तुलसी
राम की आत्मकथा ने हिंदी साहित्य को गरिमा प्रदान की है । उसने हिंदी साहित्य की परंपरा के एक विशेष पहलू को इस आधुनिक समय में भी सच साबित किया है । साहित्येतिहास की यह एक गुत्थी है कि भारतीय साहित्य की अन्य भाषाओं में जो प्रवृत्तियां पहले प्रकट होती हैं वे हिंदी में देर से आने के बावजूद उस प्रवृत्ति की सर्वाधिक परिपक्व अभिव्यक्ति बन जाने वाली रचनाओं के जरिए प्रकट होती हैं । इतिहास में ऐसा भक्ति
आंदोलन के समय हुआ जब दक्षिण भारत में पैदा होने वाली वैष्णव भक्ति की धारा हिंदी प्रदेश
में आई तो पूरब से आने वाली शाक्त धारा और पश्चिमोत्तर से आई सूफी धारा के साथ मिलकर
ऐसे सृजनात्मक विस्फोट के रूप में प्रकट हुई कि शायद अन्य किसी भाषा में उसका ऐसा रूप
न दिखाई पड़ा होगा । इसी तरह उपन्यास विधा भी हिंदी में देर से आई लेकिन उसे जैसी परिपक्वता
हिंदी में मिली वैसी किसी अन्य भाषा में न मिली होगी । ऐसी विशिष्टता का तीसरा उदाहरण
नक्सलबाड़ी के साहित्यिक प्रभाव का है । अन्य भाषाओं के मुकाबले हिंदी में वह अधिक मूलगामी
तेवर के साथ सामने आया । इसी कड़ी में दलित आत्मकथा लेखन की गतिकी में तुलसी राम की
आत्मकथा है । हिंदी के अपने प्रसंग में एक और बात कहना जरूरी है । हिंदी में लिखी ज्यादातर
दलित आत्मकथाओं के लेखन से पश्चिमी उत्तर प्रदेश का दलित सामाजिक जीवन उजागर होता है
। उनमें लेखक मध्यवर्गीय हैसियत हासिल कर लेता है और स्त्रियों के प्रति उसका पितृसत्तात्मक
नजरिया दर्ज हुआ है । सर्वाधिक महत्वपूर्ण आत्मकथा ‘जूठन’ के लेखक का जीवन ज्यादातर महाराष्ट्र में बीता है । तुलसी राम की आत्मकथाओं
के जरिए पूर्वी उत्तर प्रदेश का दलित सामाजिक जीवन हिंदी दलित लेखन के केंद्र में आ
गया है ।
‘मणिकर्णिका’ उनकी आत्मकथा का दूसरा खंड है
। इस अर्थ में यह पहले खंड ‘मुर्दहिया’ की निरंतरता भी बनाए रखती है और एक स्वतंत्र पुस्तक की हैसियत से भी पढ़ी जा
सकती है । पहले खंड में जहां वर्णन का विषय लेखक के बचपन का संसार था वहीं इस दूसरे
खंड में परिपक्वता की ओर बढ़ता हुआ नौजवान है । खास बात यह है कि लेखक की उम्र ही नहीं
बढ़ती, बल्कि उसका अनुभव संसार भी साथ ही साथ विस्तारित होता है
और यही उस युवक की परिपक्वता की प्रक्रिया है । जिस तरह रणधीर सिंह का ‘आत्मवृत्त के बहाने’ केवल व्यक्ति रणधीर सिंह की कहानी
नहीं है वरन उस पीढ़ी के दुनिया में दाखिले की कहानी है उसी तरह आत्मकथा का यह खंड भी
केवल व्यक्ति तुलसी राम की कहानी होने की बनिस्बत बनारस के आस पास जवान होते दलित समुदाय
की उस पीढ़ी की कहानी है ।
इसके लिए मैं सिर्फ़ एक प्रसंग का उदाहरण दूंगा क्योंकि अन्य
लोगों के लिए उस कथा का उत्तरार्ध अनजाना है । आत्मकथा में आजमगढ़ के ही फूल चंद राम
आए हैं जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कम्युनिस्ट विरोधी दलित राजनीति में मोहरे
की तरह इस्तेमाल होते हैं । बाद में यही फूल चंद राम एफ़ सी आई के बड़े पदाधिकारी हुए
