Saturday, April 4, 2020

स्पेन में फ़ासीवाद से लड़ाई


2012 में ओल्ड स्ट्रीट पब्लिशिंग से डेविड बायड हेकाक की किताब ‘आइ ऐम स्पेन: द स्पैनिश सिविल वार ऐंड द मेन ऐंड वीमेन हू वेन्ट टु फ़ाइट फ़ासिज्म’ का प्रकाशन हुआ । स्पेन में 1936 की जुलाई में गणतांत्रिक सरकार के विरोध में सैनिक विद्रोह हुआ और सेना के मुखिया फ़्रांको ने हिटलर और मुसोलिनी से सैनिक सहायता मांगी । उस महीने के अंत में कोमिंटर्न ने विरोध में गणतांत्रिक सरकार के समर्थन में धन और योद्धा भेजने का फैसला किया । सितम्बर के आरम्भ में समाजवादी नेता प्रधानमंत्री बने । महीने के मध्य में कोमिंटर्न का अंतर्राष्ट्रीय दस्ता गठित हुआ । 1 अक्टूबर को फ़्रांको ने खुद को राष्ट्र प्रमुख घोषित किया । नवम्बर के आरम्भ में माद्रिद के लिए लड़ाई शुरू हुई । मध्य तक फ़्रांको की सरकार को इटली और जर्मनी ने मान्यता दे दी । अगले साल अप्रैल अंत में इटली और जर्मनी की वायुसेना ने गुएर्निका की बमबारी की जिससे हुए विनाश पर पिकासो की मशहूर पेंटिंग है । आखिर 1939 के सितम्बर महीने में ब्रिटेन और फ़्रांस से युद्ध का एलान किया । इन तीन वर्षों तक स्पेन में गृहयुद्ध चला जिसने दुनिया के ढेर सारे प्रतिभाशाली लोगों की जान ले ली ।
स्पेन का गृहयुद्ध ऐसा युद्ध था जिसमें वैचारिक वपरीत्य इतना था कि दोनों पक्ष एक दूसरे को नष्ट करने पर ही आमादा थे । इसमें जीवन शैली, विश्वदृष्टि और मनुष्य के समूचे इतिहास का स्वीकार या नकार दांव पर लगे हुए थे । इस लड़ाई का कोई ऐसा मोर्चा नहीं था जहां सेनापति की योजना के अनुसार सैनिक युद्ध लड़ते, यह लड़ाई तो गलियों और देहाती इलाकों में लोगों ने सहजवृत्ति के आधार पर लड़ी । मैदान में केवल सैनिकों की लाशें नहीं थीं बल्कि सामान्य नागरिक भी नाटकीय मौत मरे । सैनिकों की मशीनगन की गोलियों से छलनी लाशों के साथ ही निहत्थे नागरिकों की निर्मम हत्या भी हुई । इसमें सामूहिक परपीड़ा सुख और विवेकहीन क्रूरता के दर्शन हुए थे ।
यह केवल स्पेन की लड़ाई नहीं थी । युद्ध के मैदान में एक ओर हिटलर और मुसोलिनी की फ़ासिस्ट फौजें तो दूसरी ओर चालीस देशों के हजारों स्वयंसेवकों के साथ रूसी कम्युनिस्टों की मौजूदगी ने उस समय के लोगों के लिए इसे ‘लघु विश्वयुद्ध’ बना दिया था । गृहयुद्ध छिड़ने के कुछ ही हफ़्तों के भीतर दुनिया भर के फ़ासीवाद विरोधियों के लिए स्पेन उम्मीद का प्रतीक बन गया था । लड़ाई स्पेन तक ही सीमित थी और युद्ध के तरीके भी अपेक्षाकृत मद्धम थे इसलिए उसमें शामिल मनुष्यों की आवाजें 1939 की तरह प्रचार तंत्र और धमाकों से दब नहीं गई थीं ।
किताब में उसी युद्ध की दास्तान को स्पेन में बाहर से आकर लड़ने या लड़ाई को दर्ज करने वाले कुछ व्यक्तियों की मिली जुली आवाजों के जरिए सुनाई गई है । ब्रिटेन, अमेरिका, आयरलैंड, स्पेन, फ़्रांस, जर्मनी और हंगरी के तमाम लोगों की जिंदगी को इस लड़ाई ने प्रभावित किया था । इनमें अधिकतर लोग लेखक या कलाकार थे लेकिन इस तथ्य पर जोर देने का मकसद असल लड़ाई में शामिल लाखों स्पेनियों के साथ गणतंत्र की रक्षा में उतरे दसियों हजार अन्य स्त्री पुरुषों की भूमिका को कमतर करना नहीं है । दूसरी बात कि यह कहानी गणतंत्र के पक्ष की कहानी है जिसकी रक्षा के लिए लगभग तीन साल तक वामपंथियों, उदारवादियों और दीगर लोगों ने सैन्यवाद, उत्पीड़न, तानाशाही और फ़ासीवाद की ताकत से कठिन मोर्चा लिया । इस लड़ाई में सबको कोई न कोई पक्ष लेना पड़ा था । किताब भी स्पष्ट पक्षधरता के साथ लिखी गई है । आर्वेल ने कहा था कि स्पेन की लड़ाई के बारे में कोई भी निष्पक्ष लेखन सम्भव नहीं है । 

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