Thursday, December 5, 2019

एक कविता की कहानी


                
                           
हाल में रविश कुमार ने हर्ष गोयनका के एक ट्वीट में गोरख पांडे की कविता का जिक्र किया है । इससे पहले यह कविता ह्वाट्सऐप में भी एक कागज की पुर्जी पर लिखी हुई प्रसारित होती रही । उसमें इसे गोरख की लिखी हुई बताया गया । राजा और रानी के जिक्र से संदेह पुष्ट भी हुआ । जर्मन कवि बर्टोल्ट ब्रेष्ट की किसी कविता के गीत में अनुवाद के प्रसंग में गोरख जी ने ‘राजा चाहें खून खराबा, रानी झांसापट्टी, चोरवा रात अन्हरिया जइसे सेन्हिया लगाई ।’ की शब्दावली अपनाई थी । गोरख पांडे के किसी संग्रह में लेकिन यह कविता नहीं है इसलिए संदेह हुआ । फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के गोविन्द प्रसाद का नाम भी कविता के साथ जुड़ा । गोरख की कविता की विशेषता शब्द संक्षिप्ति है इसलिए ‘राजा बोला रात है, रानी बोली रात है, ये सुबह सुबह की बात है’ के उनके लिखे होने पर यकीन था । बहरहाल गोविन्द जी का नाम जुड़ने पर उनसे फोन पर बात की तो उन्होंने इसकी लम्बाई थोड़ी ज्यादा बताई । इस कविता के सिलसिले में कुछ अन्य कथाएं भी सुनने में आईं । किसी का कहना था कि अरुंधति राय को यह कविता तिहाड़ जेल के किसी कैदी की मार्फ़त मिली थी । उस कैदी को जे एन यू के किसी विद्यार्थी ने इसे सुनाया था । एक कथा यह भी है कि जब गोरख जी जे एन यू में थे तो राष्ट्रीय नाटक संस्थान के किसी साथी के नाटक के लिए प्रोमोशनल कविता के रूप में उनके मांगने पर उन्होंने इसे लिखकर तत्काल दे दिया था । गोरख जी को नजदीक से जानने वाले सलिल मिश्र ने मुझे बताया कि उनका कुछ भी कमरे में नहीं रहता था । जो कुछ भी होता था वह दिमाग या जेब में होता था । जब भी किसी ने मांगा निकालकर दे दिया । इसलिए इस कहानी पर अविश्वास करना मुश्किल है । उनके कुछ गीत और कविताएं मुझे केवल कैसेट में मिलीं । देहांत के बाद अंतिम कविता तो सचमुच उनकी डायरी से लेकर छापी गई जिसमें नई सदी में युद्ध या शांति की प्रबलता को लेकर चिंता जाहिर की गई थी । खुद मुझे गाजीपुर के एक भोजपुरी कवि की डायरी में उनके हाथ से लिखी कविता देखने को मिली थी । इसके बावजूद जिस रूप में गोयनका जी ने इसे उद्धृत किया है उस रूप में बहुत सम्भव है वह गोविन्द जी की ही हो क्योंकि उसकी संक्षिप्ति गोरख जी वाली नहीं है । वैसे दोनों के जे एन यू से जुड़े होने के कारण आपसी संवाद की सम्भावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता । जो भी हो इस कविता को अब उसके तमाम रूपों में जनता की सम्पत्ति मानना उचित होगा । बहुत सारे मुहावरों और कहावतों का जन्म इसी तरह हुआ होगा । संघर्ष के दौर इसी तरह की रचना को जन्म देते हैं और बार बार उसको नया जीवन देते रहते हैं । मुख्य बात है कि यह खास शब्द संयोजन व्यंग्य की ऐसी तीखी धार को जन्म देता है जो तानाशाही और चाटुकारिता के दु:खद प्रसार को व्यक्त करने में अतुलनीय है । आश्चर्य नहीं कि तानाशाह इस तरह के व्यंग्य से घबराते हैं । किसी भी कवि की गुस्सैल तुर्शी को व्यंग्य में ही सबसे बेहतर अभिव्यक्ति मिलती है और ऐसी कविताओं को जनता में लोकप्रिय होकर ही मुक्ति मिलती है ।          

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