10 मार्च को हिंदी प्रकाशन की दुनिया में सामाजिक विज्ञान के अनन्य प्रकाशन ग्रंथशिल्पी के संचालक श्याम बिहारी राय की सक्रियता पर विराम लग गया । हिंदी प्रकाशन में साहित्य के अतिरिक्त कुछ भी स्तरीय देखना जब असम्भव था उस समय ग्रंथशिल्पी ने समाज विज्ञान की स्तरीय किताबों का अनुवाद छापना शुरू किया । किताबों की छपाई अंग्रेजी प्रकाशकों से होड़ लेती हुई थी । उन्होंने किताब के लेखक के अतिरिक्त मुखपृष्ठ पर अनुवादक का नाम छापकर अनुवादक को और उसके श्रम को प्रतिष्ठा देने का चलन शुरू किया । अपना प्रकाशन खोलने से पहले उन्होंने मैकमिलन के हिंदी प्रभाग में लम्बे समय तक काम किया था । इसके चलते उनके पास स्तरीय किताबों की सूची तो थी ही, पुस्तक के प्रकाशन और वितरण के तंत्र की भी गहरी जानकारी थी । इसका उपयोग उन्होंने बहुत कुशलता के साथ किया ।
उनका समूचा जीवन सादगी और संकल्प का साक्षात उदाहरण था । सोवियत संघ के पतन के बाद हिंदी में मार्क्सी चिंतन की सैद्धांतिक किताबों के अनुवाद छापने का जोखिम भरा काम उन्होंने आजीवन किया ।
तब तक हिंदी के प्रकाशक यह शोर फैला चुके थे कि हिंदी में पाठक नहीं हैं ताकि लेखकों
से पैसे लेकर किताब छापें । हिंदी बोलने वाले इलाके में वाम आंदोलन की कमजोरी लगभग
सर्वमान्य तथ्य है । ऐसे में गम्भीर चिंतनपरक लेखन लगातार छापना साहस से आगे दुस्साहस
कहलाएगा । फिर भी राय साहब ने इस काम को न केवल हाथ में लिया बल्कि बेहद समर्पित भाव
के साथ ताउम्र निभाया । सही बात है कि उनकी किताबें महंगी होती थीं । फिर भी अगर कोई
उनके प्रकाशन तक खरीदने चला जाता था तो अधिकतम छूट देते थे खासकर विद्यार्थियों को
। हिंदी में गम्भीर बौद्धिक साहित्य पढ़ने वाले पाठकों की मौजूदगी का उन्हें भरोसा था
। वे इन पाठकों को पहचानते थे और उनके साथ उनका जीवंत संवाद रहता था । तमाम छोटे छोटे
कस्बों तक उनकी किताबें फोटो स्टैट के सहारे पहुंचती रहीं । मैकमिलन में रहते हुए आनंद
स्वरूप वर्मा और गोरख पांडे से उन्होंने अनुवाद कराए । जिन किताबों के अनुवाद कराए
वे अपने विषय की सर्वोत्तम पुस्तकें थीं । नीहार रंजन रे की
‘भारतीय कला’ का अनुवाद गोरख पांडे ने किया था
। इसके अतिरिक्त जार्ज थामसन की ‘मानवीय सारतत्व’ का भी अनुवाद करवाकर कहीं और से प्रकाशित कराया । जरूरतमंद लोगों की आर्थिक
सहायता का उनका यह अपना तरीका था । अंतिम समय तक वे इस पर कायम रहे । इसीलिए पारिश्रमिक
कम होने के बावजूद बहुतेरे प्रतिभाशाली लोगों ने उनके साथ काम करना पसंद किया ।
उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के बीरपुर गांव के
वे रहने वाले थे । उस जिले में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जमींदारी विरोधी आंदोलन
आजादी के समय चल रहा था । उस आंदोलन के जुझारू नेता सरजू पांडे का उनके गांव आना जाना
होता था । तब भूमिधरों के बीच उन्हें बदनाम करने के लिए एक नारा चलता था-
गली गली में चाकू है, सरजू पांडे डाकू है । भूमिधर
जो भी मानें लेकिन नौजवानों में उनके प्रति जबर्दस्त आकर्षण था । राय साहब पर भी उनका
असर था । उसी असर में पाखंड से समझौता न करने का संकल्प किया और उम्र भर उसे निभाया
। पुत्री के विवाह तक में कोई कर्मकांड नहीं किया । गाजीपुर जिले में कम्युनिस्ट पार्टी
के प्रभाव को समझने के लिए यह तथ्य जानना दिलचस्प होगा कि पहले आम चुनाव में उस जिले
की संसद की और चारों विधानसभा की सीटों पर उसके प्रत्याशी विजयी हुए थे ।
उनकी आरम्भिक शिक्षा दीक्षा बगल के कस्बे मुहम्मदाबाद
से हुई थी । तबके उनके सहपाठी बताते हैं कि कक्षा में लगभग सब समय वे प्रथम स्थान पर
