Tuesday, October 28, 2014

दुनिया को समझने और बदलने के प्रयासों का लेखा जोखा

                     
                                                       
इसाइया बर्लिन ने जिस कारण से यह माना कि 1845 तक मार्क्स ने जिंदगी का अपना मकसद और उस तक पहुंचने का रास्ता तय कर लिया था शायद वह मार्क्स लिखित ‘1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियांशीर्षक पुस्तक है । मार्शल बेर्मान ने ज्यादातर इसी मजेदार किताब पर विचार किया है । मार्क्स की यह किताब उनके जीवन में प्रकाशित नहीं हुई थी । 1927 में सोवियत विद्वानों को इसकी पांडुलिपि मिली तब इसका प्रकाशन हुआ । मार्क्स की इस किताब के प्रकाशन के बाद से ही पूरी दुनिया को एक दूसरे तरह के मार्क्स का पता चला जिन्हें बाद के उनके लेखन के मुकाबले अधिक मानवीय माना गया । बहुत से विद्वान यह कहते हैं कि बाद में चलकर मार्क्स दुनिया को समझने में आर्थिक पहलू पर अधिक बल देने लगे थे । इसके मुकाबले उन्हें यह किताब ज्यादा कारकों की ओर ध्यान देनेवाली महसूस हुई । इसी तरह के विद्वानों में से एक मार्शल बेर्मान न्यूयार्क सिटी कालेज में राजनीतिशास्त्र के प्रोफ़ेसर थे । खास बात यह है कि बेर्मान ने 1963 में आक्सफ़ोर्ड में अपना शोध बर्लिन के निर्देशन में ही किया था । 1999 में वर्सो से मार्शल बेर्मान की यह किताब प्रकाशित हुईएडवेंचर्स इन मार्क्सिज्म। अपनी तरह की मजेदार यह किताब लेखक की दूसरी किताब है । पहली किताबआल दैट इज सोलिड मेल्ट्स इन्टु एयर: द एक्सपीरिएंस आफ़ माडर्निटीउन्होंने शहरों के समाजशास्त्र पर लिखी थी । उसके बाद यदा कदा मार्क्सवाद के बारे में संपादकों की मांग पर लिखते रहे थे लेकिन उसे किसी स्वतंत्र किताब लायक नहीं मान सके थे । बाद में दोस्तों के अनुरोध पर अलग अलग जगहों पर प्रकाशित उन्हीं लेखों का संग्रह करके उन्होंने यह किताब तैयार की ।  
किताब के शुरू में उन्होंने आत्मकथात्मक सा नोट लिखा है । इसमें वे अपने पिता की पचास साल से कम उम्र में हुई मौत से बात शुरू करते हैं और बताते हैं कि मंदी के शुरुआती धक्के ने उनकी जान ले ली थी । बेर्मान के मन में हत्यारों से बदला लेने की इच्छा थी इसलिए अध्ययन का आरंभ ही उन्होंने मार्क्सवाद से किया । उनके अध्यापक ने ‘1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियांपढ़ने की सलाह दी । यहीं से उनका दुस्साहस शुरू हुआ । तब से उन्होंने दोस्तों को खुशी के किसी भी मौके पर यही किताब उपहार में देना शुरू किया । इस किताब को प्रचारित करना ही व्यवस्था से उन्हें सर्वोत्तम बदला लेना महसूस होने लगा ।
इस किताब में उन्हें मनुष्य के प्रति मार्क्स के अप्रत्याशित सरोकार के दर्शन हुए । इसमें एकाधिक बार मानव अस्मिता और श्रम की प्रक्रिया में उसका अपने आपसे अलगाव का जिक्र आता है । इस अलगाव के विपरीत मार्क्स मनुष्य की शारीरिक और मानसिक ऊर्जा के स्वतंत्र विकास, स्वत:स्फूर्त गतिविधि के आनंद, मुक्त सक्रियता की वकालत करते हैं । बुर्जुआ क्रांतियों ने जिस बाजार आधारित समाज को जन्म दिया उसमें धन ने सारी वैयक्तितता को उलट दिया और सब कुछ को बेचने लायक बना दिया । आधुनिक पूंजीवाद ने काम को इस तरह संगठित किया है कि कामगार अपने क्रियाकलाप, अन्य कामगारों और प्रकृति से अलग हो जाता है । उसका शरीर सूली पर चढ़ जाता है और दिमाग बरबाद हो जाता है । वह अपने आपको अपने काम से बहिष्कृत अनुभव करता है । जब वह काम पर होता है तो अपने आपमें नहीं होता और जब अपने आपमें होता है तो काम पर नहीं होता । इसी के चलते उसका श्रम जबरिया की मेहनत है ।