और असम में एक अत्यंत दुखद घटना में पुलिस की गोली से मारे गए । उनका अपहरण उल्फ़ा ने
किया था । बड़े अधिकारी होने के नाते उन्हें छिपाना उल्फ़ा के लिए संभव नहीं रहा तो उन्हें
पुलिस को सौंपने के लिए आतंकवादी ला रहे थे । ये लोग जिस जगह छिपे थे वहां पुलिस ने
छापा मारा और दोनों ओर से गोलीबारी होने लगी । फूल चंद राम को लगा कि चूंकि पुलिस उन्हीं
के लिए गोली चला रही है इसलिए अगर वे बाहर आ जाते हैं तो गोलीबारी बंद हो जाएगी । ऐसा
सोचकर वे दोनों हाथ ऊपर उठाए हुए अपना नाम जोर से बोलते हुए बाहर निकले । बहुत से लोगों
का कहना है कि इन दिनों में समर्पण संबंधी बातचीत में फूल चंद जी ने पुलिस प्रशासन
के ढेर सारे रहस्य जान लिए थे इसलिए उन्हें जिंदा छोड़ देना खतरनाक था । संभव है तरक्की
के लिए एनकाउंटर करने की जरूरत के चलते ऐसा हुआ हो । कारण जो भी हो पुलिस की गोली से
वे मारे गए । इस तरह के तमाम पात्र और घटनाएं जो बाद के दिनों में महत्वपूर्ण साबित
हुईं उनकी सजीव उपस्थिति ने इस खंड को लगभग ऐतिहासिक दस्तावेज बना दिया है ।
इसी तरह का दस्तावेजी प्रसंग गोरख पांडे का है । हिंदी साहित्य
में उनकी उपस्थिति को मिटाने और उनके योगदान को नकारने का व्यवस्थित प्रयास किया गया
है । ऐसे में लगभग पूरी आत्मकथा में उनकी अविस्मरणीय मौजूदगी उनके व्यक्तित्व के कुछ
अनजाने पहलुओं को देखने का मौका देती है । शुरू में जातिगत भेदभाव के विरुद्ध जान की
परवाह किए बिना तन कर खड़े होने वाले गोरख पुलिस थाने में गिरफ़्तारी और पिटाई के बाद
गंभीर मार्क्सवादी अध्येता की तरह उभरकर आते हैं । आगे चलकर संकल्पित नक्सल कार्यकर्ता
बनने की उनकी जद्दो जहद अपने और साथियों के साथ आलोचनात्मक संघर्ष में बदल जाती है
। उनके प्रसिद्ध गीत ‘जनता की आवे पलटनियां, हिलेले झकझोर दुनिया’
की धुन की पहचान भोजपुरी इलाके के लोकगीत ‘रामजी
की आवे बरियतिया, परेले झीर झीर बुनिया’ के बतौर की गई है । इससे गोरख पांडे की काव्य प्रतिभा का सबूत मिलता है । कौन
कल्पना कर सकता है कि ऐसे लोकगीत में ऐसा प्रयाण गीत लिखा जा सकता है । इस आत्मकथा
में गोरख पांडे जिस तरह उभरते हैं वह उनकी शक्ति और समस्या दोनों का ही सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक
पर्यवेक्षण साबित होता है । उनकी छवि उदय प्रकाश की कहानी ‘रामसजीवन
की प्रेमकथा’ और जे एन यू में उनकी मानसिक समस्याओं के बारे में
फैले किस्सों से जैसी बनती है उससे गुणात्मक तौर पर भिन्न गोरख इस आत्मकथा में प्रकट
होते हैं । सबसे पहले उनका प्रवेश जातिवाद विरोधी प्रचंड योद्धा के रूप में होता है
। धीरे धीरे उनका पढ़ाकू रूप सामने आता है । अन्याय के विरुद्ध जान पर खेल जाने वाले
गोरख अंत में रोमांटिक क्रांतिकारी की तरह तो दिखाई पड़ते ही हैं, लेकिन दोस्ती निभाने वाले व्यावहारिक मनुष्य भी सिद्ध होते हैं ।
शेरपुर गांव में दलितों की बस्ती को जलाने की घटना का उल्लेख
