अमेरिका के 2016 के
राष्ट्रपति पद के चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन को
जनता के वोट तो अधिक मिले लेकिन अमेरिकी चुनाव प्रणाली की विशेषता के चलते जीत
रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प की हुई । सत्ता में रहते हुए ट्रम्प
ने जो कुछ किया उसके चलते इस बार के चुनावों में उनकी हार हुई । खास बात यह रही कि
इन चुनावों के लिए इतने बड़े पैमाने पर गोलबंदी हुई कि दोनों ही प्रत्याशियों को
पिछले सौ साल के सबसे अधिक वोट मिले । ट्रम्प की चुनावी पराजय के बावजूद उनको मिले
समर्थन के चलते माना जा रहा है कि उनकी छाया अमेरिकी समाज और राजनीति पर बनी रहेगी
। बहरहाल हमारे देश में भाजपा के समर्थकों ने पिछले चुनावों में उनकी जीत के लिए जंतर
मंतर पर केक काटा था तो इस बार यज्ञ आयोजित किया था । ट्रम्प की इस लोकप्रियता को
हम वर्तमान राजनीति का लक्षण मान सकते हैं । अमेरिका के राष्ट्रपति भवन में उनके
रहते हुए ढेर सारी किताबें लिखी गयीं । इन किताबों की बिक्री भी खूब हुई । अधिकतर
किताबें उनके विरोध में ही लिखी गयीं । इनके लेखक पत्रकारों के साथ कुछ गम्भीर विचारक भी थे । ट्रम्प की राजनीति में फ़ासीवाद की प्रतिध्वनि भी सुनी गयी ।
2015 में थामस डन बुक्स से माइकेल डि’अन्तोनियो की किताब ‘नेवर एनफ:
डोनाल्ड ट्रम्प ऐंड द पर्सूट आफ़ सक्सेस’ का प्रकाशन हुआ ।
ट्रम्प शेष राष्ट्रपतियों से इस मामले में अलग थे कि वे बेहद धनी प्रत्याशी थे ।
उनका व्यावसायिक अतीत उनके राष्ट्रपति पद पर रहते हुए छाया की तरह निरंतर मौजूद
रहा । उनकी पुत्री इवांका भी फ़ैशन उद्योग से जुड़ी थीं । दामाद कुशनेर भी अथाह
संपत्ति के स्वामी थे । इसके अतिरिक्त भी टेलीविजन की दुनिया में उनका नाम पहचाना
था । टेलीविजन में ध्यानाकर्षण के लिए ही उन्होंने लाल बालों का टोपा लगाना शुरू
किया । उनका मानना है कि इससे स्त्रियों पर डोरे डालना आसान होता है और बुरी नजर
से बचे रहते हैं । खुद के बारे में चर्चा उन्हें इतना पसंद है कि अपनी निंदा भी
उन्हें उचित लगती है । अपनी इसी आदत के चलते पिछले चालीस साल से वे चर्चा के केंद्र
में बने रहे हैं । भू संपदा के विकास यानी भवन निर्माण के धंधे से उनका शुरू में
जुड़ाव रहा । इसके बाद तो संपत्ति और अय्याशी का दूसरा नाम ही ट्रम्प हो गया । गगनचुम्बी
इमारतों, जुआघरों, हवाई जहाजों और सभी कीमती विक्रेय वस्तुओं पर यह नाम सुनहरे
अक्षरों में नजर आने लगा । नव धनिक वर्ग उनका उपभोक्ता था । अनुमानों के मुताबिक
लगभग पूरा अमेरिका इस नाम को पहचानता है ।
2016 में मेलविल हाउस से डेविड के जान्सटन
की किताब ‘द मेकिंग आफ़ डोनाल्ड ट्रम्प’
का प्रकाशन हुआ । इस किताब के लेखक अठारह साल की उम्र से ही खोजी
पत्रकार रहे हैं । इस हैसियत से उन्होंने बहुतेरे भंडाफोड़ किये । तीस साल से वे
ट्रम्प की खबर गहरायी से देखते सुनते रहे हैं और ढेरों साक्षात्कार किये हैं ।
इसीलिए जब ट्रम्प ने राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने के इरादे की घोषणा की तो अन्य
पत्रकार इसे शिगूफ़ा मानते रहे लेकिन लेखक ने इसे सच समझा । उन्हें पता था कि 1985
से ही ट्रम्प इस बारे में सोच रहे थे । 1988 में उन्होंने जार्ज बुश के साथ उप
राष्ट्रपति के बतौर चुनाव लड़ने की चाहत जाहिर की थी । 2000 में रिफ़ार्म पार्टी की
ओर से वे चुनाव लड़े भी । चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने एक कंपनी के प्रचार का भी
अभियान चलाया जो उनके हवाई जहाज का खर्च उठा रही थी । 2016 के चुनाव प्रचार में भी
उन्होंने समूचे अभियान का खर्च अपने व्यावसायिक तंत्र को ही अदा किया । उनके चुनाव
अभियान से उन्हें ही लाभ हुआ । राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी की ओर से प्रचार के लिए इस्तेमाल की जाने वाली चीजों का बाजार भाव पर भुगतान का कानून जब बना था तो उसका मकसद लाभ लेने के लिए कम कीमत पर सेवा प्रदान करने वालों को रोकना था । इसी कानून का सहारा लेकर चुनाव प्रचार से भी ट्रम्प ने लाभ कमाया । इससे पहले 2012 में भी उन्होंने प्रत्याशी बनने की कोशिश की थी और तब उन्होंने इस चर्चा का लाभ एक टेलीविजन कंपनी के साथ अपने एक कार्यक्रम का लाभदायक अनुबंध के लिए उठाया था । इसी वजह से 2016 की उनकी घोषणा को लोगों ने मजाक समझा था । लेखक को उनकी इस घोषणा पर पूरा यकीन था इसलिए पहले दिन से ही उनके प्रचार अभियान को बारीकी से देखने लगे । अपने खोजबीन के आधार पर उन्होंने ट्रम्प के घपलों के बारे में इक्कीस सवालों की एक सूची बनायी, उसे छपाया ताकि अन्य प्रत्याशी और पत्रकार उनसे ये सभी सवाल पूछें । दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ इसलिए लेखक ने ट्रम्प के कारनामों को जनता के सामने लाने के लिए यह किताब लिखी है । ट्रम्प ने अपने आपराधिक इतिहास को छिपाने और मिटाने की पूरी कोशिश की है और झूठ का कारोबार चला रखा है इसलिए यह काम लेखक को जरूरी लगा । असल में ट्रम्प पर हजारों बार तमाम घपलों और धोखाधड़ी के चलते मुकदमे दर्ज हुए हैं । अपने मजबूत प्रचार तंत्र, धौंस धमकी और चालबाजी के बल पर वे कानून की गिरफ़्त में आने से बचे रह सके हैं । झूठ बोलना उनकी आदत में शुमार है ।
2016 में सेन्स पब्लिशर्स से डगलस केलनर
की किताब ‘अमेरिकन नाइटमेयर: डोनाल्ड ट्रम्प,
मीडिया स्पेकटेकल, ऐंड अथारिटेरियन पापुलिज्म’
का प्रकाशन हुआ । लेखक का मानना है कि डोनाल्ड ट्रम्प परिघटना की
व्याख्या आगामी अनेक वर्षों तक अमेरिकी राजनीति के जानकारों के बीच जारी रहेगी ।
मीडिया में तमाशे के रूप में बने रहने की कला का इस्तेमाल ट्रम्प ने पहले अपने
व्यवसाय के लिए किया, फिर टी वी सुपरस्टार बनने के लिए और
फिर राजनीतिक अभियान में इस कौशल का उपयोग किया । असल में ट्रम्प परिघटना के जरिए
अमेरिकी राजनीति में आए बदलावों को समझा जा सकता है । लेखक के अनुसार 1990 दशक के
मध्य से ही अमेरिकी राजनीति और मीडिया में तमाशे की भूमिका बढ़ती गयी है । उस समय
सिम्पसन की हत्या का मुकदमा चला, क्लिंटन पर सेक्स के आरोप लगे और समाचारों की
दुनिया में चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों की आमद हुई । उस समय ही इंटरनेट आया और
सोशल मीडिया के प्रभाव के चलते इस तमाशे में तमाम लोग शामिल होते चले गये ।
2017 में
स्पीगेल & ग्राउ से मैट ताइबी की किताब ‘इनसेन क्लाउन प्रेसिडेन्ट: डिसपैचेज फ़्राम द
2016 सर्कस’ का प्रकाशन हुआ । बताने की जरूरत नहीं
कि यह किताब अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बारे में लिखी हुई है
। लेखक मशहूर पत्रकार हैं । लेखक का कहना है कि 2016 का अमेरिकी
राष्ट्रपति पद के चुनाव का प्रचार अभियान अत्यंत उत्तेजक और घृणास्पद घटना था । इससे
