Saturday, May 30, 2020

आधुनिक भारत की मेधा के जाग्रत प्रतीक रामविलास शर्मा


       
                                                       
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी में स्नातकोत्तर की पढ़ाई करते हुए सबसे पहले रामविलास शर्मा के बारे में जानना शुरू किया तब वे बनारस में विश्वविद्यालय परिसर में ही रह रहे थे उनके यहां अक्सर जाने वालों में आनंद नारायण पांडे से मुलाकात होती रहती थी एक बार उनके साथ ही गया भी दिल्ली आने के बाद एम फिल में शोध प्रबंध के लिए विषय चुनने की प्रक्रिया में उनसे फोन पर बात हुई थी आनंद नारायण पांडे के साथ विकासपुरी गया भी एक बार अवधेश प्रधान के साथ भी मिलने जाना हुआ इन सब मुलाकातों से जो छाप मन पर पड़ी वह छल छंद से भरी हिंदी की दुनिया में एक नायाब संत की थी बाद के दिनों में कुछ और दोस्तों से उनके संस्मरण सुनकर इस छाप की पुष्टि हुई । दिल्ली विश्विद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यापक संजय कुमार का कहना था कि जब वे पहली बार मिले और उनकी एक किताब लेकर दस्तखत लेने के लिए बढ़ाया तो उन्होंनेपढ़ो, पढ़ो भारत संतानलिखकर दस्तखत किए । उनकी यही चिंता सभी पुरस्कारों को रख लेने और राशि को हिंदी के प्रचार प्रसार हेतु लौटा देने में व्यक्त होती है । पैसे के पीछे पागल हमारी दुनिया में उनका यह नैतिक बड़प्पन बहुत बल प्रदान करता था । असम विश्वविद्यालय में हिंदी अध्यापक कृष्णमोहन झा ने जब उन्हें अपनी कविता सुनाई तो उन्होंने कविता में चित्रण का महत्व समझाया । हाल के दिनों में उनके लेखन पर कुछ काम करने के लिए उनके पुत्र विजय जी से मिलना हुआ इस क्रम में भी उनके साथ बीते समय की यादें ताजा करने का मौका मिला
वर्तमान माहौल को देखते हुए अचरज की बात है कि रामविलास शर्मा हिंदी साहित्य के अध्यापक नहीं थे या किसी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर नहीं थे फिर भी हिंदी जगत से उन्हें बहिष्कृत करना संभव नहीं हुआ । हालांकि इसके कारण ही जीवन भर कुपढ़ लोग भी उनकी आलोचना निर्भय होकर करते रहे । उनकी इस स्थिति के कारण उनके जीवित रहते उनसे प्रतिस्पर्धा करने वाले लोगों के कुछ उत्साही शिष्यों ने पदोन्नति हेतु गुरु कृपा पाने के मकसद से रामविलास शर्मा को गाली देना अपना पेशा बना लिया था । अलग बात है कि उनके देहांत के बाद उन्हीं की धारणाओं को उधार लेकर बिना आत्मालोचना किए यही लोग किताब पर किताब लिखे छपाए जा रहे हैं । अब तो दो कौड़ी की किताब लिखकर प्रकाशकों की थोक खरीद के आश्वासन पर छपवाने और इसके सहारे अकादमिक योग्यता का दिखावा करने का उद्योग ही खुल गया है । रामविलास जी के जीवित रहते ऐसा करने वाले छाती फुलाकर नहीं चलते थे । हालांकि वे किसी सभा संगोष्ठी में नहीं जाते थे लेकिन उनकी मौजूदगी मात्र से हिंदी के वातावरण में गरिमा बनी हुई थी ।
शताब्दी वर्ष के दौरान उनके लिखे को विभिन्न प्रसंगों में उलटते पलटते उनके महत्व की पहचान गहरी होती गई वे भारत के स्वाधीनता आंदोलन के सभी महान साकारात्मक मूल्यों की साकार प्रतिमा थे अंग्रेजी के  अध्यापक होने के बावजूद उन्होंने प्रतिरोध के हथियार की तरह हिंदी में लिखना चुना और स्वाधीनता के इस खास पहलू को पैना किया तीसरी दुनिया के बुद्धिजीवी के लिए प्रतिरोध के इस रास्ते की उनकी मान्यता को न्गुगी वा थ्योंगो के लेखों के संग्रह पर लिखी उनकी प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है । थ्योंगो के लेखन की यात्रा अंग्रेजी से उनकी अपनी भाषा गिकियू की ओर हुई थी और वे इसे उपनिवेशित देशों के बौद्धिकों के लिए सही मानते थे । हिंदी में लेखन को रामविलास शर्मा ने उपनिवेशवाद विरोध की तरह अपनाया और जीवन भर निभाया । हिंदी में लेखन का निर्णय लेते हुए भी वे उग्र हिंदी भक्तों से हमेशा दूर रहे और हिंदी को संस्कृत की पुत्री बनाकर उसका लाभ लेने वालों का मुकाबला करते हुए हिंदी को जनजीवन से जोड़े रखा । उनके भाषा चिंतन में निहित साम्राज्यवाद विरोध भारत की भाषा समस्या की उनकी समझ की कुंजी है । भारत के बारे में औपनिवेशिक भाषा चिंतन की प्रमुख विशेषता भाषा परिवारों की नस्ली धारणा है । रामविलास जी ने समूचे भारत की भाषाई एकता को पहचानने के सूत्र उपलब्ध कराए । भारत देश को एक भाषाई परिक्षेत्र मानकर ही भारतीय भाषाओं की वाक्य संरचना की समानता को समझा जा सकता है ।