Thursday, August 3, 2017

रामचंद्र शुक्ल और छायावाद- एक जटिल रिश्ता

                
                                                       
इस लेख का मकसद छायावाद संबंधी आचार्य शुक्ल की मान्यताओं का समर्थन करना नहीं है । इसमें उन तर्कों को दोहराया भी नहीं गया है जो छायावाद के संबंध में शुक्ल जी की राय को पुष्ट करते हैं । हिंदी के अकादमिक जगत में आचार्य शुक्ल की आम छवि छायावाद विरोधी की है । उसे फिर फिर बताने का कोई औचित्य नहीं है । हमारी कोशिश इस प्रसंग में ऐसे पहलुओं को उभारने की है जो बनी बनाई समझ में कुछ अन्य तत्वों को जोड़ने की जरूरत पैदा करते हैं ।
छायावाद और शुक्ल जी में सहकालिकता है । आम तौर पर शुक्ल जी को छायावाद का विरोधी समझा जाता है । दूसरी ओर रामविलास शर्मा का कहना है कि शुक्ल जी के विरोधी छायावाद के भी विरोधी हैं । इन दोनों तरह की मान्यताओं के बीच में कहीं शुक्ल जी और छायावाद के रिश्ते को अवस्थित करना उचित होगा । साथ ही इस रिश्ते को सरल और एकायामी भी नहीं कहा जा सकता । इस जटिल रिश्ते की छानबीन करते हुए हम शुक्ल जी के छायावादी कवियों के बारे में मूल्यांकन पर ध्यान देते हुए भी अन्य लोगों के बारे में उनके मूल्यांकन में समाई काव्य रुचि से भी छायावाद का संबंध समझने की कोशिश करेंगे । इसके साथ ही यह भी देखना होगा कि शुक्ल जी की दार्शनिक समझ छायावाद के बारे में उनकी राय को किस तरह प्रभावित करती है । 
समकालीनों में विरोध अत्यंत स्वाभाविक होता है लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो छायावाद की पृष्ठभूमि, छायावादी कवियों की विशेषता की पहचान और उसकी सीमाओं के संकेत के मामले में शुक्ल जी छायावाद के समर्थकों से बीस बैठते हैं ।हिंदी साहित्य का इतिहासके भीतर छायावाद को जिस तरह उन्होंने प्रतिष्ठित किया है उसमें सबसे पहली बात तो यही है कि छायावाद भारतेंदु युग से शुरू होने वाले नए उत्थान की निरंतरता में था । भारतेंदु ने जिस परिवर्तन की नींव रखी उसका परिपक्व रूप छायावाद में प्रकट हुआ । भारतेंदु नेहमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था उसेदूर किया । विच्छेद था किभाव और विचार तो बहुत आगे बढ़ गए थे, पर साहित्य पीछे ही पड़ा थाऔरदेश काल के अनुकूल साहित्यनिर्माण का कोई विस्तृत प्रयत्ननहीं हो रहा था । संकेत से भी स्पष्ट है कि स्वाधीनता की आकांक्षा इस बदलाव की प्रेरक थी । न केवल वस्तु के स्तर पर बल्कि रूप के स्तर पर भी भारतेंदु युग में शुक्ल जी द्वारा लक्षित दो ऐसी विशेषताएं हैं जिनका प्रचुर विकास छायावाद के दौरान हुआ । एक है- नाटक जिसका विकास भारतेंदु युग के बाद छायावाद में ही दिखाई देता है । दूसरी विशेषता साहित्यिक पत्रकारिता है जो छायावाद में और भी उन्नत स्तर पर फलित हुई ।
