आज हमारे चाहे अनचाहे मीडिया सामाजिक-राजनीतिक जीवन का एक निर्णायक तथ्य बन चुका है । मीडिया के कुछ रूप पहले से ही हमारे समाज में मौजूद रहे हैं और अपनी तरह से प्रभावशाली भी रहे हैं । अखबार, रेडियो और फ़िल्म की मौजूदगी आज भी बनी हुई है फिर भी सामाजिक बदलाव के बड़े उपकरण के बतौर मीडिया के जिस रूप की गंभीरता के साथ चर्चा शुरू हुई वह रंगीन टेलीविजन था । इसके बाद मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया की उपस्थिति का जिक्र अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं-परिघटनाओं के प्रसंग में की गई । आज हम जब भी मीडिया की बात करते हैं तो मुख्य रूप से हमारा ध्यान संचार के इन्हीं नए रूपों पर होता है । संचार के इन रूपों के बारे में बात करते हुए आज के समय
की सबसे अधिक परिवर्तनकारी परिघटना पर स्वाभाविक रूप से ध्यान जाता है । हम सभी जानते
हैं कि हम पूंजीवादी सभ्यता में रह रहे हैं और पूंजीवाद के वर्तमान दौर को भूमंडलीकरण
से अभिहित किया जाता है । आज से पहले संचार के जो रूप प्रभावी थे वे भी पूंजी के बगैर
नहीं चलते थे लेकिन तब निजी पूंजी का यह खौफ़नाक दबदबा नहीं था । प्रमाण यह कि कम से
कम भारत में रेडियो और शुरुआत में टेलीविजन भी सरकार के कब्जे में थे । माना यह जाता
था कि सरकार इनका उपयोग जन चेतना के विस्तार के लिए करेगी । आज संचार के जिन नए रूपों
से हमारा साबका पड़ रहा है वे अपनी प्रकृति से ही वैश्विक हैं । साथ ही उन पर अधिकाधिक
निजी बड़ी पूंजी का कब्जा होता जा रहा है । इस नई स्थिति ने संस्कृति के साथ इसके रिश्तों
में एक तनाव पैदा किया है । संस्कृति का रूप ज्यादातर स्थानीय और सामुदायिक होता है
और मीडिया अधिकाधिक वैश्विक हुआ जा रहा है । ऐसे में सांस्कृतिक अस्मिताएं एक तरह के
तनाव से गुजर रही हैं । इस तनाव का एक पहलू अगर इस तथ्य में निहित है कि संस्कृति की
आत्मा विविधता है जबकि मीडिया जनित वैश्विकता एक तरह की एकरसता को न केवल जन्म दे रही
है वरन उसी माहौल में फल फूल सकती है । मीडिया के नए रूपों के चलते नई वैश्विक सांस्कृतिक
अस्मिताओं का जन्म हुआ है और स्थानीय सांस्कृतिक अस्मिताएं भी अपना रूप इस नए समय के
अनुरूप बदल रही हैं । वे इस वैश्विक उत्थान के दौर में अपनी पहचान को नया रूप तो दे
ही रही हैं, उसकी मान्यता के लिए संघर्ष भी कर रही हैं । हमारा समय वस्तुत: इसी तनाव
और द्वंद्व से बुना हुआ है । सांस्कृतिक
अस्मिता को परिभाषित करने वाले तत्वों में इस समय धर्म से लेकर रीति-रिवाज, खानपान,
नस्ल, लिंग और भाषा तक सब कुछ शामिल हो गए हैं । वस्तुत: संस्कृति शब्द ही अर्थपरक
अनेकार्थता से युक्त रहा है और हाल के दिनों में मीडिया के नए रूपों के साथ साम्राज्यवादी
नव उदारवादी अर्थतंत्र और विचारधारा के मेल ने ऐसी स्थिति बना दी है कि दुनिया के पैमाने
पर एक ही संस्कृति के दमनकारी वर्चस्व के विरुद्ध तमाम सांस्कृतिक अस्मिताएं अपने आपको
वंचित महसूस कर रही हैं और प्रतिरोध का जो भी हथियार मिल जा रहा है उसी का क्रांतिकारी
ढंग से इस्तेमाल शुरू कर दे रही हैं । शासक ताकतों की असहिष्णुता भी इतना अधिक हो गई
है कि वे किसी भी रूप में विरोध बर्दाश्त नहीं कर पा रही हैं और खामोश कर देने की साजिशाना
संस्कृति को पूरी तरह से अमल में ला रही हैं । केवल भाषा के मोर्चे पर भी चलने वाले
संघर्ष के विश्लेषण से इस तनाव को समझा जा सकता है ।
स्थानीय सांस्कृतिक प्रतिरोध को कैसे समझें? किस रूप में देखें...शायद उदाहरण से बात और ज्यादा स्पष्ट हो।
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