Tuesday, November 25, 2014

छत्तीसगढ़ यात्रा

                     
कोई भी यात्रा सिर्फ़ अपने मूल मकसद तक ही महदूद नहीं रहती सियाराम शर्मा के निमंत्रण पर दो तीन साल पहले की छतीसगढ़ यात्रा इतनी विचित्र तरह की यादों से जुड़ी है कि अब तक उनका दबाव मन पर महसूस होता है यात्रा का उद्देश्य मैनेजर पांडे पर होने वाली गोष्ठी में शिरकत करना था उनके वार्धक्य के साल दर साल जसम ने गोष्ठियों के जरिए शालीन तरीके से मनाए उनके निर्देशन में शोध करने और जसम का कार्यक्रम होने के नाते मुझे पहली बार वहीं बोलने के लिए कहा गया था इसके पहले वाली गोरखपुर की गोष्ठी में जाना हो सका था, पर्चा लिखकर भेज दिया था बहरहाल इलाहाबाद से रात में ट्रेन चली तो गर्मी के मौसम में भी औचक बारिश के कारण ठंड पड़ने लगी थी मौसम का पूर्वानुमान होने से के के ने मोटी चादर दे दी थी ओढ़े ओढ़े सबेरे दुर्ग पहुंच गया स्टेशन से सियाराम जी मोटर साइकिल से भिलाई स्टील प्लांट के अतिथिगृह ले आए पता चला यहीं गोष्ठी होनी है किसी और के पूछने पर बताया कि मजदूरों के वेतन से जब सांस्कृतिक मद में कटौती होती ही है तो अतिथिगृह या सभाभवन का उपयोग क्यों नहीं करना चाहिए अब तक यह तर्क मुझे परेशान करता रहता है सत्ता से पुरस्कार लेने का यही तर्क नागार्जुन दिया करते थे
इस बार समझ आया कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सरकारी संस्थानों से इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सहायता लेना चलन है कुछ कह नहीं सकता लेकिन तर्क फिसलनभरा तो है बहरहाल भिलाई स्टील प्लांट में कोई सिंघई जी थे जो बाहर से आए हिंदी के साहित्यकारों आदि को प्लांट घुमाने में रुचि लेते हैं बता रहे थे केदार जी को थोड़े दिनों पहले घुमाया था नामवर जी इधर से जब भी गुजरते हैं तो फोन करते हैं और सिंघईजी प्लेटफार्म पर ही मिजाजपुर्सी कर लेते हैं इसके लिए पांचेक मिनट का वक्त बहुत होता है सियाराम जी ने बताया कि प्लांट के रूसी सहयोग से स्थापित होने के चलते इसमें अनेक खूबियां हैं मसलन प्लांट के भीतर अफ़सर और मजदूर का भेद बहुत नहीं दिखाई देगा मजदूर आबादी में सांप्रदायिक आधार पर दंगे नहीं हुए हैं बहरहाल हम तीन लोग सिर पर टोपी धारे कम से कम तीन घंटे प्लांट में घूमते रहे प्लांट जैसे हांफता फुफकारता विराट दानव
सबसे पहले वह जगह देखी जहां लोहा गाढ़े हलवे की तरह ढेर करके रखा गया था बड़ा सा लोहे का बेलन उसे बेलकर लंबा कर रहा था चपटे होते इस्पात पर पानी लगातार गिराया जा रहा था फिर उस लाल इस्पात की लंबी चादर को ऐसे सांचे से गुजारा जा रहा था जो उसे रेल की पटरी की शक्ल दे रहा था करीब सौ फ़ुट लंबी उस पटरी को टुकड़ों में बांटने के लिए एक ओर से तीन आरे एक साथ निकलते और उसे दो समान भागों में बांट देते ऐसा डाला की सीमेंट फ़ैक्ट्री में भी घूमते हुए देखा था कि मजदूर समूची प्रक्रिया के बारे में बेहद अधिकार से जानकारी देते हैं यहां भी बताया गया कि ये पटरियां मालगाड़ी की लाइन के लिए बन रही हैं वहीं बताया गया कि मालगाड़ियों के लिए अलग से पटरी बिछाई जाएगी जिसके लिए 72 फ़ुट लंबी पटरियां बनाने का आदेश आया है अभी 