लेकिन उनके भीतर भी पुरानी दुश्मनियों को भुला देना सम्भव नहीं
दिखायी देता । यहां तक कि शासकों के अहंकार में भी रत्ती भर गिरावट नहीं आयी है
। आर्थिक गतिविधियों के लगभग पूरी तरह ठप होने के चलते कामगार आबादी को जो भी
नुकसान उठाना पड़ा हो, धनिकों के मुनाफ़े में कोई कमी नहीं आयी है । इस
महामारी के प्रसार की शुरुआत में ही युवल नोआ हरारी ने आशंकाओं को गिनाते हुए दो
मोर्चों पर टकराव के संकेत दिये । उनका कहना था कि महामारी के पहले से ही उग्र
राष्ट्रवाद का जो उत्थान जारी था, उसके बढ़ने के ही आसार हैं लेकिन इस तरह की वैश्विक
महामारी से घनिष्ठ अंतर्राष्ट्रीय सहकार के बिना निपटना सम्भव नहीं है । दूसरी बात
कि इस अवसर का लाभ सरकारों ने नागरिकों की कठोर निगरानी के उपकरण जुटाने के लिए
किया है लिहाजा निजता और निगरानी के मामले में भी आगामी दिनों में लड़ाई लड़नी होगी
। बहुतेरे लोगों का यह भी मानना था कि कोरोना के बाद की दुनिया वही होगी जिसके लिए इस समय प्रयास किया जायेगा ।
बहरहाल थोड़े दिनों
बाद ही शिक्षा के क्षेत्र में डिजिटल माध्यमों की आवक बिजली की रफ़्तार से हुई ।
शुरू में तो लगा कि इस आकस्मिक स्थिति के चलते ऐसा हो रहा है लेकिन धीरे धीरे
इसमें न्यस्त स्वार्थ भी प्रकट होने लगे । ध्यान दें कि पिछली कांग्रेसी सरकार के
ही समय से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में तमाम डिजिटल मंच तैयार हो गये थे । प्राथमिक स्तर पर अनौपचारिक शिक्षा की बातें होने लगी थीं । सांस्थानिक ढांचे या राजकीय जिम्मेदारी की जगह अस्थायी इंतजामों के हवाले शिक्षा की जा रही थी । इसे बड़ी आबादी तक शिक्षा पहुंचाने के नाम पर जायज भी ठहराया जा रहा था ।
स्कूल और कालेज में प्रत्यक्ष पढ़ाई बंद होते ही ज़ूम, गूगलमीट,
स्काइप और स्ट्रीमयार्ड जैसे मंचों ने सार्वजनिक संवाद की दुनिया को घेर लिया ।
शिक्षण संस्थाओं की ओर से संगोष्ठी की जगह पर वेबिनार कराने पर जोर डाला जाने लगा
। इसमें सुविधा के साथ आसानी महसूस होने लगी । लोगों के आने जाने और ठहरने की जहमत
से मुक्ति मिली । सरकारों को शिक्षण संस्थानों और शिक्षा के क्षेत्र में जो बुनियादी बदलाव करने थे उनके लिए कारपोरेट घरानों की ओर से लम्बे समय से दबाव बन रहा था । इस मामले में याद दिलाने की जरूरत नहीं कि कुछ ही समय पहले जियो विश्वविद्यालय को भारी सरकारी सहायता मुहैया करायी गयी थी और उसे नये किस्म के उच्च शिक्षा केंद्र के नवाचारी प्रयोग के रूप में प्रचारित किया गया था । इसका परिसर जमीन पर कहीं नहीं होना था । नवउदार पूंजीवाद के अनुरूप शिक्षा का पुनर्गठन होना था । इस महामारी ने उसके लिए होने वाली कोशिशों को तेज कर दिया । गम्भीर गोष्ठियों की जगह फ़ेसबुक लाइव ने ले ली । कार्यालयों के भी
खर्च में कमी आयी । तमाम कंपनियों ने वेतन में तो कटौती की ही, बिजली, पानी और
सफाई की लागत के साथ इंटरनेट का खर्च भी बचाया । इसके चलते उनकी आमदनी में इजाफ़ा
हुआ । घर से कार्यालयी काम करने की छूट के चलते काम की अवधि निश्चित नहीं रह गयी ।
अध्यापन और अध्ययन की डिजिटल व्यवस्था ने स्मार्टफोन और इंटरनेट के उपभोक्ताओं की
तादाद अचानक तेजी से बढ़ा दिया ।
दुनिया की तमाम सरकारों को मानवता की यह मुसीबत अवसर की तरह महसूस हुई
। विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगाने का बहुत अच्छा बहाना मिल गया । जनता की
जुटान से निपटने का मनचाहा मौका हाथ आया तो सरकारों ने बेशर्मी के साथ लोगों के
अधिकारों पर हमला शुरू कर दिया । महामारी के फूट पड़ने से पहले तमाम मुल्कों में
दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों का सत्ता पर कब्जा हुआ था । उनकी नीतियों के विरोध में
प्रदर्शनों का तांता लगा हुआ था । महामारी ने इन प्रदर्शनों पर एकाएक रोक लगा दी ।
तानाशाहों ने चैन की सांस ली और जन विरोधी फैसलों की झड़ी लगा दी । कारखानों पर ताले लगे तो सरकार ने श्रम कानूनों में पूंजी समर्थक सुधारों की झड़ी लगा दी ।