दस साल पहले लिखी लेखक की किताब के निष्कर्षों की पुष्टि हुई । वर्तमान राष्ट्रपति
को रोकने की हरेक कोशिश नाकाम साबित हुई । इससे साबित हुआ कि हमारी राजनीति की कमजोरियों
को जो भी समझता है वह गद्दीनशीन हो सकता है । आश्चर्य की बात थी कि जनता से प्रत्याशियों
और उनसे जुड़े संचार माध्यमों का कोई सम्पर्क नहीं था । 2004 से ही प्रत्याशी और उनके साथ के मीडियाकर्मी एक तरह
की चलायमान जेल में घूमते रहते हैं । बस से निकलकर हवाई जहाज में, फिर हवाई जहाज से निकलकर बस में । निकलकर सभास्थल पर रस्सी से बनाए घेरे के
बाहर या भीतर । रात किसी होटल में छह घंटे की नींद । सुबह से फिर वही सिलसिला । रोज
रोज, हर हफ़्ते । जेल इतनी चुस्त रहती है कि सिगरेट के लिए भी
चुनावी कार्यकर्ताओं की मदद लेनी पड़ती है । इसके जरिए जनता से शासक वर्ग की बढ़ती दूरी
को हम समझ सकते हैं । राष्ट्रपति पद का चुनाव अभियान बुलबुले की तरह होता है और उस
बुलबुले के भीतर रहनेवाले प्रत्याशी और उनके सहयोगी आपस में एक दूसरे को ही देखते सुनते
रहते हैं । इन अभियानों में आम लोग केवल सजावटी उपस्थिति होते हैं । अगर किसी प्रत्याशी को अश्वेत लोगों
का पक्षधर दिखना है तो वह अश्वेत बच्चों के किसी स्कूल में जायेगा और फोटो खिंचवायेगा । अगर मजदूर समर्थक
दिखना है तो किसी कारखाने में जाकर हैट और चश्मा लगाकर फोटो खिंचवायेगा । लेकिन नेता या पत्रकार
लोगों की बात सुनने के लिए कहीं देर तक रुकेगा नहीं । लोगों से सीधे बातचीत करने की
जगह नेता लोग जनमत सर्वेक्षणों पर अधिक भरोसा करने लगे हैं ।
2017 में हेमार्केट बुक्स से नाओमी
क्लीन की किताब ‘नो इज नाट एनफ: रेजिस्टिंग
ट्रम्प’स शाक पोलिटिक्स ऐंड विनिंग द वर्ल्ड वी नीड’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका का कहाना है कि जब से ट्रम्प की सरकार आई है तबसे
ही लगातार चोट पहुंचाने वाली घटनाओं का तांता लगा हुआ है । उन्हें लगता है कि यह सोची समझी कार्यनीति
होती है जिससे भ्रमित लोगों को भेड़ की तरह खास दिशा में ले जाने में आसानी होती है
। इससे लाभ तब होता है जब संकट के बोध से एकताबद्ध जनसमुदाय दुनिया की बेहतरी की दिशा
में बदलाव की समझ अर्जित करते हैं । अब तक इस लेखिका ने वस्तुओं में ब्रांडों के उदय के
बारे में, राजनीतिक व्यवस्था पर निजी संपदा की जकड़बंदी के बारे में,
नवउदारवाद के वैश्विक विस्फोट के बारे में, नस्ली
उन्माद या अन्य के विरुद्ध नफ़रत के रणनीतिक इस्तेमाल के बारे में, कारपोरेट
व्यापार के विनाशकारी प्रभाव के बारे में और दक्षिणपंथ की ओर से जलवायु परिवर्तन को
नकारने के बारे में लिखा था । उन्हें लगता है कि ट्रम्प के निर्माण में इन सब तरह की चीजों का योगदान है
।
2017 में क्लेयर व्यू से टी जे कोल्स
की किताब ‘प्रेसिडेन्ट ट्रम्प, इंक:
हाउ बिग बिजनेस ऐंड नियोलिबरलिज्म एम्पावर पापुलिज्म ऐंड फ़ार-राइट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के मुताबिक किताब दो चीजों
के बारे में है । पहला हिस्सा हमारे समय की प्रभावी आर्थिक नीति के बारे में है जिसे
नवउदारवाद कहा जाता है । इसमें उत्पादन से धन पैदा करने की जगह धन से धन पैदा करना
यानी वित्तीकरण, तमाम तरह के लेनदेन से कारपोरेट घरानों को मुनाफ़ा
मुहैया कराने के लिए नियमों को ढीला करना, बजट में संतुलन के
लिए सामाजिक खर्चों में कटौती तथा टैक्स में छूट देकर कारपोरेट घरानों को डूबने से
बचाना जैसे काम शामिल हैं । किताब के दूसरे हिस्से में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के
बारे में तरह तरह के झूठ का पर्दाफाश किया गया है । इनमें पहला झूठ है कि वे विद्रोही
हैं, दूसरा कि वे कोई आम कामगार अमेरिकी हैं, तीसरा कि वे संरक्षणवादी हैं, चौथा
कि वे वैश्वीकरण के विरोधी हैं और पांचवां कि वे अपने मन से काम करते हैं । किताब में
प्रस्तुत सबूत बताते हैं कि ट्रम्प अरबपतियों के हितों की सेवा करते हैं । शुरू
में लेखक ने नवउदारवाद को स्पष्ट करने का प्रयास किया है तथा यूरोप और अमेरिका की
मुख्य धारा की राजनीति पर इसके असर को भी परखने की कोशिश की है । लेखक का मानना है
कि मतदाताओं की हालिया राजनीतिक उदासीनता भी नवउदारवाद का अंग है । इसके उपरांत निक्सन और रीगन के
दौर की निजीकरण और तमाम किस्म के नियंत्रण समाप्त करने की पूंजीवाद समर्थक नीतियों का विवेचन किया गया है । क्लिंटन के समय भी इन्हीं नीतियों
को जारी रखा गया जिनके फलस्वरूप ट्रेड यूनियनों और राजनीति में भागीदारी घटती गई ।
बढ़ती बेरोजगारी और मध्यवर्ग की हैसियत में गिरावट इन नीतियों के सामाजिक परिणाम थे
। इसके बाद यूरोप और अमेरिका में उत्पन्न अति दक्षिणपंथी समूहों के उभार से
नवउदारवाद के संबंध की छानबीन की गई है । अमेरिका में मोटी कमाई करने वाला मध्यवर्ग
इस राजनीति का सबसे प्रबल समर्थक है । वहां टी पार्टी नामक गुट के हाशिये की
ताकतों ने जब रिपब्लिकन पार्टी के नेतृत्व पर कब्जा कर लिया तो दक्षिणपंथ की
मजबूत राजनीतिक धारा पैदा हुई । 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद इस धारा का
उभार अधिक स्पष्ट हुआ है । असल में यह संकट खुद नियमहीनता और वित्तीय सट्टेबाजी से पैदा हुआ था । अमेरिका की अति
दक्षिणपंथी राजनीति का वर्णन इसके बाद हुआ है । इस व्यापक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में
ट्रम्प शासन की नीतियों का विश्लेषण किया गया है । कुल मिलाकर किताब में ट्रम्प के
शासन को नवउदारवाद से प्रभावित नीतियों की निरंतरता में देखा गया है ।
2017 में वर्सो से डेविड नेइवेर्ट की
किताब ‘अल्ट-अमेरिका: द राइज आफ़ द रैडिकल राइट इन द एज आफ़
ट्रम्प’ का प्रकाशन हुआ । ट्रम्प ने अमेरिका के राष्ट्रपति
पद के चुनाव लिए अपने अभियान की जिस दिन घोषणा की उसके अगले ही दिन एक व्यक्ति ने
चर्च में घुसकर नौ अश्वेतों की गोली चलाकर हत्या कर दी । दोनों घटनाओं का सीधा
आपसी रिश्ता न होने के बावजूद अमेरिका के सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य में आने
वाले गहरे बदलावों की सूचना इन दोनों से मिली । अमेरिका से नस्ली हिंसक सोच कभी
गायब नहीं हुई थी लेकिन राष्ट्रपति पद पर उसकी दावेदारी एकदम ही नयी बात थी ।
2017 में
ज़िरो बुक्स से एन्जेला नाग्ले की किताब ‘किल
आल नार्मीज: द आनलाइन कल्चर वार्स फ़्राम टम्बलर ऐंड 4चान टु द अल्ट-राइट ऐंड
ट्रम्प’ का प्रकाशन हुआ । इसमें इंटरनेट की दुनिया में चलने
वाले संस्कृति युद्धों से प्रभावित पीढ़ी की राजनीतिक संवेदनशीलता का विश्लेषण किया
गया है । लेखक का कहना है कि 2008 में ओबामा के चुनाव जीतने से पहले उम्मीद के
