कम्युनिस्ट
घोषणापत्र की अपनी विवेचना हम लेनिन से आरंभ करते हैं । लेनिन ने कहा ‘इस कृति में मेधापूर्ण सुस्पष्टता तथा भव्यता के साथ एक नए विश्व दृष्टिकोण, सुसंगत भौतिकवाद की रूपरेखा खींची गई है जो अपनी परिधि में सामाजिक जीवन के क्षेत्र, विकास के सबसे व्यापक तथा गहन सिद्धांत के रूप में द्वंद्ववाद, वर्ग संघर्ष और एक नए, कम्युनिस्ट समाज के स्रष्टा, सर्वहारा वर्ग की विश्व ऐतिहासिक क्रांतिकारी भूमिका का सिद्धांत भी ले आता है ।’ अर्थात इसमें सामाजिक जीवन पर लागू होनेवाला भौतिकवाद, विकास की शिक्षा के रूप में द्वंद्ववाद, वर्ग संघर्ष और सर्वहारा वर्ग की भूमिका का ओजपूर्ण वर्णन किया गया है । अब देखें कि मार्क्स एंगेल्स अपनी इस कृति के बारे में क्या कहते हैं । 1883 के जर्मन संस्करण की भूमिका में एंगेल्स ने लिखा है ‘घोषणापत्र में शुरू से लेकर आखिर तक मूल चिंतन है---कि प्रत्येक ऐतिहासिक युग का आर्थिक उत्पादन तथा उससे अनिवार्यतः उत्पन्न होनेवाला सामाजिक ढाँचा उस युग के राजनीतिक तथा बौद्धिक इतिहास की आधारशिला हुआ करते हैं, कि इसके परिणामस्वरूप (भूमि के आदिम सामुदायिक स्वामित्व के विघटन के बाद से) पूरा इतिहास निरंतर सामाजिक विकास की भिन्न भिन्न मंजिलों में वर्ग संघर्षों, शोषितों तथा शोषकों
के बीच, शासितों तथा शासकों के बीच संघर्षों का इतिहास रहा है, कि यह संघर्ष अब
उस मंजिल में पहुँच चुका है जहाँ शोषित तथा उत्पीड़ित वर्ग (सर्वहारा वर्ग) पूरे समाज को शोषण, उत्पीड़न तथा वर्ग
संघर्ष से सदा सर्वदा के लिए मुक्त किए बिना उत्पीड़न तथा शोषण करनेवाले वर्ग (पूँजीपति वर्ग) से अपने को मुक्त
नहीं कर सकता ।’ इस किताब का नाम ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ ही क्यों रखा गया
इसके बारे में 1888 के अंग्रेजी संस्करण की भूमिका में एंगेल्स बताते हैं ‘जब हमने उसे लिखा
था हम उसे समाजवादी घोषणापत्र नहीं कह सकते थे । 1847 में दो तरह के
लोग समाजवादी माने जाते थे । एक ओर थे विभिन्न कल्पनावादी पद्धतियों के अनुयायी- इंग्लैंड में ओवेनपंथी
और फ़्रांस में फ़ूरिएपंथी । ये दोनों मात्र मरणासन्न संकीर्ण पंथ बनकर रह गए थे । दूसरी
ओर थे नाना प्रकार के सामाजिक नीम हकीम जो पूँजी तथा मुनाफ़े को जरा भी क्षति पहुँचाए
बिना सब तरह की टाँकासाजी के बल पर सब किस्म की सामाजिक बुराइयों का अंत कर देना चाहते
थे ।-----मजदूर वर्ग के जिस हिस्से को पूरा विश्वास हो चुका था कि मात्र राजनीतिक क्रांतियाँ
पर्याप्त नहीं हैं तथा जो समाज के आमूलचूल पुनर्निर्माण की बात करता था वह उस समय अपने
को कम्युनिस्ट कहता था ।---और चूँकि हमारी उस समय ही यह पक्की राय बन चुकी थी कि मजदूर
वर्ग की मुक्ति स्वयं मजदूर वर्ग का कार्य ही हो सकता है इसलिए इसमें संदेह की कोई
गुंजाइश नहीं थी कि हमें इन दोनों में से कौन सा नाम अपनाना चाहिए था ।’ इन्हीं तीन उद्धरणों
को केंद्र कर भारतीय परिस्थिति को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए हम घोषणापत्र को
समझने की कोशिश करेंगे ।
सामाजिक जीवन को अपने क्षेत्र में लेने वाला भौतिकवाद
मार्क्स से पहले का भौतिकवाद यांत्रिक था । अर्थात वह भौतिक
विज्ञान व प्रकृति विज्ञान पर ही विशेषतया लागू किया जाता था । विज्ञान तथा प्रकृति
के क्षेत्र में माना जाता था कि प्रत्येक घटना में कार्य कारण संबंध है । प्रत्येक
प्रक्रिया अपनी पूर्ववर्ती प्रक्रिया से उत्पन्न होती है । और यह कि इन घटनाओं का अस्तित्व
हमारी चेतना से स्वतंत्र है, इनके अपने नियम हैं । लेकिन मानव समाज के बारे में अध्ययन करते
हुए मनुष्य को उसके सामाजिक संबंधों से काटकर अलग से उसका अध्ययन किया जाता था । इससे
मानव के शरीर क्रिया विज्ञान तक भौतिकवाद की पहुँच हुई । लेकिन उसका चिंतन ? मानव समाज ? ये विषय भौतिकवाद
की परिधि से बाहर ही रहे । नतीजतन इन मामलों में भाववाद ही हावी रहा । अर्थात कहीं
कहीं कोई परम आत्मा है जो व्यक्ति के चिंतन को नियंत्रित करती है, जो मनुष्य के आपसी
संबंधों को निर्धारित करती है । ईश्वर क्या है ? भाववादी इसका उत्तर
देते हैं कि जो सबमें मौजूद है, जो वाणी को नियंत्रित करता है और जिसकी इच्छा के बिना पत्ता
भी नहीं डोल सकता । इसके विपरीत मानव समाज और चिंतन के क्षेत्र में भौतिकवाद को मार्क्स
ने लागू किया ।
चेतना क्या है ? हम जो कुछ भी सोचते हैं
उसका आधार क्या है ? मार्क्स इसका उत्तर देते हैं- ‘क्या यह समझने
के लिए गहरी अंतर्दृष्टि की जरूरत है कि मनुष्य के विचार, मत और धारणाएँ
संक्षेप में उसकी चेतना, उसके भौतिक अस्तित्व की अवस्थाओं, उसके सामाजिक संबंधों
और सामाजिक जीवन के प्रत्येक परिवर्तन के साथ बदलती है ?’ मनुष्य की चेतना
उसके अस्तित्व की अवस्था और सामाजिक संबंधों से तय होती है । जो भी व्यक्ति जिस अवस्था