भी बेहद साहसिक बात है । जिस तरह ‘हंग्री टाइड’ में मरिचझांपी
के उल्लेख को भारत के पारंपरिक वाम बौद्धिक पचा नहीं पाते और उसी अपराध के चलते इस
या उस बहाने से अमिताभ घोष को महत्वपूर्ण भारतीय उपन्यासकारों में शरीक करने में आनाकानी
करते हैं उसी तरह शेरपुर की घटना का उल्लेख हिंदी के अनेक साहित्यकारों के उस क्षेत्र
से होने के बावजूद पहली बार एक दलित लेखक के हाथों होना हिंदी के स्थापित साहित्यकारों
के अनुभव संसार के बारे में केवल टिप्पणी नहीं है । उस घटना को लेकर सामाजिक विज्ञानों
के भीतर भी शोध न होना भारत के शोध कार्य के एजेंडे के बारे में बहुत कुछ कहता है ।
इसी क्रम में हम अरुंधती राय के ‘गाड आफ़ स्माल थिंग्स’
में व्यक्त वामपंथ के भीतर समाए जातिवाद की भी याद कर सकते हैं । शेरपुर
वाली पूरी घटना का जिक्र संयोग से ‘वैचारिक अंतर्द्वंद्व’
शीर्षक अध्याय में नहीं हुआ है । यह घटना उस द्वंद्व के साथ गहराई से
जुड़ी हुई है । उस क्षेत्र में यह द्वंद्व बाद के दिनों तक बना रहा । व्यक्तिगत रूप
से यह समीक्षक भी उस द्वंद्व का गवाह रहा है । स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही वह इलाका
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जमींदारी विरोधी गोलबंदी का केंद्र बन चुका
था । गाज़ीपुर जिले में सरयू पांडे और आज़मगढ़ में झारखंडे राय इस गोलबंदी के नेता बनकर
उभरे थे लेकिन दोनों ही जिलों में आरंभिक चुनावी सफलता ने कम्युनिस्ट नेताओं में उसे
टिकाए रखने के लिए दलित जातियों की जगह थोड़ा दबंग जातियों के साथ मेलजोल बढ़ाने की प्रेरणा
दी । नतीजा यह निकला कि नक्सल आंदोलन के प्रति इन जातियों में आकर्षण पैदा हुआ । तुलसी
राम भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ थे लेकिन दलित भी थे । सो इसी अंतर्द्वद्व के
क्रम में शेरपुर की दलित बस्ती को सवर्णों द्वारा जलाने की घटना का आना अत्यंत स्वाभाविक
है ।
इस अंतर्द्वंद्व के अंग के बतौर लेखक नक्सल कार्यकर्ताओं को
खोजने के लिए बंगाल की दोबारा यात्रा करता है । इस बार वह कलकत्ता हमारी आंखों के सामने
आता है जिसकी हवा में सनसनी थी । शायद ही किसी अन्य हिंदी लेखक की रचना में वह कलकत्ता
आया होगा जहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं में नक्सलवादियों के
प्रति सहानुभूति दिखाई पड़ी हो । आज तो शायद लोग भूल भी गए होंगे कि नक्सल नेता चारु
मजुमदार मूल रूप से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के दार्जिलिंग जिले के नेता थे ।
यह खदबदाता हुआ कलकत्ता भी ऐतिहासिक शोध की समृद्ध सामग्री है । खुद नक्सलबाड़ी का ब्यौरा
भी बहुत हद तक तथ्यात्मक है । नक्सलबाड़ी के बारे में तमाम लेखन वैचारिक पूर्वाग्रहों
से ग्रस्त होता है लेकिन असहमति के बावजूद यह चित्रण उसी साक्षी भाव के चलते विश्वसनीय
बन पड़ा है जिसकी चर्चा हमने पहले की है । फिर भी यह उल्लेख करना जरूरी है कि यह साक्षी
भाव निरपेक्ष नहीं है बल्कि एक तरह की निस्सगता के कारण और भी प्रभावी हो उठा है ।
