Saturday, October 18, 2025

राहुल की नजर में यूरोपीय दर्शन (साइंस की छाया में दर्शन)

 

                                                         

दर्शन दिग्दर्शन’ किताब की भूमिका में ही राहुल जी ने दर्शन के दो दौर गिनाये हैं । इसमें दूसरा दौर 1760 ईसवी के बाद का है जब आधुनिक आविष्कारों का सिलसिला शुरू होता है । इस दौर में उसकी बात की ओर लोगों का ध्यान तभी खिंचता है जब कि वह प्रयोगआश्रित चिंतन-साइंस- का पल्ला पकड़ता है ।  

‘दर्शन दिग्दर्शन’ में यह तीसरा प्रकरण यूरोपीय दर्शन का है । इस प्रकरण की खास बात यह है कि इस्लामी दर्शन के यूरोप तक पहुंचते पहुंचते यूरोप में साइंस का प्रवेश होने लगा था । राहुल जी की इस किताब को पढ़ते हुए ध्यान रखना होगा कि जिस अर्थ में आज विज्ञान का प्रयोग होता है उस अर्थ के लिए वे साइंस का प्रयोग करते हैं । उस समय बहुतेरे धर्मांध ईसाई इस्लामी दर्शन के असर को खत्म करना चाहते थे लेकिन राहुल जी के अनुसार गेलेलियो की दूरबीन, न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण और भाप के इंजन ने चुपचाप यह काम कर दिया । इस संक्षिप्त कथन से भी साबित होता है कि दर्शन का रिश्ता समूचे माहौल से बहुत गहरा होता है ।      

र्शन के इस उभार की शुरुआत राहुल जी ने ल्योनार्दो दा विन्ची से की है जिसे हम सभी चित्रकार के बतौर ही अधिक जानते हैं । इस समय तक आते आते वैचारिक माहौल में स्वतंत्रता की जो मौजूदगी नजर आने लगती है उसका एक कारण राहुल छपाई को भी मानते हैं क्योंकि ‘पोप-पुरोहित परिश्रम से देर में लिखी दो-चार कापियों को जलवा सकते, किन्तु छापे ने सैकड़ों हजारों कापियों को तैयार कर उनके प्रयत्न को बहुत हद तक असफल कर दिया’ ।  न केवल छपाई बल्कि बहुतेरे बदलाव आ रहे थे जिनसे सोच विचार की दुनिया प्रभावित हो रही थी । उसका खाका प्रस्तुत करते हुए राहुल बताते हैं ‘कोलम्बस (1447-1506), वास्को-दा-गामा (1466-1524) ने अमेरिका और भारत के रास्ते खोले । परासेल्सस (1493-1541) और फ़ान हेल्मोन्ट (1577-1644) ने पुस्तक पत्रे की गुलामी को छोड़ प्रकृति के अध्ययन पर जोर दिया । उस वक्त के विश्वविद्यालय धर्म की मुट्ठी में थे, और साइंस-संबंधी गवेषणा के लिए वहाँ कोई स्थान न था; इसीलिए साइंस की खोजों के लिए स्वतंत्र संस्थाएँ स्थापित करनी पड़ीं । लेलेसियो (1577-1644) ने ऐसी गवेषणाओं के लिए नेपल्स में पहली रसायनशाला खोली । 1543 में वेसालियस (1515-64 ईसवी) ने शरीर शास्त्र पर साइंस सम्मत ढंग से पहली पुस्तक लिखी’ । स्वाभाविक है कि ऐसे हालात में ‘धर्म बहुत परेशानी में पड़ा हुआ था, वह मृत्यु के डर से साइंस की प्रगति को रोकना चाहता था’ । इसके विपरीत ‘भारत में अकबर उदारता पूर्वक साइंस वेत्ताओं के खून के प्यासे--ईसाई पुरोहितों और दूसरे धर्मियों के साथ समानता का बर्ताव करते हुए--एक नये धर्म द्वारा उनके समन्वय करने के प्रयत्न में लगा हुआ था’ ।

