Friday, June 13, 2025

मार्क्सवाद के कुछ नए क्षेत्र

 

                    

                                         

पिछली सदी में मार्क्सवाद के खात्मे के शोर की समाप्ति के बाद नई सदी के आरम्भ में ही कुछ नए लेखकों ने मार्क्सवाद संबंधी सोच विचार के नए क्षेत्र खोल दिए इनमें एक क्षेत्र मार्क्स के लेखन को नए संदर्भों में समझने की दिशा में कोशिशों का था इस नए उभार के सिलसिले में ध्यान देने की बात यह है कि सोवियत संघ के बिखराव से इन चिंतकों ने ऊर्जा ग्रहण की उनका कहना था कि नई पीढ़ी पर पुरानी समस्याओं का बोझ नहीं है वे नए हालात को नई समझ के साथ व्याख्यायित करेंगे और नए दौर के सवालों को हल करने के लिए अपने समय की ताकतों पर भरोसा करेंगे स्वाभाविक है कि इसके लिए उन्हें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में आने वाले बदलावों का केवल संज्ञान लेना पड़ रहा है बल्कि नए आंदोलनों के मुद्दों की पहचान भी करनी पड़ रही है

नये दौर में मार्क्सवाद के अध्ययन के सिलसिले में जो नयी बातें हुई हैं उनमें एंडी और राब लुकास ने अप्रैल 2005 में एक पहल की है जिसमेंमार्क्स: मिथ्स ऐंड लीजेंड्स’  नाम से लेखमाला शुरू हुई है । उनका कहना है कि मार्क्स के लेखन को पिछले डेढ़ सौ सालों में जितने मिथकों का शिकार होना पड़ा है उतना किसी भी अन्य विचारक के साथ नहीं हुआ है इसलिए उनके आलोचनात्मक अध्ययन के लिए इनकी सफाई जरूरी है । वैसे तो इसमें ज्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि उनका समस्त लेखन उपलब्ध है लेकिन इसकी इच्छा बहुतेरे लोगों को नहीं होती । असल में इन मिथकों के निर्माण का कारण उनकी अपार सफलता है । उनका नाम बीसवीं सदी को न केवल बदलने बल्कि परिभाषित करने वाले युगांतरकारी आंदोलन का पर्याय बन गया । कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को उनके प्रति निष्ठा सिद्ध करनी पड़ती जबकि उनके विरोधी सभी तरह की नफरत भरी चीजों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराते । उनके लेखन की व्याख्या अनिवार्य रूप से राजनीतिक होती, निस्संग अध्ययन संभव नहीं रह गया । कहने का मतलब यह नहीं कि आंदोलनों ने उनकी तथाकथित शुद्धता को दूषित कर दिया, न ही किसी सहीमार्क्स को उनकी विरासत का दावा करने वाले बीसवीं सदी के संघर्षों के बरक्स खड़ा कर दिया जाय । विकृतियों की सफाई के नाम पर किसी एकाश्मी मार्क्स को इतिहास की धूल धक्कड़ से बचाकर मार्क्सवादसे पूरी तरह से अलगाना ठीक नहीं होगा । फिर भी उनके लेखन और इतिहास पर ध्यान देने से ढेर सारी चीजों पर भ्रम दूर हो सकते हैं । मार्क्स के बारे में जिन मिथकों का निर्माण हुआ है वे दो तरह के हैं । एक तो वे जिनका प्रचार समाजवाद के विरोधियों ने दुर्भावनापूर्वक किया । दूसरे वे जिनका निर्माण उनके अनुयायियों ने किया । इनका निर्माण अनेक ऐतिहासिक कारकों के चलते हुआ और इसकी जिम्मेदारी तय करना जटिल काम है । कुछ मिथ इन दोनों में साझा भी हैं । इससे जुड़ा हुआ खंड उन मिथकों का है जो मार्क्स को राजकीय समाजवादका निर्माता ठहराते हैं । विरोधियों द्वारा प्रचारित मिथकों का बड़ा हिस्सा उनके चरित्र हनन के मकसद से जुड़ा हुआ है इसलिए इनका दूसरा खंड मार्क्स के चरित्रसे जुड़े मिथकों का है । इसके तहत उन्हें महत्वोन्मादी, मरखाहा, यहूदी-विरोधी और नस्लवादी, घमंडी, स्त्रीलोभी, उबाऊ लेखक और दूसरों के लिखे की नकल मारनेवाला साबित किया गया । उनके बारे में बने मिथकों के खंडन के लिए ध्यान से तथ्यों को देखना होगा । असल में मार्क्स के विचारों का निर्माण जिन संदर्भों में हुआ उनसे पूरी तरह भिन्न संदर्भों में उनका अभिग्रहण हुआ । मिथक निर्माण की एक बड़ी वजह शायद यह भी है । असल में मार्क्स के सोचने का तरीका उनके समय के भी प्रचलित बौद्धिक तरीकों से काफी अलग था । उनके मूल पाठकों में से अधिकतर लोग उस आलोचनात्मक चिंतन धारा से अपरिचित थे जिसमें युवा हेगेलपंथियों का बौद्धिक विकास हुआ था । इसलिए जो कुछ उन्होंने लिखा उसे तत्क्षण ही उन्नीसवीं सदी में प्रचलित समाजवाद के संदर्भ में समझा गया और उसके हेगेलपंथी पहलुओं की उपेक्षा हुई । इसके कारण मार्क्स को उन्नीसवीं सदी के समाजवाद और प्रत्यक्षवाद से जोड़कर देखने की गलतफहमियों का जन्म हुआ । इसी से आर्थिक निर्धारणवादी व्याख्याओं का भी जन्म हुआ । इन मिथकों को चिन्हित करने के बाद इस परियोजना के संचालकों ने उम्मीद जताई है कि भविष्य में अन्य विषयों पर भी साफ सफाई होगी ।

