कमला
मेरी पड़ोसन थी । बचपन से लेकर बुढ़ापे तक औरतों पर गुजरने वाला हर मानसिक शारीरिक कष्ट उस पर गुजरा था । उसके पैदा होने के बाद से जो विषाद उसके माता पिता पर छा गया था वह समझदार होते होते बचपन में उस पर भी उतर आया । शादी के लिए पिता की लगातार भाग दौड़ से ऊपर से देखने में तो वह निरपेक्ष थी पर भीतर से उस अजानी पति नामक सत्ता के सामने मौन समर्पण और उसे खुश रखने के लिए वह हरचंद तैयार हो रही थी । ऐसा समर्पण जैसा कभी प्राकृतिक शक्तियों के सामने मानव जाति ने किया था । साल दर साल की गहरी निराशा के बाद शादी तय हो जाने पर उसने अपनी तैयारियाँ पूरी कर ली थीं । स्वच्छंदता को बाँधने और आत्मा को खत्म कर डालने का फ़ैसला किया । शादी के बाद से लगातार भोजन बनाने और पुत्र न हो पाने का भी समूचा कष्ट उसे झेलना पड़ा । संयोग से मैं उसी मकान में रहता था जिसमें कमला थी इसलिए उसके दुख कुछ हद तक हमने समझे थे । वह जब किसी को ममता भरी आँखों से देखती तो लगता कि समाज से मिलनेवाली घृणा का प्रतिकार और किसी पर न उड़ेले गए प्यार को उड़ेल देने का उसके पास इससे बेहतर कोई हथियार न था ।
मैंने
उससे बातचीत करने के क्रम में समाज में औरतों पर होने वाले जुल्म के बारे में, समाज की बुराई
को दूर करने का ढोंग रचने वालों के बारे में और समाज की विसंगतियों को दूर करने वाली शक्तियों के बारे में बताया था । मैं जब उससे बतियाता था तो वह ज्यादातर चुप रहती थी । आँखों में एक विशेष चमक पैदा हो जाती थी और वह उन्हें बिना झपकाए एकटक मेरी ओर देखे जाती थी । तब उसकी आँखें पारदर्शी हो जाती थीं और उनमें देखने से
ऐसा लगता था जैसे जीवन का समंदर उनमें लहरा रहा हो और विषाद की छायाएँ बादलों की तरह
उनके ऊपर उमड़ घुमड़ रही हों । कभी ये छायाएँ आँखों से निकलकर संपूर्ण चेहरे पर किताब
के पन्नों की तरह उलटने पुलटने लगती थीं तो वह अपनी आँखें थोड़ी देर के लिए बंद कर लेती
थी । बीच बीच में उसके अस्तित्व का बोध सिर्फ़ उसकी गहरी साँसें कराती थीं । अपनी बात
खत्म कर मैं कहता था- ‘अब तुम कुछ कहो मैं ही बोले जा रहा हूँ तब से ।’ वह फिर एक गहरी साँस लेती थी और हँसकर घर के कामों का बहाना कर उठ जाती थी
।
बहुत दिनों तक मैं उसकी चेतना का स्तर नहीं ढूँढ़ सका । बातें
होती रहीं और वह चुप रही । आखिर मैंने फ़ैसला किया कि अब इसे जुलूस मीटिंग में ले चला
जाय । वैसे तो संगठन के कार्यक्रम चलते ही रहते थे पर मैं लंबे समय तक उसके बारे में
भ्रम क्या दुबिधा में रहा कि कहूँ या न कहूँ । कुछ ही दिन बाद जिला मुख्यालय पर प्रदर्शन
होने वाला था । शहर में धारा 144 लागू थी । हम लोगों को प्रदर्शन में कुछ
गड़बड़ी का अंदेशा था फिर भी मैंने कमला को ले चलने की सोची ।
उस दिन सुबह ही उसने खाना बनाया । मैं तो था नहीं जगह अलबत्ता
उसे बता दिया था । वह ठीक समय पर रिक्शे से पहुँची और एक ओर जाकर बैठ गई । तब तक कुछेक
लोग वहाँ आ चुके थे । लोगों ने उसके बारे में बात करना शुरू किया पर वह समुद्र की तरह
शांत गंभीर खुद में ही व्यस्त रही । आध घंटे बाद तक संख्या कुछ अच्छी न होने पर हम
लोगों ने स्थिति की गंभीरता और अपनी शक्ति के बारे में बातचीत शुरू कर दी । वह सब कुछ
सुनती रही फिर भी कहीं अन्यत्र उसकी निगाहें जमी रहीं । फिर धीरे धीरे काफी लोग एकत्र
हो गए और मानो बढ़ती संख्या ने परस्पर एक दूसरे का मनोबल उठा दिया । अब हम लोग भी तूफ़ान
के पहले की शांति को महसूस करने लगे । लोग अपनी विभिन्न तरह की समस्याओं के बारे में
बातें कर रहे थे और मधुमक्खियों के गुंजार जैसा एक शोर वहाँ फैला हुआ था । कमला अब
भी निरपेक्ष थी । फ़र्क यह था कि उसकी निगाहें अब शून्य से उन महिलाओं की ओर आ गई थीं
जो जुलूस में भाग लेने के लिए देहाती अंचलों से आई हुई थीं ।
