किसी भी लेखक की डायरी उसका कबाड़खाना होती है । इसको देखना थोड़ा दखलंदाजी जैसा लगता तो है लेकिन अगर लेखक ने उसे प्रकाशित करवा दिया है तो वह हमें इस अवैध काम के लिए उकसाता है । इस मामले में रमेशचंद्र शाह की डायरी 'इस खिड़की से' को देखना मजेदार अनुभव है । रमेशचंद्र शाह हमारे समय की रचनाशीलता के विश्लेषण के लिए अनेक कोणों से संदर्भ विंदु की तरह हैं ।
वैसे तो इस डायरी में मुख्य रूप से 82 से 2004 तक की प्रविष्टियाँ हैं लेकिन पहले की एक डायरी मिल जाने से 72-73 की भी कुछ टीपें शामिल कर ली गई हैं । शाह जी ने इसके लिए पाठकों से क्षमा माँगी है लेकिन मुझे इसकी जरूरत नहीं महसूस हुई । बल्कि लगा कि ऐसा होने से ठीक ही हुआ क्योंकि इससे बाद की टीपों को पृष्ठभूमि प्राप्त हो गई है । कोई क्रमभंग भी महसूस नहीं होता । शायद इसका कारण यह है कि शाश्वत उनकी चेतना का स्थायी भाव है जो थोड़ा हेर फेर के साथ दोनों ही कालखंडों में मौजूद है । यह जरूर है कि शुरू में इसका रूप कुछ अधिक ही रहस्यवादी पुट लिए हुए है लेकिन बाद के दौर में बाहर बिखरा जीवन ज्यादा दिखाई देता है ।
इस डायरी को पढ़ते हुए रामचंद्र शुक्ल की एक टिप्पणी का ध्यान रखना चाहिए । औपनिवेशिक भारत में आध्यात्मिकता के शोरगुल से परेशान होकर शुक्ल जी ने इसके जड़ मूल को पहचानते हुए कहा कि यूरोप के लोगों ने कह दिया कि भारत के लोग बहुत आध्यात्मिक होते हैं तो दिखा चले हम अपनी आध्यात्मिकता ।
डायरी में शुरू से ही कविता और कला को आध्यात्मिकता के साथ अनेक तरह से जोड़ा गया है । पहली ही टीप में ‘अतिविरल उदाहरण होगा यह, जहाँ योग की उच्चतम भूमिका पर पहुँचकर भी योगी उसका इस तरह बखान कर सकता है; कवि की तरह शब्दों से काम ले सकता है ।’ इसके बाद वे सवाल करते हैं ‘उस “सबद” की साधना का इस कविजनोचित शब्द साधना से क्या संबंध है ?’ फिर मानो इसी सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं ‘सृष्टि में वाक तत्व का प्रवेश और प्रतिष्ठा एक नई और जबर्दस्त घटना थी ।---भाषा एक आवरण बन गई, संसार के भीतर एक प्रति संसार को जन्म देती हुई । तत्व का सीधा साक्षात्कार असंभव सा बना देती हुई । बहुत बड़ा कलेजा चाहिए इस खोल को फाड़कर सृष्टि का सीधा आघात अपनी चेतना पर झेलने के लिए । यह साहस योगी को सहज सिद्ध हो जाता होगा; किंतु मुझे ऐसा लगता रहा है कि कवि का कवित्व भी कहीं इस प्रक्रिया से जुड़ता है ।’ आगे वे इन दोनों के बीच फ़र्क भी बताते हैं ‘कवि का संघर्ष भाषा के सीमांतों से है । पर वह यह तोड़ फोड़ मचाने के बाद फिर से भाषा में लौट आ सकता है । जबकि योगी या संत वापस नहीं आना चाहता- उसी भूमिका पर बने रहना चाहता है ।’ इसी क्रम में उन्हें संतों की वाणी की याद आती है । इनकी विशेषता का संकेत सा करते हुए वे कहते हैं ‘यह जो सामान्य चेतना और सामान्य भाषा के सीमांतों को भेदकर अव्यक्त को भी व्यक्त कर दे सकने की और इस तरह भाषा के फ़्रंटियर्स को और आगे खींचने बढ़ाने की सामर्थ्य है, उसकी बात । तब फिर, जिस व्यक्ति में योगी होने के साथ साथ अपने कवित्व को भी साधने की जिद है, वह यदि इसी जिद के चलते जीवन संसार को ही रूपांतरित कर देने की, बदल देने कि संभावना की शोध करता है और अपने कवित्व को ऐसी शोध का उपकरण या साधन बनाता है, तो इसमें अजब क्या है ?’