में रहता है और जैसे सामाजिक संबंध निर्मित करता है वैसी उसकी चेतना बनती चली जाती
है । हमारे आस पास अस्तित्व की अवस्थाएँ और सामाजिक संबंध अनेक रूपों में मौजूद हैं
। मजदूरों में से ही कुछ मजदूर अस्तित्व की एक अवस्था में हैं जबकि दूसरे मजदूर दूसरी
अवस्था में । इससे उनके चिंतन में परिवर्तन आ जाता है । हम देखते हैं कि सुविधाभोगी
कर्मचारी संघर्ष के बारे में उसी तीव्रता के साथ नहीं सोचते जितना सुविधाहीन मजदूर
। मजदूरों में से ही कुछ मजदूर ऐसे हैं जिनकी रिश्तेदारी में कोई बड़ा आदमी है अथवा
कोई अफ़सर परिचित है । वह भी संघर्ष करने की बजाय कुछ दे दिलाकर मामले को रफ़ा दफ़ा करने
की सोचता है ।
आगे बढ़ें तो समाज में बहुत सारे वर्ग हैं, उनके अपने राजनीतिक
प्रतिनिधि हैं जो अलग अलग सुरों में बोलते हैं । कुछ वर्ग जब तबाही की ओर बढ़ने लगते
हैं तो मजदूर वर्ग के पक्ष में बोलना शुरू कर देते हैं और थोड़ी समृद्धि आते ही व्यवस्था
का गुणगान करने लगते हैं । हम अक्सर धोखे में आ जाते हैं कि ऐसा क्यों हुआ ? इसका कारण है कि
सामान्य तौर पर अर्थव्यवस्था और राजनीति में हमें कोई सीधा संबंध नजर नहीं आता । लेकिन
यहीं मार्क्सवाद घोषणा करता है कि आर्थिक उत्पादन और सामाजिक ढाँचा वह आधार है जिस
पर सारी राजनीति व बौद्धिक चीजें खड़ी होती हैं । उदाहरण के लिए जैसे जैसे पूँजीपति
वर्ग की उन्नति हुई वैसे वैसे उसकी राजनीतिक उन्नति भी हुई । पहले उसने स्वतंत्र नागरिक
की स्थिति हासिल की फिर धीरे धीरे शहरों के कम्यून जैसे स्वतंत्र संगठन बनाए । अपने
आर्थिक प्रभुत्व की घोषणा उसने पुरानी राजतंत्रीय पद्धति को हटाकर संसद जैसी प्रतिनिधि
संस्थाओं द्वारा राजसत्ता पर कब्जा करके की । इसलिए कह सकते हैं कि प्रत्येक विचारधारा
किसी न किसी वर्ग की सेवा करती है और वर्ग चूँकि आर्थिक श्रेणी है अतः वह या तो वर्तमान
व्यवस्था को बचाने अथवा उसे उलटने के उद्देश्य की सेवा करती है ।
तीसरे आर्थिक उत्पादन की पद्धति परिवर्तनशील वस्तु है अतः उससे
उत्पन्न सामाजिक ढाँचा भी परिवर्तनशील होता है । इसे हम ऐसे भी समझ सकते हैं कि आर्थिक
उत्पादन में होनेवाला प्रत्येक परिवर्तन समूचे समाज पर असर डालता है । एक बार जब पूँजीवादी
उत्पादन पद्धति स्थापित हो जाती है तो वह व्यक्तियों के आपसी संबंधों पर भी असर डालती
है । वह भाई बहन, माँ बेटा जैसे पवित्र संबंधों पर से भावुकता का पर्दा उखाड़ फेंकती
है और उन्हें नकद पैसे कौड़ी के व्यवहार में बदल डालती है । यही नहीं दुनिया में एक
जगह पर पूँजीवाद की स्थापना पूरी दुनिया पर असर डालती है । पूरी की पूरी दुनिया को
वह अपने रंग में रंग देती है । बहुत सारे देश जो पहले अपने सुदूर प्रांतों की हलचलों
से नावाकिफ़ रहते थे वे सभी एकताबद्ध हो जाते हैं । किसी एक जगह उठाया गया कदम देशव्यापी
असर डालता है । मनुष्य अपने आस पास की घटनाओं के प्रति और ज्यादा निरपेक्ष नहीं रह
सकता ।
इस तरह हम देखते हैं कि सामाजिक जीवन के क्षेत्र में भी उसको
शासित करने वाले नियमों को खोज निकाला गया । दुनिया के संचालन के रहस्य पर से पर्दा
उठा दिया गया और पूरी दुनिया को देखने का नया नजरिया खोज निकाला गया ।
विकास की शिक्षा के रूप में द्वंद्ववाद
विकास की द्वंद्ववादी शिक्षा क्या है ? पहली बात यह कि
विकास सरल से जटिल की ओर, निम्न से उच्च की ओर और हलकेपन से गहन की ओर होता है । दूसरी
बात कि किसी भी वस्तु में दो पहलू होते हैं जिनमें से एक प्रधान और दूसरा गौण होता
है । इन्हीं दोनों पहलुओं में संघर्ष के द्वारा वस्तु का विकास होता है । एक पहलू में
परिवर्तन दूसरे पहलू को भी प्रभावित करता है । तीसरी बात कि विकास सीधी रेखा में नहीं
होता बल्कि अक्सर घुमावदार, चक्करदार रास्ता अख्तियार करता है । परिवर्तन एक स्थिति तक परिमाणात्मक
होता है लेकिन एक खास स्थिति में पहुँचकर वह छलांग लगाता है । इस तरह विकास क्रम भंग
में होता है । इन्हीं नियमों की रोशनी में हम घोषणापत्र के विकास के सिद्धांत को देखने
का प्रयास करेंगे ।
सामंती समाज में विभिन्न प्रकार के वर्ग थे । सामंती प्रभु, अधीन जागीरदार, उस्ताद कारीगर, मजदूर कारीगर, भूदास आदि । इनमें
आपस में कई प्रकार के अंतर्विरोध निहित थे जिनके चलते उनमें संघर्ष हुआ करते थे । औद्योगिक
उत्पादन पर शिल्प संघों का एकाधिकार रहा करता था । समाज की बढ़ती हुई जरूरतों के आगे
शिल्प संघ नाकाफ़ी सिद्ध होने लगे तब मैनुफ़ैक्चर सामने आया । इन मैनुफ़ैक्चरों के एक
हिस्से ने दुनिया के कुछ नए बाज़ार खोज निकाले । और तब भाप तथा मशीन का उपयोग उद्योग
में होने लगा । पूँजीवाद के विकास में अमेरिका की खोज और गुड होप केप ने मदद की ।
इस समूची परिघटना से हम क्या शिक्षा लें ? पहली कि किसी भी
समाज में अनेक तरह के अंतर्विरोध रहते हैं लेकिन विकसित वही अंतर्विरोध होता है जिसमें