दस दिन भूखे
रहने के बाद भोजन के लिए शेक्सपियर के नाटक की बिक्री का समूचा प्रसंग इस बात की पुष्टि
के लिए उद्धृत किया जा सकता है ।
इस आत्मकथा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि तुलसी राम जी ने विभिन्न
स्थानों और व्यक्तियों को जिस कालखंड में दर्ज किया है वे उस समय की जीवंत झांकी प्रस्तुत
करते हैं । ऐसा नहीं कि ये चित्र स्थिर हों बल्कि उनमें पर्याप्त गतिमयता है लेकिन
किसी कुशल चित्रकार की कूंची से दर्ज गतिमयता । इसका सबसे बड़ा प्रमाण कलकत्ते का बयान
है । लेखक अनेक यात्राओं में ‘बिदेसिया’ के इस शहर के
अनेक रूप प्रस्तुत करता है । बनारस में पढ़ाई के लिए पैसे की जरूरत थी , इस विडंबना को सबसे अधिक बेचैनी के साथ रवींद्रनाथ ठाकुर ने दर्ज किया कि शिक्षा
के लिए धन की वसूली अंग्रेजी राज में शुरू हुई । बहरहाल पैसे के लिए कलकत्ते की यात्रा
दिल दहलाने वाली स्थितियों में हुई । रेल के डिब्बे के बाहर लोहे के डंडे से लटककर
रात भर की यात्रा इतनी भयानक थी कि उसे शब्दों में उतारना लेखक के लिए लगभग असंभव रहा
होगा । जीवन की कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जिन्हें याद करने में भी तकलीफ होती है । इस
आत्मकथा में ऐसे बीसियों प्रसंग हैं । शायद इसी कारण लेखक ने बिना कोई अतिरिक्त भावुकता
जोड़े केवल परिस्थिति का साक्षी भाव से बयान कर दिया है । इसी साक्षी भाव के चलते कलकत्ते
के जीवन के वे यथार्थ सामने आए हैं जो उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी मजदूरों के
जीवन में रोजमर्रे की बातें थीं । मसलन मजदूरों के मुहल्ले में हल्ला गाड़ी का आना ।
हल्ला गाड़ी का वर्णन यह साबित करता है कि वर्गीय भेदभाव एक स्तर पर नस्ली भी हो जाता
है । मजदूरों के जीवन के उस समय के इस प्रामाणिक बयान से ट्रेड यूनियन आंदोलन की अनेक
गुत्थियां भी उभरकर प्रकट होती हैं । रेल के मुख्यालय बदलने की आशंका के मद्देनजर बंगाली
कर्मचारियों का ‘छातू लंका खाबो ना’ का
नारा इस जटिलता को समझने की अंतर्दृष्टि देता है । इसी तरह काशी हिंदू विश्वविद्यालय
जहां से लेखक को उच्च शिक्षा हासिल होती है में प्रवेश हेतु भरे जाने वाले आवेदन पर
भेदभाव बढ़ाने वाली जानकारी मांगी जाती थी । उच्च शिक्षा के केंद्र बनारस में किराए
पर कमरा लेकर सम्मान के साथ जीवन बिताना किसी दलित विद्यार्थी के लिए असंभव सा काम
नजर आता है । यह तथ्य भारत के शहरों के सामाजिक मनोविज्ञान पर भी बड़ी टिप्पणी है ।
इन विशेषताओं के चलते यह पूरी आत्मकथा भारत में और खासकर हिंदी में सामाजिक विज्ञानों
के विकास को प्रेरित करेगी । अगर हम पहले और वर्तमान खंड के पात्रों की गिनती करें
तो सचमुच इस आत्मकथा के महाकाव्यात्मक विस्तार की थाह ले सकेंगे । खिलौने की बंदूक
और क्रिकेट की गेंद से हवाई जहाज का अपहरण करने वाले भोला पांडे और आरंभिक नक्सली जोश
