यूरोपीय देशों की कम्यूनिस्ट पार्टियों के दो नेता ऐसे रहे जिन्हें
सोवियत मार्क्सवाद के प्रभाव में उचित महत्व नहीं मिला लेकिन वर्तमान सदी में
फ़ासीवाद के उभार ने इनको फिर से प्रासंगिक बना दिया है । उनमें से एक रोजा लक्जेमबर्ग
की तो हत्या का यह शताब्दी वर्ष है । रोजा का महत्व मार्क्सवाद को लोकतंत्र के साथ
जोड़ने के कारण भी बना हुआ है । उनके साथ ही ग्राम्शी को भी याद रखा जाना चाहिए
जिन्हें इटली की फ़ासीवादी सत्ता से जूझने का दंड घातक कारावास के रूप में मिला ।
फ़ासीवादी चुनौती ही उनके समूचे सैद्धांतिक अवदान का ठोस संदर्भ है । इन दोनों ही
चिंतकों को मार्क्सवाद की सोवियत धारा के समानांतर खड़ा करने के बहुतेरा प्रयास हुए
। वर्तमान समय उनके जीवन और चिंतन को नए आलोक में देखने की प्रेरणा प्रदान कर रहा
है । इस प्रसंग में सोवियत मार्क्सवाद के भीतर भी कोमिंटर्न के योगदान को रेखांकित
करने की जरूरत है । इस संगठन ने पूरी दुनिया में फ़ासीवाद विरोधी गोलबंदी को वाम
तेवर दिया था और उसको निर्णायक तौर पर दफ़न करने में अग्रणी भूमिका निभाई थी ।
2019 में वर्सो से क्लाउस गाइटिंगेर की जर्मन भाषा में 1993 के बाद
2008 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘द
मर्डर आफ़ रोजा लक्जेमबर्ग’ प्रकाशित हुआ । अनुवाद लोरेन
बालहोर्न ने किया है । अंग्रेजी संस्करण की भूमिका में लेखक ने बताया है कि बर्लिन
की दीवार ढहने के तुरंत बाद उनके मन में रोजा की हत्या के बारे में फ़िल्म बनाने का
विचित्र विचार आया । उस समय रोजा किसी की पसंद नहीं थीं । जर्मनी के सार्वजनिक
जीवन में सहसा वे पूरी तरह से अवांछित हो गई थीं । उनके कृत्य शैतानी नजर आने लगे
थे । फ़िल्म के लिए कोई धन देने को तैयार नहीं था फिर भी वे इस क्रांतिकारी के जीवन
के बारे में शोध करते रहे । इसी क्रम में अचानक उन्हें रोजा की हत्या पर चले
मुकदमे के अदालती दस्तावेज हाथ लगे । यह मुकदमा जर्मनी के इतिहास में न्याय का
सबसे बड़ा मखौल था क्योंकि हत्यारों के दोस्त ही जज थे । किताब जबसे छपी तबसे ही
विवाद का विषय हो गई थी । स्वाभाविक था कि रोजा की विचारधारा के विरोधी इसमें
मौजूद तथ्यों से इनकार करते ।
रोजा और लीबक्नेख्त की हत्या के सौ साल बाद माहौल फिर से बदला है ।
रोजा के जीवन और लेखन में रुचि जागी है । 15 जनवरी 1919 को इन दोनों क्रांतिकारियों
की हत्या हुई थी । उनकी हत्या के बाद फ़ासिस्टों के हाथों कम्यूनिस्टों की निर्मम
हत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ । हत्यारों को पक्का यकीन था कि अदालतें कुछ भी नहीं
करेंगी । खास बात यह कि जिस पार्टी के चलते इनकी हत्या हुई थी उसने अब भी इसकी
जिम्मेदारी नहीं ली है । लेखक को उम्मीद है कि शताब्दी वर्ष में शायद यह काम होगा
। हत्या के पचास साल बाद कुछ सबूतों के आधार पर जब एर्तेल नाम के व्यक्ति ने इसके
बारे में नाटक प्रसारित किया तो उन पर मुकदमा चला । डरकर उन्होंने अपनी बात वापस
ले ली । इन सबके चलते आज भी उस हत्या की सचाई पूरी तरह से उजागर नहीं हो सकी है । जर्मनी
के इतिहास की यह घटना ऐसी थी कि लेखक ने जब किताब की बातें एक सभा में साझा कीं तो
हत्यारों की विचारधारा के एक समर्थक ने इनकी सचाई पर सवाल उठाया ।
हत्यारों की पहचान के मामले में स्पष्टता के आंशिक अभाव में तरह तरह
की अफवाहें समय समय पर उड़ती रहती हैं । इन हत्याओं की जड़ में जर्मनी में क्रांति
की कोशिश थी । 1918-19 में जर्मनी के तटीय इलाकों में नौसैनिकों के विद्रोह की
खबरें शासकों के लिए अचम्भे की बात थी । इस विद्रोह से लगभग सभी अफ़सर चकित रह गए । असल में जर्मनी की सेना में समाज की तरह ही सामंती माहौल था । अफ़सर और सैनिक के बीच इतनी दूरी रखी जाती थी कि अफ़सरों को सैनिकों का साहस समझ नहीं आया । शुरुआती विस्मय के