नई व्यवस्था के तत्व मौजूद हों । सामंती व्यवस्था से लड़ने वाले वर्गों में पूँजीपति
वर्ग ही था जो नई व्यवस्था का प्रवक्ता था । दूसरी कि किसी भी नई व्यवस्था अथवा वर्ग
या राजनीति का विकास तभी संभव है जब तत्कालीन परिस्थितियों में उसकी जरूरत हो । समाज
में बढ़ते हुए बाज़ार वह जरूरत थे जिन्होंने पूँजीपतियों को विकास का अवसर दिया । तीसरी
कि किसी भी वस्तु में विकास के गुण संभव हैं लेकिन उन गुणों के विकास के लिए परिस्थितियों
का होना जरूरी है । अमेरिका और गुड होप केप की खोज परिस्थितियाँ थीं ।
पूँजीवाद के गर्भ में ही वे अंतर्विरोध विद्यमान थे जो बाद में
खुलकर सामने आए अर्थात उस्ताद कारीगर और मजदूर कारीगर के बीच का अंतर्विरोध । लेकिन
यह अंतर्विरोध तब तक प्रमुख अंतर्विरोध नहीं बना जब तक सामंती उत्पादन पद्धति के खिलाफ़
पूँजीपति लड़ता रहा । इस लड़ाई में उसने मजदूर वर्ग का उपयोग किया । ज्यों ही पूँजीपति
ने आर्थिक व राजनीतिक रूप से प्रमुख वर्ग की स्थिति प्राप्त की यह अंतर्विरोध खुलकर
सामने आ गया । एक विभाजित होकर दो हो गया ।
इस अंतर्विरोध के दो पहलू हैं- पूँजीपति और मजदूर
। पूँजीपति इस अंतर्विरोध का प्रधान पहलू है और मजदूर गौण पहलू । दोनों में से किसी
एक में होनेवाला परिवर्तन दूसरे को भी प्रभावित करता है और इन्हीं दोनों के बीच के
संघर्ष से समाज का विकास होता है । जब पूँजीपति शुरू शुरू में मशीन का उपयोग करता है
तो मजदूर मशीन तोड़ना शुरू करते हैं । इससे बचने के लिए पूँजीपति मशीन के जरिए शोषण
को एक व्यवस्था का रूप दे देते हैं तो मजदूर समूचे पूँजीवादी शोषण के खिलाफ़ लड़ना शुरू
करते हैं । जब एक पूँजीपति कई फ़ैक्ट्रियों को हस्तगत करता है अथवा कई पूँजीपति मिलकर
संघ बना लेते हैं तब मजदूर वर्ग भी अपना वर्ग संगठन (ट्रेड यूनियन) निर्मित करते हैं
। जब पूँजीपति अपने माल के बाज़ार की खोज में दुनिया की खाक छानता है तो मजदूर वर्ग
आंदोलन भी अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लेता है । अंत जब पूँजीपति राजनीतिक सत्ता
पर अधिकार जमा लेता है तब मजदूर अपनी राजनीतिक पार्टी (कम्युनिस्ट पार्टी) का निर्माण करते
हैं । अब यह अंतर्विरोध अपने चरम पर पहुँच जाता है और राजनीतिक सत्ता के दो दावेदारों
के बीच का संघर्ष बन जाता है ।
सर्वहारा वर्ग आंदोलन में अब एक नया अंतर्विरोध पैदा होता है
। देखें कि मार्क्स कैसे इसका चित्रण करते हैं ‘सर्वहाराओं का
अपना वर्ग रूपी संगठन और फलतः एक राजनीतिक पार्टी के रूप में उनका संगठन उनकी आपसी
होड़ के कारण बराबर गड़बड़ी में पड़ जाता है । लेकिन हर बार वह फिर उठ खड़ा होता है- पहले से भी अधिक
मजबूत, दृढ़ और शक्तिशाली बनकर ।’ इस अंतर्विरोध के भी दो पहलू हैं- ट्रेड यूनियन और
पार्टी । दोनों में से प्रत्येक में होनेवाला परिवर्तन दूसरे को प्रभावित करता है ।
दोनों पहलुओं के विकास पर ही सर्वहारा वर्ग आंदोलन की प्रगति निर्भर है । अब हमारे
कुछ साथी हैं जो या तो ट्रेड यूनियन पर ज्यादा जोर देते हैं अथवा कुछ साथी पार्टी पर
जोर देते हैं । ये दोनों ही चीजें एकांगीपन हैं ।
समाज में मजदूर व पूँजीपति के अलावा अन्य भी वर्ग होते हैं ।
उनका क्या रुख होता है ? मार्क्स बताते हैं कि पूँजीवाद का विकास क्रमशः समाज के सभी
हिस्सों को अधिकाधिक इन दोनों वर्गों के बीच विभक्त करता जा रहा है । स्त्रियाँ, छोटे कारोबारी, दूकानदार, आम तौर पर किरायाजीवी, दस्तकार और किसान- ये सब धीरे धीरे
सर्वहारा वर्ग की स्थिति में पहुँच जाते हैं ।
अब हम घोषणापत्र में दिए गए सिद्धांतों के मुताबिक ही घोषणापत्र
के बाद हुई मजदूर आंदोलन की प्रगति पर एक नजर डालेंगे । हमने मजदूर आंदोलन की प्रगति
राजनीतिक सत्ता के दो दावेदारों के बीच संघर्ष तक देखी थी । यह संघर्ष हुआ पेरिस में 1871 में । मजदूर वर्ग
ने 70 दिन राजनीतिक सत्ता पर कब्जा जमाए रखा । इस संघर्ष के फलस्वरूप मजदूर वर्ग ने महत्वपूर्ण
शिक्षा ग्रहण की । मार्क्स ने ‘फ़्रांस में गृहयुद्ध’ में लिखा ‘मजदूर वर्ग राज्य
की बनी बनाई मशीनरी पर कब्जा करके ही उसका उपयोग अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए
नहीं कर सकता ।’ यहीं से सवाल राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने का नहीं बल्कि पुरानी
राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था के ध्वंस पर नई राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था के निर्माण का बन
गया । अब भी बहुत सारे लोग ऐसा सोचते हैं कि इसी मशीनरी के रहते हुए चुनाव के जरिए
सत्ता पर कब्जा करके मजदूर वर्ग को मुक्ति दिलाई जा सकती है । नहीं साथियों जो लोग
ऐसा कहते हैं उन्होंने पेरिस कम्यून से कोई शिक्षा नहीं ली । लेकिन पूँजिपति वर्ग ने
