देश की आज़ादी के आंदोलन
में किसानों की भूमिका पर विचार करते हुए सबसे पहले इस बात का ध्यान रखना होगा कि
औपनिवेशिक शासन से किसान किस तरह प्रभावित हो रहे थे । इस बात पर जोर देना इसलिए
भी जरूरी है कि बहुत सारे लोग जो समाजशास्त्री या उपनिवेशवाद के अध्येता हैं वे
उपनिवेशवाद को सांस्कृतिक कोटि के रूप में परिभाषित कर रहे हैं । और अगर इस नजरिए
से देखिए तो अंग्रेजों से पहले जिन लोगों ने इस देश पर आक्रमण किया था उनमें और
अंग्रेजों में कोई फ़र्क नहीं रह जाएगा । लेकिन इस बात पर जोर देना जरूरी है कि
उपनिवेशवाद पहले के आक्रमणों से भिन्न था । इस अर्थ में कि वह साम्राज्यवादी
नीतियों के तहत कायम किया गया था । यह जो औपनिवेशिक नीति थी जिसके तहत शासन कायम
हुआ यह नीति उनके अपने देश के पूँजीवादी हितों से प्रभावित थी ।
यह हित था इंग्लैंड में उद्योगीकरण को गति देना और इसके लिए जरूरी था कि भारत की कृषि आधारित व्यवस्था को खास तरह से पुनर्गठित किया जाए ।
इस पुनर्गठन के तहत ही नकदी फसलों की संस्कृति स्थापित की गई । इसमें सबसे घातक नील
की खेती थी जिसके लिए किसानों को मजबूर किया जाता था कि वे खेती के पारंपरिक तरीकों
को बदल कर नील की खेती करें । आप जानते हैं कि नील की कोठी,
निलहा साहब जगह जगह थे । अंग्रेजी राज इस तरह की खेती को बढ़ावा देकर
एक जमींदार की भूमिका निभा रहा था । यानी अपने देश की अर्थव्यवस्था की जरूरत के मुताबिक
फसलों की खेती करने के लिए मजबूर करना, उनकी उपज को मनमाने दामों
में खरीदना और इससे होने वाली कमाई से अपने देश के पूँजीपतियों की जेब भरना । इसके
लिए अंग्रेजों ने जमींदारों जैसे उत्पीड़न के तरीके भी अपनाए । नील के अलावा दूसरा उदाहरण
अफीम का है । स्वाधीनता आंदोलन में किसानों की जबर्दस्त भागीदारी वाले इलाके ऐसे हैं
जिनमें अफीम की नकदी खेती की शुरुआत की गई । अमिताभ घोष ने अपने उपन्यास सी आफ़ पापीज
में अफीम से जुड़े हुए क्रूरतापूर्ण परिवर्तन का चित्रण किया है जिसमें किसानों को बड़े
पैमाने पर खाद्यान्न न उपजाने के लिए और उसके बदले पोस्ते की खेती के लिए मजबूर किया
जाता था । इस परिवर्तन का एक नैतिक पहलू भी था । वह यह है कि बड़े पैमाने पर लोगों को
अफीम की लत लगाई गई । इन परिवर्तनों के जरिए भारतीय कृषि विश्व पूँजीवादी बाजार का
अंग बनी और पारंपरिक कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्वनिर्भरता भी विश्व बाजार
में आने वाले उतार चढ़ाव का शिकार होने लगी । आजादी के आंदोलन में किसानों के शामिल
होने का एक बड़ा बल्कि प्रमुख कारण औपनिवेशिक हितों के लिए भारतीय कृषि में किया गया
यह साम्राज्यवादी हस्तक्षेप था ।
स्वाभाविक है कि जब किसान आजादी के आंदोलन में
शामिल होते हैं तो वे आंदोलन के उद्देश्यों और उसके चरित्र को भी प्रभावित करने लगते
हैं । इस परिवर्तन को आप कांग्रेस के चरित्र में आने वाले बदलावों से समझ सकते हैं
