बचपन में जाड़े की शुरुआत में एक नया पक्षी नजर आना शुरू होता था जिसे लोग
खड़रिच कहते । उसकी खासियत चंचलता थी । हमारी ईर्ष्या का कारण उसकी यही अस्थिरता थी
। बड़े बुजुर्ग उसे ईशान कोण पर देखना शुभ बताते । जाड़े के बीतते ही परीक्षा शुरू
होने वाली होती इसलिए उसे ईशान कोण पर देखकर परीक्षा में सफलता की आशा पैदा होती ।
बाद में उस पक्षी का प्रतिष्ठित नाम ‘खंजन’ का पता चला । तुलसी के शरद ॠतु के साथ
इसके आगमन को जोड़ने और सूर साहित्य पर अमृत लाल नागर के उपन्यास का नाम ‘खंजन नयन’
जानकर इसके साहित्यिक महत्व का बोध हुआ । अध्यापन के दौरान भी यह ज्ञान काम आता ।
देहात में तो उस पक्षी की विशेषताओं से विद्यार्थी वाकिफ होते लेकिन शहर में
उन्हें इसे पहचानने में दिक्कत आती है । कुछ जानकारी बढ़ी तो पता चला कि यह उन अनेक
पक्षियों में से एक है जिन्हें साइबेरियाई पक्षी कहा जाता है । ये ऐसे पक्षी होते
हैं जो ठंडे मुल्कों में रहते हैं लेकिन उन मुल्कों में ठंड में चारा न मिलने की
संभावना के मद्दे नजर भारत जैसे गर्म मुल्कों की ओर बाकायदे झुंड बनाकर प्रयाण
करते हैं । पता चला कि साल दर साल इनका आना लगा रहता है और कभी ये रास्ता नहीं
भटकते । लाखों किलोमीटर का उनका सफर वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है ।
पक्षियों को तो खैर जैविकीय कारणों से हवाई यात्रा का प्रजातिगत आनंद उठाना
पड़ता है लेकिन मानव समुदाय के साथ यही परिघटना भिन्न रूप में घटित होती है । इस मामले को तब से भारत के बौद्धिक जगत में उठता हुआ देखा गया जबसे नव उदारवाद का उदय हुआ । उसके बाद से पश्चिमी दुनिया की हैसियत तीसरी दुनिया के देशों के भाग्य विधाता की हो गई । कांग्रेसी निजाम की शुरुआत को परवान चढ़ाते हुए वाजपेयी सरकार ने प्रवासी दिवस के रूप में इन पक्षियों को प्रतिष्ठा देने का नया अभियान चलाया । इसी के साथ हिंदी अध्यापकों और साहित्यकारों के भीतर विदेश गमन की इच्छा को पूरा करने के पुराने माध्यम के खात्मे से बने खालीपन को भरने का अभियान भी इन प्रवासी लेखकों ने आरंभ किया ।
अकादमिक दुनिया के सभी लोग जानते हैं कि दिसंबर से उस राशि को खर्च करने की कोशिश शुरू हो जाती है जिसे बजट कहते हैं । अंतिम रूप से मार्च में उसे निपटाना होता है इसीलिए सबसे अधिक गोष्ठियां मार्च में होती हैं । एक और बवाल यूजीसी ने लगाया है गोष्ठियों में भागीदारी पर अंक प्रदान करने का । इनमें हमारे देशभक्तों का कहना है कि राष्ट्रीय के मुकाबले अंतर्राष्ट्रीय को अधिक अंक प्राप्त होंगे । सामाजिक विज्ञानों में तो अंतर्राष्ट्रीयता का यह आलम है कि विदेश न जाने के लिए प्रयास करना पड़ता है । हिंदी में अंतर्राष्ट्रीय किस विधि होय! रास्ता निकाला गया कि इन्हीं पक्षियों के आगमन के समय एकाध को पकड़ लेने से यह तमगा जुटाना आसान होगा । इस प्रकार
सार्वजनिक क्षेत्र के विश्वविद्यालयों और निजी क्षेत्र के प्रवासियों के सहयोग से
संगोष्ठियों के आयोजन और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी का दुखद धंधा मराठी में ‘चालू
आहे’ ।
No comments:
Post a Comment