इस युग से जो धारा शुरू होकर छायावाद तक पहुंचती है उसका संकेत करते हुए शुक्ल जी बताते हैं ‘इस नए रंग में सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति की वाणी का था । उसी से लगे हुए विषय लोकहित, समाजसुधार, मातृभाषा का उद्धार आदि थे ।’ स्वाभाविक था कि ‘विषयों की अनेकरूपता के साथ उनके विधान का ढंग भी बदल चला ।’ विषयवस्तु के साथ ही ढंग की नवीनता की पहचान हमें इतिहास में छायावाद संबंधी प्रकरण में भी दिखाई देती है ।हिंदी साहित्य का इतिहासके छायावाद संबंधी प्रकरण पर नजर डालने से पहले छायावाद के सिलसिले में कुछ अन्य चीजों पर भी बात करना जरूरी है । इसका बड़ा कारण यह है कि इस काव्य प्रवृत्ति का अर्थ बहुत निश्चित नहीं था । शुक्ल जी का अंध विरोध इतना गहरा था कि जब उन्होंने इसे रहस्यवाद मानकर इसके विरोध में लिखा तो छायावाद के ढेर सारे समर्थक रहस्यवाद के भी समर्थन में उतर आए ।
शुक्ल जी और छायावाद के बीच के रिश्तों की बात करते हुए हमें देखना होगा कि छायावाद को किस अर्थ में ग्रहण किया जाता रहा है । मुकुटधर पांडे ने इसे रोमांटिसिज्म यानी स्वच्छंदतावाद के अर्थ में समझने पर जोर दिया लेकिन आम तौर पर उसका अर्थ मिस्टिसिज्म यानी रहस्यवाद ही समझा जाता था । तमाम संदर्भों से साबित होता है कि शुक्ल जी स्वच्छंदतावाद को सकारात्मक काव्य प्रवृत्ति मानते थे । भारतेंदुकालीन कवि ठाकुर जगमोहन सिंह पर बात करते हुए प्राकृतिक वर्णन की विभिन्न प्रणालियों पर शुक्ल जी ने विस्तार से विचार किया है । इस प्रसंग में वे कहते हैंअँगरेजी साहित्य में वर्ड्सवर्थ, शेली, मेरेडिथ आदि में उसी ढंग का सूक्ष्म प्रकृतिनिरीक्षण और मनोरम रूप विधान पाया जाता है जैसा प्राचीन संस्कृत साहित्य में ।इसके बाद द्विवेदी युग से वे एक स्पष्ट स्वच्छंदतावादी काव्यधारा की निरंतरता स्थापित करने की कोशिश करते हैं । स्वच्छंदता की इस काव्यधारा के साथ वे साहित्येतिहास के एक बेहद महत्वपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं । यह सिद्धांत शुक्ल जी की रूढ़ छवि के पूरी तरह से विरोध में प्रतीत होता है । उनके बारे में प्रचलित धारणा यह है कि वे शिक्षित जनता के पक्ष में कुछ अधिक ही रहा करते थे । लोक के मुकाबले शास्त्र के पक्षधर होने की उनकी तस्वीर जोरदार तरीके से उभारी गई ।
शुक्ल जी का मानना है किपंडितों की बँधी प्रणाली पर चलनेवाली काव्यधारा के साथ साथ सामान्य अपढ़ जनता के बीच एक स्वच्छंद और प्राकृतिक भावधारा भी गीतों के रूप में चलती रहती है- ठीक उसी प्रकार जैसे बहुत काल से स्थिर चली आती हुई पंडितों की साहित्यभाषा के साथ साथ लोकभाषा की स्वाभाविक धारा भी बराबर चलती रहती है । जब पंडितों की काव्यभाषा स्थिर होकर उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हुई लोकभाषा से दूर पड़ जाती है और जनता के हृदय पर प्रभाव डालने की उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है तब शिष्ट समुदाय लोकभाषा का सहारा लेकर अपनी काव्यपरंपरा में नया जीवन डालता है ।---यही प्राकृतिक नियम काव्य के स्वरूप के संबंध में भी अटल समझना चाहिए । जब जब शिष्टों का काव्य पंडितों द्वारा बँधकर निश्चेष्ट और संकुचित होगा तब तब उसे सजीव और चेतन प्रसार देश की सामान्य जनता के बीच स्वच्छंद बहती हुई प्राकृतिक भावधारा से जीवनतत्व ग्रहण करने से ही प्राप्त होगा ।