पूंजी और उसके शासन का अमानवीय चेहरा पूरी तरह नंगा हो गया । जहां कामगारों और गरीबों की हालत खस्ता हुई वहीं धन्नासेठों की आमदनी तेजी से बढ़ी । जनता के इस अपार संकट के दौरान उपभोक्ताओं को तरह तरह के सामान उपलब्ध कराने वाली अमेज़न नामक कंपनी के मालिक दुनिया के सबसे अमीर आदमी बन गये । साथ ही हमारे अपने देश में भी अमीरों की कतार में सबसे आगे खड़े अंबानी ने दुनिया के अमीरों की सूची में ऊपर की ओर छलांग लगाना शुरू किया । जो आर्थिक विषमता नवउदारवाद आर्थिकी के साथ तेज रफ़्तार से बढ़ रही थी उस पर इस संकट में रोक लगने की कौन कहे, नये पंख लग गये । लगभग सभी सरकारों ने जनता के स्वास्थ्य की चिंता करने की जगह हथियारों पर खर्च का पुराना रवैया जारी रखा । इस मौके का लाभ अमेरिका ने चीन को बदनाम करने के लिए तो हमारे देश में सरकार समर्थकों ने मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने के लिए किया । महामारी से शुरू में तो लोग सन्न रह गये लेकिन जल्दी ही तमाम तरह के अन्यायों के विरोध में उनका गुस्सा प्रकट होने लगा । अमेरिका में अश्वेतों की पुलिसिया हत्या का जो क्रम लम्बे दिनों से जारी था उसमें जार्ज फ़्लायड नामक अश्वेत की हत्या से विरोध का नया अध्याय शुरू हुआ । इस आंदोलन के दौरान पुलिस की व्यवस्था को सरकारी इमदाद समाप्त करने का बेहद क्रांतिकारी नारा सामने आया । बहुत हद तक इस आंदोलन ने अमेरिका में सत्ता परिवर्तन को अंजाम दिया । हाल के दिनों में अमेरिका के बाद हमारे ही देश का नाम आता रहा है । इस महामारी के मामले में भी सबसे आगे तो अमेरिका रहा लेकिन दूसरे ही नंबर पर हमारे देश का भी नाम गिनाया जाता रहा ।
जिस सनक के साथ पिछले छह सालों से तमाम सरकारी फैसलों का एलान रात में होने का चलन शुरू हुआ है उसी के अनुरूप चार घंटों की मुहलत देकर देशबंदी घोषित कर दी गयी । कामगारों के काम बंद हो चले । आमदनी का रास्ता खत्म होने और यातायात का कोई साधन मुहैया न होने से कुछ दिन लोग सहमे रहे फिर देश ने आजादी के बाद विस्थापन से मिलते जुलते दृश्य देखे । कामगारों की यह अकथनीय पीड़ा और हजारों किलोमीटर तक पैदल या साइकिल से उनके जाने की कहानियों को पूरी दुनिया ने देखा सुना । इस दुखदायी मंजर ने समाज में मौजूद तरह तरह की विषमताओं को उजागर कर दिया । जहां शासकों की सनक से जनता को तकलीफ हुई वहीं आम लोगों ने आगे आकर मदद का प्रतिमान कायम किया । इस महामारी ने हमारे भीतर की अच्छाइयों के साथ तमाम तरह की बुराइयों को भी प्रत्यक्ष कर दिया । जिस तरह जल के प्रदूषणमुक्त होते जाने से उसके भीतर तक साफ नजर आने लगा उसी तरह समाज के भीतर मौजूद सचाई खुलकर प्रकट होने लगी । हमें पता चला कि हमारे समाज में कितने प्रकार के काम होते हैं और वे सभी परस्पर किस तरह आश्रित हैं । सामान्य स्थिति में इसका बोध गहराई से नहीं हो पाता । उदाहरण के लिए आवाजाही पर रोक ने साधुओं के लिए भारी मुसीबत खड़ी कर दी । न तो मंदिरों में लोग आये न ही भिक्षा मांगने के लिए उनका निकलना सम्भव हुआ । रेल के बंद होने से कुली, चायवाले, बीड़ी या सिगरेट के विक्रेता और रिक्शाचालक बेकार हो गये । तमाम शहरों में वेश्याओं के सामने भुखमरी की नौबत आ गयी क्योंकि उनको ग्राहक मिलने बंद हो गये । इन सब चीजों और त्रासदियों
का जिक्र इस दौरान छपी किताबों में हुआ है ।
2020 में मंथली रिव्यू प्रेस से राब वैलेस की किताब ‘आन द ओरीजिन्स आफ़ कोविड-19: डेड एपिडेमोलाजिस्ट्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने खुद के कोरोना संक्रमण की कथा बताते हुए कहा कि चीन के एक शहर के चमगादड़ के फेफड़ों में साल भर पहले मौजूद जीवाणु चलकर अमेरिका के लोगों के फेफड़ों तक पहुंचा । असल में इस संचार में अमेरिकी समाज के नये रूप ने मदद की जिसमें हवाई अड्डे और भीड़ भरे बाजार धर्मकेंद्र की तरह हो गये हैं । बस अड्डे तो गरीबों
और मजदूरों की शरणगाह बनकर रह गये हैं । उनमें अधिकांश अश्वेत समुदाय के लोग नजर आते
हैं । लेखक बस से जलवायु और स्वास्थ्य संबंधी किसी सम्मेलन में शामिल होने गये थे ।
शायद वहीं उन्हें संक्रमण हुआ था । शुरू के बारह दिन सिरदर्द महसूस होता रहा । इसके
बावजूद वे कुछ लेख पूरा करने में लगे रहे । फिर सांस लेने में दिक्कत शुरू हुई तो मदद
और जांच कराने की जरूरत लगी । इसके बाद स्वास्थ्य की व्यवस्था के चरमराने की सचाई का
पता चला । खुद ही उन्होंने मास्क लगाना शुरू किया । संक्रामक बीमारियों का अध्ययन वे
बहुत समय से कर रहे थे । 2005 में बर्ड फ़्लू से शुरू रोगाणुओं की नयी नस्ल पर गहराई से नजर रखे हुए थे ।
इसके बाद एवियन फ़्लू ने मास्क खरीदने को मजबूर कर दिया था । सरकारों को भी इसका पता
था फिर भी वे निश्चिंत थीं । उनके विपरीत लेखक ने 2013 में जो
सावधानी बरती थी उसका लाभ उन्हें 2020 में मिला ।
2020 में रिफ़्यूज बुक्स से जेम्स पेरलाफ़ की किताब ‘कोविड-19 ऐंड द एजेन्डाज टु कम रेड-पिल्ड’ का प्रकाशन हुआ । किताब में कोरोना के बारे में बुनियादी बातें समझाई गयी हैं । किताब का शीर्षक मैट्रिक्स नामक फ़िल्म से लिया
गया है जिसमें लाल दवा से यथार्थ के दर्शन होते थे और नीली दवा से भ्रम की दुनिया