ही रहे । शिक्षा ग्रहण करने और उसके बाद रोजगार की तलाश में वे विभिन्न जगहों पर रहे
और भांति भांति के लोगों के सम्पर्क में आए । मध्य प्रदेश के सागर विश्वविद्यालय से
नंद दुलारे वाजपेयी के साथ उन्होंने शोध किया । बातचीत में अकसर बताते थे कि वाजपेयी
जी की किताबों की रायल्टी से गरीब विद्यार्थियों की आर्थिक सहायता की जाती थी,
घर का खर्च वेतन से चलता था । उनका शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना पर किया
शोध बाद में प्रकाशित और एक हद तक प्रशंसित भी हुआ । इस दिशा में आगे काम तो नहीं किया
लेकिन हिंदी साहित्य की दुनिया से हमेशा जुड़े रहे । हिंदी के साथ अंग्रेजी से भी उन्होंने
स्नातकोत्तर किया था इसलिए वह दुनिया भी उनके लिए अनजानी नहीं थी । रोजगार की तलाश
में उन्होंने कानपुर में भाकपा (माले) के
दिवंगत महासचिव विनोद मिश्र और पार्टी के हिंदी मुखपत्र के सम्पादक बृज बिहारी पांडे
को मिडिल स्कूल में पढ़ाया भी था । इन दोनों से उनका रिश्ता बाद तक बना रहा । बृज बिहारी
पांडे से उन्होंने मार्क ब्लाख की किताब ‘इतिहासकार का शिल्प’
का अनुवाद भी कराया था । पूरी गरिमा के साथ वे इस रिश्ते को निभाते रहे
और इनके बीच अध्यापक शिष्य के मुकाबले साथीपन की गर्माहट का साक्षी होने के नाते कह
सकता हूं कि वे विरल मनुष्य थे ।
प्रतिभाशाली लोगों की अनेकानेक पीढ़ियों को उन्होंने
लम्बे समय तक साथ रखा और विद्वानों की पुरानी पीढ़ी के साथ उनको जोड़ने में पुल का काम
किया । खुद की बेरोजगारी के दिनों में रेलवे स्टेशनों पर वजन की मशीन से निकलने वाले
टिकट की पीठ पर लिखे सूक्ति वाक्य भी तैयार किए । इसके लिए वे तुलसीदास की चौपाइयों
का सहारा लेते थे । इसी वजह से बेरोजगार लोगों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते थे ।
यह मदद उनके स्वाभिमान को बरकरार रखते हुए करने के लिए उनसे अनुवाद या संपादन का काम
करवाते और बदले में धन देते । बहुत सारे लोगों के लिए वे निजी अभिभावक की तरह थे ।
उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि इतने महत्वपूर्ण कामों से जुड़े होने के बावजूद दिखावा
धेले भर का भी नहीं था । लोगों के बारे में उनका मूल्यांकन बेहद अचूक था । लक्ष्य के
लिए समर्पित लोगों के प्रति उनकी श्रद्धा हद से बढ़कर थी । उनके लिए काम करने में बौद्धिक
संतोष होता था । उसका प्रतिदान भी मौद्रिक से अधिक मान्यता के रूप में था । हिंदी जगत
में अनेक लोगों को बौद्धिक मान्यता दिलाने में उनके प्रकाशन से अनूदित और प्रकाशित
ग्रंथों का योगदान रहा है । इस विकट समय में उनकी जिद अपार प्रेरणा देगी ।
प्रकाशन का काम व्यवसाय है । इसमें वे व्यावसायिक
रूप से भी सफल रहे लेकिन इसके लिए मूल्यों से समझौता नहीं किया । शिक्षा,
इतिहास, समाजशास्त्र और अनेकानेक अन्य अनुशासनों
की शायद ही कोई ऐसी महत्व की किताब हो जिसकी जानकारी उनको नहीं हो और उसके अनुवाद की
योजना न बना रखी हो । रामविलास शर्मा ने भरोसे के चलते ही उन्हें रजनी पाम दत्त की
किताब का हिंदी अनुवाद छापने के लिए उन्हें सौंपा था । कला के इतिहास दर्शन के लिए
आर्नल्ड हाउजर के लेखन की सूचना उनको ही थी । जे एन यू में इतिहास दर्शन पर पढ़ाई के
दौरान अपने अध्यापकों के मुख से कभी उनका नाम भी नहीं सुना था । उनके संदर्भ की निजी
बातें किसी और मौके पर करना उचित होगा । फिलहाल इतना ही । पत्नी सुजाता राय भी दिल्ली
विश्वविद्यालय के हिंदी माध्यम कार्यान्यवन निदेशालय से जुड़ी रही थीं । उस प्रकाशन
ने भी अपनी सीमाओं के भीतर अनेक स्तरीय किताबों का प्रकाशन किया ।
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