यह साल सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रांति का शताब्दी वर्ष तो
है ही, उस क्रांति के सैद्धांतिक सवालों को सटीक तरीके से उठाने और सुलझाने वाली
लेनिन की मशहूर किताब ‘राज्य और क्रांति’ के लेखन का भी शताब्दी वर्ष है । अक्टूबर
क्रांति के युगांतरकारी स्वरूप के बारे में ढेर सारे विद्वानों ने लिखा है । रूस
की उस क्रांति का प्रभाव इतना गहरा था कि आज भी तमाम विकसित और विकासशील दुनिया
में उसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है । वह क्रांति वाम आंदोलन के भीतर के अवसरवाद और
अराजकतावाद से निर्मम वैचारिक लड़ाई लड़ते हुए संपन्न हुई थी । इस तीखी लड़ाई का अक्स
इस किताब में मौजूद है ।
रूसी क्रांति का गहरा रिश्ता प्रथम विश्व युद्ध से है । इसी
विश्व युद्ध ने अन्य सामाजिक जनवादियों से लेनिन को अलग कर दिया था । दूसरे इंटरनेशनल
से जुड़े अन्य नेताओं ने जहां इस युद्ध में अपने अपने देशों के शासकों का साथ दिया था
वहीं लेनिन ने इस युद्ध के जनविरोधी साम्राज्यवादी चरित्र को पहचानकर इससे पैदा संकट
का क्रांति की जीत के लिए इस्तेमाल किया । रूस की अक्टूबर क्रांति पूरी व्यावहारिक
के साथ साथ सैद्धांतिक तैयारी के साथ संपन्न हुई थी । 1917 की
फ़रवरी में जो क्रांति हुई उससे जारशाही का खात्मा हो गया और एक अस्थायी सरकार का गठन
हुआ । तबसे लेकर अक्टूबर तक का समय दोहरी सत्ता का समय था । अस्थायी सरकार के साथ ही
जनता के बीच से स्वत:स्फूर्त रूप से उपजी सोवियतें भी मौजूद
थीं । मुख्य रूप से सैनिकों और मजदूरों की इन सोवियतों में आम तौर पर वामपंथियों
का प्रभुत्व था । असल जीवन में इन सोवियतों के आदेश ही लागू होते थे । इसी माहौल में
जनता के भीतर बढ़ते विक्षोभ ने अस्थायी सरकार और सोवियतों को एक दूसरे के आमने सामने
खड़ा कर दिया था । बुर्जुआ राज्य और जनता के प्रतिनिधियों की सत्ता का यह विरोध एक हद
तक इस किताब के सैद्धांतिक स्वरूप की आत्मा है ।
सैनिक युद्ध से ऊबे हुए थे । उनके बीच बोल्शेविकों की शांति
संबंधी अपील तेजी से असर कर रही थी । अस्थायी सरकार लगातार अलोकप्रिय होती जा रही थी
। क्रांति आसन्न थी । सरकार में शामिल लोग बोल्शेविकों के विरुद्ध वैचारिक हमला जारी
रखे हुए थे । क्रांति में बोल्शेविकों को नेतृत्व देने के लिए लेनिन जुलाई में पेत्रोग्राद
लौटे ही थे कि उनके जर्मनी के मुखबिर होने की अफवाह उड़ा दी गई । अचानक बोल्शेविकों
के लिए पेत्रोग्राद सुरक्षित नहीं रह गया । जगह जगह उन पर हमले होने लगे । सोवियतों
की सत्ता ने बोल्शेविकों को दमन न होने का भरोसा दिया लेकिन अस्थायी सरकार ने नेताओं
की गिरफ़्तारी का हुक्म जारी कर दिया । शुरू में लेनिन ने गिरफ़्तारी देकर मुकदमे का
सामना करने का फैसला किया लेकिन माहौल इतना खराब था कि साथियों की सलाह पर जुलाई के
शुरू में उन्हें गुप्त तरीके से शहर छोड़ना पड़ा । सुदूर देहात में गुप्त जीवन बिताते
हुए लकड़ी के एक कुन्दे को कुर्सी और दूसरे को मेज बनाकर दो महीने में उन्होंने यह किताब
लिखी । उन्हें बचने की उम्मीद नहीं थी इसलिए निर्देश लिखा कि कुछ हो जाने पर नीली नोटबुक
को ‘राज्य और क्रांति’ के रूप में छाप दिया जाए ।