बाद इन अफ़सरों ने बदला लेने की योजना बनाई । वे साधारण जनता को विद्रोह के लिए
उकसाने वाले इन दोनों कम्युनिस्ट नेताओं (रोजा और लीबक्नेख्त) के प्रति प्रचंड नफ़रत से भरे
हुए थे । उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से काम शुरू किया । उन्होंने तेजी से काम करने
वाला एक छोटा समूह बनाया ताकि लाल विद्रोहियों के गढ़ में खास काम तुरंत निपटाया जा
सके । माहौल ऐसा था कि पुरानी व्यवस्था के कल पुर्जे ढीले पड़ गए थे । बर्लिन शहर
जनता के कब्जे में प्रतीत हो रहा था । ऐसे में इस समूह को बाहरी प्रभावों से दूर
रखकर उसके भीतर वैचारिक मजबूती कायम रखना जरूरी था । इसके लिए उनको
प्रतिक्रियावादी विश्व दृष्टि की शिक्षा दी जाती थी । समूह के नेता ने लीबक्नेख्त
के भाषण सुने और उन्हें वैचारिक दुश्मन के रूप में चिन्हित किया । कम्यूनिस्ट
नेताओं के प्रभाव का अंदाजा तब लगा जब उनके सैनिकों ने रोजा का व्याख्यान कराने की
मांग की । अफ़सरों के नेता ने दोनों को दुनिया से उठा देने की ठान ली ।
रोजा
का क्रांतिकारी व्यक्तित्व बहुत
शुरू से चर्चा
का विषय रहा
है । रोजा के इसी महत्व की पहचान सदी के लगभग आरम्भ में ही कराते
हुए 2004 में इमेराल्ड ग्रुप पब्लिशिंग लिमिटेड से सुसान सोडेरबेर्ग
और पी ज़ारेम्बका के संपादन में ‘नियोलिबरलिज्म इन क्राइसिस,
एकुमुलेशन, ऐंड रोजा लक्जेमबर्ग’स लीगेसी’ का प्रकाशन हुआ । किताब में शामिल लेख तीन
भागों में संयोजित हैं । पहले भाग में नवउदारवाद के तहत पूंजी की अनुशासनकारी भूमिका पर
विचार करने वाले लेख हैं । दूसरे भाग में पूंजी संचय और वित्त से संबंधित लेख हैं
। तीसरे भाग में रोजा के जीवन और सिद्धांत से जुड़े लेख हैं । इस तरह के अध्ययन का बड़ा कारण यह था कि लेनिन के साथ ही रोजा का भी नाम मार्क्स के आर्थिक चिंतन को विकसित करने वालों में लिया जाता है ।
इसी तरह 2011 में ब्रिल से डेविड फ़ेर्नबाख
की भूमिका के साथ और उनके संपादन में ‘इन द स्टेप्स आफ़ रोजा लक्जेमबर्ग:
सेलेक्टेड राइटिंग्स आफ़ पाल लेवी’ शीर्षक किताब
का प्रकाशन हुआ । फ़ेर्नबाख का कहना है कि बीसवीं सदी में दो तरीकों से समाजवादी
पार्टियों ने सत्ता पर कब्जा किया । कुछ ने आंशिक सुधारों तक खुद को सीमित रखा
जबकि कुछ अन्य ने चुनावी जनादेश पर बिना भरोसा किए विद्रोह से सत्ता कब्जाई । मार्क्स
ने जिस तरह सोचा था उससे अलग दोनों ही तरीके थे । इनमें मजदूर वर्ग के मकसद को कुछ
आगे बढ़ाने के लिए स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप रास्ता अपनाया गया था । वर्तमान
हालात में पहला रास्ता अपर्याप्त लगता है और दूसरा असंभव । धरती को विनाश से बचाने
का एकमात्र तरीका मौजूदा शक्ति संरचना के विरुद्ध क्रांति है । यह क्रांति
बहुसंख्यक जनता ही करेगी । ऐसी क्रांति करने की कोशिश प्रथम विश्वयुद्ध के फौरन
बाद जर्मनी में हुई थी । क्रांति के शुरू में ही हत्या हो जाने के बावजूद इस
राजनीति के साथ रोजा का नाम अमिट रूप से जुड़ा हुआ है । विश्वयुद्ध से पहले ही
उन्होंने मार्क्सवाद को नया जीवन देने के लिए काफी कुछ किया था । युद्ध शुरू होने
के बाद उनके साथ क्रांतिकारी विपक्ष गोलबंद हुआ । इस समूह का नाम आदि विद्रोही के
नाम पर स्पार्टाकसबुंद था । रूसी क्रांति की प्रेरणा से मजदूरों और सैनिकों का जन
आंदोलन फूट पड़ा था । इससे प्रेरणा लेकर नई क्रांतिकारी पार्टी का गठन हुआ । पंद्रह दिन बाद ही रोजा के साथ
लीबक्नेख्त भी मारे गए । इस तरह एक जबर्दस्त सम्भावना का गला घोंट दिया गया । फिर भी उस क्रांतिकारी प्रयास की याद बनी रही । 2012 में पी एम प्रेस से गैब्रिएल कुह्न
के अनुवाद और संपादन में ‘आल पावर टु द कौंसिल्स: ए डाकुमेन्टरी हिस्ट्री आफ़ द जर्मन रेवोल्यूशन आफ़ 1918-19’ का प्रकाशन हुआ । रूस में जिस तरह 1917 की क्रांति में
सारी सत्ता सोवियतों को का नारा दिया गया था उसी तरह के नारे के साथ जर्मनी में क्रांति
