मुक्ति का सवाल मानवजाति के लिए एक ऐसा सवाल रहा है जिसके प्रसंग
में सभी विचारकों ने कुछ न कुछ सोचा समझा है । संगोष्ठी में विचारणीय सभी चिंतक (गांधी, अंबेडकर और मार्क्स) इस तरह के चिंतक
हैं कि उनके सोच के किसी भी पहलू पर बात करते हुए उनके समूचे सैद्धांतिक ढाँचे को ध्यान
में रखना पड़ता है । मार्क्स भी इसी तरह के चिंतक हैं जिनकी मानव मुक्ति की परियोजना
पर विचार करते हुए उनकी समूची चिंता को दृष्टिगत रखना होगा । मार्क्स के लिए मानव मुक्ति
का सवाल दो तरह से खड़ा होता है । वे मनुष्य को सृजनात्मक श्रम का स्रोत मानते हैं और
कहते हैं कि श्रम के जरिए मनुष्य अपने को साकार करता है । न सिर्फ़ इतना बल्कि श्रम
के जरिए वह अपनी कर्मेंद्रियों की क्षमता को समझता और उनके उपयोग से इस दुनिया को अपने
रहने लायक बनाता है । श्रम की प्रक्रिया की ही उपज उसका समूचा शरीर है । मनुष्य के
बाहर प्रकृति नहीं होती बल्कि उसका शरीर भी प्रकृति का अंग होता है । अपनी इंद्रियों
के सृजनात्मक इस्तेमाल से वह इस प्रकृति का सही उपयोग सीखता है इसीलिए श्रम मनुष्य
के लिए सुख का स्रोत होता है और वह इसमें आनंद का अनुभव करता है लेकिन पूँजीवाद संबंधी
अपने विवेचन में मार्क्स उस पर यह आरोप लगाते हैं कि वह (पूँजीवाद) मनुष्य की इस विशेषता
को नष्ट कर देता है । मुक्ति संबंधी उनका विमर्श बंधन के ठोस स्वरूप की पहचान करता
है । इस मामले में वे मानव मुक्ति के अन्य विमर्शों से पृथक हो जाते हैं क्योंकि अन्य
विमर्श मनुष्य की कोई रहस्यमय धारणा बनाकर उसकी मुक्ति का प्रश्न भी इसी तरह आध्यात्मिक
स्तर पर हल करने की कोशिश करते हैं । मार्क्स के लिए मनुष्य की पराधीनता कोई धारणात्मक
कोटि नहीं है बल्कि इसी दुनिया में उसके अस्तित्व से जुड़ी हुई है ।
मानव मुक्ति संबंधी मार्क्स के चिंतन में अलगाव की उनकी धारणा
का महत्वपूर्ण स्थान है । मार्क्स
को पूँजीवादी समाज मानव विरोधी नजर आता है । उन्हें लगा कि पूँजीवादी समाज में मजदूरों की बदहाली का सही विश्लेषण नहीं हो रहा है इसीलिए इसका इलाज भी नहीं खोजा जा सका है । इस बदहाली को दूर
करने के नीम हकीमी नुस्खे उस समय बहुतेरे थे । मसलन नागरिक अधिकारों के ढाँचे में
मजदूरों की समस्या को दूर करने के प्रयास हो रहे थे जिन्हें हम फ़्रांसिसी काल्पनिक
समाजवादियों के चिंतन में ठोस रूप में देख सकते हैं । इसके अलावा उस समय नव-हेगेल पंथियों
में धर्म को लेकर बहुत सारा आलोचनापरक चिंतन हो रहा था । धर्म संबंधी इस समस्त विवेचन को मार्क्स ने सामाजिक आलोचना में बदला क्योंकि जनता में धर्म
की मान्यता के पीछे सामाजिक स्थितियों को वे जिम्मेदार समझते थे और उन स्थितियों
के परिवर्तन से ही धर्म पर मनुष्य की निर्भरता का अंत संभव मानते थे । उनकी यह
धारणा तत्कालीन अनेक उत्साही नास्तिकतावादियों से अलग थी । इन स्थितियों के प्रभाव
