हम लोग एक दिन स्वप्न सुंदरी का ‘भरतनाट्यम’
देखकर आए । हमारे सभी साथियों- अवधेश, दिनेश, राघवेंद्र, सुनील,
पी टी- ने वह नृत्य देखा था । संयोग से उस नृत्य
के दौरान हूट करते हुए ताली बजी । एक दिन सभी साथी हमारे यहाँ कमरे पर जुटे तो पी टी
ने उस नृत्य पर बहस करने की पेशकश की । चूँकि मेरी बुद्धि उतनी गहरी बातें नहीं समझ
पाई थी इसलिए जो समझ में आईं वही याद हैं । दूसरी ओर बहस हुए बहुत दिन गुजर गए हैं
इसलिए याद भी धुँधली पड़ गई है
सभी की बातों पर अंतर्विरोध पैदा होने की स्थिति में बीच में
टोका टाकाटाकी करके बात साफ कर ली जाती थी । मुझे उन सबकी याद नहीं आ रही केवल उससे
स्पष्ट हुआ मन्तव्य ही याद आ रहा है । उसमें भी पाप म्यूजिक के उदाहरण देकर सामंती
साम्राज्यवादी संस्कृति का अंतर और युवा वर्ग का झुकाव स्पष्ट किया गया वह भी
सुबोध न होने के कारण याद नहीं रह गई है । पी टी बीच बीच में लोगों के वक्तव्यों
पर सवाल उठाते रहे थे । वह भी याद नहीं । कुछेक सवाल ही याद रह गए हैं जो इसमें
आएँगे । अवधेश के उठाए गए प्रश्न एकदम याद नहीं रह गए हैं सिवा राघवेंद्र को
समझाने के ।
अवधेश प्रधान से बहस शुरू हुई । उन्होंने कहा कि हमारी इस
मौजूदा व्यवस्था में लड़कों की प्रतिभा को कुंद करने का प्रयत्न किया जाता है । समझ
बढ़ते ही ‘मनोहर कहानियाँ’ पकड़ा दी जाती है । जीवन के प्रति गंभीर दृष्टिकोण अपनाने
का रास्ता नहीं दिखाया जाता । इसीलिए हूटिंग हुई । इसके बाद सुनील पांडे ने मौलिक
बात यह कही कि जो नए लड़के गाँव से आते हैं उन पर सामंतवादी संस्कृति का असर रहता
है । यहाँ आते ही उनका पाला साम्राज्यवादी संस्कृति से पड़ता है तो इन दोनों को
मिलाकर एक वल्गर संस्कृति उनके भीतर सिर उठाती है जो अति उच्छृंखल होती है । पी टी
ने उनसे यह सवाल किया कि मान लीजिए आपका ‘अभियान’ कोई कार्यक्रम
पेश करता है और हूटिंग हो जाती है तो क्या आप इसी वल्गराइजेशन को दोष देंगे । सुनील
जी ने कहा नहीं हम अपने अंदर कमी तलाशेंगे । इसके बाद दिनेश जी ने अपनी बात शुरू की
। उन्होंने अवधेश प्रधान और सुनील पांडे की बातों का मेलजोल रखा । पी टी ने उनसे इसका
समाधान (उनके विचार से) पूछा । उन्होंने
कहा कि हम अपनी जनवादी नाट्य संस्था ‘अभियान’ के कार्यक्रमों के जरिए जिंदगी के प्रति गंभीर दृष्टिकोण पैदा करेंगे । इसके
बाद राघवेंद्र जी ने अपनी बात रखी वह मुझे इस तरह याद है । उन्होंने कहा कि राजनीति
के क्षेत्र में हमारा शत्रु तो सामंतवाद है लेकिन संस्कृति के क्षेत्र में दुश्मनी
साम्राज्यवादी संस्कृति से है । अवधेश जी ने कहा कि साम्राज्यवादी संस्कृति खतरनाक
तो जरूर है लेकिन आप देखेंगे कि इसकी जड़ें गहरी नहीं हैं । इसलिए संस्कृति के क्षेत्र
में भी हमारा प्रमुख शत्रु सामंतवाद ही है । इसके बाद दिनेश ने हमसे कुछ बोलने के लिए
कहा । मैंने कहा कि आप ‘अभियान’ के कार्यक्रमों
के जरिए गंभीर माहौल तैयार करके स्वप्न सुंदरी के नृत्य की हूटिंग तभी रोक सकते हैं
जब आपके और स्वप्न सुंदरी के लक्ष्य एक हों । राघवेंद्र जी ने रोकते हुए कहा कि इसका
मतलब पाप म्यूजिक ठीक था । अवधेश जी ने कहा कि इससे एक बात साफ हो जाती है कि इसका
समाधान ‘अभियान’ ही है । मैंने अपनी बात
को और फैलाया । ‘अभी साथी दिनेश ने कहा कि इसका समाधान अभियान
का कार्यक्रम जिंदगी के प्रति गंभीर दृष्टिकोण सिखलाकर ही दे सकता है । तो मेरा कहना
