2020 में ब्लूम्सबरी एकेडमिक से क्रिस मिलिंगटन
की किताब ‘ए हिस्ट्री आफ़ फ़ासिज्म इन फ़्रान्स: फ़्राम द फ़र्स्ट वर्ल्ड वार टु द
नेशनल फ़्रंट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि बहुत पहले 2003 में ही उन्हें
फ़्रांस में फ़ासीवाद के इतिहास में रुचि पैदा हो गई थी । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद
से वर्तमान सदी के शुरू तक फ़्रांसिसी चरम दक्षिणपंथी प्रमुख आंदोलनों, पार्टियों
और लड़ाकू संगठनों की परीक्षा इस किताब में की गई है । उनके सिद्धांत और व्यवहार,
नेता और सदस्य, विरोधियों और शत्रुओं के साथ उनकी होड़ तथा उस समय की राजनीति पर
उनके प्रभाव का विश्लेषण भी इसमें किया गया है । जिन पर विचार किया गया है उनमें
से कुछ संगठन अपने को खुलेआम फ़ासीवादी घोषित करते हैं । दक्षिणपंथी हलकों में
लोकप्रिय होने के बावजूद आम तौर पर फ़ासीवाद को विदेशी विचारधारा माना जाता है और
फ़्रांस के लिए उसे अनुचित ठहराया जाता है । फिर भी तमाम संगठनों ने फ़ासीवादी रूप
और अंतर्वस्तु को अपने मकसद के लिहाज से अनुकूलित किया है । इसी अर्थ में फ़ासीवाद
का एक फ़्रांसिसी संस्करण भी तैयार हुआ है जिसकी थोड़ी झलक इस किताब में मौजूद है ।
इस परिघटना के अध्ययन में बाधा यह थी कि दसियों
साल तक इसकी ताकत को लेकर विवाद और असहमति बनी रही थी । फ़्रांसिसी लोकतंत्र के लिए
फ़ासिस्ट खतरे के स्तर और महत्व के बारे में मतभेद थे । रेने रेमों नामक विद्वान
फ़ासीवाद से दक्षिणपंथी राजनीति को अलगाकर उसे मुख्य धारा की प्रवृत्ति बता रहे थे
। वे यह तो मानते थे कि संसद विरोधी चरम दक्षिणपंथी संगठन और पार्टियां मौजूद हैं
और उनके सदस्यों में जर्मनी के हिटलरी गिरोहों की तरह वर्दी पहनने और जुलूस
निकालने का चलन भी है लेकिन उनका फ़ासीवाद सतही है, अंदर से वे महज समाजार्थिक
अनुदारता के विश्वासी हैं । समूची आबादी में इनकी कम संख्या को भी इनके अप्रभावी
होने का तर्क बनाया गया । उन्होंने कहा कि फ़्रांस में फ़ासीवाद नहीं है, केवल उसके
बेवकूफ नकलची हैं । अपने देश की समाजार्थिक स्थिति को स्थानीय फ़ासीवादी आंदोलन के
विकास के लिए प्रतिकूल बताया गया । यह माना गया कि फ़्रांसिसी जनता के विवेक और
उसकी राजनीतिक परिपक्वता के चलते इस विदेशी विचारधारा को पनपने का मौका नहीं मिलने
वाला है ।
इसके तीस साल बाद ज़ीव स्टर्नहेल ने कहा कि 1930
के दशक में कोई नगण्य राजनीतिक प्रवृत्ति होने की जगह फ़ासीवाद ने फ़्रांसिसी समाज
में गहरी पैठ बना ली थी । उन्होंने तत्कालीन बौद्धिक वातावरण में लोकतंत्र के लिए
खतरा चिन्हित किया जिसमें फ़्रांस के लिए संसदीय शासन को खारिज किया जाता था ।
फ़्रांस के लिए तीसरे रास्ते की खोज में फ़ासीवादी विचारों के प्रसार की सहूलियत
पैदा हुई । असल में तो फ़्रांस में फ़ासीवाद सत्ता में नहीं आया इसी के चलते सत्ता