। जहाँ इसकी शुरुआत प्रशासन और नौकरियों में कुछ हिस्सा पाने की इच्छा रखने वाले पढ़े
लिखे तबकों के विक्षोभ प्रदर्शन के रूप में हुई थी वहीं इस आंदोलन में किसानों की आमद
ने उसे एक व्यापक जन आंदोलन बना दिया । जन आंदोलन बनाने की यह प्रक्रिया एक तरफा नहीं
थी बल्कि एक तरफ तो नीचे से किसानों की माँगों का दबाव और दूसरी तरफ आजादी के आंदोलन
के लिए कार्यरत लोगों की सामाजिक संरचना में बदलाव- ये दोनों ही
काम साथ साथ चल रहे थे ।
कई बार किसान कांग्रेसी नेतृत्व द्वारा
थोपी गई सीमाओं
के पार चले
जाते थे,
और इस तरह
नेतृत्व और आम
कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के बीच
समूचे आंदोलन में
एक तनाव देखने
को मिलता है
। इसे आप
साहित्य में और
इतिहास से जुड़े
हुए अनेक अध्ययनों में
देख सकते हैं
।
साहित्य के सिलसिले में प्रेमचंद, निराला आदि के उपन्यास और इतिहास
में शाहिद अमीन का चौरी चौरा पर किया हुआ काम इस परिघटना की गवाही देते हैं । इन सबकी
विशेषता यह है कि ये दिखाते हैं कि कैसे देहाती कांग्रेसी आधार अपने हिसाब से अहिंसा,
आजादी जैसी धारणाओं को परिभाषित कर रहा है और उनमें मूलगामी अर्थ भी
भर रहा है । इन कामों से यह भी पता चलता है कि स्वतंत्रता आंदोलन के कांग्रेसी कार्यकर्ता
सिर्फ़ गांधी और नेहरू के विचारों से ही प्रभावित नहीं हो रहे थे । उनके राजनीतिक प्रशिक्षण
में मजबूत समाजवादी और साम्यवादी प्रभाव भी मौजूद थे । हम सभी जानते हैं कि पूर्ण स्वाधीनता
का प्रस्ताव एक बड़े जन दबाव में पारित हुआ था । 1935 तक भारत
के विभिन्न क्षेत्रों में किसानों का नेतृत्व करने वाले ज्यादातर नेता और संगठन उभरने
लगे थे और ये सभी वामपंथी और साम्यवादी राजनीति और विचारधारा को या तो मानने वाले थे
या उनसे निकट सहकार रखते थे । कांग्रेस के भीतर सुभाष चंद्र बोस के उभार और जवाहर लाल
नेहरू की लोकप्रियता के पीछे भी कहीं न कहीं इसी वामपंथ प्रभावित किसान उभार की उपस्थिति
है । कहने का तात्पर्य यह कि आजादी के आंदोलन को व्यापक बनाने में किसानों की अहम भूमिका
रही ।
उन्होंने अपने स्वतंत्र संगठन बनाकर आजादी के आंदोलन
को अपने रंग में रंगा लेकिन भारत में औपनिवेशिक नीतियों के जरिए पैदा किए गए दलाल वर्ग
तथा इन किसान कार्यकर्ताओं के बीच तनाव हमेशा बरकरार रहा । दुर्भाग्य से या सोची समझी
रणनीति के तहत 1947 में साम्राज्यवादी प्रभुओं ने खंडित स्वतंत्रता
प्रदान कर सत्ता जिन राजनीतिक प्रतिनिधियों के हाथों में सौंपी वे क्रमश: किसान आंदोलनों से विश्वासघात करते गए और क्रमश: किसानों
का सवाल भारतीय राजनीति के एजेंडे से पीछे छूटता गया । लेकिन साठ के दशक में भारतीय
कृषि का संकट मुखर होने लगा था जिसके समाधान के रूप में हरित क्रांति लाई गई ।
किसान आंदोलन के भविष्य का सवाल किसानों के वर्तमान
से जुड़ा हुआ है । वर्तमान यह है कि विश्व पूंजीवाद का यह नव उदारवादी