यह है कि आप अपने कार्यक्रम से इतना गंभीर माहौल तभी पैदा कर सकते हैं कि स्वप्न सुंदरी
का नृत्य हूट न हो जब आपके और स्वप्न सुंदरी के कार्यक्रमों का लक्ष्य एक ही हो ।’
यहीं पर पी टी ने सबकी बातों का उत्तर देते हुए अपनी बात कही । उन्होंने
कहा कि राघवेंद्र पांडे को साम्राज्यवादी संस्कृति ही मुख्य दुश्मन लगती है लेकिन है
नहीं फिर भी कम खतरनाक नहीं है । स्वप्न सुंदरी का नृत्य और पाप म्यूजिक दोनों में
से पहला गाड़ी को पीछे लौटाना चहता है जबकि दूसरा उसको आगे खींचना चाहता है । ये दोनों
ठीक तभी होंगे जब गाड़ी में बैठा हुआ आदमी बलवान हो और इन दोनों को सीधे से गाड़ी में
बिठा ले । पुराने जमाने के सामंतों ने जब उन्हें कोई काम नहीं रहता था और दिन भर दरबार
में बैठे रहते थे तो उन्होंने मनोरंजन की एक ऐसी विधि का विकास किया जो दिन भर खत्म
ही न हो । कंठ और वाद्य विज्ञान में यही चीज शास्त्रीय संगीत बनी और नृत्य में इस जैसा
नृत्य । इसी का विकास इसके विशेषज्ञों ने जमाने को पहचानते हुए किया । नृत्य के क्षेत्र
में इसे अत्यंत कठिन नृत्य बना दिया । कला तो कला के लिए नहीं न होती है । यह तो उपयोग
के लिए होती है । जनता की जागृति के लिए इतने कठिन नृत्य का क्या उपयोग है जो हमारा
प्रमुख काम है । यह जमाने को अतीत में खींचना चाहता है । पाप म्यूजिक जमाने को भविष्य
में ढकेलना चाहता है । हम वर्तमान के स्वामी हैं । जनता अगर साम्राज्यवादी संस्कृति
के पीछे भागती है तो हमें भी भागना नहीं होगा । हमें जनता की अगुआई करनी है । इसलिए
हम दोनों को ही वर्तमान में ढालना चाहेंगे । किसी दूसरे समय अवधेश प्रधान ने इस पर
विरोध जाहिर करते हुए कहा था कि सुब्बुलक्ष्मी ने तो अपने गायन से ही लाखों करोड़ो जनता
का दिल जीता है । इसका क्या करेंगे । इस पर मेरा विचार यह है कि उनका गायन सुनने के
लिए थिएटर में जाने वाले लोग पेट्टी बुर्जुआ होते हैं । हरजोत्ता आदमी ने कभी सुब्बुलक्ष्मी
का गायन नहीं सुना होगा ।
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साल भर पहले बाँड़ के एक खेत के पीछे झगड़ा हुआ था । वह खेत एक
मल्लाह का था । मल्लाह को पैसे की कमी पड़ी तो वह खेत (ढाई बिगहा)
रेहन रखकर उसने सभापति जी के यहाँ से पैसा लिया । आधा पैसा एक साल बाद
चुकाकर उसने एक बिगहा छुड़ा लिया । लेकिन इसके पहले सभापति जी चोरी से वह खेत अपने नाम
करा लिया था । उस एक बिगहा खेत में उसने जौ बोया । उसे यह पता नहीं था कि वह खेत अब
उसका नहीं रह गया है । जौ की कटाई के वक्त सभापति ने पूरा खेत कटाने की योजना बनाई
। मल्लाह ने दारोगा की भरपूर पूजा की इसलिए उसे तीन सिपाही सुरक्षा के लिए मिल गए ।
सिपाहियों ने कटाई के वक्त समझौता करा दिया और आधी आधी फसल दोनों लोग ले गए । दूसरी
बार जब अरहर थी तो वही हुआ और सभापति जी इस बार पूरी तैयारी के साथ आए थे । सिपाहियों
ने राय दी कि झगड़ा होने पर पिट जाओगे और हम लोग गोली चला नहीं सकते इसलिए चलो झगड़े
की रिपोर्ट कर दो । थाने में रिपोर्ट हुई, वारंट कटा और सभापति
जी के परिवार के 7 सदस्य जेल गए, 14 आदमियों
ने जमानत ली और बाद में उनमें से एक को छात्र होने के नाते बरी कर दिया गया । अब ये
लोग दफ़ा 107 में महीने के चार दिन कचहरी रहते हैं । हर अदालत
से मल्लाह की ढाई बिगहों पर जीत होती चली जा रही है और सभापति जी हर बार घबड़ाकर नया