यूरोप में धर्म और साइंस के बीच की जंग में दर्शन की दो धाराओं का उदय हुआ राहुल जी ने उन्हें इस तरह अलगाया है(1) कुछ का कहना था, कि इन्द्रिय-प्रत्यक्ष, और तजर्बा (प्रयोग) ही ज्ञान का एक-मात्र आधार है, इन्हें प्रयोगवादी कहते हैं आजकल इन दार्शनिकों को अनुभववादी भी कहा जाता है (2) दूसरे दार्शनिक ज्ञान को इन्द्रिय या प्रयोगगम्य नहीं बुद्धिगम्य मानते थे इन्हें बुद्धिवादी कहा जाता है। अंग्रेजी में इन दोनों को क्रमश: एम्पीरिसिज्म और रैशनलिज्म कहते हैं । इन दोनों में शुरुआत वे प्रयोगवादियों या अनुभववादियों से करते हैं । इस धारा की विशेषता है कि वह ‘तजर्बे को ज्ञान का साधन बतलाता है, किन्तु प्रयोग के जरिए जिस सच्चाई को वह सिद्ध करता है वह केवल भौतिक तत्व, केवल विज्ञान तत्व- अर्थात अद्वैत भी हो सकता है- अथवा भौतिक और विज्ञान दोनों तत्वों को मानने वाला द्वैतवाद भी’ । इस दार्शनिक भाषा को थोड़ा खोलने की जरूरत है । जो लोग अनुभव को ही ज्ञान का स्रोत मानते हैं वे केवल भौतिक को मानने वाले हो सकते हैं या वे केवल आत्मतत्व को भी मान सकते हैं । ये दोनों ही अद्वैतवादी होंगे । अनुभव को ही ज्ञान का स्रोत मानने वाले इन दोनों को अलगाकर देखने के कारण द्वैतवादी भी हो सकते हैं । इसमें मार्के की बात यह है कि भौतिकवाद में भी अद्वैत की गुंजाइश है । विज्ञान या आत्मतत्व (इसे चेतना भी कह सकते हैं) में तो अद्वैत माना ही जाता है । अनुभवाश्रित ज्ञान की प्रक्रिया में भौतिक और आत्मतत्व दोनों की मौजूदगी स्वीकार करना द्वैतवाद है ।

अलग अलग दार्शनिकों की बात करते हुए उन्होंने अद्वैत-भौतिकवाद के तहत हाब्स और टोलैंड का जिक्र किया है । हाब्स अंग्रेज थे और इस तथ्य को प्रस्तुत करते हुए राहुल जी कहते हैं ‘जो देश उद्योगधंधे और पूँजीवाद का बानी बनने जा रहा था, यह जरूरी था, कि उसका नंबर स्वतंत्र-विचारकों में भी पहला हो’ । उनके वैचारिक निर्माण में तत्कालीन इंग्लैंड के माहौल के योगदान को स्पष्ट करते हुए राहुल कहते हैं कि सामंतवाद विरोधी क्रामवेल की क्रांति का हाब्स ने विरोध किया और फ़्रांस भाग गये लेकिन ‘उसे यह समझने में देर न लगी, कि गुजरा ज़माना नहीं लौट सकता, और--उसने क्रामवेल से समझौता कर लिया’ । उनके विचारों का सार प्रस्तुत करते हुए राहुल जी बताते हैं कि ‘उसके अनुसार दर्शन कारणों से कार्य और कार्यों से कारण के ज्ञान को बतलाता है ।---दर्शन गति और क्रिया का विज्ञान है, ये गति-ज्ञान प्राकृतिक पिंडों के हो सकते हैं, राजनीतिक पिंडों के भी । मनुष्य का स्वभाव, मानसिक जगत, राज्य, प्राकृतिक घटनाएँ उन्हीं गतियों के परिणाम हैं ।---जिसे हम मन कहते हैं, वह मस्तिष्क या सिर के भीतर मौजूद इसी तरह के किसी प्रकार के भौतिक पदार्थ की गतिमात्र है । विचार या प्रतिबिंब, मस्तिष्क और हृदय की गतियाँ-अर्थात भौतिक पदार्थों की गतियाँ- हैं’ । इस तरह ‘भौतिक तत्त्व और गति ये मूलतत्त्व हैं, वे जगत की हरेक वस्तु- जड़, चेतन सभी- की व्याख्या करने के लिए पर्याप्त हैं’ ।