पानी वानीजैसे शब्द युग्म भी भारतीय भाषाओं की साझी विशेषता है । हिंदी में साहित्य के विवेचन से शुरू करके वे उसे ज्ञान की अभिव्यक्ति में सक्षम बनाने की हद तक ले गए । इस भाषा में उन्होंने भाषा विज्ञान, इतिहास और दर्शन की गूढ़ बातों का लेखन और प्रचार किया । इस लेखन के पीछे हिंदी जाति की सांस्कृतिक उन्नति की उनकी चिंता थी । सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोध को उन्होंने हिंदी की मूल संवेदना साबित करके इस भाषा और इसके साहित्य पर सांप्रदायिक तत्वों का कब्जा कभी नहीं होने दिया और इसकी समूची ऐतिहासिक परंपरा पर सामंतवाद का विरोध करने वाली प्रगतिशील चिंताधारा का दावा ठोंका । न केवल स्वाधीनता आंदोलन के समय के साहित्य को बल्कि हिंदी जाति के समूचे साहित्य को उन्होंने अबाध रूप से प्रवहमान जन पक्षधर विशाल परंपरा का अंग बनाया । साहित्य को उन्होंने लड़ाई का बड़ा मोर्चा माना और तमाम विचारकों के चिंतन के भीतर साहित्य की उपस्थिति को रेखांकित किया । खुद मार्क्स पर विचार करते हुए उन्होंने साहित्य को उनके समग्र चिंतन का महत्वपूर्ण घटक माना ।
भारत के स्वाधीनता आंदोलन के साथ मार्क्सवाद के सजीव संबंध का वे साकार रूप थे । इसके लिए भारत के प्रसंग में मार्क्स का पुनराविष्कार जीवन भर चलने वाली उनकी परियोजना बना रहा । उनके इस अवदान को समझने के लिए मार्क्स के लेखन पर विचार करने वाले गंभीर लोगों की सूची में उन्हें शामिल किया जाना चाहिए । रूसी मार्क्सवादियों ने मार्क्स-एंगेल्स के जीवन के परवर्ती दिनों के लेखन और सरोकारों के भीतर रूस की बढ़ती हिस्सेदारी को देखा था और इससे अपने देश में क्रांतिकारी आंदोलन के लिए कुछ गंभीर सबक भी उन्होंने हासिल किए । मार्क्स के भारत और उपनिवेशवाद संबंधी लेखन के साथ रामविलास शर्मा के संवाद पर हम थोड़ी देर बाद बात करेंगे । फिलहाल रूसी क्रांति के नेता लेनिन के बारे में बात करना जरूरी है । मार्क्सवादी परंपरा में लेनिन का मौलिक योगदान बहुत हद तक उनके उपनिवेशवाद संबंधी चिंतन के कारण माना गया है । ज्ञातव्य है कि मार्क्स नेदुनिया के मजदूरों, एक हो!’ का मशहूर नारा दिया था । लेनिन ने उसेदुनिया के मजदूरों और उत्पीड़ित राष्ट्रों के जनगण, एक हो!’ कर दिया था । साम्राज्यवाद के खात्मे के लिए उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों का महत्व पहचानने के चलते ही भारत के स्वाधीनता आंदोलन के भीतर वाम पक्ष निर्मित हुआ और उसको व्यापक सामाजिक स्वीकृति मिली । कहने की जरूरत नहीं किआज की दुनिया और लेनिननामक किताब रामविलास जी ने यूं ही नहीं संपादित की थी ।      
यह बात तो रामचंद्र शुक्ल ने छायावाद की पृष्ठभूमि में ही लिख दी कि भारत का स्वाधीनता आंदोलन पूरी दुनिया में चलने वाले उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों की व्यापक धारा का अंग था । मार्क्स इंग्लैंड की राजधानी लंदन में बैठकर भारत के स्वाधीनता आंदोलन को देख रहे थे । 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बारे में लिखे उनके लेखों का महत्व बताने की जरूरत नहीं । लेकिन स्वाभाविक रूप से उन तक पहुंचने वाली सूचनाओं की सीमा थी, फिर भी पूंजीवाद के जन्म और प्रसार के सिलसिले में उन्होंने जो कुछ लिखा उस पर छानबीन के हालिया प्रयासों में यह तथ्य उभरकर सामने आता जा रहा है कि उपनिवेशित देश और गैर यूरोपीय दुनिया उनके विवेचन में आद्यंत मौजूद रही है । इस प्रसंग में एक पुस्तक का उल्लेख आवश्यक है । 2010 में द यूनिवर्सिटी आफ़ शिकागो प्रेस से प्रकाशित केविन बी एंडरसन की किताबमार्क्स ऐट द मार्जिन्सकी विशेषता यह है कि इसमें गैर यूरोपीय समाजों के बारे में मार्क्स के नजरिए के विश्लेषण को प्रमुखता दी गई है । इसमें लेखक ने बताया है कि यूरोप में 1848 के क्रांतिकारी दौर की विफलता के बाद मार्क्स के दीर्घकालीन लंदन प्रवास में एक तो इस नगर के विश्व के औद्योगिक केंद्र होने से पूंजीवाद संबंधी उनके अध्ययन को गति मिली, दूसरी ओर इंग्लैंड दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य का अधिपति था और उसकी राजधानी में रहते हुए उन्हें पश्चिमेतर समाजों और उपनिवेशवाद का अध्ययन करने की भी प्रेरणा मिली । मार्क्स संबंधी नए अध्ययनों से यह बात सामने आ रही है कि पश्चिमेतर समाजों के बारे में जानकारी बढ़ने के बाद उन्होंने अपनी अनेक मान्यताओं में बदलाव किए थे । इस दृष्टि से मार्क्स संबंधी रामविलास जी के लेखन को देखने से निश्चय ही कुछ नए रास्ते खुल सकते हैं ।