ली । उसने सामंती ध्वंसावशेषों से संघर्ष करना बंद कर दिया । सामंती तत्वों के साथ
समझौता कर लिया और किसानों को अपने ‘रिजर्व’ में बदल लिया ।
मजदूर आंदोलन की अगली प्रगति रूस की 1917 की नवंबर क्रांति में हुई
। इसने न सिर्फ़ पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त कर नई व्यवस्था का निर्माण किया बल्कि किसानों
को सर्वहारा के ‘रिजर्व’ में बदल दिया । तब से दुनिया भर में किसान सर्वहारा के अभिन्न
मित्र में बदल गए । इसके बाद पूँजीवाद ने औपनिवेशिक नीति त्यागकर शोषण का नव औपनिवेशिक
तरीका अख्तियार किया । अर्थात सीधे सीधे दूसरे देशों में राज्य कायम न कर वहीं के अर्ध
सामंती तत्वों को पुनर्स्थापित करते हुए सस्ते कच्चे माल व सस्ते श्रम के शोषण के जरिए अकूत मुनाफ़ा पैदा करना
और उस मुनाफ़े में से विकसित पूँजीवादी देशों के मजदूरों को भी कुछ हिस्सा प्रदान करना
। इस तरह धीरे धीरे उसने पूँजीवादी देशों में मजदूर वर्ग आंदोलन की धार भोंथरी कर दी
। तब संघर्ष का केंद्र अर्ध औपनिवेशिक देश हो गए और वहाँ सर्वहारा का प्राथमिक कर्तव्य
अर्ध सामंती तत्वों के खिलाफ़ संघर्ष कर उन्हें नष्ट कर जनता का राज स्थापित करना हो
गया । इस कर्तव्य को भी सर्वहारा वर्ग ने चीन में 1949 में पूरा किया
। पूँजीवाद ने निश्चय ही इसके बाद अपनी बहुत सारी नीतियों में परिवर्तन किया है और
तदनुसार संघर्ष के केंद्र और तरीकों में भी बहुत बदलाव की दरकार है । कम्युनिस्ट पार्टियों
और मार्क्सवादियों को इसे खोजना चाहिए ।
इस तरह हम देखते हैं कि विकास के द्वंद्ववादी नियम के मुताबिक
पूँजीवाद सामने आया और उसका विकास हुआ । इसी नियम के मुताबिक उसका पतन भी अनिवार्य
है । सर्वहारा आंदोलन की अग्रगति यह साबित करती है कि आनेवाले साल पूँजीवाद के कुछ
और गढ़ों के डगमगाने और ढहने के साल होंगे । लेकिन समाज में मौजूद अन्य वर्ग क्यों नहीं
इस पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को पलट सकते और मजदूर वर्ग अपने संघर्ष के फलस्वरूप aस्ब प्रकार के
वर्ग अंतर्विरोधों को क्यों समाप्त कर देगा ये ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर हम घोषणापत्र
के आधार पर देने की कोशिश करेंगे ।
मजदूर वर्ग की विश्व ऐतिहासिक क्रांतिकारी भूमिका
पूँजीवाद के विरुद्ध निश्चय ही बहुत सारे वर्ग खड़े हैं और वे
अपनी अपनी स्थिति के मुताबिक पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की आलोचना भी करते हैं किंतु
मजदूर वर्ग ही मार्क्स के शब्दों में ‘उसकी (आधुनिक उद्योग
की) मौलिक और विशिष्ट उपज हैं ।’ अपनी किन स्थितियों के चलते मजदूर वर्ग ही इस संघर्ष का अगुआ
बनता है ?
प्रथमतः इतिहास में विभिन्न वर्ग रहे हैं और आज भी हैं लेकिन
मजदूर वर्ग ने ही सबसे ज्यादा राजनीतिक लड़ाइयाँ लड़ी हैं । देखें मार्क्स ने घोषणापत्र
में क्या लिखा है ‘पूँजीपति वर्ग अपने को लगातार संघर्ष में फँसा पाता है: पहले अभिजात वर्ग
के विरुद्ध, फिर खुद पूँजीपति वर्ग के उन भागों के विरुद्ध, जिनके हित औद्योगिक
प्रगति के प्रतिकूल हो जाते हैं और अंततः विदेश के पूँजीपतियों के विरुद्ध तो सदा ही
। इन तमाम लड़ाइयों में वह सर्वहारा वर्ग से अपील करने के लिए, उससे मदद माँगने
के लिए और इस प्रकार उसे राजनीतिक अखाड़े में खींच लाने के लिए मजबूर होता है । अतः
पूँजीपति वर्ग खुद ही सर्वहारा वर्ग को अपने राजनीतिक और सामान्य शिक्षण के तत्वों
से संपन्न कर देता है अर्थात उसके हाथ में पूँजीपति वर्ग से लड़ने के लिए हथियार देता
है ।’ पूँजीवाद के अपने अंतर्विरोध ही उसे प्राथमिक रूप से नष्ट करते हैं लेकिन उन अंतर्विरोधों
के इस्तेमाल के लिए जिस राजनीतिक शिक्षा की जरूरत होती है वह मजदूर वर्ग के पास होती
है ।
दूसरे पूँजीवाद के विरुद्ध खड़े अन्य सभी वर्गों में उनके राष्ट्रीय
हितों व संकीर्ण स्वार्थों के चलते होड़ बनी रहती है लेकिन मशीनों पर काम करनेवाले वर्ग
के श्रम का भेद ये मशीनें ही कम करती जाती हैं । उनका शोषण विभिन्न स्थानों पर एक ही
तरह से हुआ करता है । वही एकमात्र ऐसा वर्ग है जो सबसे ज्यादा संगठित और अनुशासित रूप
से काम करता है । सर्वोपरि एक ही मशीनरी, पूँजी की सत्ता, उन सबका शोषण करती
है । इन स्थितियों के चलते सर्वहारा वर्ग के हित और जीवन की स्थितियाँ करीब करीब एक
तरह की होती जाती हैं । मजदूर वर्ग ही अपनी आपसी होड़ को समाप्त करने में सबसे ज्यादा
सक्षम है । इसके चलते उनकी महान एकता जन्म लेती है और यह एकता पूँजी के आधार- सर्वहारा की आपसी
होड़ के कारण सस्ता श्रम खरीदने का अवसर- को ही खिसका देती है । वह अपनी एकता अंतर्राष्ट्रीय
स्तर तक स्थापित करता है ।
तीसरे अन्य तमाम वर्ग इसलिए लड़ते हैं ताकि अपनी पुरानी स्थिति
को बरकरार रख सकें । वह पुरानी स्थिति क्या है ? अब तक इतिहास में