इस परियोजना के तहत विभिन्न मिथों की सफाई में जिन लोगों के लेख संकलित हैं वे हैं- 1) राजकीय समाजवाद के साथ मार्क्स को जोड़ने के मिथ, जिसके सिलसिले में परेश चट्टोपाध्याय और हाल ड्रेपर के लेख हैं । 2) मार्क्स के चरित्र के बारे में मिथ, जिनके सिलसिले में फ़्रांसिस ह्वीन, टेरेल कारवेर, हाल ड्रेपर और हम्फ्री मैकक्वीन के लेख हैं । 3) उन्नीसवीं सदी के समाजवाद और प्रत्यक्षवाद के साथ मार्क्स को जोड़नेवाले मिथों के सिलसिले में जान हैलोवे और सीरिल स्मिथ के लेख हैं । 4) द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के मिथों के सिलसिले में ज़ेड ए जोर्डन और मैक्समिलियन रूबेल के लेख हैं । 5) मार्क्सवाद के अन्य मिथों के सिलसिले में हैरी क्लीवर, पीटर स्टिलमैन, सीरिल स्मिथ और क्रिस्टोफर जे आर्थर के लेख हैं । 6) सबसे अंत में हालिया मिथों के सिलसिले में क्रिस्टोफर जे आर्थर, जोसेफ मैककार्नी और लारेंस विल्डे के लेख प्रस्तुत किए गए हैं । हालांकि कुछ लेख निश्चित ही भ्रम दूर करते हैं लेकिन इन लेखों पर सोवियत परंपरा के मुकाबले पश्चिमी दुनिया के विद्वानों के बीच प्रचलित बहसों की छाया है ।  