कायम रहती थी । वे 9/11 के हमले के बारे में लिखना चाहते थे लेकिन हालात को देखते
हुए कोरोना के बारे में लिखना पड़ा । उनका कहना है कि इस महामारी के बारे में पूरी
जानकारी किसी के पास नहीं है । पैंतीस साल तक पत्रकारिता और साथ ही पैंतालीस साल
तक नर्स का काम करने के बावजूद उनको अपनी अज्ञानता का बोध है । आश्चर्य कि बिल
गेट्स को दवा की दुनिया का कुछ भी पता न होने के बावजूद वे लोगों को इससे बचाव के
तरीके सुझा रहे हैं । लेखक को अपने अनुभव से मालूम था कि स्वस्थ लोगों को कैद करने
से कोई लाभ नहीं । अगर अलगाना है तो संक्रमित लोगों को अलगाना होगा ।
2020 में वर्सो से ग्रेस ब्लेकली की किताब ‘द कोरोना क्रैश: हाउ द पैन्डेमिक विल चेन्ज कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । पतली सी इस किताब में लेखक का कहना है कि
अंदाजा नहीं था कि इस साल पूंजीवाद नये दौर में प्रवेश करेगा । इस दौर में
सरकारों, बैंकों और बड़े कारपोरेट घरानों का लगभग एकीकरण हो चुका है । वित्तीकरण का
जो दौर था उसके अपने ही बोझ तले भहरा जाने से 2008 में आये संकट से ठहराव का दशक
बीता । अब महामारी के दौरान राजकीय एकाधिकारी पूंजीवाद का उभार आरम्भ हुआ है ।
मार्च के शुरू में महामारी की घोषणा के साथ लगा कि स्वास्थ्य के इस आपातकाल में
आर्थिक मोर्चे पर भारी मुसीबत आयेगी । मार्च के अंत तक वैश्विक अर्थतंत्र ठप पड़
गया था । लाकडाउन के चलते श्रम बाजार, उत्पादन, आमदनी और उपभोग पर तत्काल ही
प्रभाव पड़ा । सट्टा बाजार में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज की गयी । निवेशकों को महसूस
हुआ कि कारखानों की बंदी, सीमाओं पर रोक तथा उपभोग में गिरावट के चलते अर्थतंत्र
गहरी मंदी का शिकार होने जा रहा है । लेकिन फिर जून के आते आते लाकडाउन में ढील दी
गयी, सट्टा बाजार में भी उछाल देखी गयी और अर्थतंत्र में सुधार की आशा व्यक्त की
जाने लगी । सभी भयावह घटनाओं के समय ऐसी प्रतिक्रिया देखी जाती रही है । जब तक
इसका टीका नहीं आ जाता तब तक दीर्घकालीन सुधार की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती ।
बीमारी नये नये इलाकों को अपनी चपेट में लेती जा रही है । दक्षिणी गोलार्ध के
देशों में इसके प्रसार का समय यूरोपीय देशों के बाद आया । ये गरीब देश पहले ही
भारी कर्ज में डूबे हुए हैं । सरकारों को समझ ही नहीं आया कि वे कर्ज देने वालों
की सेवा करें या मरीजों के लिए वेंटीलेटर और चिकित्साकर्मियों के लिए सुरक्षा के
इंतजाम करें ।
यूरोप के देश महामारी के चलते पैदा होने वाले आर्थिक
संकट को अब तक टालने में कामयाब रहे हैं लेकिन खतरा सिर पर लगातार मंडरा रहा है ।
उपभोक्ताओं के कर्ज और क्रेडिट कार्ड के बकाये की वसूली को स्थगित रखने का उपाय
सरकारें कर रही हैं, छोटे व्यवसायियों के कर्ज की गारंटी दे रही हैं और कारपोरेट
को अकूत धन मुहैया करा रही हैं । उनका अनुमान है कि यह कर्ज वापस होगा । यदि यह
अनुमान गलत निकला तो मंदी की मार से बचना असम्भव हो जायेगा । इस सम्भावना का उत्तर
किसी के पास नहीं है । अधिक उम्मीद तो यही है कि पूर्व स्थिति के बहाल होने में
बरसों लग जायेंगे । इसकी वजह है कि जो महामारीजन्य संकट दिखायी दे रहा है वह बहुत
कुछ पहले से मौजूद था । दस सालों से अर्थव्यवस्था ठहराव में थी, कर्जों में इजाफ़ा
हो रहा था और विषमता तो सुरसा की भांति मुंह फैलाती जा रही थी । 2008 के वित्तीय
संकट के बाद से ही वेतन, उत्पादकता और निवेश में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो रही थी ।
साफ लग रहा था कि पूंजीवाद ने अपनी गति खो दी है । 2022 में मंदी की भविष्यवाणी
तमाम अर्थशास्त्री कर रहे थे । उसका आगमन थोड़ा जल्दी हो गया और तीव्रता भी आशा से
कुछ अधिक है ।
आर्थिक ठहराव, पापुलिज्म और जलवायु संकट से बचाने
के लिए पूंजीपति सरकारों से प्रार्थना कर रहे हैं । महामारी ने सरकारी हस्तक्षेप
की मांग तेज कर दी है । पूंजी और राजनीति का अप्रत्याशित सम्मिलन जनता को कष्ट से
उबारने के लिए नहीं बल्कि पूंजीवाद को खुद से ही बचाने के लिए हुआ है । इस
हस्तक्षेप का लाभ बड़े पूंजीपतियों, बड़े बैंकों और ताकतवर राजनीतिक स्वार्थों को
होने जा रहा है । इस महामारी के दौरान सत्तासीन दक्षिणपंथियों ने चाहा कि पत्रकार, नागरिक और स्वास्थ्यकर्मी सरकारी
बयानों को ही दुहरायें । सरकारी नीतियों पर सवाल उठाने पर कहा गया कि स्वास्थ्य आपदा
पर राजनीति हो रही है । सही बात है कि इस रोगाणु का जन्म प्राकृतिक दुर्घटना थी लेकिन
इसका संबंध अधिकतम मुनाफ़ा कमाने के लिए अपनाये उत्पादन के खतरनाक तरीकों से था । लेकिन