जितने भी वर्ग हुए हैं उन सबके पास कुछ न कुछ निजी संपत्ति रही है । अब भी अन्य तमाम
वर्गों के पास कुछ न कुछ निजी संपत्ति है । ये तमाम वर्ग अपनी इसी स्थिति को बचाने
के लिए लड़ते हैं लेकिन सर्वहारा वर्ग वह पहला वर्ग है जिसके पास कुछ भी निजी संपत्ति
नहीं होती यहाँ तक कि उसका अपना श्रम भी माल में बदल चुका होता है । ‘सर्वहारा वर्ग
के पास जोड़ने और सुरक्षित रखने के लिए अपना कुछ भी नहीं है, उसका लक्ष्य निजी
स्वामित्व की सभी पुरानी गारंटियों और जमानतों को नष्ट कर देना है ।’ इसी आधार पर मार्क्स
ने सूत्रबद्ध किया था- ‘ कम्युनिस्टों के सिद्धांत को केवल एक वाक्य में यूँ कहा जा सकता
है- निजी स्वामित्व का उन्मूलन ।’
चौथे इसी तर्क को और आगे बढ़ाया जाय तो अब तक के सभी वर्ग अपने
संकीर्ण वर्गीय स्वार्थों के चलते पूँजीपति वर्ग से लोहा लेते रहे हैं । उनके आंदोलन
की परिधि में केवल उनका अपना वर्ग ही आया करता था । इसीलिए ‘पहले के तमाम ऐतिहासिक
आंदोलन अल्पमत के आंदोलन रहे हैं या अल्पमत के फ़ायदे के लिए रहे हैं । किंतु सर्वहारा
आंदोलन विशाल बहुमत का, विशाल बहुमत के फ़ायदे के लिए होनेवाला चेतन तथा स्वतंत्र आंदोलन
है । हमारे वर्तमान समाज का सबसे निचला स्तर, सर्वहारा वर्ग, शासकीय समाज की
तमाम ऊपरी परतों को पलटे बिना हिल तक नहीं सकता, किसी प्रकार अपने
को ऊपर नहीं उठा सकता ।’ इसलिए सर्वहारा वर्ग को जनता के विशाल बहुमत की माँगें सूत्रबद्ध
करके उन पर अन्य तमाम वर्गों को एकताबद्ध करना सीखना चाहिए ।
एक और बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए । हमारे कुछ साथी क्रांतिकारी
जोश में कठिन कठोर राजनीतिक शिक्षण पर ध्यान न देकर कुछ लूटमार करनेवालों से फ़ायदा
होगा सोचकर एकता बना लेते हैं । अराजक तत्व, डकैत, लंपट सर्वहारा, बंजारे, भाड़े के टट्टू, भिखारी इत्यादि
के बारे में मार्क्स ने लिखा है ‘खतरनाक वर्ग, समाज का कचड़ा, पुराने समाज के
निम्नतम स्तरों में से निकला हुआ और निष्क्रियता के कीचड़ में सड़ता हुआ समुदाय जहाँ
तहाँ सर्वहारा क्रांति की आँधी में पड़कर आंदोलन में खिंच आ सकता है लेकिन उसके जीवन
की अवस्थाएँ उसे प्रतिक्रियावादी षड़यंत्र के भाड़े के टट्टू का काम करने के लिए कहीं
अधिक मौजूँ बना देती हैं ।’
इस प्रकार हम देखते हैं कि अपनी स्थितियों के कारण मजदूर वर्ग
ही पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को पलट सकता है और नए समाज का स्रष्टा बन सकता है । वर्ग
संघर्ष ऐसी स्थिति में आ गया है जहाँ मजदूर वर्ग की विजय तमाम प्रकार के वर्ग भेदों
को मिटा देगी । लेकिन अन्य वर्ग भी पूँजीवादी समाज के मुकाबले नए समाज की कल्पना पेश
करते हैं । इन सिद्धांतों का खंडन किए बिना मजदूर वर्ग अपने ऐतिहासिक मिशन को पूरा
नहीं कर सकता ।
विविध प्रकार के समाजवाद और कम्युनिस्ट
मार्क्स ने घोषणापत्र में पाँच प्रकार के समाजवादों का वर्णन
किया है । पहला समाजवाद उन सामंतों ने तैयार किया था जो पूँजीवाद की प्रगति के कारण
इतिहास की धारा से अलग हो गए थे । इन्होंने थोड़ी देर के लिए अपने हितों को छिपाए रखा
और शोषित मजदूर वर्ग के पक्ष में किताबें लिखीं । दूसरा समाजवाद उन निम्न पूँजीपतियों
के साहित्यिक प्रतिनिधियों ने तैयार किया जो पूँजीवाद की समृद्धि के काल में अपने को
ताजा करते रहते हैं परंतु होड़ की चक्की में पिसकर बराबर बरबाद होते रहते हैं संक्षेप
में पूँजीपति और सर्वहारा के बीच झूलते रहते हैं । स्वाभाविक तौर पर इनका विरोध इनकी
वर्ग स्थिति के मुताबिक घटता बढ़ता रहता है । तीसरा दार्शनिक किस्म का समाजवाद था ।
ये वो दार्शनिक थे जो वर्ग भेदों से ऊपर उठकर मानव मात्र की सेवा करना चाहते थे । चौथा
समाजवाद वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था को बदलने की बात नहीं कहता था बल्कि इसी व्यवस्था
की कुछेक गड़बड़ियों को दूर कर इसे मजदूरों के लिए और अधिक सहनीय बनाना चाहता था । पाँचवें
वो लोग थे जिनके सिद्धांत दुर्भाग्यवश आर्थिक विकास की प्रक्रिया से मेल नहीं बिठा
पाते थे । वे सर्वहारा की मुक्ति तो चाहते थे लेकिन उनके अपने हाथों, उनकी जरूरतों के
मुताबिक नहीं बल्कि अपनी कल्पना वाले भव्य समाज का निर्माण कार्य ये सर्वहारा से कराना
चाहते थे ।
हमारे देश में भी विविध प्रकार के समाजवाद फैले हुए हैं । कोई
कहता है नेहरू भी समाजवादी थे, कोई कहता है नहीं लोहिया का समाजवाद सबसे अच्छा है, एस यू सी आई और
आर एस पी नामक पार्टियाँ भी अपने अपने समाजवादों के साथ हाजिर रहती हैं और इन सबके
साथ ‘कृषक सर्वसमतावाद’, ‘पंचायती राज’, ‘आदिवासी कम्यून’ आदि विशेष प्रकार
के नमूने भी हैं । इन सबको हम एक एक करके देखेंगे ।
दूसरे विश्व युद्ध के पहले पूँजीवाद ने एक जबर्दस्त संकट (1929-33 की महामंदी) झेला था । इस संकट