मनुष्य के प्रति हाब्स की राय को राहुल ने इन शब्दों में उद्धृत करते हुए बताया है ‘मनुष्य हमेशा धन, मान, प्रभुता, या शक्ति की प्रतियोगिता में रहता है; उसका झुकाव अधिक के लोभ तथा द्वेष और युद्ध की ओर होता है । जब उसके रास्ते में दूसरा प्रतियोगी आता है, तो फिर उसे मार डालने, अधीन बना लेने, या भगा देने की कोशिश करता है’ । इन्हीं वृत्तियों के कारण वह मनुष्य को अरस्तू की तरह सामाजिक प्राणी न कहकर उसकी जगह मानव भेड़िया कहता था । ब्रिटेन के ही टोलैंड की राय भी हाब्स से मिलती जुलती थी । वे मानते थे कि ‘भौतिक तत्व शक्ति है, और गति, जीवन, मन, सब इसी शक्ति की क्रियाएँ हैं । चिन्तन उसी तरह मस्तिष्क की क्रिया है, जिस तरह स्वाद जिह्वा का’ ।

इसके बाद वे अद्वैत-विज्ञानवाद के प्रवर्तक के रूप में स्पिनोज़ा का जिक्र करते हैं । उनके यहूदी होने के बारे में सभी जानते हैं । फ़्रांसिसी दार्शनिक देकार्त के प्रभाव से वे स्वतंत्र दार्शनिक चिंतन की ओर आकर्षित हुए । धर्म विरोध के कारण उन्हें यहूदी धर्म से बाहर निकाल दिया गया । नतीजे के तौर पर उन्हें एम्सटर्डम छोड़ना पड़ा और आजीविका चलाने के लिए घड़ीसाज का पेशा अपनाना पड़ा । यही कारण था कि ‘शताब्दियों तक स्पिनोज़ा को नास्तिक समझा जाता था, और ईसाई, यहूदी दोनों उससे घृणा करने में होड़ लगाये हुए थे’ ।

उनके चिंतन की विशेषता बताते हुए राहुल कहते हैं किस्पिनोज़ा पहला दार्शनिक था, जिसने मध्यकालीन लोकोत्तरवाद तथा धर्म-रूढ़िवाद को साफ शब्दों में खंडन करते हुए बुद्धिवाद और प्रकृतिवाद का जबर्दस्त समर्थन किया: हर तरह के शास्त्र या धर्म-ग्रंथ के प्रमाण से बुद्धि ज्यादा विश्वसनीय प्रमाण है । धर्मग्रंथों को भी सच्चा साबित होने के लिए बुद्धि की कसौटी पर ठीक उतरना होगा, जिस तरह कि दूसरे ऐतिहासिक लेखों या ग्रंथों को करना पड़ता है। असल मेंबुद्धि का काम है यह जानना कि, भिन्न-भिन्न वस्तुओं का आपस का क्या संबंध है । प्राकृतिक घटनाएँ परस्पर संबद्ध हैं । यदि उनकी व्याख्या के लिए प्रकृति से परे की किसी लोकोत्तर चीज़ को लाते हैं, तो वस्तुओं का वह आन्तरिक संबंध विच्छिन्न हो जाता है, और सत्य तक पहुँचने के लिए जो एक जरिया हमारे पास था, उसे ही हम खो देते हैं। इसके बावजूदउसका जोर भौतिक तत्त्व पर नहीं बल्कि आत्मतत्त्व पर थाउनका मानना था कि कोई भी वस्तु अपनी सत्ता के लिए अन्य अनगिनत तत्वों पर निर्भर है और वे भी अन्य तत्वों पर निर्भर हैं । इसलिए कोई ऐसा तत्व होना चाहिए जो स्वयं अपना आधार हो और सभी आधेयों को अवलम्ब दे । इसके लिए प्रकृति के परे जाने की जरूरत नहीं है । वह स्वयं सर्वमय, अनन्त और पूर्ण है । वह गतिशून्य नहीं बल्कि सक्रिय परिवर्तनशील है । वही ईश्वर है । मनुष्य उसके गुणों में से दो, विस्तार और चिंतन को जानता है और ये ही भौतिक और मानसिक शक्तियां हैं । भौतिक पिंड और घटनाएं विस्तार गुण की विभिन्न अवस्थाएं हैं और मन तथा मानसिक अनुभव चिंतन गुण की ।