जहां तक इसके आर्थिक प्रभाव की बात है तो उस मामले में पर्याप्त राजनीति निहित है ।
सरकारें भरपूर कोशिश कर रही हैं कि इसका नुकसान अमीरों को न उठाना पड़े । इससे आधुनिक
पूंजीवाद की सच्ची प्रकृति का पता चलता है । इसने बता दिया कि व्यवसाय के निवेश से
जुड़े खतरों का भार समाज को उठाना होगा जबकि लाभ को निजी हाथों में सौंप दिया जायेगा
। निवेशकों को सुरक्षा दी गयी और जनता को उसकी कीमत चुकानी पड़ी । इन कदमों के चलते
ही सट्टा बाजार में हालिया उछाल आया है । इससे वित्त बाजार में फैली घबराहट पर पानी
के छींटे तो पड़ गये हैं लेकिन समस्या का समाधान नहीं हुआ है । कोरोना जनित संकट का
परिणाम मुट्ठी भर धन्नासेठों के हाथ में राजनीतिक और आर्थिक शक्ति के संकेंद्रण के
रूप में निकलने जा रहा है । जब यह संकट उतार पर आयेगा तो सबसे बड़ी चुनौती इस अवसर का
लाभ उठाकर सत्ता और संपत्ति पर नियंत्रण हासिल कर लेने वालों के हाथ से उसे वापस लेने
की होगी । इसका एकमात्र रास्ता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं
का आमूल लोकतंत्रीकरण है । इसके लिए सरकारी कंपनियों, केंद्रीय
बैंकों और स्थानीय तथा केंद्रीय प्रशासन के स्तर पर निर्णय की प्रक्रिया में मजदूरों,
उपभोक्ताओं और समुदायों को अधिकारसंपन्न्न बनाना होगा । इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय
प्रशासन में गरीब मुल्कों को उनका वाजिब हक देना होगा । अगर ऐसा न हुआ तो हमारी आंखों
के सामने पूंजीवाद लोकतंत्र को निगल जायेगा ।
2020 में द एम आइ टी प्रेस से जोशुआ गान्स की किताब ‘इकोनामिक्स इन द
एज आफ़ कोविड-19’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि जब कोरोना महामारी की खबर
आयी तो उन्हें समझ नहीं आया कि क्या करें । इस स्थिति में उन्होंने वही करने का
फैसला किया जो वे कर सकते थे और वह था उसके बारे में किताब लिखना । इस किताब में
उनकी कुल कोशिश आम पाठकों के सामने इस महामारी से पैदा होने वाले व्यापक आर्थिक
सवालों को पेश करने की है । इसमें उनके सामने दो बातें बाधा बनकर खड़ी हैं । पहली बात कि वे महामारी के विशेषज्ञ नहीं हैं । दूसरी बात कि बदलाव की गति तीव्र है । नीतियां तेजी से बदल रही हैं और उनके औचित्य को परखने का कोई उपाय नहीं है । कोशिश यह की गयी है कि शुरुआती महीनों की अफरातफरी के पार जो सवाल प्रासंगिक रहेंगे उन्हें देखा जाये । इसमें कुछ और
सामग्री जोड़कर उसे ‘द पैंडेमिक इनफ़ार्मेशन गैप: द ब्रूटल इकोनामिक्स आफ़ कोविड-19’
के नाम से छापा गया ।
2020 में पेंग्विन से मार्क होनिग्सबाम की किताब ‘द पैंडेमिक सेन्चुरी: ए हिस्ट्री आफ़ ग्लोबल कनटैजियन फ़्राम द स्पेनिश फ़्लू टु कोविड-19’ का प्रकाशन हुआ । लेखक
आयुर्विज्ञान के इतिहासकार हैं । उन्होंने बताया कि 1916 में गर्मी से राहत पाने
के लिए न्यू जर्सी के समुद्र तट पर लोग चले गये थे । माना जाता था कि समुद्री
शार्क मनुष्यों पर हमला नहीं करते । लोग निश्चिंत थे । विचित्र बात हुई कि समुद्र
में स्नान करने वाले चार लोगों पर शार्क ने हमला किया और उनमें से तीन की जान ले
ली । पहली नजर में पश्चिम अफ़्रीका की इबोला महामारी या ब्राजील की जिका महामारी से
इसका संबंध नहीं बैठा । लेकिन उनका आपसी संबंध यह है कि जिस तरह आदमखोर शार्क के बारे
में पहले से पता नहीं था उसी तरह संक्रामक बीमारियों के अधिकांश विशेषज्ञ भी 2014 में इबोला के फैलने का अंदाजा
नहीं लगा सके थे । अनजान जगह से इबोला के रोगाणु ने पहले सड़क के रास्ते शहरों तक और
फिर वायुमार्ग से यूरोप और अमेरिका तक की यात्रा की । इसी तरह 1997 में एवियन फ़्लू ने मुर्गियों की जान लेना शुरू कर दिया । इसके बाद
2003 में सार्स आया । इसके बाद 2009 में स्वाइन
फ़्लू फैला । इससे बहुत लोगों की जान नहीं गयी लेकिन भय तो काफी फैला ही । उन्नीसवीं
सदी में चिकित्सा विशेषज्ञ समझते थे कि संक्रामक बीमारियों को जन्म देने वाले सामाजिक
पर्यावरणिक हालात की जानकारी होने से महामारियों के बारे में पहले से पता चल सकता है
और फिर अफरातफरी की गुंजाइश खत्म हो जायेगी । सही बात है कि रोगाणुओं की जानकारी और
टीकों के विकास से पुरानी महामारियों का अंत हुआ । लेकिन फिर नयी बीमारियों का पता
चला । इसका नमूना पोलियो है । शार्कों के हमले से महीने भर पहले एक बस्ती में पोलियो
महामारी की तरह प्रकट हुआ । बच्चे अपंग होने लगे । उसके प्रसार को रोकने के लिए यात्राओं
पर बंदिशें लगायी गयीं । कारण यह संदेह था कि इसका भी प्रसार सांस के रास्ते हो रहा
है । तब इसे शुद्ध अमेरिकी महामारी समझा गया था लेकिन इससे पांच साल पहले स्वीडेन में