उनके संदेश को ढेर सारे उदार लोगों ने प्रसारित किया था और पहले अश्वेत राष्ट्रपति
के चुने जाने के उत्साह को साझा किया था । इराक और अफ़गानिस्तान पर हमला करनेवाले
बदतमीज राष्ट्रपति के बाद ओबामा का आगमन राहत की बात थी । हिलेरी ने भी इसी उम्मीद
के संदेश पर भरोसा किया । इस बार पुराना जादू नहीं चला और उनकी खिल्ली उड़ायी गयी ।
सवाल है कि इंटरनेट की दुनिया में उम्मीद के प्रसारण से गिरकर वर्तमान ट्रोलिंग तक
कैसे पहुंचा गया । किताब में इसी प्रक्रिया को परखा गया है जिसके तहत मुख्य धारा
की मीडिया की मौजूदगी में उससे इतर नारीवाद, यौनिकता, जेंडर अस्मिता, अभिव्यक्ति
की आजादी और सही होने के सवालों पर इंटरनेट की दुनिया में सांस्कृतिक लड़ाइयां लड़ी
गयीं । इससे पहले साठ और नब्बे के दशक में नौजवानों में उदारवादी और इहलौकिक
संस्कृति के प्रसार के विरोध में पुरातनपंथी लोगों ने जो सांस्कृतिक लड़ायी लड़ी
उससे वर्तमान लड़ाई अलग किस्म की थी । इसमें तमाम किशोर जुआ खिलाड़ी, अनाम फ़ासीवाद
प्रेमी, गुलामी समर्थक फ़ैशनपरस्त, नारीवाद विरोधी और पेशेवर ट्रोलिंग करनेवाले
शरीक थे । यह समूह ऐसा था कि इनके आनलाइन बयानों में किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता को
तलाशना मुश्किल था । इस झुंड के भीतर उदारवादी बौद्धिक सहमति की खिल्ली उड़ाना ही
साझी बात थी । इस नयी संस्कृति में बची खुची सांस्कृतिक संवेदनशीलता की मौत हो गयी
। इस तरह ट्रम्प समर्थकों की विजय में संस्कृति और समाज की आम धारणा का विनाश
निहित था । सूचना की प्रामाणिकता को मीडिया की ताकत समझा जाता है । इस संस्कृति ने
मूल्य के बतौर सत्य पर सवाल खड़ा किया और सूचना तथा अफवाह का अंतर मिटा दिया ।
2017 में ओ/आर
बुक्स से जान के विलसन की किताब ‘प्रेसिडेन्ट ट्रम्प
अनवील्ड: एक्सपोजिंग द बिगाटेड बिलिनेयर’ का प्रकाशन हुआ ।
लेखक का मानना है कि ट्रम्प उसी तरीके से अमेरिका के पैंतालीसवें राष्ट्रपति बने
जिस तरीके से वे अरबपति सेलेब्रिटी बने थे । झूठ बोलना, धोखाधड़ी और चोरी के रास्ते
पर चलकर ही हमेशा वे ऊंचाई पर पहुंचने के आदी रहे हैं । राजनेता झूठ तो बोलते हैं
लेकिन इससे पहले सत्य की अवहेलना करते हुए किसी प्रत्याशी ने इतने सारे मसलों पर
इतने ज्यादा झूठ शायद ही बोले होंगे । लेखक ने इन सबके बावजूद ट्रम्प की जीत के
एकाधिक कारण गिनाये हैं । पहला कारण निर्वाचक मंडल की व्यवस्था है । इसके चलते
पचीस लाख वोट कम मिलने के बावजूद ट्रम्प को जीत मिली । खुद ट्रम्प ने ही ओबामा की
जीत के समय इस व्यवस्था को लोकतंत्र के लिए घातक माना था । अमेरिका में मतदान की
व्यवस्था के साथ कुछ गड़बड़ियों का पुराना इतिहास है । ट्रम्प के समर्थक प्रांतीय
शासकों ने मतदाता पहचान पत्र के ऐसे नियम बनाये जिनके चलते डेमोक्रेटिक पार्टी के
सम्भावित मतदाताओं को पहचान पत्र बनवाना मुश्किल होता गया है । मतदाताओं को वोट
देने से रोकने का एक और तरीका मतदान केंद्र पर लम्बी कतारें लगा देना है ।
सर्वेक्षण में पाया गया कि गोरों के मुकाबले अश्वेतों और लैटिन अमेरिकी मूल के
मतदाताओं को मतदान के लिए अधिक समय तक इंतजार करना पड़ता है । दूसरा कारण हिलेरी का
व्यक्तित्व था । उन्हें राजनेता के मुकाबले कुशल प्रशासक समझा गया । ट्रम्प की
रैलियों में भीड़ तो होती थी लेकिन उनके अंधभक्तों को छोड़कर आम लोग उनके समर्थक
नहीं थे । असल में उन्हें हिलेरी विरोधी वोट मिले थे । हिलेरी के चुनाव अभियान में
ट्रम्प की नीतियों के मुकाबले उनके व्यक्तित्व को निशाना बनाया गया । उनकी नीतियों
से विषमता में बढ़ोत्तरी की बात नहीं की गयी । यह भी साफ नहीं हो सका कि उनकी
नीतियों से रोजगार पैदा होने की जगह समाप्त होंगे । ट्रम्प के व्यक्तित्व से खफ़ा
मतदाता को उनकी नीतियों का विरोधी नहीं बनाया जा सका । लोगों को लगा कि ट्रम्प
युद्ध समाप्त करेगा तथा अमीरीपरस्त राजनीतिक तंत्र की जकड़बंदी को कमजोर करेगा ।
उनकी नीतियों के पक्ष में बहुमत नहीं था । परदेशी कामगारों को निर्वासित करने या
मेक्सिको की सीमा पर दीवार खड़ा करने का समर्थन बहुत कम मतदाताओं ने किया था । तीसरा
कारण ट्रम्प का मीडिया पर बेइमानी का आरोप था । असल में तो मीडिया ने उनकी मदद की
। ट्रम्प की तमाम नफ़रती टिप्पणियों, बेवकूफ़ाना नीतियों और विचित्र विचारों की जितनी निंदा की जानी चाहिए थी उतनी नहीं हुई । इसकी बजाय मीडिया संतुलन बिठाने के चक्कर में उन पर गम्भीर चर्चा करता रहा । मीडिया के बड़े हिस्से पर ट्रम्प के समर्थक थैलीशाहों का कब्जा था, विरोधी मीडिया की पहुंच सीमित थी । मीडिया में काम करनेवालों में ट्रम्प विरोधियों की बहुतायत थी लेकिन उनके मालिकान का दुलारा ट्रम्प ही था । उसे अपनी रैलियों का प्रचार नहीं करना पड़ा, मीडिया ने यह काम उसके लिए किया । जलवायु परिवर्तन और शिक्षा संबंधी ट्रम्प की विनाशकारी नीतियों के बारे में कोई गम्भीर बहस मीडिया में नहीं सुनायी पड़ी । ट्रम्प समर्थक दक्षिणपंथी मीडिया ने मतदाताओं को गहराई से प्रभावित किया । इसने तथ्य के प्रति अपने श्रोताओं और दर्शकों में संदेह और दुराग्रह को जन्म दिया । आखिरी चौथा कारण ट्रम्प की ओर से धोधाधड़ी को कला में बदल देना था । उसने अपने फ़ाउंडेशन को तमाम किस्म के लाभ पहुंचाये, अपनी कंपनियों को दीवालिया घोषित करके देनदारियों से पीछा छुड़ाया और करोड़ो डालर के आयकर का भुगतान नहीं किया । वह ऐसा अरबपति था जो मजदूरों की भाषा बोलने की नौटंकी साध ले गया था । इसके ही सहारे वह खुद को बदलाव और उम्मीद के प्रतीक के रूप में पेश करने में कामयाब रहा । उसने वादों की झड़ी लगा दी । रोजगार, सफलता, खुशहाली, युद्ध की समाप्ति और अमेरिकी जनता के प्रत्येक सपने को पूरा करने का उसने वादा किया । उसने गोरे राष्ट्रवाद को पीड़ित होने का बोध कराया । असल में पेशेवर नौटंकीबाज को बेवकूफ़ श्रोताओं की जरूरत होती है जो उसकी बातों को बिना सोचे समझे मान लें । ट्रम्प के पसंदीदा श्रोता अर्धशिक्षित गोरे थे ।
2017 में
हाट बुक्स से ब्रायन क्लास की किताब ‘द डेस्पाट’स अप्रेन्टिस: डोनाल्ड ट्रम्प’स
अटैक आन डेमोक्रेसी’ का प्रकाशन हुआ । ट्रम्प के बारे में
लिखी अन्य किताबों से अलग इस किताब में लेखक ने उम्मीद से बात शुरू की है । उनका
कहना है कि आज पूरी दुनिया में सपने देखने, स्वशासन करने और मूर्खों से दुनिया
वापस छीन लेनेवाली जनशक्ति का उभार हुआ है । शायद इसीलिए मनुष्य और धरती के शोषण
से मुनाफ़ा पैदा करनेवाली ताकतों और संरचनाओं के बारे में अधिकाधिक जानकारी हासिल
करना हमारी जरूरत है । दो साल पहले लेखक की मुलाकात बेलारूस के राष्ट्रपति पद के
एक प्रत्याशी से हुई थी । वे लोकतंत्र के पक्षधर थे और उन्होंने अपने देश के