परियोजना के तहत उपलब्ध लेखों में से एक मैक्समिलियन रूबेल द्वारा ‘द लीजेंड आफ़ मार्क्स, आर “एंगेल्स द फ़ाउंडर”’ शीर्षक से लिखित है । इन्होंने मार्क्स की एक जीवनी भी ‘मार्क्स विदाउट मिथ्स’ नाम से लिखी है । उक्त लेख में रूबेल ने मार्क्स के विचारों के प्रसंग में एंगेल्स की भूमिका की जांच-पड़ताल की है । उन्होंने मार्क्स के अधूरे काम को संपादित करने में एंगेल्स की क्षमता पर सवाल उठाया है । असल में उनका एतराज ‘मार्क्सवाद’ की प्रस्तुति पर है । साथ में उन्होंने इस मान्यता को भी परखने की कोशिश की है जिसके मुताबिक मार्क्स के मुकाबले एंगेल्स द्वंद्ववादी पद्धति में कम कुशल थे । लेखक मार्क्सवाद की कोटि को ही बनावटी मानते हैं । उनके अनुसार कार्ल कोर्श ने ‘टेन थीसिस आन मार्क्सिज्म टुडे’ में इसी भ्रम में बार बार ‘मार्क्स-एंगेल्स की शिक्षा’, ‘मार्क्स के सिद्धांत’,’मार्क्सवादी सिद्धांत’, ‘मार्क्सवाद’ आदि का व्यवहार किया है । पांचवीं थीसिस में तो उन्होंने संस्थापकों में एंगेल्स का नाम भी नहीं लिया । लेखक का प्रस्ताव है कि ‘मार्क्सवाद’ पद को छोड़ देना ही उचित होगा । आश्चर्यजनक नहीं कि इन्होंने हीमार्क्सोलोजीपदबंध का आविष्कार किया जिसे आजकलमार्क्सवादकी जगह इस्तेमाल किया जाता है । इसी तरह के नजरिए से आजकल मार्क्स के लेखन-चिंतन पर सोच-विचार हो भी रहा है ।

पूंजीवाद ने जिस तरह प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट मचाई उसके कारण पर्यावरण एक महत्वपूर्ण सरोकार के रूप में उभरा है । इस मोर्चे पर पहले तो पर्यावरण के आंदोलनकारियों और मार्क्सवादियों के बीच आपसी संदेह का वातावरण रहा लेकिन फिर संवाद शुरू हुआ इस संवाद की दिशा में सबसे पहले जिस किताब का जिक्र जरूरी है वह है 1999 में मंथली रिव्यू प्रेस से जान बेलामी फ़ास्टर की किताबद वल्नरेबल प्लैनेट: ए शार्ट इकोनामिक हिस्ट्री आफ़ द एनवायरनमेंटके नए संस्करण का प्रकाशन । भूमिका में फ़ास्टर ने उस प्रक्रिया का वर्णन किया है जिसके जरिए वे पर्यावरण की चिंता के करीब आए । 1950 और 1960 के दशक में वे ऐसे इलाके में रहे जो अपने पर्यावरण की गुणवत्ता के लिए मशहूर था । जब अप्रैल 1970 में पहली बार पृथ्वी दिवस मनाया जा रहा था तो वे इसमें शामिल तो हुए लेकिन बहुत मन से नहीं । उस समय उनकी चिंता के केंद्र में वियतनाम युद्ध था । लगता था कि जहां नापाम बम बरसाए जा रहे हैं वहां पर्यावरण की बात अय्याशी है । 1970 दशक के मध्य से 1980 दशक के मध्य तक आर्थिक संकट और तीसरी दुनिया के अल्पविकास के बारे में वे सोचते बोलते रहे । रीगन युग में आर्थिक गतिरोध का बोझ मजदूरों, बेरोजगारों, महिलाओं, अश्वेतों और तीसरी दुनिया की जनता की पीठ पर लादने का विरोध करना अधिक जरूरी लगता था । पूंजीवाद का विरोध मानवता की रक्षा का निर्णायक रूप प्रतीत होता था । लेकिन धरती के भविष्य के साथ जोड़कर इसको देखने में मुश्किल पेश आती थी । एक दशक तक बाहर रहने के बाद 1985 में जब वे फिर अपने बचपन के रहने की जगहों पर गए तो उनके सम्मुख पर्यावरणिक संकट के वैश्विक आयाम स्पष्ट हुए । वहां ऐसे बदलाव आ चुके थे जिन्हें पलटना संभव नहीं रह गया था । जिस जंगल में दुनिया के सबसे पुराने और लंबे पेड़ थे उसे भयानक रफ़्तार से काटा जा रहा था । जो नदी थी उसकी धारा सूखने की कगार पर थी । उल्लुओं से लेकर मछलियां तक विलुप्त होने की स्थिति में थे । परमाणविक संशाधन के लिए जो परिक्षेत्र निर्मित किया गया था वह रेडियोधर्मी प्रदूषण का दुनिया का सबसे खतरनाक स्रोत साबित हुआ । आर्थिक विस्तार की ताकतों और पर्यावरणवादियों के बीच हर जगह युद्ध छिड़ा हुआ था । 1980 दशक के उत्तरार्ध में ही तापवृद्धि, ओज़ोन परत के छीजने, उष्णकटिबंधीय जंगलों के खात्मे से पैदा होने वाले खतरों और विभिन्न प्रजातियों के लोप के प्रति सचेतनता तेजी से बढ़ी । इन सबका प्रभाव यह हुआ कि उन्हें धरती के लिए बढ़ते खतरों के बारे में सोचने के लिए बाध्य होना पड़ा । उनका कहना है कि लेकिन इस पर्यावरणिक सचेतनता से युवावस्था के मेरे सामाजिक सरोकारों में कोई कमी नहीं आई । जो लोग सामाजिक विषमता को दूर करने में अपनी पूरी ताकत लगाए हुए थे वे पर्यावरणिक न्याय की लड़ाई में भी शामिल हुए । 1970 और 1980 के दशक में युद्ध, आर्थिक विषमता और तीसरी दुनिया का अल्प विकास जैसी परिघटनाओं ने उनका ज्यादातर ध्यान खींचे रखा था । अब उन्हें महसूस हुआ कि ये परिघटनाएं पृथ्वी और दुनिया की बहुसंख्यक जनता की जीवन स्थितियों के व्यवस्थित विनाश के व्यापक सवाल से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं । मुख्य धारा के पर्यावरणवाद की प्रमुख समस्या इस संबंध को न समझ पाना है । उनका मत है कि अगर हमें पर्यावरणीय संकट को समझना है तो क्रांतिकारी सामाजिक सरोकारों को छोड़ना नहीं, बल्कि उन्हें इतना व्यापक और गंभीर बनाना होगा ताकि पृथ्वी के विनाश की चिंता भी उसमें समा जाए । बदलाव का कोई भी सक्षम आंदोलन सामाजिक और पर्यावरणिक समस्याओं की आपसी संबद्धता की बुनियाद पर ही खड़ा किया जा सकता है ।