खास बात यह है कि इससे देशप्रेम का प्रश्न भी जुड़ा हुआ हैयह भावधारादेश के स्वरूप के साथसंबद्ध चलती है ।इसी तरह की घटना अंग्रेजी साहित्य में भी घटी थी । वहाँ पर लैटिन की जकड़बंदी थी । लिखा है ‘---इंगलैंड की काव्यरचना भी लैटिन की प्राचीन रूढ़ियों से जकड़ी जाने लगी ।---इस प्रकार अंगरेजी काव्य, विदेशी काव्य और साहित्य की रूढ़ियों से इतना आच्छन्न हो गया कि वह देश की परंपरागत स्वाभाविक भावधारा से विच्छिन्न सा हो गया । काउपर, क्रैव और बर्न्स ने काव्यधारा को साधारण जनता की नादरुचि के अनुकूल नाना मधुर लयों में तथा लोकहृदय के ढलाव की नाना मार्मिक अंतर्भूमियों में ढाला ।ऐसा लगता है जैसे हम किसी अन्य देश के बारे में नहीं, हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में रीतिकाल से मुक्त होने की प्रक्रिया का वर्णन सुन रहे हैं । 
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में यह प्रक्रिया किस तरह घटी उसकी निरंतरता बताते हुए उन्होंने लिखाहरिश्चंद्र के सहयोगियों में काव्यधारा को नए नए विषयों की ओर मोड़ने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ी, पर भाषा ब्रज ही रहने दी गई और पद्य के ढाँचों, अभिव्यंजना के ढंग, तथा प्रकृति के स्वरूपनिरीक्षण आदि में स्वच्छंदता के दर्शन न हुए । इस प्रकार की स्वच्छंदता का आभास पहले पहल पंडित श्रीधर पाठक ने ही दिया । उन्होंने प्रकृति के रूढ़िबद्ध रूपों तक ही न रह कर अपनी आँखों से भी उसके रूपों को देखा ।फिर भी उनके प्रकृति वर्णन की सीमा बताते हुए लिखते हैंउनकी यह उपासना प्रकृति के उन्हीं रूपों तक परिमित थी जो मनुष्य को सुखदायक और आनंदप्रद होते हैं, या जो भव्य और सुंदर होते हैं ।प्रकृति के सहज चित्रों के वर्णन के पक्ष में खड़ा होकर उन्होंने यह आलोचना की थी । इनकी परंपरा को आगे ले जाने वाले द्विवेदी युग के दूसरे कवि रामनरेश त्रिपाठी हुए । प्रकृति वर्णन और देशभक्ति को एक साथ गूँथने की त्रिपाठी जी की कला की विशेषता है किदेशभक्ति को रसात्मक रूप त्रिपाठी जी द्वारा प्राप्त हुआ, इसमें संदेह नहीं ।इसी चीज का अभाव उन्हें श्रीधर पाठक में दिखाई पड़ा था ।
आचार्य शुक्ल द्वारा आधुनिक काल की हिंदी कविता के उपरोक्त पर्यवेक्षण से दो आपस में जुड़ी हुई बातों पर उनका बल प्रत्यक्ष है । देशभक्ति और प्रकृति वर्णन । देशभक्ति के प्रसंग में छायावाद के समय की ऐसी विशेषता का वे उल्लेख करते हैं जिसका संदर्भ लेकर आज भी छायावाद के बारे में बात नहीं होती । उनके ही शब्दों मेंतृतीय उत्थान में आकर परिस्थिति बहुत बदल गई; आंदोलनों ने सक्रिय रूप धारण किया और गाँव गाँव राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता के विरोध की भावना जगाई गई ।इसका परिणाम हुआ किसरकार से कुछ माँगने के स्थान पर अब कवियों की वाणी देशवासियों को हीस्वतंत्रता देवी की वेदी पर बलिदानहोने को प्रोत्साहित करने लगी ।