तानाशाह के विरोध में शांतिपूर्ण विरोध संगठित किया था । इस अपराध के लिए पिटायी
के बाद उनका अपहरण हुआ और उन्हें जेल में कैद कर दिया गया । परिवार से साल में
केवल एक घंटे बात करने की अनुमति दी गयी । पांच साल उस कैद में बिताने के बाद वे
रिहा किये गये थे । लेखक से उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र को वे मामूली चीज न समझें
। उन्हें आशा थी कि जल्दी ही लेखक उसका महत्व समझेंगे । लेखक तानाशाहों के बारे
में अध्ययन करते हैं । उन्हें लगता है कि ट्रम्प तानाशाही की राह पर कदम बढ़ा चुके
हैं । उन्होंने अमेरिकी लोकतंत्र को पर्याप्त क्षति पहुंचायी है ।
2017 में
नेशन बुक्स से जान निकोल्स की किताब ‘हार्समेन
आफ़ द ट्रम्पोकालिप्से: ए फ़ील्ड गाइड टु द मोस्ट डेंजरस पीपुल इन अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि अमेरिका में राष्ट्रपति का पद एक
संस्था है और उस संस्था का प्रभाव देश के समूचे माहौल पर पड़ता है । इसलिए उस पद पर
बैठे व्यक्तियों की महानता या क्षुद्रता से बड़ी यह संस्था है । उदाहरण के रूप में
उन्होंने बताया कि लिंकन ने अमेरिका को संस्थापकों की कल्पना से भी आगे बढ़कर आजादी
दी, रूजवेल्ट ने न्यायसंगत बनाया और केनेडी ने परिपक्व
अमेरिका को युवा आवेग से संयुक्त किया । ट्रम्प की अगर चली तो अमेरिका अपना सब
हासिल गंवा देगा और अगर उनके विरोधियों की चली तो अधिक मानवीय बनकर उभरेगा ।
2018 में
हेनरी होल्ट ऐंड कंपनी से माइकेल वोल्फ़ की किताब ‘फ़ायर ऐंड फ़्यूरी:
इनसाइड द ट्रम्प ह्वाइट हाउस’ का प्रकाशन हुआ ।
छपते ही यह किताब चर्चित हो गई क्योंकि ट्रम्प का अमेरिका में राष्ट्रपति चुना जाना
आश्चर्यजनक घटना है । इस चुनाव के बाद लगातार उन्हें एक परिघटना की तरह समझने की कोशिश
की जा रही है । इसका कारण यह भी है कि पूरी दुनिया में ऐसे नेताओं की बाढ़ आई है जो
न केवल दक्षिणपंथी हैं बल्कि एक हद तक लोकप्रिय भी हैं । किताब में ट्रम्प के चुनाव
के बाद राष्ट्रपति निवास की अंदरूनी राजनीति की खोजी पत्रकार की नजर से तमाम तरह की
गतिविधियों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है । इसमें ट्रम्प की स्वभावगत अस्थिरता
का खुलासा किया गया है ।
2018 में
रटलेज से हेनरी ए गीरू की किताब ‘द पब्लिक इन पेरिल: ट्रम्प ऐंड द मीनेस आफ़ अमेरिकन आथरिटेरियनिज्म’ का
प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि अमेरिका में लोकतंत्र पर हमला लम्बे समय से जारी
है और हालात ऐसे मोड़ पर पहुंच गए हैं जहां लोगों को लोकतंत्र के समर्थकों और विरोधियों
के बीच चुनाव करना होगा । उन्हें लगता है कि ट्रम्प के फ़ासीवादी या हिलेरी के वाल
स्ट्रीट का दलाल होने पर बहस असली सवालों को दरकिनार करने की कोशिश है । असली सवाल
यह है कि अमेरिका में तानाशाही कायम होने से रोकने के लिए क्या करना होगा तथा
लोकतांत्रिक शासन को सक्षम बनाने के लिए जरूरी नागरिक साहस और जुझारू उम्मीद कैसे
पैदा की जाये । इसी साल सिटी लाइट्स बुक्स से उनकी ही किताब ‘अमेरिकन नाइटमेयर: फ़ेसिंग द चैलेन्ज आफ़ फ़ासिज्म’ का
प्रकाशन जार्ज यान्सी की प्रस्तावना के साथ हुआ । इसमें यान्सी का कहना है कि गीरू
की यह किताब ऐसे समय प्रकाशित हुई है जब अमेरिका का नाजुक लोकतांत्रिक प्रयोग
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के चरित्र, विचारधारा, निर्णय, बोलचाल, बड़बोलेपन और
व्यक्तित्व में साकार नव फ़ासीवाद के उभार से खतरे में पड़ गया है । उनका सत्ता में
बने रहना सचमुच दु:स्वप्न हो गया है लेकिन यह कोई सपना नहीं ठोस सचाई है । गीरू ने
इस किताब में सार्वजनिक बौद्धिक की भूमिका निभाई है । दुखद रूप से अमेरिका के गोरे
लोगों के एक हिस्से में निराशा इतनी गहरी है तथा नस्ली रूप से भिन्न और परदेशी के
प्रति नफ़रत इतनी मजबूत है कि उसने अपनी आत्मा गिरवी रख दी है । ट्रम्प का नारा तो
अमेरिका को फिर से महान बनाने का है लेकिन उसकी आड़ में उन्हें इसे फिर से कुछ ही
गोरे लोगों की जागीर बनाना है । वे ऐसे देश और समाज का सपना बेच रहे हैं जिसमें
नस्ली तौर पर विशुद्ध गोरे लोगों को विशेषाधिकार हासिल हों और शेष लोग कष्ट उठाएं
। उनका राष्ट्रवाद गोरेपन की विशुद्धता की विचारधारा पर टिका हुआ है जिसके मुताबिक
गोरों के इस देश में से अवांछित लोगों को बाहर निकालकर इसे फिर से शुद्ध करना होगा
। देश की सीमा केवल नार्वे से आने वाले गोरों के लिए खुली होगी । गीरू की नजर में
सामाजिक अन्याय के अतीत से मौजूद होने के कारण उसका दीर्घकालीन समाधान तो जरूरी है
ही उसका विरोध तात्कालिक आवश्यकता भी है । इसके लिए प्रतिबद्धता चाहिए और जब
प्रभुत्वशाली ताकतें आलोचनात्मक विवेक को मिटा देने पर आमादा हों तो प्रतिबद्धता
खतरनाक भी हो जाती है । फिर भी गीरू खतरा उठाते हैं क्योंकि उन्हें समय नैतिक
आपत्ति का महसूस होता है । जिस दु:स्वप्न की कल्पना की जाती थी वह आन पड़ा है । यदि
हम राजनीतिक और समाजार्थिक रूप से हाशिए पर खड़े और उत्पीड़ित लोगों की ओर से लड़ने
के लिए व्यापक एकजुटता निर्मित करने की जगह खामोश और लकवाग्रस्त रहे तो जो भी
सकारात्मक है वह सब समाप्त हो जाएगा । विवेक से दुश्मनी राजनीतिक जीवन में ट्रम्प
की विशेषता के रूप में प्रकट हुआ है ।
2018 में
पब्लिकअफ़ेयर्स से मार्क लासवेल के संपादन में ‘फ़ाइट
फ़ार लिबर्टी: डिफ़ेन्डिंग डेमोक्रेसी इन द एज आफ़ ट्रम्प’ का प्रकाशन
हुआ । किताब रिन्यू डेमोक्रेसी इनीशिएटिव के तहत छपी है । इस पहल की शुरुआत 2016 के राष्ट्रपति चुनाव के बाद हुई । तीन दोस्तों ने इस पर सोचा कि राजनीतिक संवाद के पतन, बुनियादी संस्थाओं में विश्वास की कमी और विशेषज्ञों को कुलीन कहकर खारिज करने तथा राजनीतिक तानाशाही और चरमपंथ के उभार को देखते हुए कुछ किया जाए । ये प्रवृत्तियां न तो चुनाव के बाद पैदा हुईं और न ही अमेरिका तक सीमित थीं । जल्दी ही उनकी चिन्ताओं में अन्य लोग भी शरीक होते गए । इन लोगों ने लेखकों, कूटनीतिज्ञों, राजनेताओं, कलाकारों, अभिनेताओं, व्यवसायियों, शिक्षकों, वकीलों, नोबेल सम्मनितों और शतरंज विजेताओं को लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों की रक्षा के लिए एकत्र किया । इनकी सहमति के चलते व्यावहारिक कदम उठाने का सवाल उठा । इस कदम के रूप में यह पहलकदमी शुरू की गई ।
2019 में
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से कुर्ट वीलैंड और राउल एल माद्रिद के संपादन में ‘ह्वेन डेमोक्रेसी ट्रम्प्स पापुलिज्म: यूरोपीयन ऐंड
लैटिन अमेरिकन लेसन्स फ़ार द यूनाइटेड स्टेट्स’ का प्रकाशन
हुआ । संपादकों की भूमिका और उपसंहार के अतिरिक्त किताब में पांच लेख संकलित हैं ।
प्रस्तावना अन्ना ग्रिमाला-बुसे ने लिखी है । उनका कहना है कि ट्रम्प की जीत के