इस सवाल पर एक और किताब की बात करना अप्रासंगिक न होगा । अगले साल 2000 में पालग्रेव मैकमिलन से रोनाल्डो मुन्क लिखित ‘मार्क्स@2000: लेट मार्क्सिस्ट पर्सपेक्टिव्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब न केवल अपने शीर्षक के नाते ध्यानाकर्षक है, बल्कि प्रकृति, विकास, मजदूर वर्ग, स्त्री प्रश्न, संस्कृति, राष्ट्रवाद और उत्तरआधुनिकता जैसे नये समय के सवालों के संदर्भ में मार्क्सवाद को देखने का गंभीर प्रयास भी करती है । भूमिका में लेखक ने बताया है कि किताब के शीर्षक से मार्क्स कंप्यूटर पर एशियाई शेरों के आर्थिक ढांचे के पतन या इंडोनेशिया के सामाजिक विस्फोट या डेनमार्क की आम हड़ताल के बारे में ताजा खबर देखते प्रतीत होते हैं । उन्हें यह सब आशा के अनुरूप ही लगता और उनका विश्लेषण भी वैसा ही तीक्ष्ण होता । कुछ बरस पहले मार्क्स की सदी के अंत की घोषणा करने में कोई समस्या नहीं थी । लगता था कुछ पुरातत्ववेत्ता पुरानी किताबों की दूकान से उनके विचारों को समझने की कोशिश कर रहे हैं । लेकिन अब तो मार्क्स के बिना भविष्य की कल्पना भी मुश्किल हो गई है । किताब का उद्देश्य इस समय के सवालों के संदर्भ में मार्क्स को जिन्दा करना है । इसके लिए लेखक का मानना है कि मार्क्सवाद को महज पूंजीवाद के संकटों और समस्याओं पर सोचने की जगह खुद की समस्याओं की भी छानबीन करनी चाहिए । किताब वर्तमान सवालों के परिप्रेक्ष्य को कभी निगाह से ओझल नहीं होने देती । इसी लिहाज से लेखक ने सबसे पहले मार्क्स की मृत्यु के दावों की परीक्षा की है और पाया कि अगर सही तरीके से देखा-समझा जाए तो मार्क्स अब भी जीवित और कारगर हैं ।