इसके बाद राहुल द्वैतवादियों में लाक का जिक्र करते हैं । वे मानते थे कि प्रयोग या अनुभव से परे कोई वस्तु नहीं होती है । ज्ञान भी विचारों से परे नहीं पहुंच सकता । विचारों को भी वस्तुओं की सत्यता स्वीकार करनी होगी । मतलब उन्हें प्रयोग के विरुद्ध नहीं जाना होगा । उनके अनुसार मन पर छाप पड़ती है । इसी तरह ज्ञान का स्रोत अनुभव होते हैं । ‘इन्द्रियों से प्राप्त वेदना या उस पर होने वाला विचार ही हमें देश-काल विस्तार, भेद-अभेद, आचार तथा दूसरी बातों के संबंध का ज्ञान देते हैं; यही हमारे ज्ञान की सामग्री को प्रस्तुत करते हैं ।’ राहुल जी के मुताबिक लाक दर्शन को प्रकृति के अध्ययन में लगाना चाहते थे ।

बुद्धिवादियों में वे द कार्त और लाइबनिट्ज़ का जिक्र करते हैं । द कार्त को हम देकार्त के नाम से जानते हैं । वे अपने इस महावाक्य के लिए जाने जाते हैं कि मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं । इनके अलावे स्पिनोज़ा का नाम भी इस प्रवृत्ति के तहत लिया जा सकता है लेकिन राहुल जी ने कहा कि उनके दर्शन में विज्ञानवाद और भौतिकवाद का मिश्रण है तथा प्रकृति की वास्तविकता पर कुछ अधिक ही जोर है इसलिए उनका नाम इन दोनों के साथ नहीं लिया गया । देकार्त गणित को उसकी नपी तुली नियमबद्ध प्रक्रिया के कारण बहुत महत्व देता था । उसने प्रत्येक वस्तु पर तो संदेह किया लेकिन अपने होने पर संदेह नहीं किया जा सकता इसलिए माना कि यह सच है । मतलब कि जो स्पष्ट और संदेह से एकदम परे है वह सच है । इस तरह के सच उसे ईश्वर, रेखागणित के स्वयंसिद्ध और नहीं से कुछ नहीं पैदा होने जैसे नियम मिले । ईश्वर को उन्होंने स्वयंसिद्ध मान तो लिया लेकिन उसकी सिद्धि के लिए अलग से भी कोशिश करनी पड़ी उन्होंने इस संसार के भी स्पष्ट और असंदिग्ध अंश को सत्य कहा था और संसार का निर्माण ईश्वर ने किया है तथा संसार अपनी स्थिति को कायम रखने के लिए ईश्वर पर निर्भर है ईश्वर ने संसार के दो भाग बनाये- काया और मन इस काया की गति को आत्मा संचालित करता है दकार्त के समकालीन हाब्स थे लेकिन दोनों के दर्शन एक दूसरे के विपरीत हैं हाब्स प्रत्येक समस्या का समाधान प्रकृति में खोजने के पक्षधर थे काया और मन के स्पष्ट अलगाव की धारणा का असर बहुत लोगों पर रहा उनका कहना था कि ईश्वर ने गति और विश्राम से साथ प्रकृति को पैदा किया जो गति उसने शुरू में पैदा की उसे उसी मात्रा में जारि रखने के लिए उसे लगातार सक्रिय रहना पड़ता है आत्मा या मन का काम संदेह करना, समझना, ग्रहण-समर्थन-अस्वीकार-इच्छा-प्रतिषेध आदि है । इन विचारकों के साथ सत्रहवीं सदी का अंत हो जाता है । इसके बाद अठारहवीं सदी में दर्शन के विकास का वर्णन राहुल करते हैं ।                          