बाद वाइमर जर्मनी और फ़ासीवाद से हालात की तुलना होने लगी है । ढेर सारी किताबों
में लोकतंत्र के खात्मे की बात कही गई है । इसके लिए हिंसक नस्ली और लैंगिक भाषा
के इस्तेमाल का हवाला दिया गया । वर्तमान राष्ट्रपति की ओर से मीडिया, विपक्ष और समाज के हाशिए के समुदायों पर हमले को भी इसका ही लक्षण माना
गया । बीसवीं सदी में दुनिया के कई इलाकों में फ़ासीवाद के साथ इस तरह की प्रक्रिया
चली है इसलिए तुलना करने में आसानी हुई । इसके बरक्स अमेरिकी राजनीति के अध्येताओं
का मानना है कि ट्रम्प को वही मत मिले हैं जो रिपब्लिकन पार्टी को आम तौर पर मिलते
रहे हैं । दूसरी ओर वे अमेरिकी शासन की संघीयता पर भी भरोसा करते हैं । इसमें
राष्ट्रपति के अधिकारों पर तमाम किस्म की कारगर रोकथाम लगी हुई है । इन दोनों मतों
के बीच के अंतर को समझना इस किताब का घोषित उद्देश्य है । इसमें उदारपंथी लोकतंत्र
के भविष्य के बारे में चिंता तो है लेकिन साथ ही शक्तियों के पृथक्करण, राजनीतिक पार्टियों और औपचारिक संस्थाओं की स्थिरता और मतदाताओं के बहुमत
में ट्रम्प विरोध पर भरोसा भी जताया गया है । साथ ही किसी आर्थिक या
अंतर्राष्ट्रीय संकट के न होने से भी लोकतंत्र पर खतरे से इनकार किया गया है
।
2019 में
हार्परवन से पीटर वेहनेर की किताब ‘द
डेथ आफ़ पोलिटिक्स: हाउ टु हील आवर फ़्रेड रिपब्लिक आफ़्टर ट्रम्प’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि राजनीति के बारे में बहुत खराब धारणा
बना ली गई है । इस धारणा के विपरीत लेखक ने उसमें भरोसा पैदा करने के मकसद से यह
किताब लिखी है । तमाम उम्र राजनीति में बिताने के बावजूद यह बात उन्हें अपने आपको
भी याद दिलानी पड़ी है । प्रशासन के साथ लम्बे जुड़ाव के चलते उन्हें ट्रम्प का शासन
अमेरिका के लिए आफत प्रतीत हो रहा है । ऐसे माहौल में भय, चिंता,
गहन निराशा और गुस्से से बाहर आना मुश्किल लग रहा है । दोनों ही
पार्टियों में राजनीतिक नेतृत्व का अकाल नजर आ रहा है । सर्वोच्च पद पर ऐसा आदमी
बैठा हुआ है जिसमें किसी छोटे से शहर का मेयर बनने की भी बौद्धिक और नैतिक क्षमता
नहीं है । लोग वर्तमान स्थिति को लगभग स्थायी मान चुके हैं लेकिन लेखक का आग्रह है
कि अमेरिकी राजनीति का उसके सबसे बुरे समय के आधार पर मूल्यांकन नहीं करना चाहिए ।
इस बुरे समय में ही राजनीति में निहित सम्भावना का भी ख्याल रखना उचित होगा ।
2019 में आल
प्वाइंट्स बुक्स से एलेन साल्किन और आरों शार्ट की किताब ‘द मेथड टु द मैडनेस: डोनाल्ड ट्रम्प’स एसेन्ट ऐज टोल्ड बाइ दोज हू वेयर हायर्ड, फ़ायर्ड,
इन्सपायर्ड- ऐंड इनागुरेटेड’ का प्रकाशन हुआ ।
किताब को में ढेर सारे लोगों की सहायता ली गई है । लेखक के अनुसार ट्रम्प ने
पंद्रह साल तक राजनीतिक दुनिया में प्रवेश पाने की कोशिश की । राष्ट्रपति पद का
प्रत्याशी होने से पहले उसने विस्तार से योजना बनाई । अक्सर लोगों को इस बात पर
विश्वास नहीं होता । वे उसे राजनीतिक रूप से अज्ञानी समझते हैं । लेकिन ट्रम्प ने
काफी सीखा । लोगों का ध्यान आकर्षित करना, अराजकता के भीतर
भी अपने लक्ष्य को न भूलना, मीडिया के इस्तेमाल और जीत की
रणनीति अपना लेने के मामले में उसका कोई जोड़ नहीं । उसकी योजनाबद्धता का सबूत ढेर
सारी कार्यवाहियां हैं । आप्रवासियों के विरोध में माहौल बनाकर मेक्सिको की सीमा
पर दीवार खड़ी करने तक बात गई । लेखकों ने इस पहलू की छानबीन के लिए उसके राजनीतिक
प्रयासों को शुरू से देखा है । सबसे पहले 2000 में रिफ़ार्म पार्टी की ओर से
राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ना चाहा और 2014 में न्यू यार्क का
गवर्नर बनना चाहा । ये मौके थे जिनका लाभ भविष्य की लड़ाई के लिए उठाया गया ।
2019 में
सिमोन & शूस्टर से जूली हिर्शफ़ेल्ड डेविस और माइकेल डी शीयर की किताब ‘बार्डर
वार्स: इनसाइड ट्रम्प’स एसाल्ट आन इमिग्रेशन’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने किताब की
शुरुआत 2018 की चार दिसम्बर से की है जब ट्रम्प ने आंतरिक सुरक्षा मंत्री से सीमा
पर दीवार की बात शुरू की । इसमें अचरज की कोई बात न थी क्योंकि किसी भी बैठक में
ट्रम्प दीवार खड़ा करने का मुद्दा जरूर उठाते रहे थे । उनके दिमाग में सीमा पर दीवार
खड़ी करना उनके राष्ट्रपति होने की सफलता से जुड़ा हुआ था । वे उसका भौतिक अस्तित्व
देखने के लिए बच्चों की तरह बेचैन थे । उसे वे चुनाव अभियान के दौरान सीमेंट की
बनवाने का खयाल करते थे । जीतने के बाद स्टील के पत्तर से उसे बनाने की बात करने
लगे क्योंकि सीमेंट की दीवार के दूसरी ओर कुछ नजर नहीं आयेगा और उसमें सूराख करना
आसान होगा । किसी ने उनसे कहा कि इन पत्तरों को आपस में जोड़ने के लिए ऊपर कुछ
मजबूत रखना होगा तो ट्रम्प को लगा कि लोग रस्सी फंसाकर चले आयेंगे । ट्रम्प को
दीवार की विस्तार से चर्चा करने की आदत पड़ चुकी थी । मंत्री ने उन्हें दीवार की
जमीन के मालिकों की अनुमति हासिल करने की दिक्कत से अवगत कराना चाहा । इसे दरकिनार
करते हुए ट्रम्प ने काम चालू करने की हिदायत दी । वे इसके साथ गहरी खाई भी खुदवाना
चाहते थे । वे किसी भी प्रवासी के लिए अमेरिका में प्रवेश करना असम्भव बना देना
चाहते थे । अगर वे दीवार फांदने की कोशिश करें तो उनके बदन जख्मी कर देने के
इंतजाम करना उन्हें आकर्षित करता था । ऐसे लोगों को ट्रम्प अपराधी समझते थे इसलिए
उनके साथ किसी भी क्रूर आचरण से उन्हें परहेज नहीं था । उनकी कल्पना से उनके
सहयोगी भी डर जाते थे । उनकी इस मनोग्रस्ति के पीछे अमेरिकी और अन्य के बीच गहरे
विभाजन की सोच काम करती थी । इसी सोच के साथ उन्होंने ओबामा के जन्मस्थान का सवाल
उठाया था । इसे खास किस्म का नस्लवाद कहा जा सकता है जिसमें देशी की प्राथमिकता के
भरोसे के साथ परदेशी के प्रति नफ़रत पैदा करने की भावनात्मक सामर्थ्य थी ।
2019 में आल
प्वाइंट्स बुक्स से राबी सोआवे की किताब ‘पैनिक अटैक: यंग रैडिकल्स इन द एज आफ़
ट्रम्प’ का प्रकाशन हुआ । लेखक मिशिगन विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के अखबार की
सहायक संपादक हैं । ओबामा की जीत के समय का माहौल अधिकतर विद्यार्थियों को जीवन का
सबसे महत्व का लगा था । आठ साल बाद ट्रम्प की जीत पर विद्यार्थियों ने आंसू बहाये
। वे दुखी थे और अगले दिन की कक्षाओं में नहीं गये । दूसरे दिन से विरोध
प्रदर्शनों की शुरुआत हुई तो तमाम परिसरों में विरोध का तांता लगा रहा । ट्रम्प की
इस जीत को अधिकांश शिक्षा संस्थानों ने एक किस्म का हमला समझा । 11 सितम्बर की
घटना के बाद सचेत हुए युवकों के लिए ट्रम्प की जीत उनकी चेतना को आकार देनेवाला
मौका साबित हुई । इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस धक्के से वे खामोश होकर बैठ