अपने साथ होने वाली कुछ रहस्यमय क्रियाओं को लेखक ने दर्ज किया है । मसलन 6 नवंबर 1972 का इंदराज ‘ये शक्ति की तरंगें नहीं तो क्या हैं जो मेरे स्नायु तंत्र से खेलती हैं !---सारे शब्द ओछे पड़ जाते हैं जिस अनुभव का बखान करने के लिए उसे क्या कहूँ ?---कभी कभी अद्भुत शांति का अनुभव होता है । भीतर लहर लेती ऊर्जा तरंगों का खेल नहीं; बस संपूर्ण निश्चलता और शांति ।’ लेकिन फिर ‘किंतु यह अवस्था उतनी ही देर क्यों टिकती है ? बाद में, जब आप ध्यान से बाहर निकलकर अपने दैनिक जीवन संसार में लौटते हैं तब वह सुलभ क्यों नहीं रहती ?’ दोबारा 12 नवंबर को अपने द्वंद्व को दर्ज किया ‘बड़ा डर लगता है, ध्यान में चरितार्थ अपनी असामान्य शांति और निरुद्विग्न अवस्था को स्मरण करके उनको लिपिबद्ध करने का उपक्रम करना ।---सबसे ज्यादा उद्विग्न करने वाली बात यह, कि यह सिर्फ़ याद करना है; उसे पुनरुपलब्ध करना नहीं । वह अवस्था वहीं की वहीं क्यों रह जाती है ? सामान्य जीवन को आलोकित रूपांतरित क्यों नहीं करती ?’ उसी दिन की टीप में असली समस्या प्रकट हुई है ‘तुम साहित्य को नहीं छोड़ सकते । तुम्हें यह ध्यान योग भी चाहिए और वह कागज कलम वाला ध्यान भी चाहिए । और तुम्हारी जिद है कि दोनों को आपस में जुड़ जाना चाहिए । जबकि तुम्हारा अनुभव यह है कि दोनों एक दूसरे के विरुद्ध जाते हैं ।’ अपने आप को संबोधित यह संशय ही इस डायरी की टेक है । एक ओर साहित्य तो दूसरी ओर अंतर्मन । पता नहीं कैसे लेखक ने इस कशमकश पर विजय पाई क्योंकि इसमें फिर 82 की प्रविष्टियाँ शुरू हो जाती हैं । लेकिन बाद की टिप्पणियों के लिए 72 की टीपों से भूमिका जरूर तैयार हो जाती है ।
रमेशचंद्र शाह के प्रिय कवि जयशंकर प्रसाद हैं । ‘छायावाद की प्रासंगिकता’ में विस्तार से उन पर विचार किया गया है । इसके अलावा साहित्य अकादमी के लिए उन्होंने प्रसाद पर एक मोनोग्राफ़ भी लिखा है । उनसे संबंधित इंदराज समूचे साहित्य के बारे में शाह जी के दृष्टिकोण का खुलासा करती है । लिखते हैं ‘प्रसाद का कृतित्व भारतीय भाव बोध और भारतीय विश्व दृष्टि की शर्तों पर आधुनिक विश्व को आत्मसात करने की आत्मविश्वासपूर्ण प्रक्रिया को भी झलकाता है । यह सांस्कृतिक आत्मविश्वास इकहरी आत्मतुष्टि से उपजा हुआ नहीं है; आलोचनात्मक बुद्धि भी उसमें सक्रिय है बराबर । विलक्षण व्यक्तिमत्ता से उत्तरोत्तर निर्वैक्तिक आत्म दर्शन और विश्व दर्शन तक की यात्रा इसमें देखी जा सकती है । साथ ही उसमें एक ऐसा इतिहास बोध भी उत्तरोत्तर गहराता प्रतीत होता है जो आज के भारतीय लेखक बौद्धिक के लिए बड़ा प्रेरक अर्थ रखता है ।’ साफ है कि उनकी भारतीयता सांस्कृतिक स्तर पर पश्चिम विरोध की जानी पहचानी भूमि पर खड़ी होती है । प्रसाद जी तो मात्र बहाना हैं । इसकी पुष्टि इसी टीप में युवा लेखकों पर एक कड़ी बात से होती है । वे कहते हैं ‘---युवा आवेगों के ढल जाने के बाद जीवनानुभव और यथार्थ ज्ञान की प्रौढ़ावस्था के साथ कवि धर्म को निबाहते चलना जिस भाविक परिपक्वता की माँग करता है, उसका प्रमाण हमारे अधिकांश कवि (कवि ही क्यों, कथाकारों पर भी यह आलोचना उतनी ही सख्ती से लागू होगी) नहीं देते लगते । इस भाविक नपुंसकता की क्षतिपूर्ति वे या तो दादागिरी (हाँ, साहित्य में भी दादागिरी सर्वथा मान्य और प्रचलित है) से, राजनीतिक प्रतिबद्धता के पुण्य लोलुप प्रदर्शनों से करते हैं, या फिर दार्शनिकता झाड़ने लगते हैं ।’ इस प्रसंग में उनकी भाषा का तीखापन ही प्रतिबद्धता से उनकी चिढ़ को बता देता है ।
बहरहाल 72 के बाद डायरी सीधे 82 में प्रवेश कर जाती है । यहाँ उनकी प्रारंभिक आध्यात्मिक रुचि कला की समझ में व्यक्त होने लगती है । एक मामले में यह बदलाव अच्छा लगता है क्योंकि फिर देशी और विदेशी संदर्भों में कला के विभिन्न रूपों का साक्षात्कार पाठकों को होता चलता है । लगे लिपटे दोस्तों की दुनिया भी उजागर होती चलती है और आश्चर्य नहीं कि इस दुनिया में अज्ञेय, निर्मल वर्मा, रामकुमार आदि मौजूद पाए जाते हैं । नये दौर के इन भारतविदों के साहचर्य और संबंध तथा थोड़ी मुग्धता भी डायरी में यदा कदा उभर आती है । इन सबके बीच कामन फ़ैक्टर भी डायरी को पढ़ते हुए स्पष्ट होते चलते हैं ।
पहले ही हमने उनकी जिस चिढ़ का जिक्र किया वह बाद में भी उनमें कायम रही है । 15 अक्टूबर 1982 की टीप में बंसी कौल के ‘समुद्र मंथन’ के नाट्य प्रदर्शन पर उनकी प्रतिक्रिया दर्ज है । क्षुब्ध होकर उन्होंने लिखा ‘सस्ता पोलिटिकल रेह्टरिक, आत्मभ्रामक पुण्यात्मा मानसिकता से प्रेरित तथाकथित सोशल क्रिटिसिज्म—बस, मानो इतना काफी है दर्शकों को दो घंटे किसी तरह उलझाए रखने को । नाटक किसी को नहीं चाहिए ।---चाहिए बस तथाकथित सोशलिस्ट रियलिज्म और हुड़दंगी तमाशे का एक वर्णसंकर, बस ।’ स्पष्ट है कि अब उनकी चिढ़ दर्शकों की रुचि की निंदा तक पहुँच गई है ।
उनके लेखन की बड़ी विशेषता उनका आत्मसंशय है । 12 अगस्त 1986 की टीप में एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर वे इसी शैली में दर्ज करते हैं ‘मेरे लेखन से किसी को यह भ्रम हो सकता है कि मैं पश्चिम और पूर्व को दो सर्वथा असंगत विरोधी ध्रुवों के रूप में देखता हूँ और इस तरह सोचता हूँ जैसे पश्चिम में जो कुछ भी है वह एक सरीखा है और पूर्व का उलटा ।’ फिर अपनी ही सफाई देते हुए वे फँस जाते हैं ‘किंतु मेरी दृष्टि कदापि इतनी सरलीकृत विभाजन की नहीं है ।’ साफ़ है कि यह किसी का आरोप नहीं उनके ही मन का द्वैध है । अपनी जटिल दृष्टि की व्याख्या करते हुए भी वे कह ही देते हैं ‘मैं जानता और मानता हूँ कि यह द्वंद्व है तो सही : दो विश्व दृष्टियों का, दो जीवन दर्शनों का ।’ इसके बाद ही दूसरा भी फ़र्क बताते हैं ‘वहाँ वैज्ञानिक प्रयोगशील चिंतन और धार्मिक चिंतन के बीच जिस तरह का तनाव रहा- यहाँ नहीं हो सकता था ।’ अब अगर इसे पश्चिम और पूर्व को विरोधी ध्रुवों के बतौर देखना नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे । वे अपनी जो जटिलता बताते हैं वह भारतविदों के साथ पूर्व के सामंजस्य की है । ‘वहाँ के दार्शनिकों और धर्माचार्यों की अपेक्षा वहाँ के कवियों- उपन्यासकारों के साथ हम तुरंत सहानुभूति स्थापित कर लेते हैं ।’ मानो पश्चिमी साहित्यकार पश्चिम की विचारधारा से सर्वथा स्वतंत्र होकर ताउम्र भारत में ही रहते आए हों ! इसी तर्क पद्धति का अनिवार्य परिणाम आध्यात्मिक भारत की खोज निकलता है जो उनकी डायरी की आगे की प्रविष्टियों में बिखरा पड़ा है ।
88 के आते आते डायरी में इस खोज की शुरुआत होती है । इसके लिए लेखक अनेक यात्राएँ करता है और हरेक यात्रा में उसका पाला किसी न किसी अचंभे से पड़ता है । ऐसी ही एक यात्रा का विवरण 1 अक्टूबर 1988 को लिखा गया है जो बीकानेर की यात्रा में देखे हुए अचंभों से जुड़ा हुआ है । इसमें सदा की तरह उनका संशयी मन भी मौजूद है । ‘अब हम एक चौक में खड़े थे । एक क्षण को लगा मैं रोम पहुँच गया हूँ ।---ऐसी कला, ऐसे कर्मकौशल के पीछे जो कठोर श्रम झलकता है---। इस सौंदर्य और कला के पीछे कितनी तपस्या है, कितनी एकरस आवृत्ति भी !’ फिर वे अचानक सजग हो जाते हैं ‘मैं तो इसके सर्वथा विपरीत सोचता रहा हूँ कि मनुष्य में कुछ है जो यांत्रिकता से उसे उबारता है और उसी का नाम आत्मा है ।’ सामान्य प्रकृति भी उन्हें अचंभे में डालती है ‘आगे पीछे चौतरफ़ा मरुस्थल का विस्तार और ऊपर बदरौंहा आसमान । कौन किसका प्रतिबिंब है, कहना कठिन था । एक सा, बल्कि एक ही पसारा दोनों का ।’ न सिर्फ़ आसमान और जमीन एक ही तत्व का पसारा दिखाई देती है बल्कि योगी अरविंद और मुक्तिबोध भी एक ही नजर आने लगते हैं । नमूना देखिए ‘---औपनिवेशिक ज़हनियत के मारे हमारे बुद्धिजीवियों को अरविंद या मुक्तिबोध सरीखी जीवनदायी और मूलगामी आलोचना की जगह विचारमूढ़ परप्रत्ययनेयता की टेव पड़ गई दीखती है जो आत्म विगर्हणा को ही आत्मालोचना मान बैठती है ।’ मुक्तिबोध हुआ करें सामाजिक प्रश्नों के विचार विमर्श से गायब होने पर चिंतित हम तो उन्हें अरविंद के साथ नाथकर ही मानेंगे ! धर्म के साथ बंधु को इसी देश में “चत्वारि मूर्ख पंडिताः” ने जोड़ा था । करना होगा तो आत्मालोचना करेंगे आत्म विगर्हणा नहीं !