लेकिन यह शोर क्षणिक था । जैसे ही चलने का निर्णय हुआ सारी भीड़
मिनटों में पंक्तिबद्ध हो गई । मधुगुंजार ने प्रबल हुंकार का रूप ले लिया था और जैसे
कि एक साथ दसियों तोपें छूटी हों इंकलाब जिंदाबाद का नारा एक साथ सब लोगों ने लगाया
। बात फैलती गई और प्रशासन के कानों में पड़ी । शायद प्रशासन भी पहले से ही तैयार था
। जुलूस रफ़्ता रफ़्ता आगे बढ़ता रहा और नारे लगाती कमला का दिल टूट्ने ही वाले बाँध की
तरह अपना सारा ममत्व समेटे रहा । उसके पेट से कोई गोला उठकर बार बार गले तक आता था
और अपूर्ण इच्छा की तरह कुछ देर एक तीखी अनुभूति देता हुआ खत्म हो जाता था । उसके गले
से निकलने वाले नारे भी उसे संतोष नहीं दे रहे थे । युगों से नारी की ममता का रुद्ध
कोष मानो उसके ही गले में इकट्ठा हो गया था और बार बार अवरोध तोड़ देने के लिए हिलोरें
मार रहा था ।
बढ़ते बढ़ते जुलूस शहर के एक खुले इलाके और महत्वपूर्ण चौराहे
तक आ पहुँचा था । यहीं पर प्रशासन की समूची शक्ति जोर आजमाइश करने के लिए खड़ी थी ।
उन्होंने भी अनुमान लगाकर दूर तक दौड़ाकर मारने के लिए खुली जगह चुनी थी । पुलिस के
निशान दिखाई देते ही जैसे ताल में पत्थर गिरा हो वैसे भय की लहर जुलूस में फैल गई ।
शायद कमला इसी मौके की ताक में थी । उसकी उत्कंठा ने सारे बाँध तोड़ दिए थे और वह दौड़
पड़ी । जीवन में होश सँभालने के बाद से उसे पहली बार अपने मन की करने का मौका मिला था
। दौड़कर उसने माइक पकड़ लिया और इंकलाब जिंदाबाद तानाशाही मुर्दाबाद के नारे लगाने लगी
।
मुझे उस समय गोर्की की माँ के पहली मई के जुलूस की याद आ रही
थी । जिसमें जुलूस के लिए सड़क मानो आग का लावा बन गई थी और फ़ौज की अदृश्य संगीनें जुलूस
के एक एक आदमी को छाँटती जा रही थीं । पर यहाँ तो अद्भुत दृश्य था । सारा भय झिझक और
संकोच प्रत्येक आदमी के मन से दूर हो गया और उस वक्त जो गर्मी उनके दिल में उठी उसके
सामने गर्मी की तपती दुपहरी में पिघली सड़क भी ठंडी पड़ गई । कमला के दिल का रुका हुआ
ममत्व पूरे जुलूस पर फैल गया । उस अदृश्य तार ने सबके दिल मजबूती से एक दूसरे से जोड़
दिए । सड़क पर खड़े लोग आपस में चीख चिल्ला रहे थे कुछ अघटित की आशंका से । लेकिन कमला
की आवाज तो जादू की तरह सबको मौत के मुँह में भी खींच ले जा सकती थी यहाँ तो कुछ सिपाहियों
से लड़ना था ।
जैसे जैसे मुकाबला नजदीक आता जा रहा था समूचा जुलूस एक इकाई
की शकल लेता जा रहा था । नारे उनके हृदय से उठकर समूचे आसमान में छाते जा रहे थे ।
उनके चारों
ओर भय की आग दौड़ लगा रही थी और वे उसे अपने भीतर घुसने लगातार रोके जा रहे थे । अगल
बगल की दुकानोम के शटर गिरने लगे । लोग बाग छिपने की जगह खोज रहे थे और मुठभेड़ भी देखना
चाहते थे । जुलूस दृढ़ता से एकबद्ध हो बढ़ता जा रहा था । और जैसे एक झटका लगा जुलूस रुक
गया । अगले दस्ते को पुलिस ने लाठियों की बाड़ लगाकर आगे बढ़ने से रोक दिया था । पुलिस
की लाठियाँ पूरी ताकत से उठने लगीं । जुलूस में यथावत नारे लगते रहे । आखिर अपने बल
से जुलूस ने लाठियों का घेरा तोड़ दिया । कमला की आवाज में और तेजी आ गई । वह जुलूस
में सबसे आगे दिखाई दे रही थी । पुलिस ने मोर्चेबंदी की और लाठियाँ तड़ातड़ गिरने लगीं
। भीड़ ने भी जुलूस की शकल तोड़कर पत्थर उठा लिए और दोनों ओर से मोर्चा ठन गया । लाठी
से काबू पाता न देख पुलिस ने गोलियाँ चलाईं । मरने वालों में कमला पहली थी । उसकी शहादत
आज भी हमारे लिए संबल का काम करती है ।
इस घटना के बाद जब भी कोई नारी अपनी स्वाभाविक ममता का निषेध कर कठोर व्यवहार करती
है तो उसके लिए ‘दुष्टा’ या ‘मूर्खा’ या ‘संपूर्ण नारी जाति के बारे में कोई धारणा
बनाने से हमेशा मुझे कमला का चेहरा अवरोध की तरह रोकता है ।
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