दूसरी बात किअब जो आंदोलन चले वे सामान्य जनसमुदायों को भी साथ लेकर चले ।यह आगे की बात थी क्योंकि इसके पहले ‘---राजनीति की लंबी चौड़ी चर्चा साल भर में एक बार धूमधाम के साथ थोड़े से शिक्षित बड़े आदमियों के बीच हो जाया करती थी जिसका कोई स्थायी और क्रियोत्पादक प्रभाव नहीं देखने में आता था ।ध्यान देने की बात है कि अन्य प्रकरणों के विपरीत इस मामले में शिक्षित का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में हुआ है । बहरहालसबसे बड़ी बात यह हुई कि आंदोलन संसार के और भागों में चलनेवाले आंदोलनों के मेल में लाए गए, जिससे ये क्षोभ की एक सार्वभौम धारा की शाखाओं से प्रतीत हुए ।इसे देखने से लगता है कि शुक्ल जी छायावाद की भूमिका को भी स्वाधीनता आंदोलन के उस दौर की नवीनता के परिप्रेक्ष्य में समझना चाहते हैं । इसे हम कवियों की विशेषताओं के वर्णन में और अधिक खुलता देख सकते हैं ।
छायावादी कवियों के बारे में आचार्य शुक्ल के विश्लेषण से पहले एक और बात का जिक्र जरूरी है । यह बात केवल छायावाद के सिलसिले में नहीं आई है, बल्कि शुक्ल जी के चिंतन का अभिन्न अंग है । आम तौर पर इस बात की ओर ध्यान नहीं जाता कि शुक्ल जी ने विविधता पर बहुत अधिक जोर दिया है । उनके मुताबिक यह संसार अनेकरूपात्मक है । हमारा हृदय अनेकभावात्मक है ।साहित्य का इतिहासमें प्रत्येक युग में अनेक साहित्यिक प्रवृत्तियों की मौजूदगी है और इनके बाहर भी कुछ फुटकल कवि मिल जाते हैं । छायावाद के समय के सिलसिले में आचार्य शुक्ल बताते हैं कि इस दौर मेंब्रजभाषा काव्यपरंपरा के अतिरिक्त---खड़ी बोली की तीन मुख्य धाराएँदिखाई पड़ती हैं । इनमें से एक है- द्विवेदी काल की क्रमश: विस्तृत और परिष्कृत होती हुई धारा । दूसरी- छायावाद कही जानेवाली धारा । तीसरी है- स्वाभाविक स्वच्छदतावाद को लेकर चलनेवाली धारा जिसके अंतर्गत राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन की लालसा व्यक्त करनेवाली शाखा भी हम ले सकते हैं । ये अलग अलग तो हैंपर काव्य की भिन्न भिन्न धाराओं के भेद इतने निर्दिष्ट नहीं हो सकते कि एक की कोई विशेषता दूसरी में कहीं दिखाई ही न पड़े। छायावादी लेखकों के लेखन में वस्तु और शैली दोनों के लिहाज से शायद इसीलिए इतनी विविधता और विस्तार मिलता है ।
इसके बाद ब्रजभाषा की धारा का संक्षिप्त परिचय देते हुए द्विवेदी काल की विस्तारित काव्यधारा के कुछेक कवियों का परिचय देने के बाद वे छायावाद का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । इस सिलसिले में वे छायावाद के दो पहलुओं को उभारते हैं ।