मुकदमा बनाकर प्रक्रिया को लंबा कर रहे हैं क्योंकि उस खेत में लाठी के बल पर हर बार
वे ही बीज बोते और फसल काटते हैं ।
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काशी हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा संचालित सेंट्रल स्कूल प्रशासन
के सामने इन दिनों एक अजीब समस्या खड़ी हो गई है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पक्के
समर्थक जायसवाल इस स्कूल के प्रधानाचार्य हैं । एक साल पहले जब केंद्रीय बोर्ड के सारे
विद्यालयों के लिए 10+2+3 की शिक्षा प्रणाली लागू की गई तो +2 की परीक्षा आदि की जिम्मेदारी केंद्रीय बोर्ड ने ही ले ली । सन
79-80 से ही सारे केंद्रीय स्कूलों में पाँच विषय पढ़ाए जाने लगे पर यह
जानते हुए भी प्रशासन अनजान बना रहा । सारे विद्यार्थी डेढ़ साल तक चार विषय पढ़कर परीक्षा
की तैयारी करते रहे । परीक्षा फ़ार्म में भी चार ही विषय भरवाए गए । पर बोर्ड से सारे
फ़ार्म एक और विषय की माँग के साथ लौट आए । प्रशासन ने इस घटना को छिपाने की पुरजोर
कोशिश की । पर विद्यार्थियों को यह बात किसी न किसी तरह पता लग गई । जब विद्यार्थियों
ने स्पष्टीकरण माँगा तो एक सूचना जारी की गई जिसके अनुसार विद्यार्थियों को चार ही
विषयों में इम्तहान देना था और प्रशासन ने यह भी आश्वासन दिया कि सभी विश्वविद्यालयों
में इतने ही विषयों पर प्रवेश मिलेगा । लेकिन तथ्य यह है कि बी एच यू के अतिरिक्त कोई
भी विश्वविद्यालय चार विषयों पर प्रवेश नहीं ले रहा है और बी एच यू भी 60% से अधिक अंक मिलने पर । व्यवहार में यही देखने में आया है सिद्धांत चाहे जो
भी हो । इसी बीच प्रशासन ने कोशिश की कि शायद इतने पर ही मामला ठीक हो जाए पर बोर्ड
ने साफ नकार दिया । छात्रों ने दोबारा स्पष्टीकरण माँगा और अब प्रशासन अजीब दुबिधा
में पड़ गया है कि न बताए तो हानि और बताए तब तो और हानि । इस तरह गलतफ़हमी में रखकर
छात्रों की जिंदगी से खिलवाड़ करते हुए इस शिक्षा व्यवस्था को शर्म नहीं आ रही
? छात्रों ने अब संघर्ष के विभिन्न रूपों जैसे कक्षाओं का बहिष्कार,
समय से पहले छुट्टी कर देना और हड़ताल आदि को अपनाना शुरू कर दिया है
। इस लोकतांत्रिक संघर्ष में सभी न्यायप्रिय और स्वतंत्रताप्रिय शक्तियों का कर्तव्य
है कि छात्रों का साथ दें ।
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नावाचंद्रा भी एक ऐसा जीव है जिसकी एक एक चीज मुझे याद है ।
जब मैं
1978 में बनारस आया था तो वह उसी कमरे में रहता था जिसमें बैठकर मैं
लिख रहा हूँ । तब वह अपनी फ़िजूलखर्ची के लिए विख्यात था । फ़िजूलखर्ची में मकान का भाड़ा
आड़े न आए इसलिए जुलाई में दोबारा जब स्थायी रूप से पढने के लिए पहुँचा था तब तक मकान
मालिक के ही कमरे में दुबककर रहना शुरू कर दिया था । मणिपुर वासी होने के कारण उसने
कभी स्वेटर नहीं पहना या शयद तंगी की वजह से । गर्मी में वह छत पर सोता जब हम लोग कमरे
में फ़ैन चलाकर सोते थे । उसने मुझे बताया कि उसकी माँ मर गई है । यह उसकी सौतेली माँ
थी लेकिन शीत बसंत की सौतेली माँ की तरह नहीं बल्कि अब्राहम लिंकन की माँ की तरह थी
। उसके पिता ने दो शादियाँ की थीं । पहली पत्नी से नावाचंद्रा पैदा हुआ था । लेकिन
इसकी माँ को इसके पिता ने बर्मा भेज दिया था । सौतेली माँ इसका बड़ा ख्याल रखती थी ।
इसके पिता एक बड़ी कंपनी के मालिक थे । सौतेली माँ के मtरने के
बाद मौसी पिता के साथ रहने लगी थी । मौसी ने इसके पैसों में कटौती करना शुरू किया ।
