Sunday, October 12, 2014

मार्क्स के जीवन और विचार पर मजेदार टिप्पणी

     
2002 में प्रसिद्ध विद्वान और प्रिंस्टन विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्रोफ़ेसर इसाइया बर्लिन लिखित ‘कार्ल मार्क्स: हिज लाइफ़ एंड एनवायरनमेंट’ का चौथा संस्करण प्रकाशित हुआ । इसकी भूमिका में उन्होंने बताया है कि चालीस साल पहले छपी इस किताब को तमाम दार्शनिक, आर्थिक और समाजशास्त्रीय मुद्दों पर बहस मुबाहिसे को छांटकर नये संस्करण में केवल उनकी बौद्धिक जीवनी पर केंद्रित करके मूल का आधा कर दिया गया है । तीस साल की उम्र में बर्लिन की यह पहली किताब थी और इसी से विचारों के इतिहासकार के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा मिली थी । उन्होंने जिन विचारकों के बारे में भी लिखा यह ध्यान रखा कि उनमें हमारी रुचि उनके निजी जीवन के विवरणों के चलते नहीं, उनके विचारों के चलते पैदा हुई है । मार्क्स के बारे में लिखते हुए उन्हें यह विचित्र बात महसूस हुई कि परिस्थिति को प्रभावित करने के मामले में खुद मार्क्स विचारों के मुकाबले अन्य ताकतों को अधिक महत्वपूर्ण मानते थे लेकिन उनके विचारों की ताकत उनकी ही मान्यताओं को गलत साबित करती है । दूसरे कि मार्क्स इतिहास में व्यक्ति की भूमिका को अधिक महत्व नहीं देते थे लेकिन लेनिन, स्तालिन, माओ जैसे व्यक्तियों ने विराट सामाजिक शक्तियों को गति दी । बर्लिन का यह भी कहना है कि मार्क्स पूंजीवादी व्यवस्था में व्याप्त अन्याय से जितनी नफरत करते थे उसे देखते हुए उन्हें लौह नियमों का आविष्कर्ता कहना उचित नहीं है । इसके संदर्भ में वे मार्क्स के अनुयायियों द्वारा उनके चिंतन में भौतिकवाद की मुख्यता स्थापित करने के नाम पर उनके नैतिक सरोकारों को उपेक्षित रखने की भी आलोचना करते हैं । यहां तक कि पूंजीवाद के स्वत: विनाश की कथित भविष्यवाणी का मेल भी वे मार्क्स द्वारा स्वास्थ्य और पारिवारिक सुख की कीमत पर क्रांतिकारी लक्ष्य को हासिल करने के लिए सचेत प्रयासों के तकलीफदेह और लंबे इतिहास के साथ नहीं बिठा पाते । बर्लिन के मार्क्स यूरोपीय ज्ञानोदय की संतान तो हैं ही ज्ञानोदय के विरुद्ध रोमांटिक विद्रोह की भी पैदावार हैं
इस किताब का इतिहास भी मजेदार रहा है पहली बार इसका प्रकाशन दूसरे विश्व-युद्ध से पहले हुआ था दूसरे संस्करण के प्रकाशन के समय तक शीत-युद्ध शुरू हो चुका था तीसरे संस्करण के प्रकाशन के समय तक रूस में ख्रुश्चेव ने स्तालिन की आलोचना शुरू कर दी थी हंगरी की घटना ने पश्चिमी मार्क्सवादियों को निराश किया औरमानवीयमार्क्स की तलाश होने लगी, ‘लिबरेशन थियोलाजीका जन्म भी इसी समय हुआ चौथा संस्करण 1978 में प्रकाशित हुआ तब तक तमाम ऐसे अध्ययन हो चुके थे जो एकाधिक मार्क्स की खोज पर आधारित थे, जिनके अनुसारयुवा मार्क्सऔरपरिपक्व मार्क्समें विभाजन किया जाना प्रस्तावित था
1963 में बर्लिन ने स्वीकार किया था कि एक तरफ ‘आर्थिक-दार्शनिक पांडुलिपियां’ के व्यापक प्रसार और दूसरी तरफ अमेरिका और पश्चिमी यूरोप की युद्धोत्तर आर्थिक समृद्धि के चलते पूंजीवाद के नाश संबंधी मार्क्स के कथन में भरोसा कुछ कम होने लगा लेकिन मनुष्य को मशीन के लिए बलिदान करने वाली, संस्कृति को नकदी में तौलने वाली और बाजार की अमानवीय तथा अमूर्त ताकतों को सत्ता प्रदान करने वाली व्यवस्था के विरुद्ध उनकी नैतिक-दार्शनिक आलोचना का महत्व इससे धूमिल नहीं हुआ ।