18 फ़ुट की एक पटरी होती है जितनी लंबी एक पटरी होगी उतना ही अधिक तेज गाड़ी चलाने में आसानी होगी वहीं किसी ने बताया कि गाड़ी के चलने में खटर पटर की आवाज का कारण ये पटरियां ही होती हैं उनका कहना था कि इसे गिनकर अंधेरे में गाड़ी की गति और किसी सुरंग की दूरी बताई जा सकती है अचरज के साथ मैं उस कानफाड़ू शोर में भी जीवन के साथ यांत्रिकी का जुड़ाव सुने जा रहा था रोटी के बेलने जैसी और आरी के चीरने जैसी उन क्रियाओं को लोहे के साथ होते देखना ही मजेदार था यह सब कुछ यंत्रचालित था जिसके लिए बिजली से चलने वाली मोटरें थीं इनकी गिनती की मेरी सारी कोशिशें असफल साबित हुईं मेरे गांव पर खेतों की सिंचाई के लिए लगे ट्यूबवेल में एक मोटर से काम चल जाता था कल्पना करता रहा कि कितने ट्यूबवेल चल जाएंगे गणित में हाथ तंग होने के चलते ऐसे ही तरीकों से उसे साधने की चेष्टा आज तक करता रहा हूं और बार बार असफल होने का प्रमाण पुवायां कालेज के क्लर्क से लेकर दिल्ली के जुगाड़ू पड़ोसी के हाथों ठगा जाकर देता रहा हूं
आरी से काटे जाने के बाद जो टुकड़े सही आकार के होते उन्हें एक मशीनी हाथ उठाता और बाहर भेजने के लिए इकट्ठा कर देता । बचे टुकड़ों को वैसा ही एक और हाथ उठाकर गलाने के लिए ले जाता । यहां से निकलकर जहां लोहा गलाया जा रहा था वहां गए । एक ऊंचे से कुएं में पिन बराबर छेद से झांका तो सिर्फ़ पीला आसमान नजर आया । बाहर नाली में पिघला लोहा बह रहा था । अगल बगल अभ्रक के किनारों के बीच बहता लोहा । थोड़ी थोड़ी देरी पर आग के जलते हुए फूल से छिटकते रहते थे । प्रसाद जी याद आएखिला हो ज्यों बिजली का फूल । पता चला नीचे जहां यह गलता लोहा एकत्र हो रहा है वे बर्तन बाल्टी कहे जाते हैं । जब एक बाल्टी भर जाती है तो उसे मशीनी हाथ पेंदी से पकड़कर उलटता है । इस दौरान लोहे का बहाव रोकना पड़ता है । बहव रोकने के लिए मजदूर नाली में जाकर उसी अभ्रक को मिट्टी की तरह डाल देते हैं । फिर बाल्टी लग जाने पर अभ्रक को टारकर नाली का मुंह खोल दिया जाता है । जिसे बाल्टी कहा जा रहा था उसकी ऊंचाई तीन मंजिला मकान जितनी रही होगी । ऐसी दसियों बाल्टियां कतार से एक एक नाली के नीचे लगी हुई थीं ।
इसके बाद उस जगह गए जहां यह गलता हुआ लोहा ठंडा होकर गाढ़ा होता है । गाढ़े बहते लोहे में एक बेलचानुमा अंकुसी डालकर एक मजदूर ने लोहे का टुकड़ा उठाया और उसे पानी में डाल दिया । बीच बीच में ऐसा घनत्व नापने के लिए नमूना निकालने हेतु करना पड़ता है । अंकुसी से लाल टुकड़ा निकला, उसे बूट से कुचलकर चिपटा करके पानी में डाला गया । देवेंद्र जी बता रहे थे- बाहर से घूमने आए लोगों को हम लोग अनेक जगहों पर नहीं ले जाते । मसलन एक प्रक्रिया होती है जिसमें वैक्यूम पैदा करके लोहे के भीतर से हवा निकाली जाती है । बहरहाल सिंघई जी लगातार मोबाइल से फोटो खींचे जा रहे थे जो अब तक मुझे नहीं मिल सके हैं ।