इसके बाद दर्शन का जो भी विकास हुआ उस पर राहुल जी के अनुसार न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत और विश्व की यांत्रिक व्याख्या का गहरा असर पड़ा । साइंस के विभिन्न विभागों में होने वाली खोजों से दुनिया की भौतिकवादी व्याख्या पर लोगों का अधिक भरोसा पैदा हुआ । खगोलशास्त्र, भौतिकी, रसायन, भूगर्भशास्त्र और चिकित्सा की दुनिया की इस अद्भुत प्रगति का विवरण देने के बाद राहुल उसके प्रभाव को ह्यूम जैसे संदेहवादी के साथ ही भौतिकवाद के विरोधी बर्कले और कान्ट तक में देखते हैं । इन सबकी खूबी यह है कि साइंस की प्रगति से जो भौतिकवादी माहौल बन रहा था उसका इन्होंने निषेध नहीं किया बल्कि उनका मकसद इस चुनौती के समक्ष धर्म की रक्षा करना था । बर्कले ने देकार्त, स्पिनोज़ा या लाइबनिट्ज़ से अलग रास्ता अपनाया । ये सभी किसी न किसी रूप में भौतिक तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार करते थे लेकिन बर्कले ने अपने दर्शन द्वारा भौतिक तत्त्वों के अस्तित्व को ही मिटा देना चाहा । उसका कहना था कि मनुष्य के विचार या वेदनाएँ हैं वे किन्हीं बाह्य तत्त्वों की प्रतिकृति या प्रतिबिंब नहीं हैं । विचारों का सादृश्य विचारों से ही होता है । भौतिक पदार्थों और उनके गुणों से अभौतिक विचारों का कोई मेल नहीं होता । ज्ञान का विषय भी हमारे विचार ही होते हैं उनसे परे या बाहर कोई भौतिक तत्त्व ज्ञान का वास्तविक विषय नहीं हो सकता ।

कान्ट को भी राहुल ऐसे ही दार्शनिकों की कोटि में रखते हैं जो भौतिकवाद की चुनौती से धर्म की रक्षा करना चाहते थे । उसके समय तक साइंस का विकास और उसके प्रति शिक्षितों का सम्मान इतना बढ़ गया था कि उसकी पूरी तरह अवहेलना संभव नहीं थी । हालांकि वह भौतिकवाद का विरोधी था फिर भी उसे घुमावदार रास्ता अपनाना पड़ा । वह भाग्यवद, भावुकतावाद या मिथ्या विश्वास का विरोधी था । उस समय तक इंग्लैंड और फ़्रांस में सामन्तवाद को खत्म करके पूँजीवाद की ओर प्रगति की शुरुआत हो चुकी थी । खासकर फ़्रांस में वोल्तेर और रूसो जैसे अधार्मिक विचारकों की प्रतिष्ठा हो रही थी । रूसो के साथ समानता के विचार लोकप्रिय हुए और दोल्वाश ने भौतिकवादी नजरिए को प्रमुखता दी थी । कान्ट को लगा कि धर्म की चहारदीवारी को बढ़ाकर ही ईश्वर, कर्मस्वातंत्र्य और आत्मा के अमरत्व जैसे सिद्धांतों की रक्षा की जा सकती है । उन्होंने मानव बुद्धि को अनुभव पर आधारित माना और कहा कि इसके सहारे बुद्धि बहुत दूर तक जा सकती है लेकिन उसकी गति अनन्त तक नहीं हो सकती । यही उसकी सीमा है । ईश्वर, परलोक या परजीवन इस नाते अनुभव की सीमा से बाहर हैं । उनके बारे में तर्क नहीं हो सकता । तर्क से वे न तो सिद्ध हो सकती हैं और न ही उनका खंडन किया जा सकता है । उन्हें श्रद्धा के साथ माना जा सकता है । सैद्धांतिक रूप से यह श्रद्धा कमजोर मालूम होती है लेकिन व्यवहारमूलक होने से बहुत प्रबल होती है । इन सबमें विश्वास से व्यक्ति और समाज में संयम का प्रचार होता है यही इनको मानने के लिए काफी है ।