की कोशिश का दस्तावेजी इतिहास किताब में प्रस्तुत किया गया है । रोजा लक्जेमबर्ग और
कार्ल लीबक्नेख्त के लेखों के आधार पर लेखक ने उस कोशिश को समझने का प्रयास किया है
।
2013 में पालग्रेव मैकमिलन से जेसन
शुलमान के संपादन में ‘रोजा लक्जेमबर्ग: हर लाइफ़ ऐंड लीगेसी’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना
और एरिक ब्रोन्नेर के संपादक को दिए साक्षात्कार वाले परिशिष्ट के अतिरिक्त किताब में
ग्यारह अध्याय हैं । संपादक का मानना है कि समाजवादी राजनीति में जो भी चिंतक पूंजीवाद
विरोध के साथ ही लोकतंत्र के लिए संकल्पबद्ध हैं वे रोजा का नाम जरूर लेते हैं ।
राजनीतिक सक्रियता के चलते उन्हें पोलैंड के साथ जर्मनी में भी जेल की हवा खानी
पड़ी थी । वे समाजवादी मजदूर आंदोलन की नायिका तो थीं ही, शहीद भी हुईं । आज भी
उनके सैद्धांतिक और व्यावहारिक अवदान के चलते अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन
में उनकी याद बनी हुई है । इसका सबूत है कि 2015 में वर्सो से
नार्मन गेरास की किताब ‘द लीगेसी आफ़ रोजा लक्जेमबर्ग’
का पेपरबैक संस्करण छपा । इससे पहले 1983 में वर्सो
ने ही इसे छापा था । वर्सो से पहले न्यू लेफ़्ट बुक्स से 1976 में पहली बार इसका प्रकाशन हुआ था । 2015 में ही रटलेज से रोजमेरी एच टी ओ’काने की किताब ‘रोजा लक्जेमबर्ग इन ऐक्शन: फ़ार
रेवोल्यूशन ऐंड डेमोक्रेसी’ का प्रकाशन हुआ । सभी जानते हैं
कि बड़े मार्क्सवादी सिद्धांतकारों में रोजा कम्यूनिस्ट क्रांति के साथ ही लोकतंत्र
के लिए भी प्रतिबद्ध रही थीं और किताब का शीर्षक इसी तथ्य को उजागर करता है ।
2018 में प्लूटो प्रेस से जान निक्सन की
किताब ‘रोजा लक्जेमबर्ग ऐंड द स्ट्रगल फ़ार डेमोक्रेटिक
रीन्यूअल’ का प्रकाशन हुआ । किताब रोजा की जीवनी है और उनके
चिंतन में निहित लोकतंत्र और समाजवादी परंपराओं की एकता पर जोर देती है । इस
संदर्भ में उनके सामने कठिनाई यह थी कि जब लोकतंत्र शासक समुदाय के ही
विशेषाधिकारों की रक्षा और पुनरुत्पादन का साधन बना दिया गया हो तो भी लोकतांत्रिक
कैसे बना रहा जाए । इसके साथ ही उन्हें समाजवाद के मामले में यह दिक्कत लगती थी कि
इसमें भी तथाकथित प्रबुद्ध अगुआ के नेतृत्व में सर्वहारा कार्यकर्ता मात्र बनकर रह
गया था । इसीलिए वे बुर्जुआ लोकतंत्र की आलोचना करने के साथ ही समाजवाद में निहित
केंद्रीकरण के प्रति भी सावधान रहीं । लोकतांत्रिक समाजवाद की संभावना में उनका
विश्वास जीवन भर कायम रहा । समाजवादी के बतौर वे इतिहास को उत्पीड़ितों के
परिप्रेक्ष्य से देखने की हामी रहीं और लोकतांत्रिक के बतौर इतिहास के निर्माण में
इन उत्पीड़ितों की क्षमता में विश्वास बनाए रहीं । इससे तय है कि लोकतांत्रिक
समाजवादी के रूप में वे उत्पीड़न से मुक्ति के लिए इन पीड़ितों के साथ मिलकर सोचने
और काम करने की पक्षधर रहीं । इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय और अंतर्सांस्कृतिक सोच की
तथा मनुष्य की स्वत:स्फूर्तता के महत्व को समझने की जरूरत थी । लेखक की नजर में
रोजा के चिंतन की विशेषता अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता और क्रांतिकारी स्वत:स्फूर्तता
हैं । उनकी इस विरासत को सामाजिक राजनीतिक रूपांतरण में मनुष्य की क्षमता पर उनके
बल के साथ समझना होगा । उनका मानना था कि यह रूपांतरण उत्पीड़ितों, आर्थिक रूप से विपन्न, राजनीतिक रूप से अधिकारविहीन
और सामाजिक रूप से बहिष्कृत जनसमुदाय की चेतना के बल पर ही हासिल किया जा सकता है
।
रोजा के नेतृत्व में जिस क्रांति का प्रयास हुआ था वह असफल तो रही
लेकिन उसके प्रभाव दूरगामी सिद्ध हुए । इसे उजागर करते हुए 2019 में पालग्रेव मैकमिलन
से गार्ड केट्स और जेम्स मुल्दून के संपादन में ‘द जर्मन रेवोल्यूशन ऐंड पोलिटिकल थियरी’ का प्रकाशन