को हल करने के लिए कीन्स ने कल्याणकारी राज्य का सिद्धांत पेश किया । इस सिद्धांत के
तहत राज्य को पूँजीवाद के कुछ मामलों में हस्तक्षेप करना था । मजदूरों की सेहत, रहन सहन की व्यवस्था, मजदूर पूँजीपति
के आपस के झगड़ों में हस्तक्षेप किया गया और उद्योगों के लिए नियम विनियम तैयार किए
गए । दूसरे विश्व युद्ध के बाद औपनिवेशिक देशों में संघर्ष तेज हो गए और चीनी क्रांति
ने इन संघर्षों में समाजवाद की धारा को मजबूत कर दिया । तीसरे जो उपनिवेश नए नए स्वतंत्र
हुए थे उनमें अव्वल नंबर तो बुर्जुआ वर्ग के पास उद्योग की अधिसंरचना के लिए पूँजी
नहीं थी और बुर्जुआ वर्ग पुराने ढंग से ही शोषण जारी नहीं रख सकता था । आज़ादी के आंदोलन
में जो जनवादी चेतना मजबूत हुई थी उसको भी एक हद तक संतुष्ट रखना था । इन्हीं कारणों
से भारत के बुर्जुआ ने सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण किया था । उद्योगों का माल ढोने
के लिए रेलें और सड़कें, उधार देकर पुनरुत्पादन जारी रखने के लिए बैंक, बिजली, उत्पादन के साधनों
का निर्माण करनेवाले उद्योग आदि सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गए । सार्वजनिक क्षेत्र
के लिए पूँजी जनता से जुटाई गई । दूसरी ओर राज्य ने मजदूर वर्ग के स्वास्थ्य, पेंशन, मकान, पूँजीपतियों के
साथ विवाद में कुछ अधिकार आदि की सुरक्षा के जरिए एक भ्रम पैदा किया । इसके दो नतीजे
निकले । पहला कि पूँजीवाद राज्य के साथ संबद्ध हो गया । इससे पूँजी को राज्य की सुरक्षा
तो मिली लेकिन मजदूर वर्ग आंदोलन सीधे सीधे राज्य के खिलाफ़ केंद्रित होने लगा । दूसरे
भारतीय राज्य ने अपना स्वरूप लोकतांत्रिक बनाया जिससे यह भ्रम फैला कि सार्वजनिक क्षेत्र
जनता के कब्जे में है ।
कुछ लोग हैं जो सार्वजनिक क्षेत्र को समाजवाद की ओर पहला कदम
मानते हैं । उनका कहना है कि निजी पूँजीपतियों से संघर्ष कर सार्वजनिक क्षेत्र का विकास
हुआ है और भारतीय बुर्जुआ के प्रगतिशील हिस्से के इस कदम का रूढ़िवादी बुर्जुआ विरोध
कर रहा है । इसलिए सर्वहारा को प्रगतिशील बुर्जुआ के इस कदम का समर्थन कर उसका हाथ
मजबूत करना चाहिए और राष्ट्रीयकरण अथवा सार्वजनिक क्षेत्र का और विस्तार करना चाहिए
। मजदूर वर्ग संगठनों को नौकरशाहों और मजदूरों के बीच के अंतर्विरोधों को हल करनेवाला
मध्यस्थ बन जाना चाहिए । बुर्जुआ ने भी वर्क्स कमेटी तथा ज्वाइंट कन्सल्टेटिव मेकेनिज्म
आदि के जरिए इस प्रक्रिया को तेज करने में मदद की है ।
ये लोग भूल जाते हैं कि पूँजीवाद का मूल अंतर्विरोध उत्पादन
का सामूहिक चरित्र और निजी स्वामित्व के बीच का अंतर्विरोध है और यह हल होने की बजाय
और बढ़ा ही है । राज्य जो पूँजीपतियों और मजदूरों के विरोध से ऊपर उठना चाहता था वह
पूँजीवाद के साथ और घनिष्ठ रूप से जुड़ गया है और इसने सर्वहारा वर्ग आंदोलन के चरित्र
को स्पष्टतः राजनीतिक रूप दे दिया है । इससे मजदूर वर्ग संगठनों के जुझारूपन में एक
गिरावट दिखाई दे रही है लेकिन जल्दी ही सर्वहारा पूँजीवादी शोषण के मर्म को समझकर नए
तरह के क्रांतिकारी वर्ग संगठनों को जन्म देगा ।
दूसरी तरह के लोग हैं जो मजदूर वर्ग को अत्यंत दरिद्र वर्ग की
तरह देखते हैं । वे मजदूर वर्ग की दीन हीन अवस्था पर तरस खाते हैं और उसका कुछ कल्याण
करना चाहते हैं । वे मजदूर वर्ग में छिपी क्रांतिकारी सृजनात्मकता को नहीं देख पाते
। इस तरह के लोग मजदूरों को दान, पुण्य करनेवाली संस्थाओं, उसकी हालत में
सुधार के कामों, श्रमिक कल्याण केंद्रों आदि में अपने आपको संगठित किए रहते हैं
। मजदूरों में भी इस प्रवृत्ति के प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते हैं । उनमें भी कुछ लोग ‘मदद फ़ंड’ आदि बनाए रहते
हैं । इनका काम तकलीफ, मुसीबत के मौकों पर मजदूरों की मदद करना होता है । कुछ और लोग
हैं जो आम तौर पर मजदूर वर्ग की दशा सुधारने के लिए सहकारी लघु उद्योग लगाने का सुझाव
देते हैं । इसी के साथ हम छोटे पैमाने पर कर्ज़ मुहैया करानेवाली संस्थाओं को भी शामिल
कर सकते हैं । साम्राज्यवादी देश खासकर मजदूर वर्ग संघर्ष का मुकाबला करने के लिए ऐसी
संस्थाओं की आर्थिक सहायता करते हैं । इन लोगों ने कहीं कहीं पर बेरोजगारों, नौकरी से निकाले
हुए श्रमिकों, विधवा और परित्यक्ता महिलाओं को लेकर छोटे छोटे घरेलू उद्योग
खोले हैं व उनका चरित्र वे सहकारी बनाए रखते हैं । गैर सरकारी संगठनों के भारी जाल
को इनके भीतर ही समझना चाहिए । सारतः यह काम मजदूर वर्ग के लिए पूँजीवादी शोषण को कुछ
और सहनीय बनाना होता है ।
लेकिन पूँजीवाद जब अपनी गति के नियमों के तहत लोगों को और ज्यादा
दरिद्र बनाता जाता है और वर्ग संघर्ष क्रमशः तीव्र और निर्मम होता है तो ये लोग चिल्ला
पड़ते हैं- अगर यही हाल रहा तो जनता हाथों में हथियार उठा लेगी और वह दिन भारत के लिए सबसे