बर्लिन के मुताबिक मार्क्स न तो श्रोताओं को मुग्ध कर लेने वाले वक्ता थे और न ही घनघोर आंदोलनकारी । उनका लेखन भी उनके जीवित रहते कम ही प्रकाशित हुआ था । जीवन भर वे उतने मशहूर भी नहीं रहे । वे अपने परिवार, अपने बच्चों और अपने दोस्तों की सुरक्षित दुनिया पसंद करते थे । उनकी खूबी उनका जबर्दस्त दिमाग था । उसमें चल रहे विचारों को कागज पर उतारना उनके लिए तकलीफदेह होता था । वे ऐसे लोगों के बीच पले बढ़े थे जिनके लिए विचार तथ्यों से अधिक यथार्थ हुआ करते थे और निजी रिश्ते बाहरी दुनिया की घटनाओं से अधिक मानीखेज होते थे, जिनके लिए सार्वजनिक जीवन कभी कभी अनुभवों की निजी समृद्ध दुनिया के मायनों में समझा जाता और व्याख्यायित होता था । वे बुद्धिजीवियों की भाषणबाजी और भावुकता से उतने ही चिढ़ते थे जितना पूंजीपतियों की बेवकूफी और आत्मतुष्टि से । ऐसे बेहूदे और शत्रुतापूर्ण माहौल में रहने से उनमें रूखापन और आक्रामकता बढ़ गई । उनका यह रुख बाहर के लोगों के प्रति ही था, परिवार या दोस्तों के बीच वे सज्जन और सौम्य थे । उनके दुश्मन भी उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता, उनके विचारों के पैनेपन और तत्कालीन स्थितियों के मर्मभेदी विश्लेषण के कायल हो जाते थे । उनके समय के क्रांतिकारियों में वाद-विवाद बेहद तीखे होते थे लेकिन अपने समय के हालात की तीखी नैतिक आलोचना के चलते वे आपस में मिलकर काम करते थे । हालात में बुनियादी बदलाव की आकांक्षा उन्हें एकजुट रखती थी ।
इन सबसे मार्क्स इस मामले में अलग थे कि उन्होंने कोई नैतिक या सामाजिक आदर्श मानव समाज पर नहीं थोपा । उन्होंने बदलाव के लिए हृदय परिवर्तन की जगह सामाजिक ताकतों के शक्ति संतुलन को समझने की अपील की । मौजूदा व्यवस्था की आलोचना के लिए किसी आदर्श का सहारा लेने की जगह उन्होंने इतिहास का सहारा लिया । भावना की बनिस्बत बुद्धि को संबोधित करने की आकांक्षा के बावजूद बर्लिन के अनुसार उनकी भाषा में घोषणा के तत्व दिखाई पड़ते हैं जो झूठ का पर्दाफाश करने और सचाई को उजागर करने के लिए अपनाई गई प्रतीत होती है । उन्होंने अपने लिए जो कार्यभार तय किया था 1845 तक उसका पहला चरण पूरा कर लिया और प्रकृति, इतिहास तथा समाज के विकास के मूल नियमों को समझ लिया था । उनका मानना था कि समाज का इतिहास व्यक्ति के सृजनात्मक श्रम के जरिए अपने आप और बाहरी दुनिया को काबू करने का इतिहास है । परस्पर विरोधी वर्गों के बीच संघर्ष में इस गतिविधि का पुनर्जन्म होता है जिसमें कोई एक वर्ग विजयी होकर निकलता है । एक वर्ग पर दूसरे की जीत की यह निरंतरता ही प्रगति कहलाती है । वही लोग तार्किक होंगे जो अपने समाज में उदीयमान वर्ग के साथ अपने को जोड़ेंगे । अगर जरूरत पड़ी तो अपने अतीत का त्याग करके इस वर्ग का अंग होंगे । इसी समझदारी के अनुसार अपने समय में संघर्षरत वर्गों में उदीयमान वर्ग के रूप में सर्वहारा वर्ग को पहचानने के बाद उन्होंने सारा जीवन इसकी जीत की रणनीति बनाने में लगा दिया । इतिहास की स्वाभाविक प्रक्रिया में यह विजय निश्चित है लेकिन साहस, निश्चय और ईमानदारी के चलते यह जीत निकट आएगी, बदलाव में तकलीफ कम होगी, टकराव कम होंगे और जन-हानि भी कम ही होगी ।     
       

   

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