नावाचंद्रा इंटरमीडिएट सेकंड डिविजन पास करने बनारस आया था । बनारस में दो साल उसने
केवल आवारागर्दी की । माँ के मरने के बाद आँखों में आँसू भरे हुए वह अक्सर यह गाना
नाचकर गाया करता था ‘सब कुछ मिल सकता है लेकिन माँ का प्यार नहीं
मिलता’ । हाल ही में किसी ने उसके पिता को बता दिया कि नावा कुछ
नहीं कर रहा है । फिर क्या था । 500 रुपए महीने खर्च करने वाले
व्यक्ति को अगर पैसा न आए और ऐसी स्थिति में जब वह एक पूँजीपति का लड़का हो तथा स्वाभिमानी
न हो । रोज 10 रुपए के हिसाब से उस पर कर्ज चढ़ता जा रहा था ।
इन हालात में बगल के नमकीन वाले के यहाँ काम करने की बातचीत चल रही थी । लेकिन वह कहता
हमको बहुत शरम लगता है । इसी बात पर मैं हँस रहा था कि भाई ने डाँटकर कहा कि अगर आप
वैसी हालत में होते तो क्या करते । मैं उससे कहता कि तुम्हें अपने पिताजी की सहायता
करनी चाहिए । वह कहता कि मेरे पिता को सहायता की कोई जरूरत नहीं । वह अपने परिवार को
चलाने भर की बुद्धि रखता है । वह नहीं चाहता कि उसका बेटा भूखों मरे । मैं तो उसका
इकलौता बेटा हूँ न । नावा एक लड़की से प्यार भी करता था । उसका नाम था चित्रा । पैसा
होने पर उसका प्यार बहुत चलता था । पैसा न रहने पर वह घर से बाहर कहीं नहीं जाता था
। मणिपुर में भी उसकी एक प्रेमिका थी । नाम था रोजी । रोजी से वह ज्यादा प्यार करता
था लेकिन उसके पत्र न आने के कारण ही उसने दूसरी लड़की से दिल लगाया था । पिछले चार
महीने से मुहल्ले में ही हर दिशा में एक लड़की से उसका प्रेम चलता था ।
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एक राजा था जिसकी दो सींगें थीं । इन सींगों को छिपाए रखने के
लिए वह एक बड़ी सी पगड़ी धारण किए रहता था । एक दिन दाढ़ी बनाते हुए हजाम से उसकी पगड़ी
उछल गई और सींगें दीख गईं । राजा ने उसे धमकाया- यदि यह बात किसी के कान में
पड़ी तो तुम्हारी गर्दन नाप ली जाएगी । हजाम ने बात छिपाने का वादा किया । पर मानव स्वभाव
की सहजता के कारण उससे बात पची नहीं । उसने एक पेड़ से यह बात बताई । दिन बीते महीने
बीते और साल पर साल बीतते गए । हजाम निश्चिंत रहा । पेड़ भी बढ़ा आयु पूरी की और गिर
गया शायद किसी तूफ़ान में । पेड़ काटा गया और उससे एक ढोलक, एक
तबला और एक सारंगी बनाई गई । इनका प्रदर्शन राज दरबार में किया जाना तय हुआ । पहली
थाप के साथ ही तबला बोला एक राजा की दो सींग । सारंगी ने मानो सवाल किया किन कहा किन
कहा । ढोलक ने उत्तर दिया बम बम हजाम कहा । दूसरे दिन हजाम की गर्दन नाप ली गई ।
किसी जमाने में गांधी की जरूरत हुई थी अंग्रेजों को और आज उनकी
लाश की जरूरत हुई है वर्तमान भारतीय शासकों को । इस काम को अंजाम देने में रिचर्ड एटनबरो
से लेकर उदयन शर्मा तक जी जान से लगे हुए हैं । इसीलिए मैंने पहले ‘गांधी’
देखी फिर उसके पुरस्कारों और बेगिनो एक्विनो से लेकर लेक वालेसा तक के
उनसे प्रभावित होने की बात सुनता रहा और अब आखीर में 23-29 अक्टूबर
1983 के रविवार में उदयन शर्मा शर्मा का लेख ‘गांधी
जी दृष्टिदोष के शिकार नहीं थे’ पढ़ा तो सब्र का प्याला ही छलक
पड़ा । यह लेख तारिक अली की किसी पुस्तक के विरोध में है । इसमें अपना पूर्वाग्रह शर्मा
जी यह कहकर जाहिर करते हैं ‘सच यही है कि भारत के लिए गांधी जी
का दिखाया रास्ता ही सही रास्ता माना जा सकता है ।’ इसके बाद