हुआ । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब के तीन भागों में विभिन्न लेख शामिल
किए गए हैं । पहले भाग में क्रांति के बारे में पुनर्विचार संबंधी लेख हैं जिसके
तहत जर्मन क्रांति में स्त्री, जर्मन क्रांति और दक्षिणपंथ,
बीसवीं सदी में क्रांतिकारी बर्लिन, मजदूर
वर्गीय राजनीति, सिद्धांत और रणनीति पर विचार किया गया है ।
दूसरे भाग में जर्मन क्रांति के राजनीतिक सिद्धांतकारों का विश्लेषण है । इसमें
बर्नस्टाइन, काउत्सकी, रोजा, रिचर्ड म्यूलर, गुस्ताव लैंडावर और यहूदी
कार्यकर्ताओं के बारे में लिखे लेख हैं । तीसरे भाग में समकालीन राजनीति सिद्धांत
में जर्मन क्रांति की मौजूदगी दर्ज की गई है । संपादकों का कहना है कि 1918-19 की
जर्मन क्रांति का यूरोपीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान है इसके बावजूद इतिहास
लेखन में इसकी उपेक्षा होती रही है । इसके चलते प्रथम विश्वयुद्ध का खात्मा हुआ,
जर्मनी में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हुई और नाज़ीवाद के उदय में इससे उपजे
टकरावों का निर्णायक योगदान था । इसकी उपेक्षा के चलते इसे विस्मृत क्रांति भी कहा
जाता है । प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ इससे उत्पन्न उथ्स्ल पुथल को भुला
दिया जाता है । सैनिकों और मजदूरों के इस जन आंदोलन ने जर्मनी की सेना में मौजूद
कुलीनता को चुनौती दी जिससे युद्ध का अंत हुआ । जन साधारण की राजनीतिक सक्रियता के
कारण जर्मनी के बादशाही और विषमता भरे समाज में सार्वभौमिक मताधिकार और सामाजिक
अधिकार पर आधारित लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हुई । बहरहाल क्रांति पर जल्दी ही
नाज़ीवाद के उभार और दूसरे विश्वयुद्ध के बादल छा गए । क्रांति के सौवें साल
राजनीतिक चिंतन के विकास में उस क्रांति के योगदान का विश्लेषण होना चाहिए ।
इसके साथ ही फ़ासीवाद से सिद्धांत और व्यवहार दोनों ही मोर्चों पर
युद्धरत अंतोनियो ग्राम्शी के अभिग्रहण पर भी निगाह डालना उचित होगा । पश्चिमी
मार्क्सवाद के पुरस्कर्ता बौद्धिकों ने ग्राम्शी को उनके राजनीतिक सन्दर्भ से
काटकर अकादमिक मूर्ति में बदल दिया और उन्हें रूसी क्रांति के नेताओं के विरोध का
अस्त्र बना लिया । उनकी कुछेक धारणाओं का जिस तरह से उपयोग हुआ उससे वे विश्लेषण
के औजार उपलब्ध कराने वाले व्याख्याता मात्र बना दिए गए । समय बदलने के साथ
ग्राम्शी के बारे में पुराने रुख के साथ ही उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता पर जोर देते
हुए नए तरीके से भी उनकी प्रासंगिकता को उभारने की कोशिश हो रही है ।
2011 में वर्सो से प्रकाशित लुचियो
माग्री लिखित ‘द टेलर आफ़ उल्म: कम्युनिज्म
इन द ट्वेंटीएथ सेंचुरी’ ग्राम्शी की जीवनी तो है ही इटली के
कम्यूनिस्ट आंदोलन की कथा भी बन जाती है । इसका अंग्रेजी अनुवाद पैट्रिक केमिलर ने
किया है । किताब की भूमिका 1989 में कम्यूनिस्ट पार्टी की एक बैठक के विवरण से
शुरू होती है जिसमें पार्टी का नाम बदलने पर विचार हो रहा था । बैठक में एक जर्मन कारीगर
का जिक्र आया जिसने हवाई जहाज उड़ाने की कला सीख लेने का दावा किया था लेकिन उसके
प्रदर्शन के दौरान चोटिल हो गया था । इस दुर्घटना के बावजूद मनुष्य ने उड़ान की
कोशिश नहीं छोड़ी । मानव मुक्ति की मार्क्सवादी परियोजना से इसकी तुलना करने पर
लेखक को लगता है कि दक्षिणपंथ के लिए कम्युनिस्ट विचार नहीं मरा है । उनके वैचारिक
प्रचार में इसकी मुखालफ़त अवश्य होती है । यूरोप की कुछेक छोटी वाम पार्टियों की
चुनावी भागीदारी की खबरें भी कभी कभी आती हैं । लेकिन सोवियत संघ को सकारात्मक से
अधिक नकारात्मक तरीके से ही देखा जाता है । सही बात है कि पूंजीवाद के बारे में
भविष्यवाणी के चलते मार्क्स की वापसी हुई है लेकिन पूंजीवाद के खात्मे का कोई