के लिए समझौतों से वह मुक्त रहा । इस तरह फ़्रांसिसी फ़ासीवाद उनके मुताबिक शुद्ध
फ़ासीवाद था । आधुनिक फ़्रांस के इतिहास लेखन में फ़ासीवाद की जगह के सिलसिले में रेमों
और स्टर्नहेल दो विरोधी ध्रुवों के प्रतिनिधि हैं । इन दोनों के समर्थकों के बीच
बेहद तीखी बहस चलती रही है । दसियों साल के शोध से भी इसके तीखेपन में कोई कमी
नहीं आई । अब तो यह बहस ही अध्ययन का विषय हो गई है । बहस के तीखेपन की वजह फ़्रांस
के अतीत के प्रति रुख है । पश्चिमी यूरोप में लोकतंत्र की जननी होने का उसका
सर्वमान्य दावा खतरे में पड़ जाना था । फ़्रांस की इस छवि को गढ़ने के लिए उसकी सरकार
के प्रत्येक कुकृत्य को हिटलरी संसद, मुट्ठी भर जर्मनीप्रेमी, गद्दार चरमपंथी और
राजनीतिक अवसरवादियों का दबाव का नतीजा बताया जाता है ।
फ़्रांस के अतीत की ऐसी तस्वीर 1970 दशक के शुरू
में बिखर गई । एक डाक्यूमेंटरी फ़िल्म में दिखाया गया कि सरकार ने प्रतिरोध का साथ
देने की जगह इंतजार करने की नीति अपनाई थी । उसके अगले साल एक अमेरिकी इतिहासकार
ने प्रमाणों के साथ बताया कि तत्कालीन शासक विची ने हिटलरी जर्मनी के साथ कितना
करीबी रिश्ता बनाकर रखा था । उसका राजनीतिक कार्यक्रम भी गणतांत्रिक लोकतंत्र की
विरासत को मिटाने के लम्बे मसकद से संचालित था । अगर वह शासन फ़ासीवादी नहीं था तो
भी उसके बहुत करीब था । फ़्रांसिसी जनता उस शासन का पूरी तरह तो समर्थन नहीं करती
थी लेकिन काफी लोग उसका अंत तक साथ देते रहे । देश के साथ विदेश के भी विद्वानों
ने माना कि तत्कालीन दक्षिणपंथी तानाशाही के फ़्रांस की लोकतांत्रिक परम्परा से
विचलन को कुछ ज्यादा ही लोगों ने समर्थन दिया था । उसके बाद 1980 और 90 के दशक में
कुछ इतिहासकारों ने इस धारणा को चुनौती दिया कि इस लोकतांत्रिक देश में फ़ासीवादी
हित कुछ खास न थे । फिर भी रेमों की मान्यता की पकड़ इतनी मजबूत है कि हाल में
फ़ासीवाद से फ़्रांस की एलर्जी साबित करने के लिए बाकायदे ‘प्रतिरोधक सिद्धांत’ गढ़ा
गया जिसके मुताबिक फ़्रांस में फ़ासीवाद का मुकाबला करने की आंतरिक प्रतिरोधक क्षमता
बहुत जबर्दस्त है ।
इतिहासकारों के दो खेमे मान लेने से उनके बीच का अंतर
छुप जाता है । इस बहुरंगी बहस का विवेचन परिशिष्ट में विस्तार से किया गया है । इस
बहस में प्रमुख मुद्दा फ़ासीवाद की परिभाषा थी । इसके तहत फ़ासीवाद की परिभाषा बनाना
था और उसे वास्तविकता पर लागू करके यह तय करना था कि कौन लीग, आंदोलन, पार्टी
या व्यक्ति फ़ासीवादी थे या नहीं थे । विद्वानों ने फ़ासीवाद की एकाधिक परिभाषाएं प्रस्तुत
की हैं । फ़्रांसिसी विद्वान इस मामले में अकेले नहीं हैं । पूरी दुनिया में फ़ासीवाद
संबंधी शोध में फ़ासीवाद के बुनियादी लक्षणों को खोजने की कोशिश होती है ताकि विभिन्न
देशों और कालों में फ़ासीवाद को पहचाना जा सके । इस मामले में असहमति से विवाद पैदा