सामाजिक विकास की एकरेखीय धारणा पर सवाल उठाने के चलते रामविलास जी को भारत में आधुनिकता की शुरुआत वहां महसूस हुई जिसे आम तौर पर मध्य युग कहा जाता है । इसे व्यापक सामाजिक प्रक्रिया से जोड़ने के लिए उन्होंने सामंती समाज के भीतर ही व्यापारिक पूंजीवाद के उद्भव की बात बताई और जाति निर्माण की प्रक्रिया में इसका उत्स देखा । अंग्रेजी के शब्द नेशन का हिंदी प्रतिशब्द उन्होंनेजातिकहा और हिंदी जाति की धारणा प्रस्तुत की । ध्यातव्य है कि बांग्ला में राष्ट्र को जाति ही कहते हैं । भारत के प्रसंग में मध्य युग की धारणा के अनौचित्य को इतिहासकारों ने भी महसूस किया है । कहने की जरूरत नहीं कि इतिहास के अनुशासन में भी आजकलअर्ली-माडर्ननामक अवधारणा का इस्तेमाल उस युग के लिए किया जाने लगा है । हिंदी साहित्य के भक्तिकाल के भीतर मौजूद विद्रोह के सामाजिक आधार की पहचान रामविलास जी की इस धारणा के बिना नहीं हो सकती थी । भक्ति साहित्य को भक्ति आंदोलन की उपज मानना और भक्ति आंदोलन को सामंतवाद विरोधी सामाजिक आलोड़न मानना उस साहित्य की ऐसी व्याख्या पेश करता है जो सचमुच विद्रोही साहित्य लेखन की थाती प्रतीत होने लगता है । साथ ही साहित्य के साथ वृहत्तर सामाजिक आंदोलन का संबंध स्थापित करके उन्होंने साहित्य के भीतर सामाजिक मूल्य तलाश करने की क्रांतिकारी दृष्टि प्रस्तुत की । भक्ति काल की भक्ति को प्रेममूला कहकर उन्होंने उसे पूरी तरह प्रेम की आधुनिक संवेदना के साथ जोड़ दिया और इसी धारणा के सहारे भक्तों और संतों के कृत्रिम विभाजन पर विराम लगा दिया । भक्ति आंदोलन के साथ उन्होंने हिंदी जाति के जनजागरण की धारणा प्रस्तुत की, इसे लोकजागरण का नाम दिया और आधुनिक हिंदी साहित्य को उसी लोकजागरण का नवजागरण बताया ।
समूचे आधुनिक हिंदी साहित्य की जनपक्षधर साम्राज्यवाद विरोधी धारणा के निर्माण का श्रेय बिना किसी हिचक के रामविलास जी को दिया जा सकता है । भारतेंदु को उन्होंने हिंदी नवजागरण के उन्नायक के रूप में प्रस्तुत किया । महावीर प्रसाद द्विवेदी उनके कारण ही केवल साहित्यकार की जगह व्यापक सामाजिक सरोकार वाले चिंतक की तरह स्थापित हुए । छायावाद को उन्होंने न केवल इस विकास की अगली कड़ी साबित किया बल्कि छायावादियों के भीतर निराला साहित्य का उनका विवेचन इस बात के लिए भी याद रखा जाना चाहिए कि उन्होंने निराला की भाषा को गांधीवादी विचारधारा के अतिक्रमण का परिणाम बताया । निराला के ही प्रसंग में उन्होंने साहित्य के लिहाज से यथार्थवाद की धारणा को विस्तार दिया और बताया कि सिर्फ बाहरी यानी सामाजिक स्तर पर ही यथार्थ नहीं होता बल्कि मन के भीतर की दुनिया का चित्रण भी यथार्थवाद है । हिंदी के मशहूर व्यंग्यकार बालमुकुंद गुप्त के बारे में लिखते हुए उन्होंने यह तथ्य उजागर करना जरूरी समझा कि उनके लेखों के चलते लोगों में अंग्रेजी राज के विरुद्ध बोलने का साहस पैदा हुआ । साहित्य के महत्व के इसी बोध का परिणाम था कि उन्होंने लगातार इस मोर्चे पर काम करना जरूरी समझा । प्रेमचंद और रामचंद्र शुक्ल की प्रासंगिकता स्थापित करने में रामविलास जी के विवेचन का भी योगदान है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि निराला को मृत घोषित करने के अतिरिक्त भी इन साहित्यकारों को आधुनिकता के नाम पर अप्रासंगिक बताने वालों की धारा कुछ कमजोर नहीं थी । आधुनिक हिंदी साहित्य के उनके विवेचन का ही नतीजा है कि प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन हिंदी नवजागरण का स्वाभाविक विकास और समस्त हिंदी साहित्य का वारिस प्रतीत होता है । प्रगतिशील साहित्यकारों में उन्होंने विशेष रूप से केदारनाथ अग्रवाल पर तो लिखा ही, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, शमशेर के साथ पढ़ीस पर भी लिखा । साहित्य पर विचार करने के मामले में उनकी नजर रचना की सामाजिकता के साथ उसकी कलात्मक गुणवत्ता पर भी रहती थी । यह मानक उन्होंने प्रगतिशील साहित्यकारों पर भी विचार करते हुए बरकरार रखा है । कविता के अतिरिक्त गद्य के सौंदर्य की परख कराने के मामले में वे हिंदी आलोचकों में अकेले हैं ।