श्रमिक यूनियनें इसके विरोध में तो होती ही हैं, कामगार को छिनी हुई सामूहिकता की वापसी का अहसास कराती हैं इसलिए मार्क्स उन्हें सलाम करते हैं । असल में मार्क्स शुरू से ही लोकतंत्र के जुझारू पक्षधर थे लेकिन चारों ओर फैली हुई समस्याओं का समाधान केवल लोकतंत्र से होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा था । वे उन महान लोगों की सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा थे जो आधुनिक समय में मनुष्य की गुलामी से परेशान थे लेकिन उनकी विशेषता थी कि उन्होंने इस गुलामी की संरचना को सबसे अच्छी तरह देखा और दिखाया । 1844 की पांडुलिपियों में इसे खुलकर पहचाना जा सकता है ।
इन लेखों की रचना पेरिस में जेनी के साथ हनीमून के दौरान हुई थी । बेर्मान का कहना है कि इस किताब की पढ़ाई के दौरान उन्हें भी जीवन का पहला प्रेम हुआ था और वे इन पांडुलिपियों में प्रेम और यौनानंद संबंधी इंदराज खोजने लगे । उन्हें लिखा मिला किइस संबंध (स्त्री-पुरुष संबंध) के स्तर से मनुष्य के समूचे विकास की परीक्षा की जा सकती है। स्त्री-पुरुष संबंध के मामले में मार्क्स के विचारों को उस समय के फ़्रांसिसी क्रांतिकारियों की मान्यताओं के संदर्भ में देखा जाना चाहिए । इनमें से कुछ लोग यौन स्वच्छदता को बुर्जुआ बंधनों का प्रतिरोध मानते थे । मार्क्स इस हद तक तो उनसे सहमत थे कि प्रेम में अगर प्रेमी अपने प्रेमास्पद को निजी संपत्ति की तरह समझने लगे तो इस संबंध में समस्याओं का पैदा होना लाजिमी है, लेकिन इसके विरोध में सार्वभौमिक वेश्यावृत्तिको भी गलत समझते थे । उस जमाने के ऐसे कम्युनिस्टों का उन्होंने विरोध किया है जो निजी संपत्ति के आगमन से पहले की दुनिया को आदर्श समझकर उसमें लौटने की हिमायत करते थे । यौनानंद के सिलसिले में एक और बात की ओर बेर्मान ध्यान खींचते हैं । मार्क्स के अनुसार मजदूर जब कार्यस्थल पर अलगाव महसूस करता है तो उसकी भरपाई अति-भोजन, अति-पान और अति-कामक्रिया के सहारे करना चाहता है लेकिन उसकी हताशा उसे पूरी तरह से शारीरिक आनंद नहीं लेने देती क्योंकि उस पर असहनीय मानसिक दबाव रहता है ।
मार्क्स मानते हैं कि मनुष्य की इंद्रियों का निर्माण समूची दुनिया के अब तक के इतिहास का फल है । लगता है कि हनीमून के आनंद में मार्क्स भविष्य के ऐसे मनुष्यों के आगमन की अपेक्षा कर रहे थे जो कम लालची होंगे, ऐंद्रिकता और जीवंतता के मामले में सहज होंगे और प्रेम को मानव विकास का महत्वपूर्ण अंग बनाने में आंतरिक तौर पर अधिक काबिल होंगे । मानवता को प्रतिनिधित्व और मुक्ति एक साथ देने में सक्षम ये ‘नए’ लोग कौन होंगे ? इस सवाल का जवाब ही मार्क्स की नेकनामी और बदनामी की वजह है । उन्होंने ‘आधुनिक मजदूर वर्ग, सर्वहारा’ को अपनी इस आशा का केंद्र माना । सवाल उठता है कि मजदूर वर्ग के सदस्य कौन हैं और इस वर्ग का लक्ष्य क्या है । इन पांडुलिपियों में सदस्यता पर तो उन्होंने विचार नहीं किया लेकिन लक्ष्य के सिलसिले में रोचक बातें कही हैं ।  