इस बीमारी का प्रसार हो चुका था । तब स्वीडेन के वैज्ञानिकों ने पता लगा लिया था कि
इसके रोगाणु आंत में रहते हैं और मल के जरिए इसका प्रसार होता है । इसके बावजूद उनके
शोध का लाभ नहीं उठाया गया । लेखक का कहना है कि इसी तरह अधिकांश महामारियों के संकेत
मौजूद होते हैं लेकिन उनके विकास की पारिस्थितिकीय वजहों की उपेक्षा करने से उनके प्रकट
होने और फैलने का रास्ता खुल जाता है ।
2020 में वर्सो से अंद्रीयास माल्म की किताब ‘कोरोना, क्लाइमेट,
क्रानिक इमर्जेन्सी: वार कम्युनिज्म इन द ट्वेन्टी-फ़र्स्ट सेन्चुरी’ का प्रकाशन
हुआ । लेखक का कहना है कि इस सदी के तीसरे दशक की शुरुआत भयंकर दुर्घटनाओं से हो रही है । आस्ट्रेलिया के जंगलों में जो आग लगी उसमें चौंतीस मनुष्य और करीब दस लाख जानवर जल गये । धुंआ अर्जेन्टिना तक जा पहुंचा और न्यूज़ीलैंड के पहाड़ों की बर्फ काली पड़ गयी । चीन में जंगली जानवर बेचने के बाजार से एक विषाणु पैदा हुआ और दुनिया भर में फैल गया । जिन व्यक्तियों को संक्रमण हुआ उनका चीन के अस्पतालों में तांता लग गया और उसी समय आस्ट्रेलिया की आग के चलते वहां का तापमान चालीस डिग्री से ऊपर चला गया । फ़रवरी की शुरुआत में कोरोना से पचास लोग प्रतिदिन मर रहे थे, मार्च के आरम्भ में मृतकों की यह संख्या सत्तर तक पहुंची तथा अप्रैल के शुरू में पाच हजार लोग रोज मरने लगे । दुनिया के 202 देशों में से 182 में संक्रमित लोगों की सूचना आयी । इसी बीच टिड्डियों का अश्रुतपूर्व विशाल झुंड पूर्वी और पश्चिमी अफ़्रीका की हरियाली को चाट गया । उनके झुंड से बादल जैसा बन गया और आकाश में कालिख पुत गयी । आम तौर पर वे रेगिस्तान में ही सिमटे रहते हैं । हाल के दिनों में उन रेगिस्तानों में अंधड़ और बारिश के चलते जो नमी पैदा हुई उसके चलते उनकी तादाद में इजाफ़ा हुआ । दसियों लाख लोगों का भोजन वे चाट गयीं । कहते हैं आफत अकेले कभी नहीं चलती । अप्रैल 2020 के आरम्भ में कोरोना संक्रमितों की संख्या दस लाख को पार कर गयी और मृतक पचास हजार हो चुके थे । लेनिन की भाषा में कहें तो दशकों का काम हफ़्तों में हो रहा था और इतिहास की गति बहुत तेज हो गयी थी । धरती का बुखार बढ़ने के साथ संक्रमितों का बुखार भी तेज हो रहा था । लग रहा है कि झोपड़पट्टियां समुद्री ज्वार में डूबेंगी और लोग न्यूमोनिया से मरेंगे । इसके बावजूद कोरोना के फैलते ही आश्वासन मिलने लगे कि हालात सामान्य होंगे क्योंकि यह बीमारी भीतर से नहीं बाहर से आयी प्रतीत होती थी । टीके के साथ इसके खात्मे का भरोसा दिया जाता रहा । इसको रोकने के सभी उपायों को अस्थायी कहा जाता रहा । सबको लग रहा है कि फिर से सड़कों पर भीड़ होगी, बिना मास्क पहने लोग दुकानों से खरीद फ़रोख्त कर सकेंगे । महामारी शुरू होने पर जिंदगी जहां ठहरी थी वहीं से फिर चल पड़ेगी । आकाश में हवाई जहाज उड़ेंगे और गोदामों में भरा हुआ माल धड़ल्ले से बिकना शुरू होगा । इस मामले में लेखक ने थोड़ा ठहरकर सोचने की अपील की है ।
2020 में वर्सो से डेबोरा चासमैन और जोशुआ कोहेन के संपादन में ‘द पोलिटिक्स आफ़ केयर: फ़्राम कोविद-19 टु ब्लैक लाइव्स मैटर’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में कोरोना और जार्ज फ़्लायड की हत्या के बाद के आंदोलन से जुड़े अठारह लेख संकलित हैं । विगत छह महीनों में इस महामारी ने हमारे निजी और सामाजिक जीवन को बदल डाला है । बोस्टन रिव्यू में महामारी तथा फ़्लायड की हत्या के बाद छपे बेहतरीन लेखों का संग्रह इस किताब में किया गया है ।
2020 में ओ आर बुक्स से माइक डेविस की किताब ‘द मोंस्टर इंटर्स:
कोविद-19, एवियन फ़्लू, ऐंड द प्लेग्स आफ़ कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने
बताया है कि इससे पहले उन्होंने एवियन फ़्लू के बारे में एक किताब लिखी थी लेकिन
उसकी सारी प्रतियों को खत्म कर दिया था ताकि उससे जुड़ी दुश्चिंता से निजात पा सकें
। इसके बावजूद किसी वैश्विक महामारी का संदेह दिमाग में बना रह गया था । इसी तरह
उनकी माता ने अपना भाई स्पेनी फ़्लू में खो दिया था और आज तक उनको बिसूरती रहती हैं
। आज सभी लोग अपने अपने घरों में कैद हैं क्योंकि दूर देश के चमगादड़ से उपजा
विषाणु दुनिया के एक महानगर में चला आया है । इसका आगमन बहुत अचरज की बात नहीं था
। इसके परिवार का सार्स नामक एक सदस्य 2003 में प्रकट हुआ था, 2012 में मेर्स नामक
एक और सदस्य सऊदी अरब में प्रकट हुआ था और उसने एक हजार लोगों की जान ली थी ।
वर्तमान कोरोना इससे पहले के इबोला और जीका से अधिक मारक साबित हो रहा है । इस
परिवार के अनेक सदस्य अभी प्रतीक्षारत हैं । राब वैलेस नामक रोगाणु विशेषज्ञ ने