होते हैं । असल में बहुत सारे इतिहासकार किसी युग के लोगों की मान्यता को दरकिनार करते
हुए अपनी परिभाषा के अनुसार तय करते हैं कि कौन फ़ासीवादी था और कौन नहीं था । इसके
चलते नरमपंथ और फ़ासीवाद के बीच व्यर्थ का वैपरीत्य देखा गया है । लेखक को लगता है कि
फ़ासीवादी न होते हुए भी कुछ समूह लोकतंत्र के लिए घातक हो सकते हैं ।
यूरोप के इतिहास में फ़ासीवाद एक नई ताकत था और तत्कालीन
लोगों ने उसे समझने की कोशिश की । i इटली की युद्धोत्तर राजनीति के हिसाब से इसे
समझने की कोशिश फ़्रांस ने की । फ़्रांसिसी कूटनीतिज्ञ इसे प्रतिक्रांतिकारी परिघटना
मानते थे । राजदूत ने इसे व्यवस्था, देशभक्ति और सुरक्षा का आंदोलन बताया । वाम
ताकतों के विरुद्ध फ़ासीवादी कार्यवाहियों को उसने शुद्धीकरण कहा । उसे हिंसा की
आशंका तो थी लेकिन मुसोलिनी को नरमपंथी समझकर हिंसा पर काबू कर लेने की उम्मीद
जाहिर की । उसके प्रति दूतावास का रुख सकारात्मक रहा । फ़्रांस के अखबारों में 1921
से इटली की हिंसा के समाचार आने शुरू हुए । दक्षिणपंथी अखबारों ने फ़ासीवादी हिंसा
का जश्न मनाया । जब 1922 में मुसोलिनी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया तो
फ़्रांस के कट्टरपंथी अखबारों ने उम्मीद जाहिर की कि इससे दोनों देशों के संबंध
सुधरेंगे । बौद्धिकों ने इटली की इस नई राजनीतिक शक्ति का विश्लेषण शुरू किया ।
1922 में लियोनार्द नामक एक इतिहासकार ने इसे इटली में आसन्न कम्युनिस्ट क्रांति
की प्रतिक्रिया कहा । इसकी कार्यवाहियों को उन्होंने वामपंथियों की हत्या बताया ।
इसके बावजूद उन्होंने इसके भीतर राजशाही से लेकर क्रांतिकारिता तक एकाधिक
प्रवृत्तियों का होना भी स्वीकार किया ।
1923 के शुरू में एक फ़्रांसिसी शब्दकोश में पहली
बार इसे शामिल करते हुए इसका अर्थ सामाजिक विभाजन की ताकतों, खासकर बोल्शेविकों के
विरोध में लड़ने के लिए कटिबद्ध राजनीति पार्टी या वैचारिक आंदोलन की ओर से सभी इतालवी
लोगों को एकताबद्ध करने का प्रयास बताया गया । इटली की खास परिघटना होने के बावजूद
उसको समझने के लिए फ़्रांस के समानधर्मा आंदोलनों से सूत्र हासिल होते हैं । 1925
में एक अखबार ने कुछ नेताओं के फ़्रांसिसी मुसोलिनी कहे जाने का मजाक उड़ाया था ।
अतीत के ऐसे आंदोलनों और व्यक्तियों का उल्लेख होने लगा जो संसदीय लोकतंत्र के
विरोधी, उग्र राष्ट्रवादी और सड़क की हिंसा के पक्षधर थे । फ़्रांस में बहुत सारे
इतालवी रहते थे । उन तक मुसोलिनी के समर्थकों और उसके विरोधी आंदोलनों ने अपनी बात
पहुंचाने की कोशिश की ।
1923 में मुसोलिनी ने विदेशों में रहने वाले
इतालवी लोगों के हितों की देखभाल के लिए एक संगठन बनाया । फ़्रांस के शहरों में
इतालवी आबादी के भीतर फ़ासीवादी समूह प्रकट हुए । सरकार के गुप्तचरों ने इतालवी
सरकार के ढेर सारे समर्थकों को चिन्हित किया । फ़ासीवादी प्रचार चलाने वाले संगठन