नए चिंतकों में डेविड हार्वे का नाम सबसे महत्वपूर्ण माना जा सकता है । 2000 में एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी प्रेस से डेविड हार्वे की किताबस्पेसेज आफ़ होपका प्रकाशन हुआ । लेखक चूंकि काफी वर्षों से मार्क्स को पढ़ाते रहे हैं इसलिए किताब का पहला अध्याय पीढ़ी दर पीढ़ी मार्क्स की समझ में बदलाव पर केंद्रित है । उनका कहना है कि 70 दशक के पूर्वार्ध में काफी राजनीतिक उत्साह रहा करता था । उस जमाने की उथल पुथल में बौद्धिक-राजनीतिक दिशा की बेचैन तलाश थी । चूंकि अमेरिका में लंबे दिनों तक मार्क्स का नाम प्रतिबंधित जैसा रहा था इसीलिए उनके प्रति आकर्षण भी था । कक्षाओं में युवा अध्यापक और विद्यार्थी शरीक होते थे । जिन लोगों ने बाद में पाला बदल लिया वे भी उन दिनों के रचनात्मक योगदान के लिए कृतज्ञ महसूस करते हैं । विद्यार्थी विभिन्न अनुशासनों और राजनीतिक रुचियों के होते थे । इसके बाद कार्यकर्ताओं और ट्रेड यूनियन नेताओं को भी पढ़ाना पड़ा । उस समय की क्रांतिकारिता का एक तत्व बुद्धिजीवियों द्वारा विरोध का प्रदर्शन भी था । उन्हें शिक्षा संस्थान दमन का केंद्र महसूस होते । किसी भी किस्म की किताबी पढ़ाई को दीक्षा और प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश समझा जाता । उसके मुकाबले वर्तमान परिस्थिति बहुत अलग है । अब अध्यापक नहीं पढ़ने आते, जो विद्यार्थी पढ़ने आते हैं वे भी स्नातक-स्तरीय नहीं होते । बर्लिन की दीवार गिरने से पहले ही 80 दशक के पूर्वार्ध में मार्क्स शैक्षिक और राजनीतिक चलन से बाहर चले गए थे । अस्मिता विमर्श और उत्तर-आधुनिकता के जमाने में मार्क्सवादी परंपरा की भूमिका नकारात्मक समझी जाती थी । इस विचारधारा के विरुद्ध लड़ना जरूरी समझा जाता था क्योंकि भ्रामक रूप से इसे प्रभुत्वशाली माना जाता था । कहा जाता था कि मार्क्स और ‘पारंपरिक मार्क्सवाद’ लिंग, नस्ल, सेक्स, इच्छा, धर्म, नृजाति, औपनिवेशिकता, पर्यावरण आदि अधिक जरूरी सवालों पर कम ध्यान देते हैं । सांस्कृतिक ताकतों और आंदोलनों को भी वर्गीय गोलबंदियों के जितना ही जरूरी माना जाने लगा था । इनमें अनेक आलोचनाएं जायज थीं लेकिन यह कहना नाजायज था कि मार्क्सवादी चिंतन प्रक्रिया इन सवालों पर होने वाले आंदोलनों से दुश्मनी ही रख सकती है । कुल मिलाकर सांस्कृतिक विश्लेषण को राजनीतिक अर्थशास्त्र का स्थानापन्न बना दिया गया था । इसके बाद बर्लिन की दीवार गिरी । 1989 के बाद तो यह कहना कि मार्क्सवाद रुचिकर हो सकता है लुप्तप्राय प्रजाति डायनासोर के जीवित होने पर यकीन करने जैसा महसूस होता था । 90 दशक के पूर्वार्ध में मार्क्सवादी सिद्धांतों में बौद्धिक रुचि भी समाप्त होने लगी थी । लेकिन हार्वे को अब हालात बदले महसूस हो रहे हैं ।