बताया है कि फ़ास्ट फ़ूड के लिए बड़े पैमाने पर कारखानों की तर्ज पर मुर्गियों के
उत्पादन के चलते तमाम तरह के नये फ़्लू पैदा हो रहे हैं । इसको देखते हुए जरूरत है
कि इन सबसे सुरक्षा देने वाले टीके का विकास किया जाये लेकिन दवा निर्माता
कारपोरेट घरानों का मुनाफ़ा कम हो जाने की आशंका के चलते ऐसे किसी टीके के निर्माण
में उनकी रुचि दिखायी नहीं देती ।
2020 में हार्पर से डेविड फ़्रुम की किताब ‘ट्रम्पोकालिप्से:
रेस्टोरिंग अमेरिकन डेमोक्रेसी’ का प्रकाशन हुआ । सबसे पहले लेखक ने किताब लिखे
जाने की परिस्थिति का चित्रण किया है । लगभग घर में कैद रहकर उन्होंने किताब लिखी
है । देश और दुनिया महामारी की गिरफ़्त में है और डरावनी मंदी के बादल मंडरा रहे
हैं । महामारी तो ट्रम्प ने नहीं शुरू की लेकिन प्रत्येक कदम पर हालात को बुरा
बनाने की कोशिश उन्होंने जरूर की । महामारी से जूझने की सारी तैयारी को उन्होंने
पहले दिन से मटियामेट करना शुरू कर दिया । पद संभालते ही उन्होंने राष्ट्रपति
कार्यालय की महामारी इकाई को भंग कर दिया । बीमारी की परीक्षा करने की तकनीक को
लागू नहीं होने दिया । तीन महीने तक संकट की मौजूदगी से ही इनकार करते रहे ताकि
सट्टा बाजार और उनकी लोकप्रियता में गिरावट न आए । जब सचाई से जी चुराना सम्भव
नहीं रहा तो पहली चिंता उनको सट्टा बाजार की हुई । उसके बाद जुआघरों और होटलों को
खैरात बांटने का काम किया । उनकी यह आदत उनके अपने व्यावसायिक अतीत से पैदा हुई है
। व्यवसाय डूबने की हालत में उनकी पहली
चिंता कर्जदाताओं को एक दिन टालने की हुआ करती थी । यही रुख उन्होंने इस महामारी
में अपनाया । रोज कोई न कोई नौटंकी उन्होंने की ताकि उनके भक्त ताली पीटें और
सट्टा बाजार लुढ़कने न पाये । जो दस हफ़्ते उन्होंने
गंवा दिये उनमें उनके भक्तों ने तोते की तरह वही झूठ सोशल
मीडिया में दुहराये जिन्हें ट्रम्प ने सिरजा था । योजना तो
कुछ थी ही नहीं, बस रोज किसी तरह एक दिन काटना था । उन्होंने और उनके भक्तों ने
संकट को अवसर में बदलते हुए महामारी का डर फैलाने का आरोप विपक्ष पर लगाना शुरू
किया । तीन साल तक फलते फूलते अर्थतंत्र के लिए वाहवाही बटोरने के बाद चौथे साल के
संकटों की जिम्मेदारी लेने से उन्होंने इनकार कर दिया । जब मरीजों की तादाद बढ़ने
लगी और अर्थतंत्र गोते लगाने लगा तो उन्होंने भाग्य को कोसने की राह चुनी । इस
रोहागाहट को मीडिया ने जोर जोर से बजाना शुरू कर दिया । दोष देने के लिए उन्होंने
चीन, विपक्ष और मीडिया को निशाने पर लिया ।
2020 में वर्सो से जेसी किन्डिग, मार्क क्रोतोव और मार्को रोथ के
संपादन में ‘देयर इज नो आउटसाइड: कोविड-19 डिस्पैचेज’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की कहना है कि वैसे तो बहुत
लोगों के पास घर नहीं होता फिर भी जिनके पास था वे भी घरबंदी के इस समय खिड़की से
झांककर बाहर देखते रहे । बाहर चिड़ियों के साथ मास्क लगाये टहलते लोग, एम्बुलेन्स,
पेड़ के पत्ते, घूमते सिपाही, मातम मनाने वाले और थोड़ा आसमान आदि दिखायी देते थे । बेरोजगारी की दर और मरने वालों की संख्या के
जरिए भी बाहर झांकना चलता रहा । सोशल मीडिया, अफवाहें, खचाखच भरे अस्पताल, घरेलू
हिंसा की खबरें, भोजन के लिए दूरी बनाकर पंक्तिबद्ध खड़े लोग और हूटर तथा हार्न की
आवाजों से बाहर की दुनिया समझ आती थी । इन सभी दृश्यों को भीतर से ही देखना नहीं
हुआ । कई बार इनमें भागीदार भी होना पड़ता रहा । जो बाहर था वह कभी भी भीतर आ सकता
था । ये हालात कैदियों और बेघरों से लेकर मुसलमानों और शरणार्थियों तक बहुतेरे
लोगों के साथ रहे । इन सबके बारे में लिखे लेखों का संग्रह इस किताब में किया गया
है ।
2020 में ही कलकत्ता रिसर्च ग्रुप की ओर से रणवीर समद्दर के संपादन में ‘बार्डर्स आफ़ ऐन एपिडेमिक: कोविड-19 ऐंड माइग्रैन्ट वर्कर्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की
प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में कुल चौदह लेख संकलित हैं । इस किताब को जल्दी
जल्दी में तैयार किया गया । इसमें कुछ विचार, कुछ विश्लेषण और कुछ रिपोर्टें हैं ।
विश्व अर्थतंत्र पर इस महामारी के प्रभाव, दुनिया के पैमाने पर शक्ति संरचना का
पुनर्गठन, बीमारी के प्रसंग में नस्ल, जाति और लिंग के पहलू, उत्तर कोरोना काल की
नैतिकता तथा मजदूरों और खासकर प्रवासी मजदूरों के सवाल इसमें शामिल हुए हैं ।
कोरोना से पहले, कोरोना के दौरान और कोरोना के बाद का समय इन लेखों के संदर्भ में
प्रकट होता रहा है । तात्कालिकता के साथ ही इनमें दूरगामी परिप्रेक्ष्य भी नजर