में बदमाश जमींदार का सिर काटने के लिए चल पड़ने वाले आजमगढ़ के इंद्रसेन सिंह का अन्य
किसी की यादों में नजर आना मुश्किल ही है । ये पात्र इस आत्मकथा में मानो पत्थर पर
उकेर दिए गए हैं ।
शुरुआत से ही पाठक का सामना लोकतंत्र की सम्मानित संस्थाओं के
ढकोसले से होता है । जातिगत भेदभाव के प्रति गुस्सा पूरी आत्मकथा में अंतर्धारा की
तरह बहता रहता है । इस सिलसिले में भक्त कवि तुलसी का उद्धरण यह बताता है कि जातिगत
भेदभाव का दंश वास्तव में बहुत मारक होता है । इसी के सहारे हम आर्थिक शोषण के मुकाबले
आत्म सम्मान की लड़ाई पर जोर देने वाली पार्टियों की निचली जातियों में लोकप्रियता का
कारण समझ सकते हैं । साथ ही यह भी कि इस सवाल को समरसता के कुल जुबानी जमा खर्च के
बावजूद परदे के पीछे नहीं ढकेला जा सकता है । परिवर्तनकामी राजनीति करने वालों के लिए
अनिवार्य सवाल के रूप में लेखक इस समस्या को उठा देता है । तुलसी राम ने दिखा दिया
है कि कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर भी कितने सूक्ष्म रूप में यह मौजूद रहता है । भारत
में संघर्षरत कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए अब इस सवाल को टालने का कोई अवसर नहीं बचा
है । परिवर्तन की व्याख्या केवल राजनीतिक रहेगी तो ऐसे विचलनों की संभावना बनी रहेगी
। बदलाव को अंतत: सामाजिक होना होगा जिसका प्रतिफलन राजनीतिक सत्ता के बदलाव में
होगा । इसी अर्थ में यह आत्मकथा समग्र संघर्ष की परिकल्पना को फौरी कार्यभार बना देती
है ।
अंतिम बात यह कि बहुत दिनों बाद ऐसी सृजनात्मक भाषा हिंदी के
व्यापक पाठक समुदाय को पढ़ने के लिए मिली है जिसमें हिंदी की बोलियों का सत्व है । ध्यान
दें तो व्यापक रूप से ऐसी हिंदी बहुत दिनों से लिखी जा रही है जिसमें व्यक्तित्व नहीं
होता । शायद ऐसा अखबारी भाषा के प्रभुत्व से हुआ होगा । एक बार फिर से प्रमाणित हुआ
कि भाषा में चित्रात्मकता और बिंबात्मकता उसकी बोलियों से आती है । डबल, ट्रिपुल
और चर्पुल सिंह हाथ में बंदूक पकड़े हुए ‘गनगन गनगन’ कांपते हुए बिना इस भाषा के प्रत्यक्ष नहीं हो सकते हैं ।
शारीरिक अस्वास्थ्य के बावजूद तुलसी राम जी की सक्रियता स्पृहणीय
है । उन्होंने लेखन को सचमुच राजनीतिक कर्म में बदल दिया है । आशा है आत्मकथा का तीसरा
खंड भी इतना ही भेदक होगा । उनके जीवनानुभव और व्यस्था जनित रहस्य भेद कर सचाई को उजागर
कर देने वाली अंतर्दृष्टि उन्हें सारी कमियों के बावजूद बाकी लेखकों से बीसियों गज
ऊंचा उठा देती है, न केवल दलित लेखकों से बल्कि हिंदी के तमाम वर्तमान कलाकार लेखकों
से भी । भक्तिकालीन कवि तुलसी के अलावे केदारनाथ अग्रवाल और गोरख पांडे के संदर्भ लेखक
की विस्तृत संवेदनशीलता के प्रमाण हैं और अन्य समाजशास्त्रियों के मुकाबले भी उनको
विशिष्ट बनाते हैं । कलकत्ते का पहला प्रसंग बंद करते हुए गालिब की पंक्तियां हास्य
के सहारे अकथनीय कष्ट को और भी विषण्ण बना देती हैं ।
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