गये । इसके मुकाबले शिक्षा संस्थानों और अन्य जगहों पर वाम सक्रियता में आशातीत
उभार आया । इस सक्रियता की जड़ अकुपाई आंदोलन में खोजना होगा जिसमें आर्थिक विषमता
का सुसंगत विरोध हुआ था । इन कार्यकर्ताओं का प्रभाव शिक्षा परिसरों में केंद्रित
तो है लेकिन वहीं तक सीमित नहीं है । ये कार्यकर्ता ही डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर
सांडर्स के उभार की प्रमुख वजह हैं । इन्हें पता है कि ट्रम्प की हार उनकी लड़ाई का
महज पहला कदम होने जा रही है । इन कार्यकर्ताओं में पहले की पीढ़ियों के जुझारू
लोगों और उनके संघर्ष की कहानियों के साथ उन लड़ाइयों की प्रेरणा भी मौजूद है ।
2019 में
सिटी लाइट्स बुक्स से नोलान हिगडन और मिकी हफ़ की किताब ‘यूनाइटेड स्टेट्स आफ़
डिसट्रैक्शन: मीडिया मैनिपुलेशन इन पोस्ट-ट्रुथ अमेरिका (ऐंड ह्वाट कैन वी डू
एबाउट इट)’ का प्रकाशन हुआ । राल्फ नादेर ने इसकी प्रस्तावना लिखी है । उनका कहना
है कि बहुमत पर अल्पमत के नियंत्रण की शुरुआत से ही भ्रामक सूचना, झूठ और ध्यान
भटकाने का उपयोग सहमति, समर्पण और प्रभुत्व कायम करने के लिए किया जाता रहा है । इस
तरह के किसी भी नियंत्रण के चलते नुकसान सामन्य लोगों के यथार्थ, जरूरत, मांग और
शिकायत को स्वर देने की उनकी क्षमता का हुआ है । अपने अंतर्निहित परिणामवाद के
चलते उत्पीड़ित लोगों ने अक्सर सोचने की बजाय यकीन कर लिया, विरोध करने की जगह
मंजूर कर लिया । अमीरों के पक्ष में झुके राजनीतिक अर्थशास्त्र ने फिर से आज वही
राह पकड़ी है ताकि जन संचार, शिक्षा और ज्ञान तथा स्मृति के उत्पादन पर कारपोरेट
घरानों का प्रभुत्व कायम हो सके । इसके बावजूद मानव इतिहास में स्वप्नदर्शी,
विद्रोही बौद्धिक, कवि, कलाकार, चिंतक और दार्शनिक भी पैदा होते रहे हैं । फिर भी
ऊपर से नियंत्रण कायम करने में सबसे बड़ी सफलता तब मिलती है जब लोग खुद ही अपने
आपको काबू करने लगते हैं । यही बात व्यापक निगरानी के बारे में कही जा सकती है ।
तमाम किस्म के व्यावसायिक जनसंचार साधनों का उपयोग करते हुए उपभोक्ता अपने बारे
में निजी सूचना साझा करते हैं और इस तरह तानाशाही और निगरानी की व्यवस्था में
सहमति के साथ शामिल हो जाते हैं । नतीजा यह कि समूची आबादी तथ्य विमुख और
अतिमनोरंजित हो जाती है । उनकी अपेक्षा और ध्यान देने की अवधि घटती जाती है ।
तकनीक आधारित बदलावों ने नागरिक के रूप में उनके अधिकारों से जनता का ध्यान भटका
दिया है । लेखकों का मानना है कि ट्रम्प इसी व्यापक कारपोरेट व्यावसायिकता की
पैदाइश हैं । समाचारों के कार्यक्रम भी दर्शक संख्या से तय होने लगे हैं ।
स्वाभाविक है कि गम्भीर रपटों की जगह मनोरंजन, सनसनी, अपराध, तमाशे और दिखावट ने
ले ली है । मीडिया का यह मारक पतन चौतरफा है । किशोरों के स्वाद पर आक्रमण करके
इसने बच्चों में मोटापे और तज्जनित बीमारियों को जन्म दिया है । बड़े कारपोरेट
घरानों के विज्ञापन इस मीडिया को संचालित करते हैं और इस काम को देखने के लिए कोई
सरकारी संस्था प्रभावी नहीं रह गयी है । इन कारपोरेट घरानों ने सैकड़ों अखबारों,
टेलीविजन और रेडियो स्टेशनों को खरीद लिया है । वे गम्भीर रिपोर्ट, खोजी
पत्रकारिता, शिक्षा से जुड़ी सामग्री और स्थानीय कार्यक्रमों में कटौती कर रहे हैं
। पत्रिकाओं की जगह समाप्त होती जा रही है । सोशल मीडिया में ऐसी सामग्री की कोई
जगह नहीं होती । इसके चलते युवा समुदाय अशिक्षित होता जा रहा है । वे देखते अधिक,
पढ़ते कम हैं । प्रचार की सुविधा विस्तारित होने के बावजूद सभाओं, जुलूसों, रैलियों
और विरोध प्रदर्शनों में लोगों की आमद घटती जा रही है । यही वातावरण ट्रम्पशाही को
बनाये रखने में मदद करता है ।
2019 में
रटलेज से माइक कोल की किताब ‘ट्रम्प, द अल्ट-राइट ऐंड पब्लिक पेडागागीज आफ़ हेट ऐंड
फ़ार फ़ासिज्म: ह्वाट इज टु बी डन?’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत ही ट्रम्प की अविश्वसनीय जीत से होती है । उनके पहले अमेरिका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति रहे थे । उन्होंने अपने कार्यकाल में नवउदारवादी पूंजीवाद की क्रूरता पर अंकुश लगाने के मामले में कुछ भी नहीं किया था । अमेरिकी साम्राज्यवादी विस्तार का काम भी उनके समय पूर्ववत जारी रहा था । फिर भी ट्रम्प के आते ही नरक की यात्रा बेधड़क शुरू हुई और उसका वेग प्रचंड हो गया । यहां तक कि
फ़ासीवाद की दिशा में भी यह देश जाता महसूस हुआ । जैसे जैसे उनके समर्थक आधार की
जानकारी स्पष्ट हुई पता चला कि शासक वर्ग के कुछ हिस्सों का उन्हें साथ मिला है
जिनका नाता चरम दक्षिणपंथी ताकतों से है । उनमें कुछ शिक्षा जगत से भी जुड़े हैं ।
इसलिए किताब में देखने की चेष्टा है कि शिक्षा के सहारे नफ़रत और चरम दक्षिणपंथ की
विचारधारा का प्रसार किस तरह होता है । असल में लेखक हमेशा से सांस्थानिक शिक्षा
के सहारे समता को प्रोत्साहित करने के हिमायती रहे हैं और यह भी मानते रहे हैं कि
शिक्षा की भूमिका संस्थानों के बाहर भी होती है । इसे वे जन शिक्षण समझते थे लेकिन
ट्रम्प के चुनाव अभियान को देखकर उन्हें लगा कि यह भी एक किस्म का जन शिक्षण ही है
जिसमें पर्याप्त जोरदारी, नियमितता, क्रोध, उत्साह और भयंकर उन्माद के साथ ट्रम्प
अपने विचारों को सम्प्रेषित कर रहे हैं । इसमें नस्लवाद, स्त्रीद्वेष, जलवायु
परिवर्तन के बारे में झूठ तथा विकलांगता की खिल्ली उड़ाने की कला में व्यापक जनता
को शिक्षित किया जा रहा था । न केवल इतना बल्कि फ़ासिस्ट धारणा वाले व्यक्तियों और
समूहों के विचारों को वैधता भी प्रदान की जा रही थी । इनमें से कुछ समूह तो
बाकायदे औपचारिक शिक्षा संस्थानों के बाहर जन शिक्षण का काम करते हैं । शिक्षा के
क्षेत्र में जो धारणा सामाजिक न्याय के प्रोत्साहन के लिए इस्तेमाल की जाती थी और
जिसे नवउदार पूंजीवाद के विरोध में प्रति प्रभुत्व बनाने का औजार होना था उसी
धारणा के सहारे हम ट्रम्प के गहन प्रतिक्रियावादी जन शिक्षण को भी समझ सकते हैं जो
विषमता बढ़ाने और सामाजिक न्याय को समाप्त करने की दिशा में संचालित परियोजना है ।
2019 में कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस से जास्मीन केरेसी, ईव वेइनबाम, क्लेयर हैमंड्स, टाम जुराविच और डान क्लासन के संपादन में ‘लेबर इन द टाइम आफ़ ट्रम्प’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की
प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के चार भागों में बारह लेख संकलित हैं । पहले भाग
में मजदूरों पर हमले के बारे में तीन सिद्धांतों का जिक्र है । दूसरे भाग में अपना
एजेन्डा आगे बढ़ाने के दक्षिणपंथी तरीकों के बारे में विचार किया गया है । तीसरे