यकीन नहीं होता कि बिना विदेश गए रामविलास जी की हैसियत गंभीर अध्येता की थी । इस मामले में उनके समकक्ष रणधीर सिंह ही नजर आते हैं । ये दोनों ही शोध छात्र पालने, संगोष्ठी कराने, अवकाश प्राप्ति के बाद समितियों की सदस्यता हासिल करने, नियुक्ति करने और जुगाड़ बिठाने के धंधे से पूरी तरह बाहर रहकर भी महत्वपूर्ण माने जाते थे । वह वैचारिक माहौल आत्ममुग्धता से रहित था और साहित्यकार की मान्यता के लिए पुरस्कार मिलना महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता था । अंग्रेजी का अध्यापक होने के बावजूद या शायद उसी वजह से उनके लेखन में विदेशी विद्वानों के उद्धरणों का अजीर्ण नहीं मिलता । रामविलास जी को याद करना हिंदी की लोकधर्मी, प्रगतिशील और मार्क्सवादी साहित्यिक परंपरा को याद करना है ।    

                

निराला पर रामविलास शर्मा की कविता



वह सहज विलंबित मंथर गति जिसको निहार
गजराज लाज से राह छोड़ दे एक बार
काले लहराते बाल देव सा तन विशाल
आर्यों सा गर्वोन्नत प्रशस्त अविनीत भाल
झंकृत करती थी जिसकी वाणी में अमोल
शारदा सरस वीणा के सार्थक सधे बोल
कुछ काम आया वह कवित्व आर्यत्व आज
संध्या की बेला शिथिल हो गए सभी साज
पथ में अब वन्य जंतुओं का रोदन कराल
एकाकीपन के साथी हैं केवल श्रृगाल


Friday, May 29, 2020

औपनिवेशिक भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन



2020 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से अली रज़ा की किताब ‘रेवोल्यूशनरी पास्ट्स: कम्युनिस्ट इंटरनेशनलिज्म इन कोलोनियल इंडिया’ का प्रकाशन हुआ । लेखक को एक मुखबिर की ओर से फ़रार क्रांतिकारी की गतिविधियों की रोज ब रोज की रिपोर्ट किसी पुराने संग्रहालय में देखने को मिली । रिपोर्ट अविश्वसनीय थी । बरसों से वह आदमी फ़रार था । पुलिस कुत्तों की तरह सूंघती फिर रही थी, राजनीतिक साथियों ने धोखा दिया था और परिवारी लोग नापसंद करते थे । इसके बावजूद उसे अपनी जीत का भरोसा था । लेखक को उसके भरोसे के स्रोत पर अचम्भा हुआ । किताब में सपने की इसी ताकत को पहचाना गया है । लेखक भी पाकिस्तान में परवेज़ मुशर्रफ़ के शासन में विरोध प्रदर्शनों में एकाध दिन की गिरफ़्तारी झेल चुके हैं । इस संक्षिप्त अनुभव से उन्हें पुराने क्रांतिकारियों पर अचरज हुआ जो जेल को ही अपना घर समझते थे । वे उम्रदराज लोग थे और पूरा जीवन वाम कार्यकर्ता के रूप में किसी न किसी मोर्चे पर सक्रिय रहकर बिताया था । पुराने क्रांतिकारियों से लेकर आज तक के विद्रोहियों के संकल्प का कारण उनके सपने रहे । आज के विद्रोही साठ के दशक में राजनीतिक दुनिया में दाखिल हुए थे जब बदलाव बस कदम भर दूर नजर आता था । उसी समय उन्हें सरकारी दमन, लम्बे जेल जीवन और लगातार हार झेलने का धीरज पैदा हुआ था । आखिर उनको सक्रिय रखने वाला वह सपना कैसा रहा होगा ! उनकी कहानी पाठ्यक्रमों में नहीं देखने को मिलती । पीढ़ी दर पीढ़ी इन विद्रोहियों की दास्तानें जिंदा रखी गईं । उत्तर-औपनिवेशिक निर्मम सरकारों की व्यवस्थित हिंसा के दरमियान भी लगातार विद्रोहियों की नई पीढ़ी पुराने विद्रोहियों के किस्से सुनती सुनाती रही । लेखक को लगता है कि आज के विक्षोभ भरे माहौल में अतीत के ये किस्से फिर से नए विद्रोहियों के काम आ सकते हैं ।
लेखक को संयोग से एक नक्सल कार्यकर्ता मिले जिनके पिता गदर पार्टी से जुड़े रहे थे । उनसे बातचीत के क्रम में लेखक को इस इतिहास को संजोने की जरूरत महसूस हुई । इसके बाद शोध के क्रम में विद्रोह की अटूट श्रृंखला का पता चला । लेखक लाहौर विश्वविद्यालय से जुड़े हुए हैं । शोध की सारी सामग्री देश के दोनों विभाजित हिस्सों में मिलनी थी । इतिहास के शोधकर्ताओं के लिए दोनों देशों की शत्रुता परेशानी पैदा करने वाली है क्योंकि अगर कोई भी विभाजन और उसके पहले के माहौल पर शोध करना चाहे तो उसे अबाध आवाजाही की सुविधा से ही सामग्री प्राप्त होगी । दोनों देशों में आपसी संदेह और लम्बे तनाव के चलते इस मामले में सबसे अधिक नुकसान होता है ।