कान्ट वस्तु निज रूप को अज्ञेय मानते थे । उनके इस तर्क का परिचय देते हुए राहुल बताते हैं कि कान्ट के मुताबिक वास्तविक ज्ञान सार्वदेशिक और आवश्यक होता है । इंद्रियों से इस ज्ञान का मसाला मिलता है जिसे मन अपने स्वभाव के अनुकूल तरीकों से क्रमबद्ध करता है । ईसी वजह से जो ज्ञान हमें मिलता है वह वस्तुएँ- अपने- भीतर जैसी हैं, वैसा नहीं होता । इस तरह कान्ट वस्तुओं के निज रूप को लगभग अज्ञेय ठहरा देता है । इसे राहुल ने कान्ट का सन्देहवाद कहा है । अनुभव से जो कुछ आता है उन्हें मन अपने स्वभाव के अनुरूप ग्रहण करता है । इस तरह मन का अपना निर्णय बाह्यार्थ से असंबद्ध होता है । राहुल के मुताबिक कान्ट कहते हैं कि ज्ञान विधि या निषेधात्मक निश्चय के रूप में प्रकट होता है । यदि यह निश्चय सार्वदेशिक और आवश्यक नहीं है तो वह साइंस-सम्मत नहीं हो सकता । असल में किसी भी वस्तु को प्रत्यक्ष करने के लिए उसके भौतिक तत्त्व या उसके भीतर की वेदना और आकार को बुद्धि देशकाल के चौखटे में क्रमबद्ध करती है । इस तरह मन या आत्मा अपनी आत्मानुभूति की शक्ति द्वारा वस्तुओं को प्रत्यक्ष करता है । तभी वह अपने से बाहर देश और काल में रंग को देखता है या शब्द को सुनता है । उनका कहना है कि वस्तुओं के न होने पर भी मनुष्य का मन देशकाल को स्वतंत्र वस्तु के तौर पर प्रत्यक्ष करता है । आन्तरिक मानस क्रिया काल की सीमा के भीतर होती है तो बाहरी इंद्रिय-ज्ञान देश की सीमा के भीतर होता है । हमारी इंद्रियाँ जिस प्रकार विषयों को ग्रहण करती हैं वे इंद्रियों के ही स्वरूप या क्रियाएँ हैं । स्पष्ट है कि बाहरी जगत का संबंध इंद्रियों से होता है । वे उसकी सूचना मन को देती हैं और मन उसकी व्याख्या स्वेच्छा से करता है । इंद्रियों का संपर्क वस्तुओं के बाहरी दिखावे से होता है । इसी की सूचना के बल पर मन वस्तु की व्याख्या करता है । इसलिए वस्तु निज रूप का ज्ञान इंद्रिय या अनुभव का विषय नहीं है । वह इंद्रिय की सीमा से परे होता है । प्रत्यक्ष से या तो हमें वस्तु की आभा मिलती है या उसके संबंध का ज्ञान होता है । यह ज्ञान वस्तु निज रूप का नहीं होता । उसके होने का पता आन्तरिक आत्मानुभूति से लगता है । इस तरह उसका ज्ञान इंद्रियों की सीमा के परे हो जाता है । ऐसी चीजों को राहुल ने सीमापारी कहा है ।  

सीमा के परे की ऐसी ही चीजों में कान्ट ने आत्मा को भी शामिल किया है । उनका कहना है कि आत्मा का ज्ञान या साक्षात्कार तो नहीं किया जा सकता लेकिन उसके अस्तित्व पर मनन किया जा सकता है । इस आत्मा को सीधे इंद्रियों की सहायता से हम नहीं जान सकते क्योंकि वह सीमा के परे या इंद्रिय-अगोचर है । सीमा के परे की इस तरह की वस्तुओं का होना भी संभव है । इस तरह वस्तु निज रूप अज्ञेय तो है लेकिन है जरूर क्योंकि बाहरी जगत या वस्तु की जिस आभा का ज्ञान हमें होता है उसके पीछे वस्तु निज रूप जरूर है जो मन से परे की चीज है, हमारी इंद्रियों को प्रभावित करता है और हमारे ज्ञान के लिए विषय प्रस्तुत करता है । इस वस्तु निज रूप (इसे राहुल वस्तुसार भी कहते हैं) के बिना वह झाँकी नहीं मिलती जिसकी बुनियाद पर हमारा सारा ज्ञान खड़ा है । राहुल के अनुसार कान्ट ने बुद्धि और समझ में भी अंतर किया है । समझ इंद्रियों द्वारा लायी सामग्री अर्थात वेदना पर आधारित है लेकिन बुद्धि इस समझ से परे जाती है और इंद्रिय-अगोचर ज्ञान को उपलब्ध करना चाहती है । बुद्धि की साधारण क्रिया को समझ कहते हैं जो हमारे अनुभवों को नियमों और सिद्धांतों के अनुसार एक दूसरे के साथ संबंध कराती है और इस प्रकार हमें निश्चय प्रदान करती है । निश्चय के ये संबंध इंद्रिय-गोचर विषयों में ही हैं, सीमापारी विषयों में नहींम । इस तरह कान्ट ने भी वही काम किया जो बर्कले ने किया था । यदि बर्कले ने भौतिक तत्त्वों के अस्तित्व का ही खंडन किया तो कान्ट ने भौतिक तत्त्वों के ज्ञान की सच्चाई पर संदेह पैदा कर दिया । राहुल जी ने कान्ट की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए हाइनरिख हाइने की राय का सहारा लिया है जिसके मुताबिक कान्ट ने ईश्वर को निर्वासित करने के बाद चोर दरवाजे से उसका प्रवेश करा दिया ।