के विवेचन के लिए उन्होंने अलगाव की धारणा का उपयोग किया तथा इसके साथ श्रम की प्रक्रिया में अलगाव की बात उठाई । उन्होंने यह भी माना कि उदारवादी समाज में प्राप्त अधिकारों को मजदूरों को प्रदान करने से भी उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता । मार्क्स हाब्स से लेकर फ़ायरबाख तक के भौतिकवाद की आलोचना इसलिए करते हैं कि वह दुनिया को बदलने में मनुष्य की भूमिका को मंजूर नहीं करता तो दूसरी ओर हेगेल में अपनी पूर्णता को पहुँचा हुआ भाववाद भी ऐतिहासिकता को स्वीकार करने के बावजूद समस्त बदलाव को महज चिंतन के बदलाव तक सीमित कर देता है । हेगेल की तरह वे मानते हैं कि मनुष्य अपने आपको और दुनिया को सांसारिक गतिविधि के जरिए बदलता है लेकिन उनके विपरीत कहते हैं कि यह बदलाव महज चिंतन के क्षेत्र में नहीं बल्कि वास्तविक दुनिया में होता है । इस गतिविधि का एक महत्वपूर्ण पहलू उत्पादक गतिविधि या श्रम है ।
मार्क्स
ने श्रम के अलगाव को इस तरह प्रस्तुत किया कि पूँजीवाद के तहत मनुष्य का सार यानी उत्पादक श्रम उसके अस्तित्व से जुदा हो जाता है । मार्क्स के अनुसार मनुष्य सारत: उत्पादक प्राणी होता है । वैसे तो अन्य प्राणी
भी उत्पादन करते हैं लेकिन उनकी उत्पादक गतिविधि उनकी भौतिक जरूरतों की संतुष्टि
तक सीमित रहती है जबकि मनुष्य अपने श्रम से अन्य मनुष्यों की जरूरतें भी पूरी करने
लायक सामानात बनाता है । दूसरी बात यह कि अन्य प्राणियों का श्रम बहुत कुछ अचेतन गतिविधि
होता है जबकि मनुष्य सचेत रूप से यह काम करता है । छत्ते बनाने में सबसे अधिक
माहिर मधुमक्खी से सबसे खराब राजगीर को जो चीज जुदा करती है वह यह कि राजगीर किसी
भी भवन का निर्माण सबसे पहले अपने दिमाग में करता है । यही श्रम का मानवीय चरित्र
है लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में उसे अमानवीय स्थितियों में मेहनत करनी पड़ती है क्योंकि जिस वस्तु का
वह निर्माण करता है उस पर उसकी कोई छाप नहीं रह जाती । वह अपनी ही बनाई हुई चीजों
से अलगा दिया जाता है ।
इस अलगाव का पहला रूप यह है कि मनुष्य अपनी मेहनत से पैदा हुई चीज यानी श्रम के फल से अलग कर दिया जाता है । मार्क्स के अनुसार जिस भी वस्तु के हम अपने आसपास दर्शन करते हैं वह मनुष्य की मेहनत के जरिए उस रूप में आई होती है । बात यह है कि संसार के ऐसा होने के बावजूद हम उसे अपनी मेहनत का ही उत्पाद स्वीकार नहीं करते । इस तरह हम अपनी ही बनाई दुनिया में अजनबी की तरह रहते हैं । ये वस्तुएँ सिर्फ़ पराई और रहस्य ही प्रतीत नहीं होतीं बल्कि हम पर राज भी करने लगती हैं । मान लीजिए हम कहते हैं ‘बाज़ार की ताकतें’ और हमारी बनाई हुई चीज होने के बावजूद हम उन्हें इस तरह समझते हैं मानो वे गुरुत्वाकर्षण की शक्ति जैसी कोई चीज हों । इस तरह बाज़ार हम पर शासन करने लगता है ।
अतीत में इस अलगाव ने ईश्वर को जन्म दिया जो मानव निर्मित