एक तो रहस्यवादजिसे वेकाव्यवस्तुका अंग मानते हैं और दूसराकाव्यशैली या पद्धतिविशेष। इस प्रकारछायावाद का सामान्यत: अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन। लेकिन खास बात कि इस धारणा के अनुसार काव्यवस्तु केवल महादेवी वर्मा में मिलती है शेष सभी कविप्रतीकपद्धति या चित्रभाषा शैलीके नाते ही छायावादी कहे जा सकते हैं । इस शैली में प्रतीक या अप्रस्तुत की अभिव्यक्ति के लिएसाम्यग्रहणपर बल दिखाई पड़ता है । शुक्ल जी जोर देकर कहते हैं कि छायावाद के भीतरसादृश्य और साधर्म्यके आधार पर उत्पन्न होने वालेप्रभावसाम्यका अनुगमन किया गया है । उदाहरण के लिएसुख, आनंद, प्रफुल्लता, यौवनकाल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक उषा, प्रभात, मधुकाल; प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत; माधुर्य के स्थान पर मधु; दीप्तिमान या कांतिमान के स्थान पर स्वर्ण; विषाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अंधेरी रात, संध्या की छाया, पतझड़; मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान; भावतरंग के लिए झंकार; भावप्रवाह के लिए संगीत या मुरली का स्वरइत्यादि । यह सूची छायावादी कविता का मर्म समझने के लिए अत्यंत उपयोगी प्रतीत होती है । वे इस प्रतीकपद्धति कोहमारे हृदय का प्रसार करनेवाली, शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के गूढ़ संबंध की धारणा बँधानेवालीमानने के बावजूद इसकी अति की आलोचना से परहेज नहीं करते ।
इसके बाद वे अपनी खास शैली में प्रत्येक कवि का परिचय देते हैं । इस मामले में यह भी ध्यान में रखने की बात है कि इस काव्यधारा के चार प्रमुख कवि (जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठीनिरालाऔर महादेवी वर्मा) उनके ही पहचाने हुए हैं । प्रसाद जी में आज भी रहस्यवाद अधिक देखा जाता है । उसके मुकाबले शुक्ल जी ने उनके लेखन मेंजीवन के प्रेमविलासमय मधुर पक्ष की ओर स्वाभाविक प्रवृत्तिपाई । यही नहीं उनके ग्रंथकामायनीके एक प्रसंग पर शुक्ल जी की टिप्पणी बेहद मारक है । लिखते हैंश्रद्धा जब कुमार को लेकर प्रजाविद्रोह के उपरांत सारस्वत नगर में पहुँचती है तबइड़ासे कहती हैसिर चढ़ी रही पाया न हृदय। क्या श्रद्धा के संबंध में नहीं कहा जा सकता था किरस पगी रही पाई न बुद्धि’ ?’ शुक्ल जी के सिलसिले में बुद्धि की ऐसी पक्षधरता उनकी प्रचलित तस्वीर से कुछ ज्यादा ही भिन्न है । उन्होंने तोकामायनीमेंवर्गहीन समाज की साम्यवादी पुकार की भी दबी सी गूँजसुनी थी । कहना न होगा कि जो साम्यवाद के बारे में खुद न जानता हो वह उसकी प्रतिध्वनि भी नहीं पहचान सकता ।
प्रसाद जी के तत्काल बाद छायावादियों में शुक्ल जी को सबसे प्रिय सुमित्रानंदन पंत का परिचय दिया गया है । इसी संबंध में ध्यातव्य है कि पंत जी को शुक्ल जी ने इतिहास में लगभग उतनी ही जगह दी है जितनी अपने सबसे प्रिय कवि तुलसीदास को । उनकी पहली विशेषता कि उनकीरहस्यभावना प्राय: स्वाभाविक ही रही। असल मेंउन्हें प्रकृति की ओर सीधे आकर्षित होनेवाला, उसके खुले और चिरंतन रूपों के बीच खुलनेवाला हृदय प्राप्त था। उनका छायावादचित्रभाषा के अर्थ में हीहै । सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति चित्रण उनके लिए आकर्षक तो था ही, पंत जी की कविताओं की विषयवस्तु भी उल्लेखनीय है । आचार्य शुक्ल ने इस विषयवस्तु का वर्णन जिस तरह किया है उससे पंत जी अत्यंत आधुनिक चेतना के कवि प्रकट होते