गोष्ठी में ठीक ठाक लोग थे । इधर उधर विज्ञापन या अखबार पढ़ते हुए कुछ चीजों ने ध्यान खींचा था । एक तो यह कि भाषा पर मराठी का असर था । इसकी पहचान वर्धा प्रवास के कारण हो सकी थी । मसलन डीजल को डीझल या जीराक्स की जगह झीराक्स । इस मामले में डालडा की तरह ब्रांड का नाम ही वस्तु का नाम हो गया है । बिलासपुर को न्यायधानी कहने का अर्थ रायपुर को राजधानी बताने से खुला क्योंकि वहां हाई कोर्ट खुला है । इसी तरह भिलाई को संस्कारधानी लिखा जा रहा था । पहले के अविभाजित मध्य प्रदेश में यह गौरव जबलपुर को हासिल था । इस बार की चंदेरी यात्रा में इस बात की जानकारी हुई ।  
प्रणय को रायपुर से ट्रेन पकड़नी थी । मुझे विनोद कुमार शुक्ल से दीवार में खिड़की पढ़कर मिलने की इच्छा थी । सियाराम जी और पार्टी के प्रभारी तिवारी जी मोटर साइकिल से चले । मैं सियाराम जी के पीछे, प्रणय तिवारी जी के । पहले हम लोग कविता के घर गए । उनकी मां धीरज के साथ पति की स्नायविक शिथिलता का बढ़ना देख रही थीं । पिता भी थोड़ी देर के लिए बैठे । राधिका वहीं थी । फिर वहां जहां संदीप पांडे आदि विनायक सेन की गिरफ़्तारी के विरोध में धरने पर बैठे थे । बहुत पहले बलिया के इस नौजवान को मैगसेसे पुरस्कार मिलने की खबर देखी थी । तब यह भी पढ़ा था कि आई टी में इन्होंने पढ़ाई की है । पार्टी के काम से सिकंदरपुर, मनियर आदि जाना होता रहता था । संगठन और गरीबों के बीच एन जी ओ जैसी चीज मलाड़ी में देख चुका था । लगा था ये सज्जन भी उसी दिशा में जाएंगे । वहां पहली बार देखा । लैपटाप में डोंगल लगाकर इंटरनेट खोले हुए हैं औरसच्ची मुच्चीनाम की एक पत्रिका हम लोगों को देने लगे । गांधीवादी हास्यास्पद रूप से आदर्शवादी होते हैं । प्रणय पिता के समाजवादी होने और बनवारी लाल शर्मा का इलाहाबाद में प्रभाव होने से इन लोगों से घुल मिल पाते हैं । मुझे उलझन होती है । बहरहाल वर्धा में रहते हुए ई मेल खोला था, वही दर्ज कराकर भाषण दिया ।
प्रणय चले गए तो सियाराम जी के साथ विनोद कुमार शुक्ल के यहां गया । वे मेरी प्रशंसा से झेंपकर या जाने क्यों सियाराम जी से ही बात करते रहे । इतनी शीतलता तलवार जी के बाद इन्हीं के व्यवहार में देखी । बर्दाश्त नहीं होती । मुख्य मंत्री रमन सिंह की प्रशंसा कर रहे थे ।
खैर जब प्रणय थे तभी मुक्तिबोध के कालेज में राजनांदगांव गया था तीर्थेश्वर सिंह के साथ । उनकी कविताओं का पूरा माहौल मौजूद था । कालेज के सामने बावड़ी । बावड़ी के किनारे बरगद का पेड़ । जिस कमरे में रहते थे उस कमरे के बीच में चक्करदार लोहे की सीढ़ी । कमरा पहली मंजिल पर था । वहां तक जाने के लिए संकरी सीढ़ियां । इसी कालेज में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी भी पढ़ाते थे । अब तो लेखकों को फ़ुर्सत के साथ रहकर लिखने के लिए दो कमरों का गेस्ट हाउस भी बन गया है । लौटते हुए बहन के यहां हम तीनों ने खाना खाया था । विनोद कुमार शुक्ल के साथ खास बात यह लगी कि जिस तरह रचकर वे लिखते हैं उसी तरह बोलते भी हैं यानी रचाव-बनाव उनका स्वभाव हो गया है । बुरी बात नहीं । महावीर अग्रवाल से भी भेंट हुई । उन्होंने प्रणय के कारण मुझे और तीर्थेश्वर जी को भी नाश्ता कराया था । बेहतरीन नाश्ता । प्रणय का तीसेक पृष्ठ लंबा इंटरव्यू छापा । इस यात्रा में संयोगवश पंकज चतुर्वेदी नहीं थे ।          

25/10/2013

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