आयेगा । इस महामारी के चलते अमेरिकी अर्थतंत्र और ताकत का कमजोर होना निश्चित है ।
किसी नयी व्यवस्था और अर्थतंत्र का अभी अनुमान ही लगाया जा सकता है ।
2020 में आइलैंड प्रेस से सैमुएल मायर्स और हावर्ड फ़्रुमकिन के संपादन
में ‘प्लैनेटरी हेल्थ: प्रोटेक्टिंग नेचर टु प्रोटेक्ट आवरसेल्व्स’ का प्रकाशन हुआ ।
किताब में भूमिका और पश्चलेख कोरोना के बारे में हैं । इनके अतिरिक्त किताब के
अठारह लेख चार भागों में हैं । पहले भाग के लेख विषय से जुड़ी बुनियादी बातों के
बारे में हैं । दूसरे भाग के लेख धरती के बाशिंदों की सेहत पर विचार करते हैं ।
तीसरे भाग के लेखों में खतरों से आगे अवसरों का विश्लेषण है । चौथे भाग में धरती
और उसके निवासियों की रक्षा के बारे में संकलित लेख हैं ।
2020 में लिटिल, ब्राउन स्पार्क से निकोलस ए क्रिस्टेकिस की किताब
‘अपोलो’ज ऐरो: द प्रोफ़ाउंड ऐंड एंड्योरिंग इम्पैक्ट आफ़ कोरोनावायरस आन द वे वी
लिव’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि ग्रीक देवताओं की उपस्थिति उनकी कल्पना
में बचपन से रही है । इन देवताओं में परस्पर विरोधी गुण मौजूद रहते हैं । अपोलो
चिकित्सक होने के साथ ही बीमारियों को लाने वाला भी है । ट्राय के युद्ध के दौरान
उसने चांदी के धनुष से ग्रीक लोगों पर प्लेग के वाण चलाये थे । इस समय के हालात के
बारे में सोचते हुए उन्हें अपोलो की याद आयी । उन्हें लगा कि कोरोना नया होने के
साथ प्राचीन भी है । चिकित्सा विज्ञान, संचार, तकनीक और सफाई के मामले में तमाम
उपलब्धियों के बावजूद यह महामारी उतना ही जानलेवा साबित हुई जितनी कोई अन्य
महामारी प्राचीन काल में हुई होती । मौत के समय कोई मौजूद नहीं होता, अंतिम
संस्कार की कौन कहे, गमी भी ठीक से नहीं हो पाती । जीविका के साधन बरबाद हो गये ।
शिक्षा को आधा अधूरे तरीके से चलाया जा रहा है । भोजन पाने के लिए लम्बी लम्बी
कतारें लगीं । भय, दुख और पीड़ा का प्रसार चतुर्दिक हुआ ।
2020 में वर्सो से डीन स्पेड की किताब ‘म्युचुअल एड: बिल्डिंग सोलिडेरिटी ड्युरिंग दिस क्राइसिस (ऐंड द नेक्स्ट)’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है
कि वर्तमान राजनीतिक स्थिति को आपातकाल कहा जाना चाहिए । कोरोना की महामारी और
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न दावानल, बाढ़ और तूफान जैसे संकटों के साथ ही नस्ली
अपराध, आप्रवासियों के साथ बर्बर व्यवहार, स्त्रियों के साथ घोर हिंसक आचरण और
संपदा के मामले में भयानक विषमता के चलते संसार भर में लोगों का जीना दूभर हो गया
है । सरकारी नीतियों से लोगों की तकलीफ में इजाफ़ा ही हो रहा है, संकटों के समक्ष
वे आंख मूंद लेती हैं और गारंटी करती हैं कि प्रदूषण, गरीबी, बीमारी और हिंसा का
शिकार आम लोग ही हों । ऐसे हालात में जन सामान्य को संसाधनों को साझा करने और
पड़ोसियों की मदद करने के नये नये तरीके खोजने पड़ रहे हैं । सामाजिक आंदोलनों के
साथ जुड़कर जब यह काम किया जाता है तो बदलाव की प्रक्रिया का आगाज होता है । सभी मजबूत
सामाजिक आंदोलनों का स्थायी काम इस तरह का सहकार होता है । इस समय तो इस सहकार का महत्व
बहुत अधिक है क्योंकि अप्रत्याशित खतरों के साथ ही गोलबंदी के अवसर भी उपस्थित हुए
हैं । तात्कालिक सरोकारों पर आधारित सामाजिक आंदोलनों को एकजुटता के नये रूप इसके चलते
प्राप्त हो रहे हैं । इसके आधार पर जीवन जीने के ऐसे तरीके खोजने में सुविधा होती है
जिसमें कष्ट को मिलकर आपस में बांटने और खुशहाल रहने का मौका मिले । वामपंथी सामाजिक
आंदोलनों को इस समय दुहरी चुनौती का सामना करना होगा । उन्हें जानलेवा परिस्थितियों
में जिंदा रहने के लिए लोगों को संगठित करना होगा । इसके साथ ही संकट के कारणों का
प्रतिरोध करने के लिए लाखों लोगों को गोलबंद करना होगा । इस गोलबंदी के आधार पर नये
लोगों को राजकीय दमन की संस्थाओं और दक्षिणपंथी समूहों का मुकाबला करने के लिए तैयार
किया जा सकता है । लोगों की जरूरतों को पूरा करने और उन्हें प्रतिरोध के लिए तैयार
करने की इस दुहरी जिम्मेदारी को निभाने के लिए बहुतेरे लोगों की भागीदारी की जरूरत
होगी । वर्तमान समय के हमारे इस काम से ही तय होगा कि हम मनोवांछित दुनिया का निर्माण
कर सकेंगे या संकट में डूबते चले जायेंगे ।
2020 में वर्सो से द केयर कलेक्टिव की किताब ‘द केयर मेनिफ़ेस्टो: द पोलिटिक्स आफ़ इंटरडिपेन्डेन्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का कहना है कि हमारी दुनिया में देखरेख
न करने का चलन है । कोरोना महामारी ने बस इस तथ्य को उजागर कर दिया है । यह सचाई