गम्भीर प्रयास नहीं दिखाई देता । इससे जुड़ी स्मृतियों को खारिज करने के जोम में
समूचे समाजवादी अनुभव और उसके साथ उदारवादी राजनीति और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों
को भी दरकिनार किया जा रहा है । जो भूत यूरोप को सता रहा था उसे दफ़नाया सा जा चुका
है । किसी ने कहा कि कम्युनिस्ट हारे भी और जीते भी । दुनिया बदलने की उनकी
कोशिशों की हार हुई लेकिन पूंजीवादी आधुनिकता और उसके मूल्यों के वैश्विक प्रसार
में उनकी भूमिका रही थी । लेखक के मुताबिक इस माहौल में कम्युनिस्ट परियोजना में यकीन रखने वालों को समीक्षा करनी होगी । लेखक ने यूरोपीय देशों में कम्युनिस्ट होने के तर्क की जटिलता को
प्रस्तुत करते हुए अपने आपसे पूछा है कि क्या फ़ासीवाद से लड़ने और लोकतंत्र की
रक्षा के क्रम में वे कम्यूनिस्ट बने या सोवियत संघ के आकर्षण के चलते । चाहे जो
उत्तर हो इस सवाल के जरिए उन्होंने कम्यूनिस्ट आंदोलन और संगठन के स्थानीय स्रोतों
की ओर ध्यान खींचा है । 2011 में ही रटलेज से मार्कुस
ई ग्रीन के संपादन में ‘रीथिंकिंग ग्राम्शी’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की भूमिका के अतिरिक्त किताब चार भागों में विभाजित
है । पहला भाग संस्कृति और आलोचना से जुड़ा हुआ है और इसमें चार लेख हैं । दूसरा भाग
वर्चस्व, निम्नवर्गीयता और आम समझ जैसी ग्राम्शी की धारणाओं का
विवेचन करनेवाले आठ लेखों का है । तीसरा भाग राजनीति दर्शन का है जिसमें मार्क्सवादी
दर्शन के साथ ग्राम्शी के पेचीदा रिश्तों का विश्लेषण करनेवाले पांच लेख हैं । आखिरी
चौथा भाग ग्राम्शी की जेल नोटबुकों का तात्पर्य खोलने के लिए लिखे पांच लेखों का है
।
2012 में ब्रिल से कारलोस नेलसन काउटिनहो
की पुर्तगाली किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘ग्राम्शी’ज पोलिटिकल थाट’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद पेद्रो सेट्टे-कमारा ने किया है । भूमिका जोसेफ ए बुट्टीगिएग ने लिखी है । उनका मानना है
कि किताब जड़सूत्रवाद से लड़ने में मदद करती है । ग्राम्शी ने शुरू से अंत तक इस
चिंतन का विरोध किया कि इतिहास में सब कुछ तय होता है । रूसी क्रांति को भी
उन्होंने इस तरह की जड़ता पर जनता की क्रियाशीलता की जीत के रूप में देखा था । इसलिए
लेखक ने ग्राम्शी को जड़सूत्र की तरह देखने की जगह आलोचनात्मक नजर से देखा है ।
इसके चलते उन्होंने ग्राम्शी की मौलिक और तलस्पर्शी अंतर्दृष्टि का खुलासा किया है
। ग्राम्शी पूरब और पश्चिम में लड़ाई की रणनीति में अंतर समझाते हैं क्योंकि राज्य
और समाज का आपसी संबंध दोनों क्षेत्रों में भिन्न किस्म का रहा था । इस अंतर को हम
फ़ासीवादी माहौल में अच्छी तरह समझ सकते हैं जब शासन केवल सरकारी तंत्र के भरोसे
चलाने की जगह तरह तरह की अवैध संस्थाओं की सहायता से चलाया जाता है । ऐसे माहौल
में ही शिक्षा और संस्कृति जैसे मामलों को गम्भीरता से समझने तथा वैचारिक संघर्ष
में वर्चस्व कायम करने पर उनके जोर को सही तरीके से समझा जा सकता है । 2014
में ब्रिल से एलन शैन्ड्रो की किताब ‘लेनिन ऐंड
द लाजिक आफ़ हेजेमनी: पोलिटिकल प्रैक्टिस ऐंड थियरी इन द क्लास
स्ट्रगल’ का प्रकाशन हुआ । जिस तरह बौद्धिक जगत में ग्राम्शी
की वर्चस्व की धारणा को पूरी तरह मौलिक और एक हद तक लेनिन का विरोधी बना दिया जाता
रहा है, उसी के खंडन के रूप में यह किताब लिखी गई है ।
2014 में ब्रिल से फ़्रैंक रोजेनगार्टेन
की किताब ‘द रेवोल्यूशनरी मार्क्सिज्म आफ़ अंतोनियो ग्राम्शी’
का प्रकाशन हुआ । किताब के लेख पहले ही विभिन्न अवसरों पर छपे या पढ़े
हुए हैं । किताब चार भागों में है । पहला भाग राजनीतिक चिंतक और कार्यकर्ता के रूप
में ग्राम्शी पर विचार करता है । दूसरा भाग ग्राम्शी के जेल के अनुभवों पर है । तीसरा