भारत की प्रशंसा में धरती आसमान के कुलाबे मिलाते हुए अपने ही तर्कों के जाल में फँसते
जाते हैं । पहले वे भारत में सत्ता परिवर्तन के पाँच शांतिपूर्ण उदाहरण देकर बताते
हैं ‘ऐसा शांतिपूर्ण बदलाव गांधी की विरासत के कारण ही संभव हुआ
है ।’ फिर कहते हैं ‘अगर आजादी के इतने
वर्षों बाद भी हमारे यहाँ गरीबी है तो यह गांधी जी के बाद की पीढ़ी की असफलता और अकर्मण्यता
का नतीजा है’ और फिर ‘गांधी के मानदंड पर
भारत असफल रहा है लेकिन वह 36 सालों में जो कुछ भी पा सका है
वह गांधी, नेहरू, पटेल और आज़ाद की ही विरासत
है ।’ उद्योग के बारे में ‘यह गांधी के
विचारों का ही संतुलन था जिसमें भारत के बड़े उद्योगों के साथ कुटीर उद्योगों के संतुलित
विकास का सपना था और ग्राम स्वराज्य की बात थी ।’ और फिर गांधी
के इस सपने को पूरा करते हुए ‘विकासशील देशों में भारत अकेला
देश है जो अपनी कार बनाता है’ तो टेलीविजन से लेकर इनसेट
1 बी तक की प्रशंसा क्यों छूट गई ?
अब आइए इनके आधारभूत मान्यताओं का परीक्षण किया जाय । भारत में
लोकतंत्र के बारे में ‘आज भारत विकासशील देशों में अकेला देश है जहाँ
लोकतंत्र कायम है और जहाँ कोई भी पत्रकार या राजनीतिज्ञ प्रधान मंत्री एवं अन्य सत्ता
संपन्न व्यक्तियों की बेखौफ़ हो आलोचना कर सकता है ।’ जनाब दिल्ली
से ऐसा ही दिखाई देगा पर कस्बे के पत्रकार ईश्वर चंद्र मधेसिया और सुरेश गुप्त हत्याकांड
को न भूले होंगे । यहाँ की जनता इमर्जेंसी को नहीं भूली है सेंसर को यहाँ के सत्ता
विरोधी पत्र नहीं भूलते हैं । ‘विभाजन के बाद भी देश में मुसलमानों
के बीच आतंक नहीं फैला और लाखों परिवार देश में रुके रहे ।’ यह
गांधी का असर नहीं था यह वह जंजीर थी जिससे तकरीबन हजार साल से एक साथ रहते आने से
हिंदू मुसलमान बँधे हुए थे और देश में निश्चित रूप से एक आतंक दंगों का फैला था पर
वह डोर जिसने मुसलमानों को भारत की धरती से बाँध दिया था ज्यादा भारी पड़ी और आज अजादी
के बाद तो उस समय से ज्यादा दंगों का आतंक फैला हुआ है । यह किसकी विरासत है
? कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों इस बात के लिए जिम्मेदार हैं कि उन्होंने
हिंदू मुसलमान को बाँटा जिस आधार पर दो राष्ट्रों का सिद्धांत विकसित किया गया । अंग्रेजों
के जमाने में मुस्लिम प्रत्याशियों के लिए कुछ क्षेत्र सुरक्षित कर दिए जाने पर कांग्रेस
ने सहमति दी थी और आज़ादी के समय गद्दी पाने की जल्दी में नेहरू आदि ने भारत का विभाजन
मंजूर किया था । अब आइए पाँच बार सत्ता हस्तांतरण पर । सत्ता हस्तांतरण है क्या
? सत्ता का एक हाथ से दूसरे हाथ में चला जाना । इसमें राज्य की बुनियादी
नीतियों का परिवर्तन नहीं होता । परदे के पीछे से सत्ता को संचालित करने वाले लोग ही
अपने हित के लिए किसी को सत्ता पर बिठाते हैं । जब इंदिरा जी काफी बदनाम हो जाती हैं
तो मोरार जी और मोरार जी असफल हो जाते हैं तो फिर इंदिरा जी । उनके लिए ये राम और श्याम
ही हैं । कभी उनके हित को नुकसान पहुँचाने वाले लोगों के हाथ में सत्ता बिना खून खराबे
के नहीं आती । दूसरे यह भी जरूरी नहीं कि देश में ही खून खराबा हो । फ़ाकलैंड में खून
खराबा होता है और मार्गरेट थैचर भारी बहुमत से विजयी होती हैं । बांग्लादेश में कत्लेआम
होता है और भारत में जीत का सेहरा इंदिरा जी के सिर बाँधा जाता है । ईरान में खून की