किताब की शुरुआत में 1929 में अर्जेन्टीना में मौजूद नैना सिंह धूत की मुलाकात रतन सिंह नामक एक क्रांतिकारी से होती है । रतन सिंह गदर पार्टी के नेताओं में से थे । अर्जेन्टीना जाने से पहले वे पार्टी के लिए यूरोप, अमेरिका, कनाडा और पनामा की यात्रा कर चुके थे । पार्टी की स्थापना 1913 में अमेरिका में भारतीय प्रवासियों ने देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए की थी । 1920 के दशक में पार्टी ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से भी सम्पर्क जोड़ा । इसने राजनीतिक और सैनिक प्रशिक्षण के लिए पार्टी के ढेर सारे कार्यकर्ताओं को मास्को बुलाया । नए कार्यकर्ता दाखिल करने के लिए इसके नेता दुनिया भर के भारतीय प्रवासियों से मिल रहे थे । इसके चलते ही नैना सिंह की मुलाकात रतन सिंह से हुई । नैना सिंह पंजाब में पैदा हुए थे लेकिन काम की खोज में सिंगापुर जा पहुंचे थे । वहीं इनका सामना क्रांतिकारी साहित्य से हुआ था । अमेरिका के पंजाबी मजदूरों के गीत संग्रह को देखने का उन्हें मौका मिला । इसमें भारत पर जकड़ी साम्राज्यवादी बेड़ियों का जिक्र तो था ही, क्रांति, आजादी और नई दुनिया की बातें भी की गई थीं । नैना सिंह को बिजली सी दौड़ती महसूस हुई । रतन सिंह से मिलकर भी ऐसा ही लगा । जल्दी ही अन्य गदरी नेताओं से उनकी मुलाकात होने लगी । विदेशों में रहने से उन्हें नस्लभेद और शोषण का अनुभव तो होता ही था इसलिए नैना सिंह भी पार्टी की स्थानीय शाखा में शरीक हुए और पार्टी के लिए तन, मन, धन अर्पित करने की कसम खाई । इसके बाद नैना सिंह और उनके साथियों ने सोवियत संघ की राह पकड़ी ।
सोवियत संघ की यात्रा ने उनके जीवन को बदल दिया । वे भारतीय क्रांति के नाभिक बने और सोवियत संघ से होकर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को बढ़ावा देने का काम करने लगे । उनकी तरह ही उपनिवेशित देशों के ढेर सारे क्रांतिकारी रूस की यात्रा पर जाते थे क्योंकि वहां नया युग, नया भविष्य और नई दुनिया की रचना हो रही थी । उपनिवेशित देशों के क्रांतिकारियों को न केवल अपने देशों को उपनिवेशवाद से मुक्त करना था बल्कि उन देशों के समाज में बुनियादी बदलाव भी करना था । किताब में भारत में इस काम के गतिपथ को परखा गया है । दूसरी चीज उस सपने को समझने की कोशिश है जिसने इस राजनीति को जिंदा रखा । आठ साथियों के साथ मास्को की यात्रा का फैसला नैना सिंह के लिए साहसिक था । काम की तलाश में अर्जेन्टीना गए थे और अब उसे छोड़कर एक अनजान सफर का इरादा जोखिम भरा था । उन्हें अपने निर्णय से जुड़े खतरों का अनुमान था । उन्हें जीवन भर फ़रार रहना पड़ सकता था । फिर भी उन्होंने यह रास्ता अपनाया । फिलहाल आदर्शवाद और यूटोपिया पर संदेह का जो आलम है उसमें सपने में इस भरोसे की भावना को समझना मुश्किल है । कुछ समय पहले ही उथल पुथल भरी बीसवीं सदी की सबसे बड़ी ताकत उसे समझा जाता था । वह सदी अंतर्राष्ट्रीयवाद की सदी थी जब भौगोलिक रूप से दुनिया भर में बिखरे आंदोलनों को बदलाव की वैश्विक परियोजना के जरिए आपस में जोड़ा गया था । भविष्य की खास अपेक्षा के सहारे वे साथ साथ टिके हुए थे । नैना सिंह जैसे असंख्य लोग इस परियोजना का अंग थे ।
आखिर नैना सिंह की दुनिया इतनी सम्भावनाओं से भरी क्यों थी । उस समय की राजनीतिक उथल पुथल, बौद्धिक खलबली, ढहते साम्राज्यों, विश्वव्यापी टकराव, अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता और क्रांतिकारी बदलाव की बाबत तो बहुतों ने लिखा है । प्रथम विश्वयुद्ध और रूसी क्रांति के बाद के कुछ साल तो अभूतपूर्व बौद्धिक, सामाजिक और राजनीतिक खलबली के साल थे । उस समय सब कुछ सम्भव प्रतीत होता था । नाकाबिले बर्दाश्त वर्तमान को किसी भी कीमत पर बदलना ही था ।                         