भाग ग्राम्शी के तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य पर केंद्रित है । आखिरी चौथा भाग अमेरिका में
ग्राम्शी के दो अनुयायियों के बारे में है । ग्राम्शी को मार्क्सवाद की मूलधारा से
काटकर देखने पर बल देनेवालों को देखते हुए किताब का महत्व बढ़ जाता है । लेखक के मुताबिक
सभी लेख एक ही सवाल के अलग अलग पहलुओं को समझने के क्रम में लिखे गए कि इस समय ग्राम्शी
का महत्व क्या है । इसी क्रम में गाइडो लिगौरी की 2006 में प्रकाशित
इतालवी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘ग्राम्शी’ज पाथवेज’ शीर्षक से 2015 में ब्रिल
से प्रकाशित हुआ । यह अनुवाद डेविड ब्रोडर ने किया है । लेखक ने अंग्रेजी संस्करण के
लिए अलग भूमिका लिखी है । ग्राम्शी की प्रमुख धारणाओं को मार्क्सवाद की परंपरा के भीतर
अवस्थित करने के अतिरिक्त उनकी प्रासंगिकता को भी समझने की कोशिश लेखक ने की है ।
2015 में पालग्रेव मैकमिलन से मार्क
मैकनेली के संपादन में ‘अंतोनियो ग्राम्शी’ का प्रकाशन हुआ । शुरू में संपादक ने ग्राम्शी की जीवनी लिखी है । उसके बाद
किताब में चार भाग हैं । पहले भाग के दो लेखों में ग्राम्शी के ऐतिहासिक संदर्भ को
स्पष्ट किया गया है । दूसरे भाग के दो लेखों में ग्राम्शी से जुड़ी मुख्य बहसों का जायजा
लिया गया है । तीसरे भाग के दो लेखों में प्रमुख धारणात्मक मुद्दों को स्पष्ट किया
गया है और आखिरी चौथे भाग के चार लेखों में समकालीन प्रासंगिकता को समझने की कोशिश
की गई है । इस प्रकार ग्राम्शी के संबंध में समग्र तरीके से विचार करने की चेष्टा इस
किताब में की गई है । अंत में उपसंहार में संपादक ने उन वर्तमान विषयों को गिनाया है
जिनके तहत ग्राम्शी को देखा-परखा जा रहा है । संपादक ने शुरू
में ही साफ कर दिया है कि ग्राम्शी के चिंतन को उनके राजनीतिक व्यवहार से अलगाकर
देखने से भ्रम पैदा होने की सम्भावना है । असल में ग्राम्शी का जीवन क्रांतिकारी
का जीवन था । अपने विचारों की प्रतिबद्धता के चलते उन्हें कैद और मृत्यु का वरण
करना पड़ा । 2015 में
ही रटलेज से जान श्वार्ज़मान्टेल की किताब ‘द रटलेज गाइडबुक टु
ग्राम्शी’ज प्रिजन नोटबुक्स’ का प्रकाशन
हुआ । इसमें ग्राम्शी की मशहूर नोटबुकों के अध्ययन के लिए सहायिका की तरह तैयार किया
गया है । सबसे पहले इन नोटबुकों से पहले के ग्राम्शी का विवेचन है । इसके उपरांत इनकी
प्रकृति और उद्भव पर विचार किया गया है । फिर नोटबुकों के अलग अलग विषयों- बुद्धिजीवी और शिक्षा, इतिहास और आधुनिकता, राजनीति और राज्य तथा नागरिक समाज, दर्शन और मार्क्सवाद-
का विश्लेषण करने के बाद इनके उत्तर-जीवन और प्रभाव
को समझा गया है ।
2016 में ब्रिल से मार्कोस डेल रोइओ
की 2015 में पुर्तगाली में प्रकाशित किताब का अंग्रेजी अनुवाद
‘द प्रिज्म्स आफ़ ग्राम्शी: द पोलिटिकल फ़ार्मूला
आफ़ द यूनाइटेड फ़्रंट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि
ग्राम्शी के लेखन में फ़ासीवादी शासन द्वारा उन्हें कैद कर लेने के बाद की जेल
डायरियों को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है और उन्हें ग्राम्शी के शेष लेखन या
राजनीतिक आचरण से काटकर देखा जाता है । लेखक के मुताबिक इस तरह की धारणा के विपरीत
ग्राम्शी का लेखन उनकी पार्टी के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है । इसी साल ब्लूम्सबरी
एकेडमिक से जार्ज होर और नथान स्पर्बर की किताब ‘ऐन
इंट्रोडक्शन टु अंतोनियो ग्राम्शी: हिज लाइफ़, थाट ऐंड लीगेसी’
का प्रकाशन हुआ । प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में ग्राम्शी के
जीवन, चिंतन, अनुप्रयोग और विरासत
संबंधी चार विभाग हैं । एक हिस्से में अध्ययन की उपलब्ध सामग्री का भी विवेचन है ।
लेखकों का मानना है कि ग्राम्शी के नाम पर लेखन का जखीरा है जिसके चलते तरह तरह के
ग्राम्शी बन गए हैं । इसकी जगह वे सुसंगत और एकताबद्ध ग्राम्शी की भावना पर बल