वे कहते हैं कि आधुनिक समाज एक ओर मनुष्य के आत्म का पाशविक हनन करता है लेकिन इसी के साथ समृद्ध मानव जीवन और समृद्ध मानव आवश्यकताओं को भी पैदा करता है । समृद्ध मानव जीवन जर्मन मानववाद से उठकर चला आया है लेकिन इन मानवतावादियों को यकीन था कि कुछ ही स्त्री-पुरुष कल्पना में सक्षम गहराई से युक्त होंगे और ज्यादातर लोग तुच्छताओं में मसरूफ़ होने से आत्माविहीन होंगे । मार्क्स ने इन मानववादी मूल्यों को रूसो से प्रभावित क्रांतिकारी-लोकतांत्रिक समाज दर्शन के साथ गूंथ दिया । रूसो का कहना था कि आधुनिक सभ्यता मनुष्यों को अपने आपसे अलगाती तो है लेकिन इन अलगाव में पड़े हुए व्यक्तियों को ऐसा विकास, गहनता और क्षमता प्रदान करती है जिसके आधार पर वे सामाजिक संविदा करके पूरी तरह से नए समाज का निर्माण करते हैं । मार्क्स ने भी समाज को इसी द्वंद्वात्मक तरीके से देखा । पूंजीवादी समाज मजदूरों के भीतर समग्र मानव गतिविधि के जरिए अपने आपको साकार करने की इच्छा पैदा करता है । जो समाज व्यवस्था उन्हें पीड़ित करती है वही उन्हें शिक्षित और रूपांतरित भी करती है । फ़्रांसिसी मजदूरों के बारे में उन्होंने लिखा कि राजनीतिक और आर्थिक कारणों से एक जगह एकत्र हुए इन मजदूरों के लिए संगठन साधन ही नहीं साध्य भी बन गया और वे इसमें खोया हुआ समाज पा गए । मजदूर समृद्ध मानव प्राणी नहीं बनना चाहते, अन्य लोग तो उन्हें ऐसा बनते देखना भी नहीं चाहते फिर भी यह विकास उनकी नियति है, उनकी सामूहिकता की चाहत की शक्ति उन्हें विश्व ऐतिहासिक शक्ति में बदल देती है ।
मार्क्स ने दो किस्म के कम्युनिज्मों की बात की है- एक जो मनुष्य और प्रकृति के बीच तथा मनुष्य और मनुष्य के बीच टकराव का वास्तविक समाधान की बात करता था और दूसरा जो निजी संपत्ति के भी पार नहीं जा सका था । बेर्मान बीसवीं सदी की ज्यादातर समाजवादी सत्ताओं को दूसरी किस्म में शामिल करते हैं । पहली किस्म को वे मार्क्सवादी मानववाद कहते हैं और इसकी निरंतरता को वे संघर्षरत मार्क्सवादी आंदोलनों में बताते हैं । वे अपने आदर्शवाद को पहचानते हुए कहते हैं कि यह मानववाद किसी भी देश के शासन में नहीं है लेकिन पूंजीवाद के वर्तमान दौर में उसकी एक जगह है । वह हालात के जंजाल में फंसे हुए लोगों को सुकून दे सकता है । वह भरोसा दे सकता है कि सत्ता द्वारा दलित लोग भी सत्ता से लड़ने की ताकत रखते हैं, किसी त्रासदी में जीवित बचे लोग भी इतिहास को पलट सकते हैं । इससे नई पीढ़ियों को नए साहस की ऊर्जा मिलेगी, उनमें दुनिया को बदलने की चाहत संजोने की ताकत आएगी ताकि वे फंसे रहने की जगह घुलें-मिलें ।        

किताब के लेख विभिन्न किताबों की समीक्षाओं के रूप में लिखे गए हैं इसलिए इन लेखों को पढ़ते हुए पाठक मार्क्स के बारे में लिखी गई किताबों के कथ्य और समस्याओं से दो चार होता चलता है ।  

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