2000 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से पहली बार ‘ए वेरी
शार्ट इंट्रोडक्शन’ योजना के तहत मार्क्स पर पीटर सिंगर
द्वारा 1980 में लिखी और 1996 में
पुनर्प्रकाशित किताब को छापा गया है । इसमें लेखक ने पहले अध्याय में संक्षिप्त
जीवनी लिखने के बाद दूसरे अध्याय में हेगेल के दर्शन में मार्क्स द्वारा किए गए
रूपांतरण की प्रक्रिया को अच्छी तरह से समझाया है । इस प्रक्रिया पर ध्यान देने से
यह भी स्पष्ट होता है कि विचारकों के चिंतन को सामाजिक शक्तियों के प्रतिनिधि समय
की मांग के अनुरूप इस्तेमाल कर लेते हैं । लेखक के मुताबिक हेगेल की किताब
‘फेनोमेनोलाजी आफ़ माइंड’ में माइंड के लिए जिस जर्मन शब्द का उपयोग किया गया है
उसका अंग्रेजी अनुवाद स्पिरिट या आत्मा के बतौर किया जाता है । हेगेल ने इसका
प्रयोग ब्रह्मांड के आध्यात्मिक पहलू के रूप में किया है और इस मामले में यह
विश्वात्मा जैसी चीज होगी । मेरी, आपकी या अलग अलग चेतन प्राणियों की आत्मा इसी
विराट आत्मा की विशेष, सीमित अभिव्यक्तियां होती है । इस पर विवाद है कि हेगेल की
यह विश्वात्मा ईश्वर है या समूचे ब्रह्मांड में व्याप्त चेतना है । हेगेल की किताब
में व्यक्ति की आत्मा से इस विश्वात्मा तक के विकास को समझने की कोशिश की गई है ।
यह विकास द्वंद्वात्मक होता है ।
द्वंद्वात्मकता को स्पष्ट करने के लिए वे एक रूपक का सहारा
लेते हैं । मान लीजिए दो स्वतंत्र मनुष्य हैं जो विश्वात्मा के भिन्न भिन्न रूप के
बतौर अपनी समानता नहीं पहचानते । उनमें से एक दूसरे को अपनी शक्ति की सीमा या
चुनौती समझेगा । उनमें संघर्ष होगा जिसमें जीतने वाला व्यक्ति हारने वाले को गुलाम
बना लेगा । मालिक और गुलाम के रिश्ते में उनकी स्थिति बदलती रहती है । पहली नजर
में मालिक ही सब कुछ महसूस होता है लेकिन असल में गुलाम काम करता है और अपनी मेहनत
से प्रकृति को बदलता है । प्रकृति पर अपनी चेतना की दावेदारी में गुलाम को
संतुष्टि मिलती है और वह आत्म-चेतना विकसित करता है । मालिक गुलाम पर
निर्भर होता जाता है । गुलाम को मुक्ति मिलती है और दो स्वतंत्र मनुष्यों के बीच
का शुरुआती संघर्ष समाप्त हो जाता है ।
अलग अलग मनुष्यों की आत्मा को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि
वे विश्वात्मा का अंग है । इसी स्थिति को हेगेल आत्मा का अपने आपसे ‘अलगाव’
कहते हैं । अर्थात कोई एक मनुष्य जिसमें विश्वात्मा का एक अंश है वह
उसी विश्वात्मा के दूसरे अंशों यानी दूसरे मनुष्यों को पराया और शत्रु समझने लगता
है, एक ही विराट अखंडता का अंश नहीं मानता । इस स्थिति में
वह स्वतंत्र नहीं हो सकता क्योंकि उसे अपने संपूर्ण विकास की राह में विरोध और
बाधा का अनुभव होता है । आत्मा तो असल में सर्वव्यापी और अनंत है इसीलिए यह विरोध-बाधा सिर्फ़ ऊपरी बात है । यह होता ही इसलिए है क्योंकि आत्मा अपने आपको
नहीं पहचान पाती, जो उसी के अंश हैं उन्हें पराया और शत्रु