दुर्भाग्य का दिन होगा । असल में ये लोग इसी बात से सबसे ज्यादा डरते हैं और उस दिन
को टालने की कोशिश करते हैं । लेकिन बढ़ता हुआ पूँजीवादी शोषण और कम्युनिस्टों के प्रयास
मिलकर जल्दी ही उस दिन को करीब लानेवाले हैं । इन जैसे नीम हकीमों को इतिहास में बहुत
परखा जा चुका है ।
तीसरे प्रकार के लोग दो तरह के होते हैं । एक तो वे जो कभी मजदूर
आंदोलन चला चुके हैं लेकिन अब और विकास हो नहीं पा रहा है । मजदूर आंदोलन जिन बंदिशों
को तोड़े डाल रहा है वे चिंतन और व्यवहार में उन्हीं से चिपके रहना चाहते हैं । दूसरी
तरह के लोग मध्य वर्ग के लोग हैं जिन्हें छोटे छोटे अंतर्विरोध मसलन रिक्शेवाले का
ज्यादा पैसा लेना, ग्वाले का दूध में पानी मिलाना, छोटे दूकानदार
का मिलावट करना, मकान मालिक व किराएदार के अंतर्विरोध बहुत परेशान किए रहते हैं
। वे सोचते हैं कि इन अंतर्विरोधों से जनता का संयुक्त संघर्ष बाधित हो रहा है ।
एक सज्जन हैं जो मानते हैं कि बड़े उद्योगपति व छोटे उद्योगपति
में अंतर्विरोध है । इस अंतर्विरोध में बड़ा उद्योगपति छोटे को वश में किए रहता है क्योंकि
बाज़ार पर बड़े उद्योगपति का कब्जा रहता है । अगर छोटे उद्योगपति संगठित होकर एक अखिल
भारतीय संघ बना लें और अपने उत्पाद इसी संघ के माध्यम से बेचें तो बड़े उद्योगपति को
शिकस्त दी जा सकती है । वे भूल जाते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में उसके अपने
अंतर्विरोधों के चलते छोटे उद्योगपतियों को बड़ा उद्योगपति अनिवार्यतः निगल जाता है
। केवल बाज़ार के कारण छोटा उद्योगपति बड़े उद्योगपति से नहीं जुड़ा रहता बल्कि अन्य तमाम
चीजें उन्हें बड़े उद्योगपतियों से जोड़े रहती हैं । ये दोनों मिलकर पूँजीवादी व्यवस्था
का निर्माण करते हैं । तीसरे छोटे उद्योग मसलन ईंट भट्ठा, कालीन दरी आदि
मजदूरों के मध्ययुगीन शोषण उत्पीड़न के आज भी अड्डे बने हुए हैं । दूसरे एक सज्जन हैं
जो देश की सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं । उनका कहना है कि मजदूर अन्य
किसी वर्ग को अपने साथ समाजवादी शासन में शामिल नहीं करेगा बल्कि यह केवल मजदूरों का
समाजवाद होगा क्योंकि मार्क्स के अनुसार सत्ता केवल एक ही वर्ग के हाथ में होती है
। अब तक के तमाम समाजवादी देशों के अनुभव के विपरीत तो यह है ही घोषणापत्र के इस सिद्धांत
के भी विरोध में है कि सर्वहारा वर्ग आंदोलन बहुमत का या बहुमत के फ़ायदे में आंदोलन
है । यह शिक्षा बहुत खून देकर हासिल की गई है कि सर्वहारा वर्ग अन्य वर्गों को पूँजीवाद
से मुक्ति दिलाए बिना खुद भी मुक्त नहीं हो सकता । मध्यम वर्ग के लोग बहुत तरह के हवाई सिद्धांत पेश करते हैं । नमूने के लिए दो विचार आपके सामने रखता
हूँ । एक विचार है कि एक ही व्यक्ति कई जगह कई भूमिकाएँ अख्तियार करता है । कहीं वह
मजदूर है तो दूसरी जगह खरीदार । लिहाजा जनता के आपसी अंतर्विरोधों को कम करने के लिए
व्यक्ति के पालन के लिए एक संधिपत्र तैयार किया जाय जो विभिन्न वर्गों के हितों को
समन्वित करे । दूसरा विचार है कि विभिन्न समुदायों व जनता के विभिन्न हिस्सों के बीच
शासक वर्गों द्वारा फैलाए गए भ्रम के कारण वास्तविकता सामने नहीं आ पाती है कि अलग
अलग ये हिस्से शासक वर्गों द्वारा ही पीड़ित हैं । अतः एक समन्वक संघ बनाया जाना चाहिए
जो जनता के विभिन्न हिस्सों के हितों, आकांक्षाओं आदि को समन्वित करे । ये लोग भूल
जाते हैं कि जनता के आपसी अंतर्विरोध ठीक उसी हद तक कम होते जाते हैं जितना और जिस
हद तक शासक वर्गों से उनके अंतर्विरोध बढ़ते जाते हैं और ठीक उसी हद तक उनकी एकता भी
मजबूत होती जाती है ।
दरअसल ये लोग आर्थिक और तदनुसार राजनीतिक परिवर्तन के नियमों
को समझ नहीं पाते या समझने में अपनी स्थिति के कारण अक्षम होते हैं । इसलिए वे सोचते
हैं कि दुनिया का विकास उनकी मर्ज़ी के मुताबिक क्यों नहीं हो रहा है । अगर नहीं हो
रहा है तो मजदूर वर्ग प्रयासपूर्वक उनके हिसाब से दुनिया चलाए । उन्हें लगता है कि
कम्युनिस्ट भी तो सपना ही देखते हैं और उनके सपने मजदूर वर्ग की कार्यवाही में बदल
जाते हैं तो इन बौद्धिकों के सपने तो कम्युनिस्टों से बेहतर ही हैं । इन सपनों को भी
मजदूर वर्ग व्यवहार में बदले । वे नहीं समझते कि कम्युनिस्ट पार्टी के नियम, लक्ष्य और कार्यवाहियाँ
वैज्ञानिक नियमों से शासित हैं । इतिहास के नियम के मुताबिक मजदूर वर्ग का शासक वर्ग
बनना और समस्त वर्ग विरोधों को खत्म करना अनिवार्य है । लेकिन इस अनिवार्यता के पूरा
होने के लिए सर्वहारा की ओर से सचेत राजनीतिक कार्यवाही जरूरी होती है ।
भारत के अर्ध सामंती देश होने के नाते यहाँ एक विशेष तरह का
समाजवाद भी फैला हुआ है । किसानों को उनका स्वायत्त ग्राम आकर्षित करता है और उन्हें
लगता है कि पूँजीवाद के विकास ने ‘स्वाभाविक बड़ों’, ‘पंचों’ आदि के अधिकारों