इस तरह की सैद्धांतिक किताब की जरूरत उन्हें एकाध साल पहले
से ही महसूस हो रही थी । उन्होंने बुखारिन के चिंतन में राज्य के सिलसिले में
मार्क्सवादी समझ से भटकाव देखा और इस किताब की योजना बनाई । 1917 के शुरू में प्रवास
के दौरान किताब के लिए सामग्री उन्होंने तैयार कर ली थी । स्विट्ज़रलैंड से रूस के
लिए आते हुए यह सामग्री वे पीछे छोड़ आए थे । जुलाई विद्रोह की असफलता के बाद इसी
सामग्री के आधार पर यह किताब लिखी गई थी । उन्हें इसकी जरूरत महसूस हुई क्योंकि न
केवल प्लेखानोव बल्कि काउत्सकी भी इस सवाल पर भ्रमित दिखाई पड़े । सात अध्यायों में
किताब लिखने की योजना थी लेकिन 1905 और 1917 की क्रांतियों के अनुभव संबंधी सातवां
अध्याय लिखा नहीं जा सका । उसका खाका बना लिया था । लगा कि उस पर विस्तार से लिखना
होगा इसलिए जो सामग्री थी उसे ही प्रकाशित करवा लिया ।
पांडुलिपि में लेखक के बतौर एफ़ एफ़ इवानोव्सकी का नाम दर्ज
था । लेनिन को लगा था कि उनके नाम से छपने पर किताब जब्त हो जाएगी । आखिरकार इसका प्रकाशन
1918 में हो सका । उस समय तक किसी छद्म नाम की जरूरत ही नहीं रह गई थी । 1919 में
दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ जिसमें किताब के दूसरे अध्याय में ‘मार्क्स ने 1852
में प्रश्न को किस तरह पेश किया था’ शीर्षक नया अनुभाग जोड़ा गया ।
इस किताब में लेनिन का केंद्रीय तर्क यह है कि राज्य का उदय
ही वर्ग विभाजित समाज में शासक वर्ग की सत्ता को दमन के सहारे बनाए रखने के लिए हुआ
था । यही नहीं राज्य की मौजूदगी का मतलब है कि समाज में न केवल परस्पर विरोधी वर्ग
और उनके स्वार्थ बने हुए हैं बल्कि उनके बीच का अंतर्विरोध असमाधेय है । असल में अक्टूबर
क्रांति से पहले जब फ़रवरी क्रांति में जारशाही का अंत हो गया और अस्थायी सरकार का गठन
हुआ तो इस अस्थायी सरकार में शामिल विभिन्न वामपंथी गुटों में परिस्थिति के दबाव के
चलते राज्य के बारे में तमाम किस्म के भ्रम फैल रहे थे । कुछ लोगों को लग रहा था कि
चूंकि राज्य वर्गोपरि हो जाता है इसलिए उसका उपयोग किया जा सकता है । दूसरे सिरे पर
अन्य लोग तत्काल राज्य के खात्मे के पक्ष में थे ।
इस स्थिति में लेनिन को राज्य के बारे में मार्क्सवादी धारणा
को स्पष्ट करना सैद्धांतिक से अधिक व्यावहारिक सवाल महसूस हुआ । उन्होंने जोर देकर
कहा कि राज्य की भूमिका वर्ग संघर्ष को खत्म करने की नहीं होती । उसकी मौजूदगी ही वर्ग
संघर्ष के तीखेपन का प्रमाण है । इसी सिलसिले में पेरिस कम्यून से ली गई मार्क्स की
सीख को भी बार बार किताब में दोहराया गया है । मार्क्स ने कहा था कि सर्वहारा का काम
पहले से मौजूद राज्य की बनी बनाई मशीनरी से नहीं चल सकता । उसे राज्य की अपनी मशीनरी
का निर्माण करना होता है । इसे मार्क्स की तरह ही लेनिन ने भी ‘सर्वहारा
की तानाशाही’ के जरिए लागू होता दिखाया है । लेनिन इस बात पर
जोर देते हैं कि बुर्जुआ राज्य का ध्वंस सर्वहारा का कर्तव्य है । इस कर्तव्य को पूरा
करने के लिए लेनिन नियमित सेना की जगह पर सशस्त्र जन मिलीशिया की स्थापना, राज्य के कामों की जटिलता को समाप्त करके नौकरशाही को अप्रासंगिक बना देने