इस समय की एक और विशेषता यह भी है कि न केवल मार्क्स बल्कि पूरी मार्क्सवादी परंपरा का ही पुनरुत्थान हुआ है । इसी क्रम में राबर्ट सर्विस ने लेनिन और रूस की क्रांति से जुड़ी चीजों पर काम किया है । 2000 में मैकमिलन से उनकी किताब ‘लेनिन: ए बायोग्राफी’ का प्रकाशन हुआ । फिर 2002 में पैन बुक्स से उसका प्रकाशन हुआ और 2008 में पैन बुक्स ने ही उसका इलेक्ट्रानिक संस्करण जारी किया । लेखक का कहना है कि सोवियत संघ में कम्यूनिस्ट पार्टी के संग्रहालय को शोध हेतु खोल देने से उन्हें लेनिन की बाकी जीवनियों के मुकाबले ज्यादा सामग्री देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । लेनिन के व्यक्तित्व की उपलब्धियों को गिनाते हुए लेखक ने बोल्शेविक नामक एक गुट को ऐसी पार्टी में बदल देने का उल्लेख किया है जिसने 1917 की क्रांति को संपन्न किया । यह वर्ष उसी क्रांति का शताब्दी वर्ष है । क्रांति के परिणामस्वरूप दुनिया के इतिहास की पहली समाजवादी सत्ता की स्थापना हुई और तमाम विपरीत स्थितियों में भी कायम रही । प्रथम विश्व युद्ध और गृह युद्ध से सफलतापूर्वक देश को निकाला गया । कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल की स्थापना करके पूरे महाद्वीप की राजनीति को इस सत्ता ने प्रभावित किया । इन सबका कारण यह था कि लेनिन का शुरुआती जीवन रूसी समाज के इतिहास के एक विचित्र समय में गुजरा । उन्नीसवीं सदी के उत्तारार्ध में रूसी साम्राज्य बुनियादी बदलाव से गुजर रहा था और उसी के साथ लेनिन की पीढ़ी ऐतिहासिक बदलावों के भंवर में उलझी हुई थी । भौगोलिक रूप से दुनिया का सबसे बड़ा देश अपनी संभावनाओं को खोल और परख रहा था । पुराने सामाजिक और सांस्कृतिक बंधन ढीले पड़ रहे थे । अंतर्राष्ट्रीय संपर्क बढ़ रहा था और रूस की सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उपलब्धियों को सारा संसार अचम्भे से देख रहा था ।    

बदलाव की रफ़्तार फिर भी शिक्षित लोगों को बेहद सुस्त महसूस हो रही थी । उन्हें लगता था कि रूस इतना विराट, इतना विविध और इतना परंपराबद्ध है कि बदल नहीं सकता । रूसी समाज बदलाव का आदी नहीं था । 1861 में अलेक्सान्द्र द्वितीय ने कुछ बदलाव लाने की कोशिश की थी लेकिन मुश्किलें बहुत थीं । अमीर-गरीब के बीच चौड़ी खाई थी । देहात की किसान आबादी अपनी दुनिया से बाहर कुछ नहीं सोचती थी । सरकारी अधिकारियों और संपत्तिशाली लोगों के विरुद्ध विक्षोभ फैला हुआ था । दूसरी ओर कोयला, लोहा, हीरा, सोना और तेल का विशाल भंडार था । विशाल भूक्षेत्रों में प्रचुर अन्न पैदा होता था । सुसंस्कृत कुलीन तबका था । महान उपन्यासकार, वैज्ञानिक, संगीतज्ञ और चित्रकार थे । पेशेवर मध्यवर्ग की तादाद में बढ़ोत्तरी हो रही थी । स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं विकसित हो रही थीं । नौकरशाही में कुलीनों के मुकाबले पेशेवर लोग अधिक दाखिल हो रहे थे । इस संक्रमण से उथल पुथल पैदा हो रहा था । यथास्थिति के विरोधी सदियों से समाज का दमन करनेवाली बादशाहत के विरोध में हिंसक उपाय अपना रहे थे । किसानी समाजवाद के पक्षधर अपनी विचारधारा का प्रचार करते थे । उदारपंथी भी थे लेकिन सदी का अंत आते आते जार की तानाशाही के विरुद्ध सबसे प्रभावी विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद स्थापित हो गया । जार और पूंजीवाद के अनेक पहलुओं के विरुद्ध बौद्धिक और मेहनतकश हलकों में व्याप्त माहौल से लेनिन को बहुत लाभ मिला । प्रथम विश्व युद्ध में रूस की हालत ने शासन विरोधी माहौल बनाने में मदद की ।