भी सक्रिय थे । इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी ने फ़्रांस के इतालवी मजदूरों के बीच
फ़ासीवाद विरोधी अभियान चलाने की कोशिश की ताकि फ़्रांसिसी मजदूरों के साथ मिलकर
फ़्रांस के भीतर इतालवी और फ़्रांसिसी फ़ासीवाद को परास्त किया जा सके । पुलिस ने
सूचना दी कि फ़ासीवाद विरोधी इतालवी लोगों ने गैरिबाल्डी के नाम पर एक लड़ाकू दस्ता
गठित किया है । फ़ासीवाद के कुछ प्रचंड विरोधी भी फ़्रांस में शरण लिए हुए थे । 1923
से 1933 के बीच फ़्रांस में 28 इतालवी फ़ासिस्ट खेत रहे थे ।
1922 से 1932 के बीच फ़्रांस में मुसोलिनी और
इतालवी फ़ासीवाद के बारे में चालीस किताबें छ्पीं । मुसोलिनी की राजनीति के बारे
में शोधग्रंथ भी प्रस्तुत किए गए । फिर भी आम मान्यता यही रही कि युद्ध में फ़्रांस
और इटली के बीच संश्रय के बावजूद इटली की फ़ासीवादी विचारधारा का फ़्रांस में कभी
पूरी तरह अनुमोदन नहीं हुआ । माना जाता था कि इतालवी लोगों के लिए मुफ़ीद होने के
बावजूद फ़्रांस के लिए यह विचार हानिकर है । मुसोलिनी ने भी कहा कि फ़ासीवादी
विचारधारा को इटली के बाहर ले जाना नामुमकिन है । ठीक है कि इस विचारधारा का निर्यात
नहीं हो सकता था लेकिन उसे फ़्रांस के लिहाज से अनुकूलित तो किया ही जा सकता था । इसलिए
अधिकतर वही किया गया ।
उदाहरण के लिए नवम्बर 1922 के रोम मार्च की तरह नवम्बर
1925 में पेरिस की सड़कों पर नीली शर्ट पहने लोगों के मार्च से लगा कि
फ़्रांसिसी फ़ासीवाद का जन्म हो गया है । मार्च में शामिल लोग मुसोलिनी की पार्टी के
सम्पर्की थे और कम्युनिज्म तथा लोकतंत्र से नफ़रत करते थे । उनके नेता ने संसदवाद पर
उल्टी करने की घोषणा की । इन लोगों ने फ़्रांसिसी व्यवसायी हितों के साथ भी मेलजोल कायम
करने की कोशिश की । संसदीय शासन को उखाड़कर ये लोग फ़ासिस्ट तानाशाही लाने के पक्ष में
थे । एक और संगठन पैदा हुआ जो खुद को फ़ासिस्ट तो नहीं कहता था लेकिन फ़ासीवाद के साथ
सहानुभूति रखता था । उसके नेता ने कठोर शासन की स्थापना के लिए हिंसा की जरूरत महसूस
की थी । उसके वर्दीधारी गुंडे विरोधियों और पुलिस से शहर की गलियों में लड़ते थे । इन
लड़ाइयों में कुछ गुंडे मारे भी गए थे । इस तरह के गैर संसदीय समूह चुनावी राजनीति के
मुकाबले प्रत्यक्ष टकराव में यकीन करते थे । कभी कभी ये समूह इतालवी फ़ासिस्टों की सीधी
नकल भी किया करते थे । उनके अंधसमर्थक उनकी हिंसक गतिविधियों को वामपंथी उकसावे की
रक्षात्मक प्रतिक्रिया बताते थे । मुसोलिनी भी सावधानी के साथ ऐसे हमलों की योजना बनाता
था जिनमें कानूनी उलझन न पेश आए क्योंकि समाज में आक्रामक हिंसा को गलत माना जाता था
। फ़्रांस के ये फ़ासीवादी अपनी हिंसा को रक्षात्मक बताते थे । इस प्रचार के धोखे में
कई बार कुछ वाम समर्थक भी आ जाते थे । राजनीतिक दबाव में अनेक पारम्परिक दक्षिणपंथी