और अल्पतंत्र की तानाशाही के बरक्स बहुमत की तानाशाही कायम करने का उपाय सुझाते हैं
। कहने की जरूरत नहीं कि अक्टूबर क्रांति के बाद बनने वाली व्यवस्था के लिए ये बेहद
ठोस सवाल थे । अचरज नहीं कि नई सत्ता के मंत्रियों ने अपने आपको संबंधित विभागों का
जन कमीसार कहना पसंद किया ।
बुर्जुआ राज्य और क्रांति के बाद स्थापित होने वाली सत्ता के
बीच एक बेहद महत्वपूर्ण अंतर की ओर लेनिन ने पेरिस कम्यून संबंधी मार्क्स के लेखन के
सहारे इशारा किया । मार्क्स ने कहा था कि पेरिस कम्यून ने विधायिका और कार्यपालिका
को मिला दिया था । असल में अगर कार्यपालिका अलग रहती है तो विधायिका केवल बहसबाजी का
अड्डा बनकर रह जाती है । लोकतंत्र वहीं तक सीमित रह जाता है और राज्य के असली काम नौकरशाही
के जरिए कार्यपालिका निपटाती है । संसार के लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में विधायिका
की इस कमजोरी को महसूस किया जाता रहा है । बुर्जुआ लोकतांत्रिक राज्य की जान विधायिका
नहीं, सैन्यतंत्र और नौकरशाही का ढांचा होता है । क्रांति के बाद स्थापित होने वाली
सत्ता का काम इस मुखौटे को वास्तविक ताकत में बदलना है । राज्य के काम को संचालित करने
वाली वास्तविक संस्थाओं को जनता के नियंत्रण में लाकर ही उन्हें कारगर बनाया जा सकता
है । विधायिका और कार्यपालिका के इस एकीकरण को सिद्धांत और व्यवहार की एकता की व्यापक सोच के मुताबिक समझा गया । इसका संबंध समाज के संचालन को अधिकाधिक आसान बनाने से भी है ।
आज भी इस किताब की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है । अनेक वामपंथी
नेता वर्तमान राज्य को ‘कल्याणकारी राज्य’ में
तब्दील करने की बात करते देखे जा सकते हैं और इसमें तत्कालीन भ्रमों की अनुगूंज सुनना
मुश्किल नहीं है । बुर्जुआ शासन को अल्पतंत्र की तानाशाही मानने की प्रतिध्वनि
1% के शासन की धारणा में महसूस किया जा सकता है । उसके मुकाबले
99% की वंचना की समझ मार्क्स से उपजी थी किंतु लेनिन के जरिए हम तक पहुंची
है । सबसे पुराने लोकतंत्र का दावा करने वाले देश अमेरिका में भी तमाम राजनेता इस बात
को मानने लगे हैं कि देश की असली ताकत कांग्रेस के चुने हुए प्रतिनिधियों के मुकाबले
थैलीशाहों, जासूसी और निगरानी की संस्थाओं तथा सेना के हाथों
में केंद्रित होती गई है ।
अंध-राष्ट्रवाद की तत्कालीन बीमारी भी अक्सर वाम
राजनीतिज्ञों के एक हिस्से को आज भी बुर्जुआ शासकों के साथ खड़ा कर देती है । जिस तरह
उस समय के रूस में जर्मनी के विरुद्ध उन्माद से लेनिन ने लोहा लिया था उसी तरह कई बार
हमें भी पड़ोसी मुल्कों के विरुद्ध उन्माद से जूझना पड़ता है । बुर्जुआ वर्ग के पास सर्वहारा
को रक्षात्मक मुद्रा में धकेल देने का सबसे आजमाया हुआ हथियार युद्धोन्माद है । युद्ध
और कुछ नहीं संकटग्रस्त पूंजी के पुनर्गठन का माध्यम होता है । इसके सहारे वह अपने
बर्बर शोषक शासन के लिए वैधता तो हासिल करता ही है देश की सीमा के भीतर भी विभिन्न
समुदायों के कत्लेआम के लिए उकसावा प्रदान करता है । ऐसी स्थितियों में लेनिन की यह
किताब हमें हमेशा भ्रम और निराशा से बाहर निकालने में मदद करती रहेगी ।
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