(बल्ली सिंह चीमा के साठ साल होने पर जो स्मारिका छपेगी उसके लिए ये टिप्पणी लिखी है )
अस्सी
का दशक हिंदी में नए किस्म के कवियों की फ़ौज की आमद के लिए जाना जाएगा जिनकी कविताएँ छपने से पहले ही लोगों की जुबान पर चढ़ गईं । बल्ली सिंह चीमा इसी फ़ौज के उम्दा सिपाही हैं । बल्ली भाई के साथ ही इनमें थे अदम गोंडवी, राम कुमार कृषक, गोरख
पांडे और अनेकानेक ऐसे कवि जिनकी कविता के लिए, राम विलास जी ने
जो बात नागार्जुन के लिए कही वही बात हम कह सकते हैं कि इनकी कविताओं में लोकप्रियता और कला का मुश्किल संतुलन सहज ही सधा हुआ है । देखा तो बल्ली भाई को
बहुत बाद में लेकिन एक पतली सी किताब ‘खामोशी के खिलाफ़’ के जरिए पहला परिचय बेहद पहले तकरीबन 1980 में
ही हो गया था ।
इन कवियों में क्या है जो साझा है, इसकी तलाश
करते हुए हमें राजनीतिक संदर्भ देखने होंगे क्योंकि तकरीबन ये सभी कवि राजनीतिक हैं
और किसी न किसी तरह से वामपंथ की क्रांतिकारी धारा से जुड़े हुए हैं । आपातकाल के बाद
जो नया राजनीतिक वातावरण बना उसकी एक सचाई अगर जनता पार्टी की सरकार का बनना है तो
दूसरी और ज्यादा प्रासंगिक सचाई प्रतिरोध की ऐसी ताकतों के खामोश संघर्षों की छिपी
हुई खबरों का सामने आना है जो सतह पर नहीं तैर रही थीं । ये ताकतें देश भर में फैले
हुए नक्सलवादी कार्यकर्ता थे जिन्हें पुलिस ने फ़र्जी मुठभेड़ों और गैर कानूनी नजरबंदी
में यंत्रणा देकर मार डाला था । आपातकाल के बाद बने वातावरण में इस आंदोलन की
उपस्थिति एक जीवंत प्रसंग की तरह रही और उसी दौर में इस तीसरी धारा का हस्तक्षेप
भारत के राजनीतिक पटल पर क्रमश: बढ़ता गया । भाकपा (माले) से जुड़े हुए जन संगठनों
का उदय हुआ और बिहार के क्रांतिकारी किसान आंदोलन में इसे ठोस अभिव्यक्ति मिली ।
यही वातावरण इन कवियों के उभार और उनकी कविता की लोकप्रियता को समझने की कुंजी है
।
वह दौर ऐसा था कि सहज ही कुछ प्रतीक नई अर्थवत्ता के साथ उभर
आए । उदाहरण के लिए भगत सिंह शुरू से ही क्रांति के प्रतीक रहे थे लेकिन उस समय एक
ही साथ गोंडा, बनारस, इलाहाबाद और उत्तर प्रदेश के छोटे
छोटे कस्बों तक में उनका शहादत दिवस मनाया जाने लगा । उस दौर में कांग्रेसी सत्ता के
विरुद्ध लड़ रही ताकतों ने भगत सिंह के प्रतीक में एक नया अर्थ भरा और उनके बहाने आज़ादी
की लड़ाई की इकहरी तस्वीर को चुनौती दी । यह तस्वीर शासकों की सुविधा के लिए निर्मित
की गई थी । भगत सिंह गांधी की समझौतावादी नीति, जिसका मुखौटा
अहिंसा थी, के विरुद्ध क्रांतिकारी धारा के रहनुमा के बतौर पेश
किए गए । उसी दौर में गुरुशरण सिंह का नाटक ‘इंकलाब जिंदाबाद’
लोकप्रिय हुआ जिसका मुख्य प्रतिपाद्य आज़ादी की लड़ाई का यही द्वंद्व था
। बल्ली सिंह चीमा की मशहूर गज़ल के एक शेर ‘बो रहे हैं अब बंदूकें
लोग मेरे गाँव के’ में बंदूकें बोने वाले गाँव के लोगों की तस्वीर
के पीछे उनके अपने समय में सशस्त्र संघर्ष करने वाले किसान तो हैं ही, भगत सिंह की बचपन की वह कथा भी है जिसमें पिता से वे बताते हैं कि खेत में
बंदूक बो रहा हूँ । इसी समझ को स्वर देते हुए वे एक शेर में कहते हैं:
‘हम नहीं गांधी के
बंदर ये बता देंगे तुम्हें,
हर युवा को भगत सिंह,
शेखर बनाना है हमें।’
किसान आंदोलनों की आँच के कारण स्वाभाविक था कि इन कवियों की
कविताओं में ग्रामीण माहौल और मजदूर-किसान उपस्थित हों । लेकिन इनके गाँव मैथिलीशरण
गुप्त के ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका जी चाहे’ के आदर्शीकरण से पूरी तरह
अलग और सामंती बंधनों के नीचे कराहते और उसे बदलने की कोशिश करते हुए चित्रित हैं । ये गाँव उनके तईं एक वैपरीत्य रचने में सहायक हैं सुख के