लेनिन अपने समय के प्रभाव में तो थे ही, समय पर उनका प्रभाव भी कुछ कम गहरा नहीं था । पैतृक घर में शिक्षा को उन्नति की राह समझा जाता था । शिक्षा के चलते उन्हें विदेशी भाषाओं को सीखने का मौका मिला, विज्ञान के प्रति लगाव पैदा हुआ और समाज को समझने में सहायक विचारधाराओं से प्रेम हुआ । उन्हें अपनी भावनाओं को काबू में रखना आता था और अपने क्रोध को जुझारू आक्रामकता का रूप देकर लंबे समय तक राजनीतिक लड़ाई वे लड़ सकते थे । अपनी बुनियादी मान्यताओं को उन्होंने दृढ़ता के साथ पकड़े रखा । मार्क्सवाद के अलावा रूसी साहित्य का भी उन पर अमिट असर पड़ा था । छपे हुए शब्दों से उनका नाता अधिक गहरा था । घनघोर पढ़ाकू और प्रचंड लिक्खाड़ थे, वक्ता उतने प्रभावी न थे । अध्ययन और राजनीतिक संवेदनशीलता के कारण ही 1917 में उन्होंने सत्ता दखल की अप्रैल थीसिस लिखी और अक्टूबर में सत्ता दखल को अंजाम दिया । मार्च 1918 में ब्रेस्त-लितोव्स्क की संधि के जरिए रूस पर जर्मनी के हमले को रोका । 1921 में नई आर्थिक नीति लागू करके सोवियत संघ को जन विक्षोभ से उबारा । इन सभी मौकों पर लेनिन द्वारा संचालित अभियानों ने घटनाओं की दिशा तय की । 

 

Wednesday, June 11, 2025

पर्यावरण के सवाल और मार्क्सवाद

 

    

                                                  

2000 में पालग्रेव मैकमिलन से रोनाल्डो मुन्क लिखितमार्क्स@2000: लेट मार्क्सिस्ट पर्सपेक्टिव्सका प्रकाशन हुआ किताब केवल अपने शीर्षक के नाते ध्यानाकर्षक है, बल्कि प्रकृति, विकास, मजदूर वर्ग, स्त्री प्रश्न, संस्कृति, राष्ट्रवाद और उत्तरआधुनिकता जैसे नये समय के सवालों के संदर्भ में मार्क्सवाद को देखने का गंभीर प्रयास भी करती है भूमिका में लेखक ने बताया है कि किताब के शीर्षक से मार्क्स कंप्यूटर पर एशियाई शेरों के आर्थिक ढांचे के पतन या इंडोनेशिया के सामाजिक विस्फोट या डेनमार्क की आम हड़ताल के बारे में ताजा खबर देखते प्रतीत होते हैं उन्हें यह सब आशा के अनुरूप ही लगता और उनका विश्लेषण भी वैसा ही तीक्ष्ण होता कुछ बरस पहले मार्क्स की सदी के अंत की घोषणा करने में कोई समस्या नहीं थी लगता था कुछ पुरातत्ववेत्ता पुरानी किताबों की दूकान से उनके विचारों को समझने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन अब तो मार्क्स के बिना भविष्य की कल्पना भी मुश्किल हो गई है किताब का उद्देश्य इस समय के सवालों के संदर्भ में मार्क्स को जिन्दा करना है इसके लिए लेखक का मानना है कि मार्क्सवाद को महज पूंजीवाद के संकटों और समस्याओं पर सोचने की जगह खुद की समस्याओं की भी छानबीन करनी चाहिए किताब वर्तमान सवालों के परिप्रेक्ष्य को कभी निगाह से ओझल नहीं होने देती इसी लिहाज से लेखक ने सबसे पहले मार्क्स की मृत्यु के दावों की परीक्षा की है और पाया कि अगर सही तरीके से देखा-समझा जाए तो मार्क्स अब भी जीवित और कारगर हैं यही बात उनके सामाजिक जनवादी यूरोपीय अनुयायियों के बारे में नहीं कही जा सकती मार्क्सवाद में सुधार करके सामाजिक जनवाद की जो धारा चलाई गई उसका जीवन 1980 के दशक में समाप्त हो गया यूरोप में जो अन्य संशोधित रूप प्रस्तावित किए गए वे भी चल नहीं सके इस हालत की परीक्षा के उपरांत आज के सवालों के साथ उनकी चिंताओं के संवाद को समझने की कोशिश अलग अलग अध्यायों में की गई है उदाहरण के लिए पर्यावरण के सवाल को देखा जा सकता है इसे बहुत सारे लोग मार्क्स का हरितीकरण भी कहते हैं        