होली खेली जाती है और अमेरिका में रीगन जीतते हैं । इसको क्या कहिएगा ? शर्मा जी को इस बात की बहुत खुशी है कि हमारे सिर पर कोई जिया उल हक या अयातुल्ला
खोमैनी या कोई गुरु गोलवलकर नहीं बल्कि निर्गुट देशों की अध्यक्ष इंदिरा गांधी हैं
। वे इसका स्रोत हिमालय जैसे व्यक्तित्व वाले गांधी जी में खोजते हैं । गलत जगह पहुँच
गए शर्मा जी ।
असल में अंग्रेजों के तीन सौ साला औपनिवेशिक शासन का अनुभव कांग्रेसी
नेता इंग्लैंड में रहकर सीख आए थे यहाँ भी आज़ादी के कुछ दिन बाद तक रहकर माउंटबेटन
ने इन्हें प्रशिक्षित किया था । इनकी अंग्रेजों सरीखी इस धूर्तता का परिचय देश को कई
बार मिला है । तेलंगाना आंदोलन के बाद आगे आगे भूदान कराते विनोबा और पीछे से नरमेध
करती जनरल करियप्पा की फ़ौज तथा दिल्ली में जमींदारी उन्मूलन । नक्सलबाड़ी के बाद बंगाल
में सी पी एम का राज, एम एल के कार्यकर्ताओं की सामूहिक हत्या और राष्ट्रीयकरण । इसी
चकाचौंध में फँस गए शर्मा जी । हिंदुस्तान में कारें बनती देखने लगे लेकिन गरीबी में
दुनिया में नीचे से तीसरे नंबर पर होना भूल गए । हजारों छोटे छोटे कारखाने पकड़ में
आ गए लेकिन गरीबी की रेखा के नीचे जीवन बिता रही भारत की आधी आबादी छूट गई । कारखाने
भी कैसे ! ज्यादातर तो बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा संचालित हैं
और बाकी विदेशों के कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए उत्पादन करते हैं । अब जरा गांधी और
उनके वारिसों की शांतिप्रियता देखी जाय । गांधी जी तो इतने शांतिप्रिय थे कि उन्हें
1920 के असहयोग आंदोलन में अंग्रेज सिपाहियों के मरने पर घड़ों आँसू बहाने
का पाप करना पड़ा । दूसरे विश्व युद्ध में महारानी के महल पर जर्मन बम गिरने की कल्पना
से व्यथित होकर उन्होंने आंदोलन रोकने का फ़ैसला कर दिया लेकिन भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारी
की फाँसी रोकने के लिए न सिर्फ़ कोई कोशिश नहीं की बल्कि कराची कांग्रेस के पहले इस
काम को निबटाने की सिफारिश की, अपने अंग्रेज आकाओं को किसी तरह
की अशांति की आशंका से निश्चिंत किया और उनकी मौत पर कांग्रेस में शोक प्रस्ताव नहीं
आने दिया । नेहरू का पंचशील किस हद तक मजाक थी इसे सुंदरलाल और नील मैक्सवेल ने चीन
युद्ध के प्रसंग में बतला दिया है । इंदिरा जी के बारे में कोई टिप्पणी निरर्थक है
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हमारे बगल में ही रहते थे बिचारे खुसरू मियाँ । जिंदगी भर उन्होंने
किसी से झगड़ा नहीं किया और न ही किसी ने उनसे किया । जुम्मे को नमाज पढ़ आते थे बाकी
दिन कोई नियम नहीं था । खाने पीने को मेरे यहाँ भी खा पी लेते थे । चार बच्चे थे ।
बीबी जिंदगी के आखिरी दिनों में अल्लाह को प्यारी हो गई थी । बेहद सुकून की जिंदगी
उन्होंने बिताई । कभी कभी राज़ की तरह मुझसे सियासत के बारे में भी कह सुन लेते थे ।
मसलन ‘अवाम को बड़ी तकलीफ है’ ‘गरीब आदमी की आह कभी खाली नहीं
जाती’ या ‘अब्दुल्ला बुखारी को जहर देकर
मरवा दिया जाएगा’ । बहरहाल जैसी कामयाब जिंदगी उन्होंने गुजारी
वैसी ही मौत उन्हें नसीब हुई । अल्लाह सबको वैसी ही मौत दे । न हाय हाय न पीट पीट ।
सुबह सुबह दातुन करते हुए चटापट गिरे और खत्म ।
उनकी मिट्टी दफ़न करने मुहल्ले के करीब सभी लोग गए थे । औसत दर्जे
की कब्र बनाई गई और औसत दर्जे के आदमी की ही तरह उन्हें दफ़न कर दिया गया । उनकी रूह