अमेरिका, ब्रिटेन और ब्राजील समेत अनेक देशों की है । इन देशों में आसन्न महामारी
के बारे में वास्तविक संकेतों की अनदेखी की गयी । उससे निपटने की तैयारी की जगह
अनाम शत्रुओं से लड़ने के लिए खरबों लगाकर युद्ध सामान खरीदे गये और अमीरों को लाभ
पहुंचाने के उपाय किये गये । इसके चलते स्वास्थ्य कर्मियों, बुजुर्गों, बेसहारा
गरीबों, कैदियों और बेरोजगारों के महामारी की चपेट में आने का खतरा बहुत बढ़ गया ।
उनकी सुरक्षा की सलाहों पर शासकों ने कान भी नहीं दिया । असल में इस महामारी के
आने से पहले से ही सेहत और देखरेख की सेवाओं को इतना महंगा कर दिया गया था कि
बुजुर्गों और विकलांगों के लिए उनका खर्च वहन कर पाना असम्भव हो चुका था । बेघर
लोगों की तादाद साल दर साल बढ़ती जा रही थी और स्कूलों में बच्चों की भूख की
शिकायतें आम हो चली थीं । दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय निगमों को अस्पतालों और देखरेख
केंद्रों के वित्तीकरण से अकूत मुनाफ़ा हो रहा था । स्वास्थ्य कर्मियों की सेवा
अस्थायी कर दी गयी थी और उन पर काम का बोझ लादा जा रहा था ।
2020 में रिसर्च यूनिट फ़ार पोलिटिकल इकोनामी के लिए थ्री
एसेज कलेक्टिव से ‘क्राइसिस ऐंड प्रीडेशन: इंडिया, कोविड-19, ऐंड ग्लोबल फ़ाइनैन्स’ का प्रकाशन हुआ । रजनी एक्स देसाई ने ब्लागों की शक्ल में इस किताब को तैयार किया है । असल में भारत का
कोरोना जनित लाकडाउन दुनिया भर में सबसे कठोर रहा । इसे भारत की बहुसंख्यक जनता के
विशाल अनौपचारिक श्रमिक समुदाय पर थोप दिया गया । इससे पैदा होने वाली दिक्कतों
में सरकारी मदद सबसे कम भारत में ही दी गयी । सवाल है कि सरकार को ऐसा करने से
आखिर किसने रोका था । बहुतेरे लोग इसका
कारण अर्थशास्त्र संबंधी सरकारी अज्ञान बताते हैं । लेकिन लेखक को इसकी वजह कुछ और
ही नजर आती है । विश्व वित्त बाजार की भारत के अर्थतंत्र पर मजबूत पकड़ है और उसके
चलते ही सरकारी खर्च में भारी अवरोध पैदा हो जाता है । इससे आर्थिक गतिविधियों के
ठप पड़ जाने की बात तो सभी जानते हैं लेकिन इस कंजूसी के चलते वित्तीय निवेशकों और
देश के चंद व्यवसायियों को भारी लाभ हुआ ।
इसी
समय एक पुरानी किताब की चर्चा हुई जो स्पेनी फ़्लू के बारे में लिखी गयी थी । 2017 में पब्लिकअफ़ेयर्स से लौरा स्पिने की किताब ‘पेल राइडर: द
स्पैनिश फ़्लू आफ़ 1918 ऐंड हाउ इट चेंज्ड द वर्ल्ड’ का प्रकाशन हुआ था । किताब के
मुताबिक प्रथम विश्वयुद्ध के तुरंत बाद यह बुखार समूचे यूरोप में फैला था और उस
समय डाक्टरों के लिए वह बुखार दु:स्वप्न की तरह था । इतिहासकारों के लिए भी उसके
बारे में लिखना पर्याप्त मुश्किल रहा है । 1918 के नवम्बर के शुरू में फ़्रांसिसी
अवां गार्द आंदोलन का एक अगुआ 38 साल की उम्र में स्पेनी बुखार से मर गया । चार
दिन बाद उसका अंतिम संस्कार हो सका । उस देहांत के बाद बीसवीं सदी के इस सबसे बड़े
जनसंहार को सामूहिक रूप से भुला दिया गया । संसार की एक तिहाई आबादी स्पेनी बुखार
से संक्रमित हुई थी । 4 मार्च 1918 को पहले मामले का पता चला था और दो साल बाद तक
उसका कहर जारी रहा था । प्रथम और दूसरे विश्वयुद्धों से अधिक लोग उसके चलते मरे थे
। मानव इतिहास में उतने बड़े पैमाने पर बहुत कम बार लोगों की मौत हुई है । इसके
बावजूद बीसवीं सदी के इतिहास में दोनों विश्वयुद्धों, कम्युनिज्म के उत्थान-पतन और
बहुत हुआ तो दुनिया के अनुपनिवेशीकरण का ही जिक्र आता है ।
स्पष्ट है कि मानवता ने इस भारी संकट का मुकाबला पागल तानाशाहों और पूंजीवाद की अमानुषिकता के बावजूद अपार धीरज के साथ किया । इस संकट ने सदा की तरह लोभ के मुकाबले सहयोग की बुनियादी मानव प्रकृति को उजागर किया । आश्चर्य नहीं कि इस दौर में क्यूबा जैसे छोटे से समाजवादी मुल्क के चिकित्सकों की बहादुरी को पूरी दुनिया ने सलाम किया । उत्तरी कोरिया और वियतनाम जैसे देशों ने इसी संसाधन के बल पर यूरोपीय देशों से भौतिक संपदा के मामले में पीछे रहते हुए भी इस महामारी से निपटने के मामले में अनुकरणीय तत्परता का परिचय दिया । इस नैतिक संसाधन के बल पर ही कोरोना के बाद के भविष्य में ऐसी दुनिया का निर्माण सम्भव है जिसमें नस्ल, लिंग और जाति के आधार पर भेदभाव के बिना बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं तक सबकी पहुंच बन सके । स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार, यातायात और मनोरंजन के क्षेत्र में ऐसी सर्वसुलभ सेवाओं की सुविधा पैदा करने का विराट दायित्व इस समय ने हमारे सामने उपस्थित कर दिया है ।
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