भारत की आजादी में रूस की रुचि को सबसे पहले 1959 में ‘कम्युनिज्म इन इंडिया’ नामक किताब में समझने की कोशिश की गई । उसमें बताया गया कि जार के समय ही रूसी लोग भारत में दखल देना चाहते थे । उनके इसी कार्यभार को जारशाही के खात्मे के बाद आई बोल्शेविक सरकार ने कम्युनिस्ट आंदोलन को प्रोत्साहित करने के जरिए पूरा किया । उनको लगा था कि भारत में ब्रिटिश शासन को अगर खतरा पैदा होता है तो पूरी दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्यवाद कमजोर होगा । इसके लिए उन्हें क्रांतिकारी योजना और उसे लागू करने वालों की जरूरत थी । इस तरह भारतीय क्रांतिकारियों को बाहरी ताकत के लिए काम करने वाला समझा गया । माना जाता था कि भारत के लिए यह धारणा ही परायी है । वहीं से इस बोध का जन्म हुआ कि भारतीय कम्युनिस्ट भारतीय तो कम थे, कम्युनिस्ट अधिक थे । किताब की इस धारणा पर शीतयुद्ध की छाया थी । भारत और पाकिस्तान में कम्युनिस्ट आंदोलन को कुचलने में औपनिवेशिक और नव स्वतंत्र शासन को इस धारणा से बहुत मदद मिली । राष्ट्रवादी इतिहास ने भिन्न किस्म के इतिहासों को बेदखल किया जिनमें प्रमुख वाम आंदोलन का इतिहास है । वाम को दोनों ही देशों में परदेशी और राष्ट्र विरोधी कहकर दरकिनार कर दिया जाता है । कम्युनिस्ट आंदोलन को विदेशी साबित करने से एक और मकसद सधता है । माना जाता है कि भारत के सामाजिक सांस्कृतिक ताने बाने में वाम अपने आपको ढाल नहीं सका । किताब दर किताब यही बात कही जाती है कि कम्युनिस्ट आंदोलन भारत में जड़ नहीं जमा सका । इसके सहारे भारत को वामपंथ के लिए पारम्परिक संस्कृति के नाते अनुपयुक्त सिद्ध किया जाता है । उनके दस्तावेजों को तो बहुत उत्तम बताया जाता है लेकिन व्यवहार को अध्ययन और शोध के दायरे से बाहर कर दिया जाता है । इसे समझने में निष्णात लोग ही कामयाब बताए जाते हैं । कम्युनिस्टों को सोचने समझने की शक्ति से हीन बाहरी आदेश को उनके ही नियंत्रण में लागू करने वाला प्राणी घोषित कर दिया जाता है । इन सबके सहारे उन्हें उनके ही निर्मित इतिहास से बेदखल कर दिया जाता है । ये रुख केवल इतिहास के मामले से ही नहीं जुड़े हैं, इनका गहरा रिश्ता हमारे मुल्कों के वर्तमान राजनीतिक विकल्पों से भी है ।
भारतीय उप महाद्वीप में उग्र राष्ट्रवाद की विचारधारा को खड़ा करने में वामपंथ को विदेशी बताने के इस बौद्धिक अभियान का हाथ है । इसका असर इतना गहरा है कि वामपंथ के साथ सहानुभूति रखने वाले लेखक भी विचारों के मूल को लेकर अपराध बोध से ग्रस्त नजर आते हैं । उनमें कम्युनिस्ट और समाजवादी विचारों का केंद्र से परिधि की ओर वैश्विक प्रसार दिखाया जाता है । भारत में वामपंथ के इतिहास लेखन के लिए इस तरह के ठप्पों से खुद को मुक्त करना होगा । भारत की आजादी की लड़ाई में वामपंथ के योगदान को उजागर करने के लिए उसकी ठोस उपस्थिति को समझना होगा । इसके लिए किताब में वामपंथी विचारों और राजनीति के विकास को समझने के लिए उसमें शरीक लोगों की जीवनी का सहारा लिया गया है । उनके सहारे औपनिवेशिक भारत में कम्युनिस्ट अंतर्राष्ट्रवाद के बहुआयामी विकास को देखा गया है । जो लोग इस प्रक्रिया में शामिल थे उनके लिए असल में राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रवाद में कोई अंतर नहीं था । दोनों आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे । दोनों का काम एक दूसरे के बिना नहीं चलता था । इस अतीत को व्यापक वैश्विक संदर्भ के बिना नहीं समझा जा सकता है । वह समय ही ऐसा था जब दुनिया बदलने के आदर्श और सपनों का प्रसार छुआछूत की तेजी से होता था ।
जिन व्यक्तियों का किताब में जिक्र है वे इतिहास की किताबों में नहीं नजर आते । वे इतने बौद्धिक नहीं थे कि उन पर लेखकों का ध्यान जाता । इस तरह इसमें रोजमर्रा का कम्युनिस्ट सामने आता है । ऐसे ढेरों लोग औपनिवेशिक दस्तावेजों और संग्रहालयों में खोजने से मिल जाते हैं । कारण कि कमजोर होने के बावजूद कम्युनिस्टों के बारे में कागज बहुत मिलते हैं । इससे पता चलता है कि ब्रिटिश साम्राज्य को वामपंथ से कितना खतरा महसूस होता था । इस खतरे के चलते अंग्रेजों ने षड़यंत्रकारी व्यक्तियों, संगठनों, जगहों और प्रकाशनों के भरपूर सबूत एकत्र किए । पुलिस थाने और अदालत से लेकर लंदन में बैठे भारत सचिव तक सभी इस प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल थे ।