हैं । ‘—कवि यदि लोककर्म में प्रवृत्त नहीं तो कम से कम कर्मक्षेत्र में उतरे हुए लोगों के साथ चलता दिखाई पड़ रहा है । स्वतंत्र द्रष्टा का रूप उसका नहीं रह गया है । उसका तोसामूहिकता ही निजत्व धनहै । सामूहिक धारा जिधर जिधर चल रही है उधर उधर उसका स्वर भी मिला सुनाई पड़ रहा है । कहीं वहगत संस्कृति के गरलधनपतियों के अंतिम क्षण बता रहा है, कहीं मध्य वर्ग कोसंस्कृति का दास और उच्च वर्ग की सुविधा का शास्त्रोक्त प्रचारकतथा श्रमजीवियों कोलोकक्रांति का अग्रदूत और नव्य सभ्यता का उन्नायककह रहा है और कहीं पुरुषों के अत्याचार से पीड़ित स्त्री जाति कीदशा सूचित कर रहा है ।इस किंचित विस्तृत उद्धरण से पंत जी की कविता के बारे में जो भी पता चले, कविता में शुक्ल जी के पसंदीदा वर्ण्य विषयों की सूचना जरूर मिलती है ।
निराला के प्रसंग में उनका एक पद ही बहुत है । लिखा हैबहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा निरालाजी में है। इसके अतिरिक्तजिस प्रकार निरालाजी को छंद के बंधन अरुचिकर हैं उसी प्रकार सामाजिक बंधन भी। उदाहरण है सम्राट अष्टम एडवर्ड की प्रशस्तिजिसने प्रेम के निमित्त साहसपूर्वक पदमर्यादा के सामाजिक बंधन को दूर फेंका है। इसे निराला के साथ प्रेम के प्रति आचार्य शुक्ल के मनोभाव के बतौर भी पढ़ा जाना चाहिए । उनकी कवितातोड़ती पत्थरके बारे में लिखा किश्रमजीवियों के कष्टों की सहानुभूति लिए हुए जो लोकहितवाद का आंदोलन चला है उस पर भी निरालाजी की दृष्टि गई है। इस तरह थोड़े में ही निराला की विविधता को स्पष्ट कर दिया गया है ।
महादेवी के प्रति उनके रहस्यवादी होने की मान्यता होने तथापीड़ा का चस्काजैसा आरोप लगाने के बावजूद लक्षित किया कि गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवीजी को हुई वैसी और किसी को नहीं । न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध और प्रांजलप्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भावभंगी । जगह जगह ऐसी ढली हुई और अनूठी व्यंजना से भरी हुई पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है ।ध्यान दीजिए कि शुक्ल जी बहुत ही कम मौकों पर ऐसी भावाभिव्यंजक भाषा का प्रयोग करते हैं ।
छायावाद के संबंध मेंहिंदी साहित्य का इतिहासके भीतर व्यक्त विचारों के इस संक्षिप्त सर्वेक्षण से साफ है कि शुक्ल जी से इसका संबंध इकहरा नहीं था । शुक्ल जी की प्रकृति चित्रण संबंधी मान्यताओं पर छायावादी काव्यरुचि का प्रभाव है । मुक्त छंद के प्रति प्रशंसा भाव न होने के बावजूद छंद कोध्वनि आवर्तों का पैटर्नमानने के पीछे निराला की छंद संबंधी राय की प्रतिध्वनि महसूस की जा सकती है । छायावाद के भीतर भाषा के लाक्षणिक प्रयोग को देखकर उन्होंने घनानंद में भी इस विशेषता का जिक्र किया । अगर वे छायावाद के विरोधी थे तो ऐसे विरोधी थे जो उससे प्रभावित भी रहे । उनकी आलोचना से छायावाद का भला ही हुआ ।

                                      

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