भाग में चुनौतियों और सम्भावित संश्रयों की जांच परख की गयी है । आखिरी चौथे भाग
के लेख मजदूरों की रणनीतियों और उनकी प्रतिक्रिया की छानबीन करते हैं । संपादकों
का कहना है कि दस साल से श्रमिक आंदोलन को अप्रासंगिक कहा जा रहा था लेकिन किताब
के प्रकाशन के समय फिर से उस पर चर्चा होने लगी है । एक ओर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट
ने सार्वजनिक उद्योगों में यूनियनों की भूमिका के लिए खतरनाक रुख अपनाया, निजी
क्षेत्र में यूनियनें लगभग खत्म हो गयीं, राजनीतिक अभियान में कारपोरेट की आर्थिक
सहायता को मान्यता मिलने से यूनियनों का राजनीतिक असर घटा वहीं दूसरी ओर अध्यापकों
ने पूरे अमेरिका में हड़ताल की और जीत हासिल की, 15 डालर प्रति घंटे मजदूरी के लिए
लड़कर वेतन में मजदूरों ने पर्याप्त बढ़ोत्तरी करायी । युवा मजदूरों में यूनियनों के
सदस्य बहुत बने । मजदूरों को संगठित करने के नये तरीकों को ईजाद किया गया । इसका
परिणाम 2018 के चुनावों में नजर आया जब बहुतेरे यूनियन विरोधी रिपब्लिकन नेताओं को
हार का मुंह देखना पड़ा । मजदूरों की मांगों को आम जनता का समर्थन भी पहले से अधिक
मिल रहा है । असल में ट्रम्प की चुनावी जीत ने सोये मजदूरों को जगा दिया और उनकी
मजदूर विरोधी नीतियों ने नयी हलचल पैदा कर दी । इस प्रसंग में संपादकों ने बताना जरूरी
समझा कि ट्रम्प ने वैश्वीकरण का विरोध किया,
कहा कि नुकसानदेह व्यापार समझौतों से अमेरिका को बाहर करेगा और निर्माण
तथा खनन श्रमिकों की रक्षा करेगा । उसने संरचना में भारी निवेश से रोजगार पैदा करने
का झांसा दिया । उसने सामाजिक सुरक्षा को बरकरार रखने, सेहत का
खर्च उठाने और टैक्स सुधार से कामगार परिवारों को राहत देने की बातें कीं । इससे मजदूरों
में उसके प्रति आकर्षण पैदा हुआ था । उसके वादों का कुछ यूनियनों ने समर्थन भी किया
था । शपथ ग्रहण के बाद कुछ यूनियनों के नेता उससे मिले और साथ काम करने का भरोसा दिलाया
। लेकिन थोड़े दिनों बाद ही ट्रम्प की आर्थिक नीतियों का कारपोरेट परस्त चेहरा उजागर
होने लगा ।
2020 में
पालग्रेव मैकमिलन से मार्को मोरिनी की किताब ‘लेसंस फ़्राम ट्रम्प’स पोलिटिकल कम्युनिकेशन:
हाउ टु डामिनेट द मीडिया एनवाइरनमेन्ट’ का प्रकाशन हुआ । किताब में ट्रम्प के
चुनावी प्रत्याशी और जीतने के बाद दो साल के कार्यकाल में उनके राजनीतिक संप्रेषण
का अध्ययन किया गया है । माना गया है कि पांच उपायों के सहारे वे मीडिया पर
प्रभुत्व बनाए हुए हैं । लेखक का कहना है कि पहले प्रत्याशी के रूप में और बाद में
राष्ट्रपति के रूप में ट्रम्प ने सीधे जनता से सम्प्रेषण का महत्व समझा । सबसे
उम्रदराज राष्ट्रपति होने के बावजूद ट्रम्प ने सोशल मीडिया का दुलारा होने में
सफलता प्राप्त की । सभी माध्यमों को धता बताते हुए उन्होंने ट्वीट के जरिये जनता
से संवाद का रास्ता अपनाया । ट्वीट के 140 वर्ण अमेरिका में राजनीति के ढंग ढर्रे
को बदल रहे हैं । जून 2015 में प्रत्याशी होने की घोषणा के बाद से उनके सम्प्रेषण
में कोई बदलाव नहीं आया । पार्टी के भीतर अन्य प्रत्याशियों को पराजित करने के बाद
हिलेरी के विरोध में चुनाव प्रचार और फिर 2018 के मध्यावधि चुनाव तक वे लगातार
प्रचार अभियान में मुब्तिला रहे । राजनीतिक विरोधियों, नागरिक समाज और मीडिया तथा
पत्रकारों पर उनका हमला जारी रहा । पद ग्रहण करने के दूसरे दिन से ही उन्होंने आगामी
चुनाव के लिए चंदा उगाही शुरू कर दी । राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने दूसरी बार
प्रत्याशी बनने का दावा पेश कर दिया था । नौटंकीबाजी को उन्होंने अपनी प्रचार शैली
का अंग बना लिया और इसके जरिये निरंतर चर्चा में बने रहने में कामयाब हुए । तर्क
पर भावना को और चिंतन पर नारों को तरजीह देने की शैली उन्होंने विकसित कर ली ।
भावना ने नेता और श्रोता के बीच एक मजबूत रिश्ता बना लिया । उनके चुटकुलों और
फुलझड़ियों ने उनकी कुलीन विरोधी छवि बनायी । टेलीविजन से जुड़े ट्रम्प के अनुभवों
ने उनके सम्प्रेषण को इतना प्रदर्शनकारी बना दिया कि उसने उनके भांति भांति के
समर्थकों को आपस में जोड़ने का काम किया । युद्ध, लड़ाई, शुद्धता और राक्षसीकरण के
मुहावरे की व्याप्ति ने पाशविक भाषा और क्रूरता की संस्कृति को आम चलन में ला दिया
। भय, हिंसा और तनाव रोज ब रोज की बातचीत का हिस्सा बनते गये । शासन ने अपने कामों
को ऐतिहासिक, सर्वोत्तम और अतुलनीय बताना शुरू किया । जनप्रिय लफ़्फ़ाजी उनके
सम्प्रेषण का अविभाज्य अंग थी । अमेरिकी पत्रकारिता की वर्तमान कमजोरियों के चलते
ट्रम्प की इन चालों ने जबर्दस्त कामयाबी हासिल कर ली । पारम्परिक मीडिया के समक्ष
तकनीक की चुनौती तो है ही, सोशल मीडिया के आगमन ने और भी मुश्किल पैदा कर दी है ।
पत्रकारों में रोजगार को लेकर असुरक्षा बढ़ी है और खबर का स्रोत समाचार एजेंसियां
रह गयी हैं । 24 घंटे के खबरिया चैनलों की आपसी होड़ ने सब कुछ को समाचार मानने की
मजबूरी पैदा की है । ट्रम्प इन हालात को अच्छी तरह जानते हैं इसलिए आक्रामक और
विचित्र बरताव के सहारे वे लगातार चर्चा में बने रहते हैं ।
2020 में
रिवरहेड बुक्स से माशा गेस्सेन की किताब ‘सर्वाइविंग आटोक्रेसी’ का प्रकाशन हुआ ।
इसमें बात यहां से शुरू की गई है कि जब ट्रम्प ने कोरोना के बारे में देश को
संबोधित किया उससे पहले ही इस राष्ट्रपति के बारे में जनता को बहुत कुछ पता था । प्रशासन
के नाम पर उसके पास भंगिमा, गोपन और झूठ, आत्मरति, भयादोहन और धौंस धमकी के सिवा
कुछ नहीं है । बार बार उसने कोरोना को मामूली बुखार या फिर हौवा करार दिया । दो
महीना पहले ही चीन ने उसकी आनुवंशिकी सार्वजनिक तौर पर मुहैया करा दिया था ।
अमेरिका ने कोई तैयारी नहीं की थी । मरीजों की आमद से निपटने को अस्पताल तैयार
नहीं किये गये । सुरक्षा उपकरणों की कमी हो गयी । जरूरी सूचना छिपायी गयी । जब
संक्रमण तेजी से फैलने लगा तो ट्रम्प को हारकर टेलीविजन से जनता को बताना पड़ा । इस
मामले में भी उसने नाटक किया । यूरोप से हवाई यात्रा पर रोक लगाकर हल्ला मचाया कि
तेजी से कार्यवाही की गयी है । दावा किया कि यूरोपीय देशों के मुकाबले इस महामारी से अमेरिका बेहतर तरीके से निपट रहा है । इसमें से कुछ भी सच नहीं था । आखिरकार उसने इसे विदेशी विषाणु कहा और पहले यूरोप, फिर चीन के ऊपर उसके प्रसार का आरोप लगाया । इससे अमेरिका में रहनेवाले एशियाइयों के विरोध में नफ़रती माहौल बना । उस दिन वे लिखित वक्तव्य सुना रहे थे इसलिए उसमें बेवकूफ़ी कम थी । कुछ ही समय बाद वे अपनी असली गति में लौट आये । तैयारी के हालात खराब होने की जिम्मेदारी लेने से उन्होंने इनकार कर दिया । अलग अलग प्रांतों के शासकों पर सब कुछ छोड़ दिया । खुद फर्ज़ी दावे करने तक सीमित रहे । संचार माध्यमों में उनकी जैजै कार होती रही । लोग अस्पतालों में मर रहे थे लेकिन ट्रम्प के भक्त उनकी नीतियों की खूबी बखान रहे थे । उनके रुख में मानव जीवन के प्रति घनघोर उपेक्षा नजर आयी लेकिन उनके समर्थक अपने नेता के स्फीत अह को तुष्ट करने में मशगूल रहे ।