देते हैं । इसके लिए वे अपने समय को समझने के क्रम में ग्राम्शी द्वारा निर्मित और
विकसित सैद्धांतिक उपकरणों को देखने का आग्रह करते हैं ।
हमने पहले ही जिक्र किया था कि पूरी
दुनिया के कम्युनिस्टों ने रूसी क्रांति के बाद स्थापित कोमिंटर्न के दिशा निर्देश
के अनुरूप फ़ासीवाद से लड़ाई लड़ी । आगे हम कोमिंटर्न संबंधी अध्ययनों के जरिए इस
संघर्ष की रूपरेखा देखेंगे । प्रसंगवश दिमित्रोव ने कोमिंटर्न में ही फ़ासीवाद के
बारे में अपनी थीसिस पेश करते हुए संयुक्त मोर्चे की नीति प्रस्तावित की थी ।
दुर्भाग्य से कुछेक बुद्धिजीवी कोमिंटर्न को अलग अलग देशों के कम्युनिस्ट आंदोलन
के विकास के लिए अहितकर समझते हैं । असल में सच्चाई इतनी एकहरी कभी नहीं होती ।
फ़ासीवाद के विरोध में राजनीतिक से लेकर साहित्यिक-सांस्कृतिक मोर्चों तक व्यापक
गोलबंदी के पीछे कोमिंटर्न की प्रेरणा रही थी ।
2002 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से मैनुएल कबारेलो
की किताब ‘लैटिन अमेरिका ऐंड द कोमिंटर्न: 1919-1943’
का पेपरबैक संस्करण प्रकाशित हुआ । मूल रूप से इसका प्रकाशन
1986 में हुआ था । यह किताब कैम्ब्रिज लैटिन अमेरिकन स्टडीज के तहत प्रकाशित
हुई थी । भूमिका में किताब का संदर्भ स्पष्ट करते हुए लेखक बताते हैं कि लैटिन अमेरिका
में कोमिंटर्न का इतिहास आम तौर पर अलग अलग कम्युनिस्ट पार्टियों के राजनीतिक और सांस्थानिक
इतिहास के जमाजोड़ के बतौर समझा जाता है । इस समझ का उपयोग अन्य चीजों के लिए हो सकता
है लेकिन तीसरे इंटरनेशनल को समझने में इससे सहूलियत नहीं होती । इसके अंतर्राष्ट्रीय
चरित्र, इसके केंद्रीय संगठन और विश्वक्रांति के उसके अंतिम लक्ष्य
से पैदा होने वाली उसकी विशेषता ओझल हो जाती है । कोमिंटर्न के नेताओं को गंभीरता के
साथ कभी यह यकीन नहीं रहा कि यूरोप या एशियाई मुल्कों में क्रांति के बिना लैटिन अमेरिका
में समाजवादी क्रांति संभव है । 1919 में इसकी स्थापना के पीछे
लक्ष्य ही रूस से शुरू हुई विश्वक्रांति की प्रक्रिया को पूरा करना था । लेनिन और उनके
साथियों को लगा कि विश्वकांति की जो आग उन्होंने रूस में जलाई है वह जर्मन क्रांति
की सफलता के साथ पश्चिमी यूरोप में फैलेगी । इस उम्मीद के पूरा न होने की स्थिति में
एक साल बाद उन्होंने एशिया से उम्मीद बांधी । लैटिन अमेरिकी नेताओं को विश्वकांति के
समर्थक की भूमिका निभानी थी । बहरहाल लैटिन अमेरिका में कोमिंटर्न का असर तेजी से फैला
। सैद्धांतिक क्षेत्र में यह असर ढेर सारे यूरोपीय एशियाई देशों के मुकाबले काफी दिनों
तक बना रहा । यूरोपीय और एशियाई देशों के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट पार्टियों
की स्थापना लैटिन अमेरिकी देशों में हुई । 1930 के दशक में अलसल्वाडोर
और ब्राजील में तथा 1940 के दशक में चिली में कम्युनिस्टों के
नेतृत्व में विद्रोह हुए । ये कार्यवाहियां अधिकांश यूरोपीय और एशियाई देशों के मुकाबले
पहले हुईं । कोमिंटर्न के विघटन के बीस साल बाद भी क्यूबा की क्रांति की अगुआ पार्टी
ने उसके नारों और लैटिन अमेरिकी महाद्वीप की क्रांतिकारी संभावना की उसकी समझ के आधार
पर खुद को लेनिनीय समाजवादी आंदोलन का अंग घोषित किया । इन परिघटनाओं को सोवियत संघ
के सैनिक, औद्योगिक और राजनीतिक प्रभाव से जोड़ना आसान है । असल
में रूस को कम्युनिज्म से अलगाना बेहद कठिन है लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि सोवियत
संघ के महाशक्ति बनने से पहले ही यूरोप, एशिया और लैटिन अमेरिका
में अक्टूबर क्रांति का प्रभाव गहरा चुका था । अगर इसे खासकर बुद्धिजीवियों में महज
मार्क्सवाद का असर कहा जाए तो बात पूरी नहीं होगी । उन्हें विश्व ऐतिहासिक प्रक्रिया
की व्याख्या के रूप में मार्क्सवाद ने तो आकर्षित किया ही, लेकिन