नेता भी कई बार उनके साथ खड़े हो जाते थे ।
इस परिस्थिति ने फ़्रांस में फ़ासीवाद विरोध को भी जन्म
दिया । शुरू में इसे इटली में मुसोलिनी विरोधी ताकतों तक ही सीमित समझा जाता था । 1920 दशक के मध्य तक नजर आया कि इटली
में वामपंथ को हिंसक ढंग से पूरी तरह कुचल दिया गया है तो फ़्रांस में वामपंथ ने स्वतंत्र
फ़ासीवाद विरोधी गोलबंदी शुरू की । इस गोलबंदी में कम्युनिस्ट पार्टी ने अगुवाई की ।
1926 में उन्होंने इसके लिए अर्ध सैनिक दस्तों का गठन किया । दक्षिणपंथियों
की सभाओं के विरोध में प्रदर्शन आयोजित किए जाने लगे । सभाओं में घुसकर बहस की जाती
जिसके चलते कई बार फ़ासीवाद समर्थकों से झगड़े भी होते । बाद में जब फ़ासीवादियों की ताकत
कम हो गई तो फिर उनके विरोध का जिम्मा इतालवी वाम का मान लिया गया ।
फ़्रांसिसी फ़ासीवादियों ने मुसोलिनी का अनुकरण तो किया
लेकिन खुद को किसी विदेशी विचारधारा के गुलाम की जगह स्वतंत्र भी साबित करना चाहते
थे । राष्ट्रवादियों के साथ यह दुविधा हमेशा रहती है । वे अपने आंदोलन को स्थानीय परिस्थितियों
की उपज साबित करना चाहते हैं । हिटलर के साथ भी यह दिक्कत थी इसलिए मुसोलिनी के साथ
संबंध जाहिर करने में वह बेहद सावधानी बरतता था । फ़्रांस में भी फ़ासीवादी नेता संसद
पर हमला करने में फ़्रांसिसी तरीका अपनाना पसंद करते थे । वे फ़ासीवादी विचारधारा की
सार्वभौमिकता का जिक्र खुलेआम नहीं करते थे ।
इटली और जर्मनी के बीच 1930 दशक में रिश्तों के बदलाव के
चलते फ़ासीवाद के प्रति फ़्रांस का रुख और भी जटिल हो गया । यूरोप में जर्मनी की ताकत
के प्रतितोल के रूप में मुसोलिनी इटली की ताकत बढ़ाना चाहता था । अब उसने फ़ासीवाद का
इटली के बाहर भी प्रसार करने का फैसला किया । 1932 में उसने दस
साल के भीतर समूचे यूरोप को फ़ासीवादी बनाने का आवाहन किया । इसके लिए उसने एक संगठन
बनाया जिसे फ़्रांस के अधिकारियों ने यूरोप भर में लोकतंत्र को कुचलने की योजना समझा
। 1935 में अंतर्राष्ट्रीय फ़ासीवादी कांग्रेस हुई जिसमें फ़्रांस
की ओर से एक इतालवी फ़ासीवादी संगठक ने भाग लिया । इटली से धन और हथियार फ़्रांस आने
लगे । इससे फ़ासीवादी संगठनों को खूब मदद मिली । 1939 तक फ़्रांस
के अधिकारियों को संदेह हुआ कि इटली फ़्रांस पर हमले की योजना बना रहा है । फिर भी मुसोलिनी
के साथ भले रिश्तों की पैरोकारी फ़ासीवाद समर्थक करते रहे । कुछ लोग इटली जाकर मुसोलिनी
से मिल भी आए । पूर्व सैनिकों में उसके समर्थकों की तादाद अच्छी खासी थी । हिटलर के
साथ फ़्रांस के उतने बेहतर रिश्ते नहीं बन सके । खुद हिटलर फ़्रांसीसियों को जर्मनी का
दुश्मन मानता था । उसके प्रति फ़्रांस में कोई सहानुभूति पैदा न हो सकी । उसे अधिकांश
फ़्रांसिसी लोग नस्लवादी मानते थे ।
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