इसके बाद राहुल जी ने ह्यूम के संदेहवाद का जिक्र किया है । ह्यूम तक पहुंचने के रास्ते का जिक्र करते हुए राहुल ने बर्कले से शुरू किया जिसने बुद्धि की आंख में धूल झोंककर वस्तु सत्य को मिटाकर ईश्वर, धर्म, आत्मा, फ़रिश्तों को चुपके से सामने ला बैठाया । कान्ट को यह कोशिश भोंड़ी लगी इसलिए उसने भौतिक तत्त्व की सत्ता को आंशिक सत्य के रूप में स्वीकार किया लेकिन असली तत्त्व को सीमापारी और अज्ञेय बना दिया । इसी क्रम में ह्यूम आते हैं । राहुल के मुताबिक उन्होंने बीच का रास्ता निकाला । उनके अनुसार हम जो कुछ जान सकते हैं वह है हमारी अपनी मानसिक छाप का संसार । इसमें प्रत्यक्ष के साथ अनुमान भी शामिल है । इसके आगे के ज्ञान का हमारे पास कोई साधन नहीं है । हमारे ज्ञान की सारी सामग्री बाहरी और भीतरी वस्तुओं के स्पर्शों से प्राप्त होती है । हमारे सभी मनोभाव जब जब आत्मा में पहले-पहल प्रकट होते हैं तो सबसे सजीव साक्षात्कार स्पर्श ही हैं । बाहरी स्पर्श आत्मा के भीतर अज्ञात कारणों से पैदा होते हैं । इसी तरह भीतरी स्पर्श अधिकतर हमारे विचारों से आते हैं । ज्ञान से संबद्ध दूसरी महत्वपूर्ण चीज ये विचार ही हैं । ये असंबद्ध या संयोगवश मिले हुए नहीं होते । उनके बीच की एकता को ही विचार-संबंध कहा जाता है । कार्य और कारण का संबंध ह्यूम नहीं मानते । वे इन्हें बस एक दूसरे के बाद होता हुआ घटनाक्रम देखते हैं । ह्यूम का संदेहवाद इस बात में है कि ज्ञान का आधार प्रत्यक्ष है और इसमें वस्तु की केवल बाहरी सतह और उसमें भी एक भाग का ही प्रत्यक्ष होता है । दार्शनिक विचार या आत्मानुभूति से अधिक जानने की कोई आशा नहीं क्योंकि दार्शनिक निर्णय भी साधारण जीवन का नियमित और शोधित प्रतिबिंब मात्र है । इस तरह हमारा ज्ञान सतही यानी ऊपरी होता है और उससे किसी चीज की वास्तविकता नहीं स्थापित हो सकती । जिसे आत्मा कहा जाता है उसमें भी प्रत्यक्ष ही मिलता है । वहां शुद्ध अनुभव कभी नहीं मिलता । इसी कारण आत्मा को साबित नहीं किया जा सकता । उनका समग्र मूल्यांकन करते हुए राहुल कहते हैं कि हालांकि ह्यूम ने बर्कले और कान्ट के तर्कों पर काफी प्रहार किया और दर्शन को धर्म का पिछलग्गू बनने से रोकने का प्रयास किया लेकिन दूसरी ओर ज्ञान को असंभव भी बना दिया ।