द्वीपों के बरक्स दुख के सागर:
‘सवेरा उनके घर
फैला हुआ है,
अँधेरा मेरे घर
ठहरा हुआ है।’
गाँव के किसान इन बंधनों को चुपचाप बर्दाश्त करने की बजाए उसके
विरुद्ध विद्रोह करते हुए दिखाए गए हैं । एक गज़ल के शेर तो प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’
का मानो पुनर्पाठ करते हैं:
‘अब भी होरी लुट
रहा है अब भी धनिया है उदास,
अब भी गोबर बेबसी
से छट्पटाएँ गाँव में।’
गाँव के लोगों के सामंती उत्पीड़न में गुलामी के समय से कोई खास फ़र्क नहीं आया है इसे भी चिन्हित करने के लिए वे इसी उपन्यास
का सहारा लेते हैं:
‘अब भी पंडित रात
में सिलिया चमारन को छलें,
दिन में ऊँची जातियों
के गीत गाएं गाँव में।’
यह चित्रण स्वाभाविक रूप से सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत
दलित जातियों के लिए हालात बदलने की प्रेरणा बन जाता है ।
इन सभी कवियों ने गज़ल को नए ढाँचे में ढालकर अपनी बात कही है
। हिंदी कविता की परंपरा से परिचित लोग जानते हैं कि गज़ल का प्रतिरोध के लिए उपयोग
कोई नई बात नहीं है । दुष्यंत कुमार ने बहुत पहले इस विधा का सृजनात्मक उपयोग मारक
व्यंग्य के साथ राजनीतिक संदेश देने के लिए किया था । एक जगह वे दुष्यंत के मुहावरे
का उपयोग करते हुए भी उनसे आगे जाने का संकेत करते हैं:
‘इस जमीं से दूर
कितना आसमाँ है,
फेंककर पत्थर मुझे
ये देखना है।’
बल्ली सिंह चीमा ने इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सहज खड़ी बोली
में ऐसी सफलता के साथ गेय गज़लें लिखीं कि वे लोगों की जुबान पर न सिर्फ़ चढ़ गईं बल्कि
अनेकशः उनका नारों की तरह इस्तेमाल भी किया गया । कविता की लोकप्रियता का प्रमाण अगर
स्मृति में उसका बैठ जाना है तो बल्ली भाई की गज़लें इसका प्रतिमान हैं ।
उन्होंने अपने अन्य सहधर्मियों के साथ जो गज़लें और गीत लिखे
उनके जरिए आपातकाल के बाद का समूचा राजनीतिक इतिहास अपनी गतिमयता के साथ समझा जा सकता
है । मसलन उनके इस शेर को पढ़ते ही गोरख के गीत ‘बोलो ये पंजा किसका है’
की याद आ जाती है:
‘तुम तो कहते थे
हैं उनके कर कमल,
देख लो वो हाथ खंजर
हो गया।’
व्यंग्य की एक मिसाल उनकी ये पंक्तियाँ हैं जिनमें वे दमन की
सरकारी भाषा का मज़ाक उड़ाते हैं:
‘रोटी माँग रहे लोगों से किसको खतरा
होता है,
यार सुना है लाठी चारज हलका हलका
होता है।’
लेकिन अन्य कवियों के मुकाबले बल्ली सिंह चीमा की कविताओं में
व्यंग्य से अधिक आक्रोश दर्ज़ हुआ है । जैसी सहज दृढ़ता बल्ली भाई के भीतर मिलने पर नजर
आती है वैसी ही सहज दृढ़ता उनकी कविताओं के भीतर समा गई है । आसानी से लेकिन मजबूती
से उनकी कविता बड़ी बात कह जाती है:
‘तेलंगाना जी उठेगा
देश के हर गाँव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे
लोग मेरे गाँव के।’
बल्ली सिंह चीमा सहज ही छा जाने वाले कवि हैं. जब उनकी कविता -
ReplyDeleteतय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो.
सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओर हो,
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो.
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो,
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो.
मैंने पढ़ी तो मुझे उनकी कविता की सहजता और ताकत का अंदाज लगा. उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में यह सही कहा था कि आज की कविता से तुक और लय का गायब होना कविता को आमलोगों से दूर ले गया है. जो पूंजीवादी साजिश का हिस्सा है...
आपकी टिप्पणी में उनका सही मूल्यांकन है..
Vaah
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