इन दस्तावेजों में कम्युनिस्ट आंदोलन को भारत में अंग्रेजी राज और वैश्विक ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरे के रूप में पेश किया गया है । उनकी निगाह में यह आंदोलन विदेशी था और भारत के लायक नहीं था । इसीलिए इनमें उन व्यक्तियों को क्रांतिकारी बदलाव की राजनीति में खीच लाने वाली स्थितियों, अनुभवों और प्रेरणाओं का जिक्र नहीं मिलता । इन खुफ़िया रपटों के आधार पर भारत में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के विवरण नियमित रूप से प्रकाशित किए जाते थे । ये विवरण सरकारी अधिकारियों को कम्युनिस्ट आंदोलन की जानकारी देने के लिए छापे जाते थे इसलिए उनकी राय को आकार देने में इनका बहुत हाथ होता था ।
लेखक ने स्पष्ट किया है कि कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में समझदारी स्थिर नहीं रही, उसमें पर्याप्त बदलाव आते रहे । नौकरशाहों के लिए उसे परिभाषित करना हमेशा मुश्किल रहा । एक ही बात उनको समझ आती थी कि अंग्रेजी राज को कम्युनिस्टों से भारी खतरा है । उनकी दिक्कत यह थी कि संगठन ढेर सारे थे जिनके साथ समाजवादी, कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी शब्द जुड़े हुए थे । एक अन्य मुश्किल यह थी कि वैचारिक जुड़ाव और राजनीतिक संश्रय भी बदलते रहते थे । ऐसी स्थिति में बोल्शेविक क्रांति के प्रति उनके रुख को मानक बनाने में आसानी थी । उस समय तक अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में भी कम्युनिज्म या बोल्शेविज्म का अर्थ निश्चित नहीं हुआ था । रुख की क्रांतिकारिता भी उतनी निश्चित नहीं थी । 1915 में जो रुख क्रांतिकारी कहलाता वह 1930 में मध्यमार्गी कहला सकता था । इसमें बहुत कुछ वर्गीकरण करने वाले पर भी निर्भर होता था । वाम और कम्युनिस्ट की सबसे लचीली समझ अंग्रेजी राज के मुखबिरों ने तैयार की थी । उनकी इस समझ के मुकाबले प्रशासनिक अधिकारियों की समझ अक्सर अलग होती थी । वामपंथी संगठन भी एक दूसरे को वैचारिक रूप से सही या भटका साबित करने के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल बदलते रहते थे । इसलिए लेखक ने इन शब्दों का अर्थ स्थिर नहीं किया है । समाजवादी, वामपंथी और कम्युनिस्ट शब्दों का प्रयोग वे अदल बदल कर करते हैं ताकि विचारों और राजनीतिक सम्बद्धता की जटिलता स्पष्ट हो सके । उस समय राजनीतिक सीमाएं और पहचानें अस्थिर और गतिशील थीं । उदाहरण के लिए 20 के दशक में तमाम किस्म के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के विचारों को बोल्शेविक या कम्युनिस्ट कह दिया जाता था ।
जहां तक दस्तावेजों का सवाल है वामपंथी लोगों का कोई सानी नहीं है । परचे, अखबार, सैद्धांतिक ग्रंथ, इतिहास, जीवनी और आत्मकथा के अतिरिक्त भाषण, प्रस्ताव, रैली, बैठकों और प्रदर्शनों की शक्ल में इतना कुछ प्रकाश में आता कि उसे पढ़ने और समझने में अक्सर जासूसों का दिमाग घूम जाता और नींद हराम हो जाती । औपनिवेशिक अधिकारियों ने इसमें से लगभग सब कुछ सुरक्षित रखा । वामपंथियों ने भी अपने दस्तावेज संपादित करके छपाए हैं । भाकपा और माकपा की विरासत संयुक्त है लेकिन इसकी व्याख्या उनकी अलग अलग है । उन्होंने दस्तावेजों के चुनाव में अपनी व्याख्याओं को वरीयता दी है । इनके प्राचुर्य के बावजूद बहुतेरे महत्वपूर्ण दस्तावेज नहीं मिलते । कारण कि औपनिवेशिक भारत में कम्युनिस्ट और क्रांतिकारी आंदोलन अधिकतर प्रतिबंधित या भूमिगत रहे । इसके चलते वे खुद भी ऐसे सबूत नष्ट कर देते जो उन्हें फंसाने में शासन के काम आएं । आजादी के बाद भी विभाजित दोनों ही मुल्कों में उनका दमन जारी रहने से उन्हें यह रणनीति अपनानी पड़ती थी । रोजमर्रा के जीवन में मौजूद कम्युनिस्ट आंदोलन के साक्ष्य इसमें सबसे अधिक नष्ट हुए । सरकार या कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व जो कुछ बताना चाहता उसे ही सुरक्षित रखा गया । ये अनुपस्थित दस्तावेज उत्तर औपनिवेशिक शासन के हाथों कम्युनिस्ट आंदोलन की दुर्गति की दास्तान कहते हैं ।