का उल्लंघन कर गाँव की सामूहिक चेतना का स्वर्ग नष्ट भ्रष्ट कर दिया है । आदिवासियों
को उनका पुराने साझे स्वामित्व के दिन, माल विनिमय और शांति अनुपम लगती है और लगता
है कि पूँजीवाद के प्रवेश ने पैसे को स्थापित किया है जिससे हमारे जीवन की शांति नष्ट
हो गई है । कुछ लोगों को पहाड़ी लोगों का भोलापन बहुत प्यारा लगता है । इसके अतिरिक्त
मजदूरों का एक विशाल समुदाय भी गाँवों से अभी अभी आया है और अपने चिंतन में ग्रामीण
जड़ता से मुक्त नहीं हो पाया है । जनता के इन्हीं मनोभावों को आधार बनाकर कुछ हवाई समाजवादी
पैदा हो गए हैं ।
एक जुझारू किसान नेता बताते हैं कि शहर गाँवों का शोषण कर रहे
हैं इसलिए असल लड़ाई शहर बनाम देहात की है । शहर ने ही गाँवों में भी शहरी संस्कृति
का प्रवेश करा दिया है । कुछ लोग बताते हैं कि असल में स्वावलंबी ग्राम समाजवाद के
बहुत ही अच्छे उदाहरण थे जहाँ श्रम विभाजन आवश्यकता के अनुसार लागू था और वर्ग विभाजन
तो बाद की देन है जो गाँवों की आत्मनिर्भरता टूटने से पैदा हुआ है । अतः गाँवों को
अपने उन्हीं कूपमंडूकतापूर्ण दिनों में वापस चले जाना चाहिए । एक श्रमिक नेता आदिवासियों
को केंद्र कर गैर आदिवासियों को वहाँ से भगाकर आदिवासी कम्यून की स्थापना करना चाहते
हैं । उदारवादी बुर्जुआ के अधिकांश हिस्से आज भी पंचायती राज को आधार बनाकर वर्तमान
व्यवस्था से लड़ाई चलाते रहते हैं । इन्हीं चीजों को केंद्र कर वर्ग संघर्ष का विरोध
करते हुए भूदान आंदोलन की धारा उभरी थी । कहा गया कि जिनके पास उपयोग से फालतू जमीन
है वे स्वेच्छा से अपनी जमीनें दान कर दें और वे जमीनें भूमिहीनों को दे दी जाएँगी
। इस तरह सबके पास उसके उपयोग भर जमीन हो जाएगी और इसमें राज्य को हस्तक्षेप करने की
जरूरत भी नहीं पड़ेगी जिसका अधिकार वैसे भी ‘लोकतंत्र’ की सरकार को नहीं
होता । ये सभी विचार विकास के पहिए को पीछे की ओर घुमाना चाहते हैं । ह्रासमान वर्ग
अपने अस्तित्व की जो अंतिम लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं इन लड़ाइयों में उनको सुरक्षित रखना ही
इनका उद्देश्य है ।
इन तमाम समाजवादों के प्रति मजदूर वर्ग का रुख क्या हो ? हम इसे इस तरह
कह सकते हैं कि जो समाजवाद प्रतिक्रियावादी हैं अर्थात वर्तमान व्यवस्था को ही बनाए
रखना चाहते हैं उनका सख्त विरोध करना चाहिए । जो लोग वर्तमान व्यवस्था को उलटना तो
चाहते हैं लेकिन सही रास्ता नहीं खोज पा रहे हैं और जिनका आम जनता में कुछ प्रभाव है
उनके कल्पनावाद से वैचारिक संघर्ष चलाते हुए पूँजीवादी व्यवस्था को उलटने के काम में
उनको साथ लेना चाहिए । जो लोग विकास की वर्तमान वस्तुगत प्रक्रिया को उलटना चाहते हैं
उनको खुद पूँजीवादी विकास नष्ट करेगा लेकिन उनके जन आधार के भीतर से भ्रम दूर करने, गाँवों को जड़ता
से मुक्त करने के लिए उनके साथ एक हद तक एकता बनाते हुए किसान संघर्षों को सचेत सर्वहारा
नेतृत्व में संचालित करना चाहिए ।
विविध प्रकार के समाजवाद का विरोध करते हुए मार्क्स एंगेल्स
कम्युनिस्टों के मूलभूत लक्षणों को सामने लाते हैं- कम्युनिस्ट मजदूर
वर्ग की दूसरी पार्टियों के मुकाबले अपनी कोई अलग पार्टी नहीं बनाते ।---व्यावहारिक दृष्टि
से कम्युनिस्ट हर देश की मजदूर पार्टियों के सबसे उन्नत और कृतसंकल्प जुज होते हैं
ऐसे जुज जो औरों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं, दूसरी ओर सैद्धांतिक
दृष्टि से सर्वहारा वर्ग के विशाल जन समुदाय की अपेक्षा इस अर्थ में श्रेष्ठ हैं कि
वे सर्वहारा आंदोलन के आगे बढ़ने के रास्ते की, उसके हालात और
साधारणतः उसके अंतिम नतीजे की सुस्पष्ट समझ रखते हैं ।---कम्युनिस्ट सर्वत्र
मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ़ हर क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन करते
हैं ।---अंत में वे सर्वत्र तमाम देशों की जनवादी पार्टियों के बीच एकता और समझौता कराने
की कोशिश करते हैं ।---कम्युनिस्ट मजदूरों के तात्कालिक लक्ष्यों के लिए लड़ते हैं, उनके सामयिक हितों
की रक्षा के लिए प्रयत्न करते हैं किंतु वर्तमान के आंदोलन में वे इस आंदोलन के भविष्य
का भी प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ध्यान रखते हैं ।
सिद्धांत में कोई समझौता नहीं, लक्ष्य में कोई
कटौती नहीं । अपने ऐतिहासिक मिशन तक पहुँचने के पहले कोई विश्राम नहीं । तमाम प्रकार
के भ्रमों को दूर कर उठ खड़ा होना ही आज का तात्कालिक कर्तव्य है और इस व्यवस्था को
नष्ट कर नई व्यवस्था के सृजन में ज्यादा से ज्यादा लोगों को एकताबद्ध करना इसका मूलमंत्र
है । ठीक अपने इन्हीं विचारों को छिपाना कम्युनिस्ट अपनी शान के खिलाफ़ समझते हैं क्योंकि
आखिर वे उस वर्ग के हिरावल हैं जिसके पास खोने के लिए सिर्फ़ गुलामी की जंजीरें हैं
और जीतने के लिए पूरी दुनिया है ।