ताजा ताजा कब्र में गई थी इसलिए सबसे पहले उसने इलाके का जायजा लेना शुरू किया । उन्हें
तो कयामत तक का समय अब यहीं गुजारना था । वहाँ जाने किस किस तरह के लोग थे । कुछ गुंडे, कुछ कातिल,
कुछ शरीफ़ । नए तरह के लोगों की आदतों से तालमेल बिठाना पड़ेगा । जिंदगी
तो बहुत अच्छी गुजरी अब जाने क्या हो । इसी आशंका में डूबे हुए थे कि उन्हें कुछ आहटें
मिलनी शुरू हो गईं । वक्त का अंदाजा लगाया शाम घिर आई थी । रूहें दिन भर सोने के बाद
आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं । कुछ उठ चुकी थीं, कुछ सोई थीं,
कुछ उठकर भी सोई हुई थीं । इतने में उन्हें बगल से किसी के गहरी गहरी
साँसें लेने की आवाज सुनाई पड़ी । ‘बेचारा नाकामयाब आशिक’
उन्होंने सोचा ‘ अब तो यह अपनी माशूका के ही बारे
में दिन रात बतलाता रहेगा ।’ दीवार के पास कान लगाए । साँसों
के अलावा कभी कभी कुछ बुदबुदाने और आहिस्ता आहिस्ता छाती पीटने की भी आवाज आ रही थी
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हेस्टिंग्स जब हिंदुस्तान आया तब उसने इस देश में अंग्रेजों
की सत्ता को मजबूत करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए । ये कदम उन लोगों के मुँह
पर थप्पड़ की तरह हैं जो अंग्रेजों को प्रगतिशील बताते हैं और उनके खिलाफ़ हिंदुस्तानी
जनता के महान संघर्षों को सामंतवाद से प्रेरित । किस तरह अंग्रेजों ने यहाँ सामंतवाद
को आधुनिक और पैना बनाने में सहयोग दिया इसको समझना कठिन नहीं है पर कुछ लोग देखे को
अनदेखा कर देते हैं ।
हेस्टिंग्स के सामने भूमि प्रबंध के लिए दो समस्याएँ थीं । पहला
यह प्रबंध स्थायी हो अथवा अस्थायी ? समय के माँग की उपेक्षा करते हुए इस प्रबंध
को स्थायी कर देना बहुत बड़ी चाल थी । उच्च वर्ग ने जब कोई भी मक्कारी भरी चाल चली है
तो उसे स्थायी ही बनाना चाहा है । थोड़े दिनों बाद जब जनता चाल को समझ लेती है तो उच्च
वर्ग कोई नया नुस्खा तलाशता है । परिवर्तन की यही प्रक्रिया है और यही उस प्रबंध के
साथ भी हुआ । दूसरा समझौता किसानों से किया जाय या जमींदारों से ? हिंदुस्तान में अंग्रेज तो बहुत कम थे उन्हें स्वामिभक्त भारतीय वर्ग चाहिए
था और यह वर्ग कुछ लोगों को विशेष सुविधा देने से ही उदित हो सकता था । अंग्रेजों ने
यही किया । उन्होंने जमींदारों से समझौता किया । इसका दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ा । जमींदारों
के आज तक टिके रहने के पीछे यह प्रबंध जिम्मेदार है । एक खास लगान तय कर दी गई । उतना
वसूल कर जमींदार उसका 20 या 25% अंग्रेजों
को देता था । लगान का दस गुना वसूल कर भी पुर्जा तयशुदा लगान का ही दिया जाता था ।
असल वसूली में से तीन चौथाई या अधिक जमींदार के पास ही रहता था । यह वर्ग क्यों अंग्रेजों
का विरोध करता ! उसे तो सारा पैसा इसी व्यवस्था से मिलता था ।
यही है स्थायी प्रबंध की असलियत ।
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आज ही रात कठउत से ‘दो बदन’ देखकर लौटा हूँ
। यूनिवर्सिटी में हुए प्यार ने विकास की सारी जिंदगी को नासूर बना दिया । ऐसा होता
नहीं है कि पहला प्यार फिर किसी से प्यार ही न करने दे लेकिन तमाम जीवन वास्तव में
उसकी छाया से मुक्त नहीं हो पाता है । प्यार के लिए मारपीट के घेरे से बाहर थी यह फ़िल्म
इसलिए थोड़ा ठीक थी । लेकिन हिंदी फ़िल्म को एक और घेरा तोड़ना चाहिए- पत्नी, पति और प्रेमिका का घेरा ।