इसके बावजूद जितनी सामग्री प्राप्त होती है उससे वामपंथी आंदोलन की विविधता का पता चलता है । इनसे वामपंथ की भाषा का पता चलता है । प्रकाशनों, प्रस्तावों, दस्तावेजों और वैचारिक बहस में इस भाषा का उपयोग होता है । इसमें गम्भीर सैद्धांतिक तर्क होते हैं । इसके लेखक आम तौर पर शिक्षित पुरुष होते हैं । वे मार्क्सवादी लेनिनवादी ढांचे के आधार पर आस पास के हालात को समझते और व्याख्यायित भी करते हैं । ये तर्क अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की बहसों में ढले होते हैं । इस भाषा को यथार्थ से कटा कहना सुविधाजनक है और अक्सर ऐसा कहा भी जाता रहा है । लेकिन इससे बाहर रोजमर्रा की राजनीति की अपनी जरूरियात होती हैं । वहां इस भाषा का उपयोग नहीं किया जाता । भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में शरीक लोग अंतर्राष्ट्रीय केंद्र के प्रति सचेत होने के साथ भारत की जनता में अपने श्रोताओं के प्रति भी सचेत थे । इस मामले में भारत के व्यापक वामपंथी कार्यकर्ताओं ने मार्क्सवादी लेनिनवादी समझ का सुपरिचित सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मुहावरे में अनुवाद किया । रोजमर्रा की इस भाषा की सबसे अधिक अनदेखी भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के अधिकतर विश्लेषणों में की गई है । इस भाषा की दुनिया जनसभा, रैली, कविता, जनगीत, अखबार और परचा पोस्टर की दुनिया थी । इस दुनिया को विदेशी असर कहना असम्भव है । इस दुनिया की समृद्ध भाषा को बहुधा वाम पार्टियों के आधिकारिक दस्तावेजों से निकाल दिया जाता है । जबकि इसमें वामपंथी कार्यकर्ताओं का मशीनी की बजाए मानवीय चेहरा नजर आता है जिसमें इकहरेपन की जगह उनका जटिल और अंतर्विरोधी स्वरूप प्रकट होता है ।
शासन की ओर से दर्ज जो सामग्री प्राप्त होती है उसमें ऐसे लोग अतार्किक, सनकी और अंग्रेजों के अकारण विरोधी के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं । आम जनता और साथियों के बीच उन्हें जिस रूप में जाना जाता था उससे पूरी तरह अलग रूप इन सरकारी प्रस्तुतियों से सामने आता है । इस छवि का आधार उनसे जबर्दस्ती या धोखे के बल पर हासिल गवाहियों को बनाया जाता है । पूछताछ में अक्सर वे मारपीट से बचने के लिए सरकारी अधिकारियों के मन की बात बोलते थे । इसलिए इन दस्तावेजों के उपयोग में थोड़ी सावधानी भी अपेक्षित है ।
वामपंथ की इन अलग अलग आवाजों को आपस में जोड़ने वाली चीज बेहतर दुनिया बनाने का सपना था । उस समय विविधवर्णी सपनों का मानो झरना फूट पड़ा था । इसके बावजूद भारत में वामपंथ का इतिहास लिखते समय शुरुआत समाजार्थिक हालात के विस्तृत विश्लेषण से होती है । भूसंपत्ति, कर्ज, लगान, बेरोजगारी, मजदूरी आदि के बारे में आंकड़ों के विशाल जखीरे के सहारे साबित किया जाता है कि वामपंथी राजनीति की जड़ खास समाजार्थिक हालात में निहित है । लेकिन कई बार कार्यकर्ताओं की आर्थिक हालत और उनकी सक्रियता का सीधा संबंध नहीं भी होता है । मार्क्सवादियों के लिए समाजार्थिक हालात और उनके प्रतिकार के बीच सीधा संबंध स्पष्ट है । फिर भी बीसेक सालों से जारी सामाजिक और किसान इतिहास के चलते इसके विकल्प के बतौर राजनीतिक चेतना के विकास के प्रसंग में ‘किसान चेतना’ का तर्क भी उपयोग में लाया जाता रहा है । कुछ अन्य लोग वामपंथी राजनीति को राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का उत्पाद मानने पर जोर देते हैं । लेखक अपनी इस किताब को बौद्धिक, सामाजिक और राजनीतिक हलचल के बीच रखकर वामपंथी आंदोलन को समझने की कोशिश का अंग मानते हैं । जिन कार्यकर्ताओं का इसमें जिक्र है वे जानते थे कि वे बहुत तेजी से बदलती दुनिया के नागरिक हैं । उन्हें गहराई से लगता था कि अपने तमाम नियमों, परम्पराओं और उत्पीड़नों के साथ पुरानी दुनिया मर रही है । उसकी आसन्न मृत्यु के साथ एक नई दुनिया का बहुप्रतीक्षित आगमन जुड़ा हुआ है । उस समय की शब्दावली इन प्रतीकों से भरी हुई है । आने वाली दुनिया की तस्वीर सबने अलग अलग भले बनाई हो लेकिन उनमें साझा बात साम्राज्य, पूंजी और सामाजिक उत्पीड़न की अनुपस्थिति है । भविष्य की उस दुनिया में समूची धरती के कमजोर और पीड़ित लोगों में आपसदारी और एकजुटता भी कल्पित थी । किताब में जिनका वर्णन हुआ है वे सभी खुद को उस दुनिया का ही बाशिंदा समझते थे ।