क्रांति घटित होने की वास्तविक संभावना के बतौर लेनिनीय सिद्धांत और पद्धति ने उसे
ठोस आधार दिया था । कम्युनिस्ट पार्टी की मौजूदगी से लेनिनवाद का जुड़ाव गहरा है और
कोमिंटर्न के अस्तित्व से कम्युनिस्ट पार्टी का, और कोमिंटर्न के अस्तित्व की उपेक्षा
करने से समकालीन विश्व इतिहास, खासकर दोनों विश्वयुद्धों के बीच के इतिहास की सही समझ
नहीं बन सकेगी । इसी तरह किसी लैटिन अमेरिकी विद्वान को लग सकता है कि क्यूबा की क्रांतिकारी
सरकार की वजह से लैटिन अमेरिका में लेनिनवाद का असर है लेकिन यह सरलीकरण होगा क्योंकि
लेनिनवाद का असर खुद क्यूबा के भीतर भी 1959 से पहले से था ।
तमाम कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार के बावजूद सच यही है कि दोनों विश्वयुद्धों के बीच लैटिन
अमेरिका में लेनिनवाद की ठोस उपस्थिति थी । इसकी अभिव्यक्ति विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट
पार्टियों की स्थापना के जरिए होती है । लैटिन अमेरिका में कोमिंटर्न का इतिहास इस
इलाके में बीसवीं सदी के दौरान क्रांतिकारी आंदोलनों के इतिहास से घनिष्ठ तौर पर जुड़ा
हुआ है । बहरहाल कोमिंटर्न के बारे में विश्व संगठन के बतौर जो कुछ कहा गया है कमोबेश
वही लैटिन अमेरिका में इसके इतिहास पर भी लागू हो सकता है । इस सदी के या शायद समूचे
इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी संगठन होने के बावजूद इसका अध्ययन
बहुत कम हुआ है । इसका एक कारण यह है कि इसकी अधिकांश गतिविधियां भूमिगत तौर पर संचालित
होती थीं और इसीलिए इसका इतिहास निर्मित कर पाना बेहद कठिन हो जाता है ।
2019 में ब्रिल से जान सेक्सटन के संपादन में ‘एलायंस आफ़ एडवर्सरीज: द
कांग्रेस आफ़ द ट्वायलर्स आफ़ द फ़ार ईस्ट’ का प्रकाशन हुआ । किताब में कोमिंटर्न की
1922 की एक कांग्रेस के दस्तावेजों का संकलन किया गया है जो कोमिंटर्न की
राष्ट्रीयता संबंधी नीति के विस्तार के रूप में धुर पूरब के देशों के लिए अलग से
आयोजित की गई थी । संपादक ने कोमिंटर्न के बारे में बताया है कि प्रथम विश्वयुद्ध
में दूसरे इंटरनेशनल की राष्ट्रवाद संबंधी नीतियों की प्रतिक्रिया में 1919 में
इसे गठित किया गया था । इसका मकसद विश्व पूंजीवाद का खात्मा और समाजवादी सत्ता की
स्थापना था । 1943 में अपने अवसान के पहले इसकी सात कांग्रेसों का आयोजन हुआ ।
संगठन तो बहुत बड़ा नहीं था लेकिन 1920 और 1930 के कठिन दशकों में अत्यंत
प्रभावकारी तरीके से इसने विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन का नेतृत्व किया ।
इसका लक्ष्य केंद्रीकरण था लेकिन इसकी संरचना और गतिविधियों में
मतभेदों के लिए पर्याप्त जगह थी । कांग्रेसों में विरोधी विचार भी व्यक्त होते थे
और उन पर तीखे विवाद भी चलते थे । इसकी दूसरी कांग्रेस में लेनिन ने जातीयता और
औपनिवेशिक सवाल के बारे में मशहूर थीसिस प्रस्तुत की जिसके चलते ही एशियाई क्रांति
को विश्व क्रांति की कुंजी के बतौर ग्रहण किया गया । उनके दिमाग में कहीं विकसित
देशों के मजदूरों के साथ साम्राज्यवाद विरोधी संश्रय, सोवियत सत्ता और उपनिवेशवाद
विरोधी संघर्षों का एका कायम करने की रणनीति थी । बहरहाल उपनिवेशित देशों की
बुर्जुआ ताकतों के साथ एका के सवाल पर विवाद पैदा हो गया । मानवेंद्र नाथ राय के
नेतृत्व में पूरक थीसिस भी पारित हुई । दूसरी कांग्रेस के बाद दो सम्मेलन हुए ।
1920 में बाकू में पूरब के लोगों की कांग्रेस और 1922 में पेत्रोग्राद में धुर पूरब
के कमेरों का सम्मेलन । बाकू कांग्रेस के मुकाबले पेत्रोग्राद सम्मेलन छोटा था ।
इसमें चीन, जापान, कोरिया और मंगोलिया से लगभग 150 प्रतिनिधि शरीक हुए । इसके
बावजूद इस सम्मेलन का असर अधिक दूरगामी सिद्ध हुआ क्योंकि इसमें संबंधित देशों के
वास्तविक नेता और समूह मौजूद थे ।
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