इस खोज में अन्य तमाम चीजों के अलावा सबसे महत्वपूर्ण चीज हाथ लगती है स्वाध्याय आंदोलन । यह बताने की जरूरत नहीं कि सामाजिक सुधार का यह आंदोलन अंततः भाजपाई खेमे में जा पहुँचा है । इस आंदोलन को समझने के लिए एक जुटान हुई थी जिसमें लेखक के साथ धर्मपाल, राजीव वोरा, रमण श्रीवास्तव और वेद प्रताप वैदिक थे । उसके बाद दोबारा हुई बैठक में विद्या निवास मिश्र, निर्मल वर्मा आदि भी जुड़ गए और इस तरह पूरी मित्र मंडली ने स्वाध्याय आंदोलन को अपने तरीके से समझा । निर्मल वर्मा को लेखक ने बड़ी मुद्दे की बात कहते हुए उद्धृत किया है ‘सबसे पहले तो हमें यही देखना चाहिए कि कहीं हम इस निरर्थक मानसिक ग्रंथि से तो पीड़ित और प्रेरित नहीं हो रहे हैं कि कहीं हमें “हिंदू” या हिंदुत्ववादी न समझ लिया जाए । आखिर ऐसा क्यों है कि किसी भी अन्य धर्मावलंबी समाज के बुद्धिजीवियों को तो ऐसी चिंता नहीं सताती; मगर एक हिंदू समाज के बुद्धिजीवी को ही यह चिंता क्यों सताती है ?’ इस समग्र प्रयास का मूल्यांकन सा करते हुए लेखक का कहना है ‘यह तो बात है ही कि अन्य धर्मों की तुलना में हिंदू धर्म का सामाजिक पक्ष कम संवदनशील और परिवर्तन विरोधी बताया जाता रहा है ।’ ध्यान दें बताया जाता रहा है, है नहीं । स्वाध्याय आंदोलन को लेखक इस आलोचना का उत्तर मानता है और कहता है ‘यह एक दूरगामी महत्व की घटना है जिसमें हिंदू समाज और स्वयं जिसे “बिहैवियरल हिंदुइज्म” कहा जाता है- यानी आचरणगत हिंदुत्व उसके भी सार्थक और प्रगतिशील कायाकल्प की संभावनाएँ उजागर हुई हैं ।’ आडवाणी जी यह तो कर ही सके कि बुद्धिजीवी समाज हिंदू समाज जैसी कोटियों में सोचने विचारने लगा था । लेखक ने बताया कि ‘स्वयं इस बुद्धिजीवी समुदाय को भी अपनी समझ का कायाकल्प करने की जरूरत है और “स्वाध्याय” का यह प्रभावशाली प्रयोग उन्हें ऐसा एक अवसर सुलभ कराता है निस्संदेह ।’
लेकिन हाय कि लेखक का यह एजेंडा पूरा नहीं होता है तो वह गाली गलौज पर उतर आते हैं । उनके क्रोध के शिकार न सिर्फ़ ‘सहमत’ छाप कार्यकर्ता वरन साहित्य में विचार और समाज देखने वाले सभी लोग होते हैं । पूछना सिर्फ़ यह है कि भारत को सबको स्वीकार करने वाला और उदारमना बतानेवाले परिभाषा निर्माता मार्क्सवाद और वामपंथ का नाम आते ही संकीर्ण और अनुदार क्यों हो जाते हैं ? कहीं यह उनकी स्नायविक कमजोरी का सबूत तो नहीं ?