होने के बावजूद उस पर शासन करता था तो आज की दुनिया में इसी अलगाव ने मनुष्य और
उसकी बनाई हुई वस्तु के बीच एक मध्यस्थ को जन्म दिया है जो मनुष्य की समूची
सामाजिक सत्ता का न सिर्फ़ हरण कर लेता है बल्कि उसका प्रतिनिधित्व करने लगता है ।
मनुष्यों के समाजिक संबंधों के मध्यस्थ के बतौर उसने पूँजी को जन्म दिया है जो
मानव निर्मित होने के बावजूद उस पर ईश्वर की तरह ही शासन करती है ।
पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था में मनुष्य ऊपर से तो स्वतंत्र दिखाई
पड़ता है लेकिन असल में वह नए किस्म की गुलामी का शिकार हो जाता है । उदाहरण के लिए
मनुष्य के लिए श्रम बाध्यता का नहीं बल्कि स्वेच्छा का प्रश्न होना चाहिए लेकिन हम
सभी जानते हैं कि पेट भरने के लिए मेहनत बेचना पूँजीवादी व्यवस्था में आपका चुनाव नहीं
मजबूरी बन जाता है । श्रम की जिस प्रक्रिया में पहले तकरीबन सभी मनुष्य मेहनत के औजारों का अपनी मर्ज़ी के मुताबिक उपयोग
करते थे, अब वे औजार के चालक नहीं रह जाते बल्कि मशीन ही एक हद तक उनको चलाने लगती है ।
शुरू में शहरों के कामगारों के गिल्ड में फिर भी सभी लगभग हरेक काम जानते या करते थे
लेकिन आधुनिक उद्योग के आने के साथ एक आदमी एक ही काम का विशेषज्ञ होने लगा । इसका
नतीजा यह निकला कि एक कामगार से दूसरा अलग हो गया । न सिर्फ़ मनुष्य अपने श्रम-फल से अलगाया जाता
है बल्कि एक दूसरे से भी अलग हो जाता है ।
तीसरी बात यह कि वह अपने आप से भी अलग हो जाता है । बाज़ार में
दो व्यक्ति आपस में दो स्वतंत्र व्यक्तियों की तरह एक दूसरे से नहीं मिलते बल्कि उनकी
भेंट खरीदार या विक्रेता के बतौर एक दूसरे से होती है । खरीदने-बेचने की प्रक्रिया
में मनुष्य अपना समूचा सामाजिक अस्तित्व अपनी वस्तुओं को सौंप देते हैं और अपने सामान
के मालिक की बजाए उसके अभिभावक रह जाते हैं । बेचने वाले की हैसियत उसके पास मौजूद
माल की कीमत तक महदूद रह जाती है तो खरीदने वाले की सामाजिक हैसियत उसके पास मौजूद
पूँजी से तय होने लगती है । इस तरह मनुष्य की संपूर्णता का विनाश होता है और उसका खंडित
अस्तित्व प्रकट होता है ।
मार्क्स के लिए मानव मुक्ति की परियोजना इस अलगाव के अंत के
जरिए मनुष्य द्वारा अपने सार को दोबारा हासिल करने में निहित है जिसके बाद ही
मनुष्य का प्राक-इतिहास खत्म होगा और वह अपना वास्तविक इतिहास शुरू कर पाएगा । जिसमें
मनुष्य आज़ादी के साथ सुबह घुड़सवारी करने के बाद दोपहर में लकड़ी की मेज़ तैयार करेगा, शाम को कविता लिखेगा
और रात को दार्शनिक उलझनों को सुलझाएगा लेकिन किसी एक ही तरह के काम का गुलाम नहीं होगा । इसे वे अनिवार्यता से स्वतंत्रता के क्षेत्र में लगाई गई छलांग कहते हैं जो एक वर्ग विभाजित समाज में संभव नहीं है बल्कि इस समाज के खात्मे के बाद ही अर्जित किया जा सकता है ।
No comments:
Post a Comment