दौर पूरी दुनिया में संकट में फँसा हुआ नजर आ रहा है । लेकिन संकट में ही होने के कारण
यह ज्यादा आक्रामक ढंग से एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों में किसान आबादी
पर मारक प्रहार कर रहा है । पूंजीवाद का यह दौर एक तरह से उसके लिए आत्मघात का दौर
है, क्योंकि पूंजीवाद का उद्देश्य है मुनाफ़ा और जितना जल्दी हो सके उतना जल्दी मुनाफ़ा
। इस उद्देश्य से सट्टा बाजार उसके लिए सबसे मुफ़ीद जगह है, जिसमें पूंजी से पूंजी कमाई
जाती है और वर्तमान दौर में चूंकि इसी का बोलबाला है इसलिए कृषि के विनाश पर सोचने
की किसी को फ़ुर्सत भी नहीं है । गंगा एक्सप्रेस वे, यमुना एक्सप्रेस वे जैसी छोटी छोटी
योजनाओं की बात ही छोड़िए प्रस्तावित मुंबई दिल्ली कारिडोर के निर्माण में लाखों एकड़
खेती योग्य जमीन छीन ली जाएगी ।
पी साईंनाथ ने अपने हाल के एक अध्ययन में बताया है कि भारत में औसतन
रोज दो हजार किसान कम हो रहे हैं । इन दो हजार में से कुछ संख्या तो आत्महत्या करनेवालों
की है, कुछ विस्थापित होने वालों की है और कुछ खेती ही छोड़ देने वालों की है । लेकिन
यहीं एक अंतर्विरोध पैदा होता है कि कोई भी भोज्य सामग्री खेती के अलावा अन्य किसी
तरीके से पैदा नहीं की जा सकती । तो जैसा कि मैंने कहा कि फिलहाल इस अंतर्विरोध पर
किसी को सोचने की फ़ुर्सत नहीं है लेकिन यह अंतर्विरोध पूरी शिद्दत के साथ प्रकट हो
रहा है कि नगरीकरण के लिए खेती की जमीन का विनाश जरूरी है लेकिन इस शहरी आबादी के भोजन
के लिए खेती की जमीन भी जरूरी है । फिलहाल पलड़ा किसानों के विरोध में झुका हुआ है लेकिन
भारत के किसानों ने अपनी नियति को अतीत में भी कभी चुपचाप स्वीकार नहीं किया है और
भविष्य में भी वे जिंदल, अंबानी, सहारा और रिलायंस जैसे देश को बेचने वाले और दलाल
कारोबारियों के सामने दंडवत नहीं करेंगे । वे पूरे भारत में हर जगह नए नए तरीके ईजाद
कर रहे हैं, लड़ रहे हैं और समुंदर, पानी, रेत मिट्टी- सबको अपना हथियार बना रहे हैं
। इसी क्रम में उन्होंने धीरे धीरे राजनीति और सरकार की प्राथमिकताओं को भी प्रभावित
करना शुरू कर दिया है ।
भारत के इन किसानों को बेवकूफ समझने वाले लोग ही अंतत: बेवकूफ साबित
होंगे क्योंकि आज से सिर्फ़ दस साल पहले भी कौन उम्मीद कर सकता था कि सुदूर तमिलनाडु
के मछुआरे परमाणु परियोजना की जटिलताओं पर सोचेंगे और उसके विरोध में तमाम सरकारों
को धता बताते हुए आंदोलन करेंगे । निश्चय ही ये किसान आंदोलन देश में एक ऐसा शासन बनाएंगे
जो भारत के अपने प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर टिकाऊ विकास का एक आर्थिक ढाँचा खड़ा
करने का सपना जमीन पर उतार सके और विकास को सिर्फ़ आंकड़ों की जादूगरी न मानकर मनुष्य
के भौतिक, नैतिक और आध्यात्मिक समृद्धि के रूप में परिभाषित करे ।
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