समझती है । ये परायी शक्तियां ही आत्मा की स्वतंत्रता को सीमित कर देती हैं
क्योंकि यदि आत्मा को अपनी अनंत शक्तियों का ज्ञान नहीं होगा तो वह दुनिया को अपने
मुताबिक संगठित करने के लिए इन शक्तियों का इस्तेमाल नहीं कर सकेगी ।
हेगेल के दर्शन में आत्मा का द्वंद्वात्मक विकास स्वतंत्रता
की ओर होता है । स्वतंत्रता की यह चेतना ही विश्व इतिहास है । बहुत दिनों तक उनके
दर्शन को अनुयायी नहीं मिले लेकिन मार्क्स की नौजवानी में हेगेल कि विश्वात्मा को
समग्र मानव जाति के अर्थ में व्याख्यायित किया जाने लगा था । इसे मनुष्य की
स्वतंत्रता की दिशा में प्रगति के रूप में समझा जाने लगा । मार्क्स ने अपने शोध की
भूमिका में लिखा ‘अगर किसी दार्शनिक ने सच में समझौता किया है तो उसके
अनुयायियों का कर्तव्य है कि वे उसके चिंतन के सार का इस्तेमाल करते हुए उसकी सतही
अभिव्यक्तियों को उजागर करें’ । युवा हेगेलपंथियों के लिए
सतही अभिव्यक्ति प्रशियाई राज्य के लिए हेगेल का समर्थन था और उनके चिंतन का सार
मनुष्य की आत्म-चेतना की स्वतंत्रता की आकांक्षा थी । इन
हेगेलपंथियों में ब्रूनो बावेर से मार्क्स की करीबी थी । बावेर के लिए पारंपरिक ईसाई
धर्म ही वह प्रमुख भ्रम था जो मानव की आत्म-चेतना की
स्वतंत्रता में बाधा बना हुआ था । उसके विरुद्ध लड़ाई में दर्शन का हथियार के रूप
में इस्तेमाल होना था । हेगेल ने ही ईसाई धर्म को अलगाव का एक रूप कहा था । उनकी
इसी मान्यता के सहारे बावेर ने घोषित किया कि ईश्वर को मनुष्य ने जन्म दिया है और
अपनी ही रचना से उसने खुद को अलग कर लिया है । मनुष्य की मुक्ति के लिए उसके इस
अलगाव को खत्म करना जरूरी है और इसके लिए धर्म की आलोचना करनी होगी । धर्म के
विरुद्ध हथियार के बतौर हेगेल की पद्धति का सबसे तीखा इस्तेमाल फ़ायरबाख ने किया ।
एंगेल्स पर फ़ायरबाख की ‘एसेंस आफ़ क्रिस्चियनिटी’ का अधिक गहरा असर पड़ा क्योंकि
मार्क्स तो बावेर के तर्कों से परिचित थे ही फिर भी फ़ायरबाख के परवर्ती लेखन से वे
भी प्रभावित हुए । कारण कि फ़ायरबाख धर्म की आलोचना तक ही नहीं रुके । उन्होंने हेगेल
के दर्शन की भी आलोचना की लेकिन यह आलोचना बहुत कुछ उनके रूपांतरण के तरीके से की गई
थी । हेगेल की पद्धति के सहारे ही उनके समस्त दर्शन की आलोचना की गई थी । हेगेल ने
आत्मा को इतिहास की चालक शक्ति माना था और मनुष्य को उसकी अभिव्यक्ति । फ़ायरबाख के
अनुसार ऐसा करके उन्होंने मनुष्य के सार को उससे बाहर स्थापित कर दिया था जिसका मतलब
कि धर्म की तरह यह मान्यता भी मनुष्य को उसके सार से अलग करती है । हेगेल को फ़ायरबाख
ने उलट दिया । उनके दर्शन के केंद्र में मनुष्य आ गया । मार्क्स ने इसी बात को और आगे
बढ़ाते हुए मनुष्यों की तात्कालिक स्थिति की आलोचना के लिए हेगेल की पद्धति का उपयोग
किया ।
इस पर जरा विस्तार से लिखिए ।
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