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सुदामा से मेरी पहली मुलाकात अदालत की हिरासत में हुई । आज ही
मेरा साबका इन चीजों से पड़ा था इसलिए मन में घबराहट थी । पुलिस ने एक आमदनी लिखाकर
मुझे भीतर करते हुए कहा- तुम लोग आपस में बात करो । अलग रहकर यहाँ रहना
मुश्किल है । भीतर घुसते ही सवालों की बौछार शुरू हो गई । कहाँ घर पड़ेगा ? किस केस में आए हैं ? क्या बिरादरी है ? सबका जवाब देते हुए मैं एक किनारे जाकर बैठ गया । आपके तो दो साथी पहले भी
आए थे ? यह सुदामा था । कौन थे जी ? किसी
दूसरे ने पूछा । अरे वही जो दो नक्सली थे । बीड़ी पीते हो गुरू ? मेरी ओर देखकर पूछा । हाँ मैंने कहा । तब तो तुम जेल काट लोगे । देखो भाई तुम
लोग तो पढ़े लिखे लोग हो । नेताजी लोग हो । अच्छी तरह समझ सकते हो । अधिकारियों से बात
करते हो । लेकिन यह जेल तो हमारे ही बस की चीज है । इसमें तो भाई गम फ़िकिर करने से
आदमी मर जाता है । इसीलिए हम लोग हर नए आदमी से गाना गवाते हैं और न गाने पर जमकर धुलाई
करते हैं । उसने इकट्ठा कई बीड़ियाँ सुलगाईं और एक मुझे एक खुद व बाकी अन्य लोगों में
बाँट दीं ।
आनेवाली दुर्घटना की आशंका से जी तो घबड़ा रहा था लेकिन अब कुछ
कुछ इन लोगों को अपने नजदीक पा रहा था । एक एक आदमी के चेहरे का निरीक्षण करना शुरू
किया । मेरी उमर के लोगों को छोड़कर बाकी सब सामान्यतया गँवई चेहरे मोहरे के थे । कुर्ता
निकालकर अलग रखे हुए लुंगी जैसी मैली धोती पहने गमछा बिछाकर उस पर एक आदमी लेटा था
। भाई साहब आप किस केस में हैं ? गुंडा ऐक्ट में । पुलिस ने झूठे ही फँसा दिया
था । पुलिस के गलत फँसाने का कुछ मतलब होता है यह मैं जानता था । उसका थोड़ा और निरीक्षण
किया । उम्र तकरीबन 32 साल । चेहरा शरीर के स्वास्थ्य का प्रमाण
था । लेकिन दोनों हाथ टूटे थे । गौर से देखना शुरू किया तो बोले उन्हीं सालों ने तोड़ा
है । और देख पाना संभव न था । किसी दूसरे की ओर घूमा । गहरे काले रंग का मूछों वाला
यह आदमी जोर जोर से जिलाधीश के भ्रष्टाचार के बारे में बता रहा था । डिप्टी
से नेता लोगों ने कहा कि बिल पास कर दीजिए । उन लोगों की बात पर विश्वास करके डिप्टिया
ने बिल पास कर दिया और मुफ़्त में पाँच लाख मिल गया । अब साहब समझिए कि उसी की जाँच
चल रही है और नेताजी लोग मुँह छिपाते फिर रहे हैं । क्या मामला था ? मैंने पूछा । अरे
बचवा ऐसा हुआ कि बाढ़ में मूँगफली बाँटने के लिए पाँच लाख रुपए मिले थे । सब साले हजम
कर गए ।
न जाने ऐसे कितने ही चेहरे दुख, दर्द और आक्रोश की झलक लिए मेरी आँखों के सामने
से गुजर गए । पानी दो पीने के लिए । किसी ने तेज आवाज में सिपाही से पानी माँगा । एक
नौजवान पर मेरी नजर टिक गई । मुझसे कुछ ज्यादा उम्र, भूरी आँखें, मूँछें ऊपर की ओर
ऐंठी हुई । उसकी आँखों में संतुष्टि का एक भाव था जिसने मुझे आकर्षित किया । भाई साहब
आप किस केस में आए हैं ? 302 में । किसका ? एक डकैत था गाँव का ही । क्यों ? उसने मेरे
पिता और बहनोई को जान से मार डाला था जमीन के झगड़े में । मुझे खुशी है कि कम से कम
बदला तो ले लिया । तभी दो का घंटा बजा । चलिए भाई । सब वैन में लादकर जेल की ओर चल
पड़े । मेरे हाथों में जब हथकड़ियाँ पड़ीं तो सारा गर्व उनके सहित चलने में उतर गया ।
गाड़ी में मैंने इस नए जीवन से परिचित होने का अवसर देने वाले कर्म को धन्यवाद दिया
।
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