भौतिकवाद के विरोधी इन तीनों चिंतकों का परिचय देने के बाद राहुल जी ने उस समय के भौतिकवाद का उल्लेख किया है और कहा है कि भौतिकवादियों को बहुत परिश्रम की जरूरत नहीं थी क्योंकि समूचा साइंस ही भौतिकवाद को आगे बढ़ा रहा था । उस समय के भौतिकवादी हर्टली की मान्यता थी कि मनोविज्ञान भी शरीर का एक अंश है । इसी तरह दकार्त की निम्न श्रेणी के प्राणियों के बारे में इस मान्यता ने कि वे चलते-फिरते यंत्र भर हैं ने भी भौतिकवाद के विकास में मदद की । राहुल ने ला-मैत्री की इस धारणा का उल्लेख किया है कि अगर यह बात निम्न शेणी के प्राणियों के लिए सत्य है तो फिर मनुष्य में भी आत्मा की कोई जरूरत नहीं रह जाती । इसी तरह की बात शरीर और आत्मा की एकता के सहारे भी कही गयी और माना गया कि भौतिक तत्त्वों के नियम मानसिक आचारिक घटनाओं पर भी लागू होते हैं ।

इसके बाद राहुल उन्नीसवीं सदी के दर्शन का जायजा लेते हैं । अठारहवीं सदी में साइंस का प्रारम्भ हुआ था लेकिन उसके बाद उन्नीसवीं सदी में उसके विकास और विस्तार और गति में तीव्र बढ़ोत्तरी हुई । इस समय दर्शन को साइंस की सहायता जरूरी लगी थी और यह सहायता उसने बिना हिचक ली । खगोल, गणित, भौतिकी, रसायन और प्राणिशास्त्र संबंधी खोजों और प्रगति का राहुल विस्तार से उल्लेख करते हैं । नये ग्रहों-उपग्रहों की खोज, बेहतर ज्यामिति, परमाणु और एलेक्ट्रान, बिजली की सार्वजनिक पहुंच, जीवाणु, बेहोशी की दवा और जीवन विकास का सिद्धांत इनमें से कुछेक हैं । इस माहौल में भौतिकवाद के विरोध की धारा में फ़िख्टे, हेगेल, शोपनहार के साथ ही शेलि और नीट्शे जैसे दैतवादी बुद्धिवादी, स्पेन्सर जैसे अज्ञेयवादी और मार्क्स जैसे भौतिकवाद के समर्थक दार्शनिक का जन्म हुआ ।

फ़िख्टे के बारे में राहुल बताते हैं कि कान्ट ने वस्तुसार को सीमापारी अगम्य वस्तु साबित किया था । फ़िख्टे ने उसे भी मन की ही उपज कहा । इसको साबित करने के लिए फ़िख्टे के तर्क का परिचय देते हुए राहुल बताते हैं कि फ़िख्टे के अनुसार समस्त अनुभव और मन के आकार परम आत्मा से उत्पन्न हुए हैं लेकिन उनकी उत्पत्ति में वैयक्तिक मन ने भी भाग लिया है । असल में परम आत्मा ने अपने को ही ज्ञाता और ज्ञेय में बांट लिया है क्योंकि आत्मा के आचारिक विकास के लिए ऐसे बाधा डालने वाले पदार्थों की जरूरत है जिनको आत्मा प्रयत्न से पार करे । इसके लिए परम आत्मा को अनेक आत्माओं में विभाजित होना पड़ता है । ऐसा न होने से इन आत्माओं को अपना कर्तव्य पूरा करने का अवसर नहीं मिलेगा । अलग अलग आत्माओं में परम आत्मा का ही प्रकाश है । यह परम आत्मा स्थिर नहीं बल्कि सजीव प्रवाह है ।     

बीसवीं सदी में साइंस की प्रगति और भी तेज हुई । जब उसका असर मनुष्य के ज्ञान के विस्तार में निकला तो ईश्वर और धर्म जैसी धारणाओं की रक्षा के लिए दर्शन की जरूरत पड़ी । कभी कभी ही इसमें भौतिकवाद का उभार हुआ । बीसवीं सदी में ईश्वरवाद को ह्वाइटहेड का सहारा मिला । उसके साथ यूकेन भी था । इनसे अलग बर्गसाँ और बर्टरंड रसल थे । इन दोनों के अलावे विलियम जेम्स नामक द्वैतवादी दार्शनिक का भी जिक्र राहुल सांकृत्यायन ने किया है ।                                                                                                                          

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