2020 में वाइकिंग से डेविड प्लूफ़ की किताब ‘ए सिटिज़ेन’स गाइड टु बीटिंग डोनाल्ड ट्रम्प’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने ट्रम्प के
चुने जाने के क्षण को याद दिलाया है जब अमेरिका के लोगों को पता चला कि नस्ली,
स्त्रीद्वेषी, यौन हमलों का सिद्ध अपराधी, धोखेबाज व्यवसायी और न्याय में बाधा
डालने वाला व्यक्ति देश और दुनिया में उनका प्रतिनिधित्व करने वाला है । उन्हें
उम्मीद है कि नागरिकों की वह शर्म आज तो और भी गहरा गई होगी । उसे आगामी चार साल न
झेलने के इरादे से लेखक ने यह किताब लिखी है । उनका कहना है कि ओबामा की जीत से
अधिक उत्तेजना का अनुभव उन्हें ट्रम्प की जीत से हुआ था । ओबामा की उस जीत की उत्तेजना
इतनी गहरी न थी कि बाद में उसे टेलीविजन पर फिर से देखने की इच्छा हो लेकिन ट्रम्प
की जीत का धक्का इतना गहरा था कि उस पर यकीन करने में उन्हें बहुत समय लगा ।
2020 में
स्क्रिबनेर से ग्लेन केसलर, सल्वाडोर रिज़ो और मेग केली की किताब ‘डोनाल्ड ट्रम्प
ऐंड हिज एसाल्ट आन ट्रुथ: द प्रेसिडेन्ट’स फ़ाल्सहुड्स, मिसलीडिंग क्लेम्स, ऐंड
फ़्लैट-आउट लाइज’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का कहना है कि राजनीति और कूटनीति से
जुड़े होने के चलते प्रत्येक राष्ट्रपति झूठ बोलता है । कभी कभी उन्हें ऐसा करना
देश के हित में महसूस होता है । संवेदनशील कामों से जुड़ी सूचना से जनता को
होनेवाले नुकसान से बचाने के लिए भी झूठ बोला जाता है । कभी ऐसा शुभेच्छा के कारण
भी होता है ।
2020 में वर्सो से पैट्रिक
काकबर्न की किताब ‘वार इन द एज आफ़ ट्रम्प: द डिफ़ीट आफ़ आइ एस आइ एस, द फ़ाल आफ़ द
कुर्द्स, द कनफ़्लिक्ट विथ ईरान’ का प्रकाशन हुआ । इसी साल अमेरिका में इसका प्रकाशन ओ आर बुक्स से हुआ । किताब में ट्रम्प की जीत के बाद के तीन सालों का विवेचन है । इसमें ईरान के साथ टकराव, आइसिस की पराजय और कुर्दों की वादाखिलाफ़ी की दास्तान सुनाई गयी है । ट्रम्प की जीत जब हुई तो इराक के मोसुल शहर की घेरेबंदी को नौ महीने पूरे हुए थे । इसी लड़ाई ने आइसिस को हराया । वहां से शुरू होकर इराक में कासिम सुलेमानी की ड्रोन से हत्या तक की घटनाओं की जांच परख इस किताब में है ।
2020 में
क्राउन से नार्मन आइजेन की किताब ‘ए केस फ़ार द अमेरिकन पीपुल: द यूनाइटेड स्टेट्स
वर्सस डोनाल्ड जे ट्रम्प’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का संबंध कानून और अदालत से है
इसलिए उसी लहजे में उन्होंने ट्रम्प के अपराधों को अमेरिकी जनता के समक्ष पेश किया
है ताकि वे फैसला सुना सकें । जनता को ही वे गवाह, पीड़ित और जज तथा वकील कहते हैं
। जनता ही इस अपराधी को रोक सकती है या उसके अपराधों को जारी रहने दे सकती है ।
संविधान में मौजूद सारे उपाय पिछले चार सालों में आजमाये गये । कुछ रोक लगी लेकिन
अधिकांश विफल रहे । इस साल आखिरी फैसला जनता को ही सुनाना पड़ा । खुद ट्रम्प, उनके
प्रशासन और उनके सहयोगियों के विरोध में लगभग तीन सौ मामले अदालतों में दायर हुए ।
फिर महाभियोग की कार्यवाही चली । इन सबके साथ लेखक का जुड़ाव रहा । जो कुछ इस
व्यक्ति ने किया वह उसकी आदत का हिस्सा रहा है । देश की सत्ता का घनघोर दुरुपयोग
और फिर अपने कारनामों पर परदा डालना इस व्यक्ति का इतिहास रहा है । पद पर रहते हुए
इस व्यक्ति ने अपने व्यवसाय के लिए सब कुछ किया । लेखक को अपने लम्बे अनुभव के
आधार पर यकीन है कि भविष्य में मौका मिलने पर यह व्यक्ति अपने आचरण में कोई बदलाव
नहीं करेगा ।
2020 में ह्यूटन मिफ़लिन हरकोर्ट से पीटर स्ट्रज़ोक की किताब ‘कम्प्रोमाइज्ड: काउंटरइंटेलिजेन्स ऐंड द थ्रेट आफ़ डोनाल्ड जे ट्रम्प’ का प्रकाशन हुआ । किताब में अमेरिकी जासूसी संस्था से हासिल गोपनीय जानकारियों का
उपयोग किया गया है इसलिए घटनाओं के वास्तविक होने पर भी व्यक्तियों के नाम बदल
दिये गये हैं । लेखक ने ट्रम्प के चुनाव के कुछ ही समय बाद होने वाली एक बैठक से
किताब की शुरुआत की है । इस बैठक में ट्रम्प प्रशासन के सभी प्रमुख लोग शामिल थे ।
सबसे बड़ा सवाल था कि खुद राष्ट्रपति की जांच करना जरूरी लग रहा था । इसके बारे में
फैसला लेने के लिए ही बैठक बुलायी गयी थी ।
2020 में पीटर लैंग से मिम कमाल ओके और हनफ़ी यज़ीची के संपादन में ‘अल्ट्रा-नेशनलिस्ट पालिसीज आफ़ ट्रम्प ऐंड रिफ़लेक्शंस इन द वर्ल्ड’ का प्रकाशन हुआ । किताब में कुल बारह लेख शामिल किये गये हैं । संपादकों के अनुसार अमेरिका के जीवन में 11 सितंबर एक नये युग का आरम्भ माना जा सकता है । उसके बाद गृह और वैदेशिक मामलों में सुरक्षा सबसे महत्व की बात हो गयी । इसकी तार्किक परिणति ट्रम्प का आगमन है । यह भी कि जिस बात का असर अमेरिका पर पड़ता है उससे दुनिया का हरेक मुल्क प्रभावित होता है ।
कुल मिलाकर
समझना होगा कि ट्रम्प कोई व्यक्ति नहीं एक पूरी परिघटना हैं । पूंजी के वर्तमान
संकट ने जिस तरह की राजनीतिक तानाशाही को जन्म दिया है वह केवल अमेरिका तक सीमित
नहीं है । ऐसे शासक तमाम देशों में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की जगह लेते जा रहे
हैं । इन सबमें आपसी घनिष्ठता भी खूब है और सभी एक दूसरे को पसंद करते और सीखते
हैं । इन सबके व्यक्तित्व में प्रचंड अहंकार, झूठ बोलना और आपराधिक कारनामों की
समानता है । इन सबकी आपसदारी के प्रमाण सबने देखे हैं । इनके समर्थक भी आपस में
घुले मिले हैं । उन सबके कारण दुनिया के सामने पूंजीवाद का गर्हित रूप एक बार फिर
उजागर हुआ है । साथ ही यह भी देखा जा रहा है कि इस किस्म के तानाशाह शासकों के
उभार को रोकने में विफल रहने के चलते लोकतंत्र को गहराने और विस्तारित करने की
आकांक्षा और आंदोलनों का भी पूरी दुनिया में प्रसार हुआ है । असल में नव उदारवाद
के बाद मध्यमार्गी राजनीति बहुत कुछ दक्षिणमुखी हो चली थी । इस समय उसका एक हिस्सा
दक्षिण के साथ चला गया है तो दूसरी ओर जन पक्षधर वाम आकांक्षाओं का दबाव भी उस पर
बहुत अधिक है । इसी खींचतान को सबने ब्रिटेन और अमेरिका में कोरबीन और सांडर्स के
उभार के रूप में देखा । इन नेताओं की लोकप्रियता व्यक्तिगत नहीं थी, उसके पीछे
वैचारिक झुकाव थे । इन झुकावों का प्रतिफलन मांगों और गोलबंदियों के रूप में प्रकट
होना निश्चित है । इस पूरे विवेचन से हम अपने देश की राजनीति के बारे में भी कुछ
सीख समझ सकते हैं ।