2000 में ही कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से जोनाथन ह्यूज की किताबइकोलाजी ऐंड हिस्टारिकल मैटीरियलिज्मका प्रकाशन भी उस परंपरा के भीतर आता है जिसके तहत वर्तमान के सवालों के संदर्भ में मार्क्स के विचारों को देखने की कोशिश हो रही है किताब की जड़ें लेखक के शोध प्रबंध में हैं इसमें पर्यावरणवादियों की ओर से मार्क्सवाद पर लगाए जाने वाले ज्यादातर आरोपों का उत्तर देने की कोशिश की गई है इसके लिए लेखक ने सबसे पहले इस तथ्य की ओर इशारा किया है कि मार्क्सवाद की बहुत प्रकार से व्याख्या हुई है इसलिए उसे एक जगह पर ठहरा हुआ मानना उचित नहीं है इसी तरह से पर्यावरणवाद भी अनेक धाराओं में बंटा हुआ है कुछ लोग मानवेतर प्रकृति की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करते हैं जबकि कुछ अन्य उसे उपकरण मात्र मानते हैं इन विरोधों पर अधिक ध्यान देने की जगह लेखक ने पर्यावरणवादियों के तर्कों के बरक्स मार्क्सवाद की क्षमता को उजागर करने पर जोर दिया है इस तरह लेखक के विश्लेषण का केंद्र मार्क्सवाद है कि पर्यावरणिक चिंतन इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि लेखक ने पारिस्थितिकी के समक्ष किसी अन्य विचारधारा की छानबीन की बनिस्बत मार्क्सवाद को खंगालने का फैसला किया इस छानबीन में जिस एक और चीज से मदद मिली वह यह कि मार्क्सवाद के आधार पर स्थापित राजनीतिक संस्थान के पतन से मार्क्स के चिंतन को धार्मिक रीति से देखे जाने की सम्भावना कम रह गई है उनके विचारों को खारिज करने की बजाए नई चुनौतियों के समक्ष उन्हें समझने से ही उनकी क्षमता का पता चलेगा स्वस्थ वाद विवाद से ही राजनीतिक सोच की दुनिया में उनकी जगह तय होगी  

इसी साल मंथली रिव्यू प्रेस से जान बेलामी फ़ास्टर की किताबमार्क्सइकोलाजी: मैटीरियलिज्म ऐंड नेचरका प्रकाशन हुआ शुरू में लेखक ने इसका नाममार्क्स ऐंड इकोलाजीरखने का निश्चय किया था लेकिन मार्क्स के बारे में समझ में बदलाव के चलते किताब का यह नाम रखा आम तौर पर मार्क्स को पारिस्थितिकी विरोधी चिंतक माना जाता है लेकिन फ़ास्टर उनके लेखन से परिचित थे इसलिए इस तरह की आलोचना को गम्भीर नहीं समझते थे फिर भी उन्हें लगता था कि मार्क्स के चिंतन में उनकी पारिस्थितिकीय अंतर्दृष्टि का दर्जा अव्वल नहीं है और आज की समस्याओं के लिहाज से उनका मूल्य कुछ खास नहीं है इस बीच उनके एक विद्यार्थी ने उनका परिचय कृषि और उपजाऊ मिट्टी से जुड़े मार्क्स के लेखन से कराया तो उन्हें लगा कि मार्क्स को पारिस्थितिकी के लिहाज से महत्वपूर्ण मानना होगा एक और साथी ने एंगेल्स की किताबडायलेक्टिक्स आफ़ नेचरपढ़ने की सलाह दी तो कुछ और उत्साह बढ़ा असल में लेखक का कहना है कि मार्क्स के बारे में लम्बे दिनों में बनी हमारी समझ उनके पारिस्थितिकीय चिंतन को ग्रहण करने में बाधा पैदा करती है खुद लेखक मार्क्स के हेगेलीय पक्ष में दीक्षित थे जिसका विकास पश्चिमी बौद्धिक जगत में लूकाच से होते हुए नववाम तक आता है इसमें दर्शन और राजनीतिक अर्थशास्त्र पर अधिक जोर दिया जाता है इस बौद्धिक पृष्ठभूमि के चलते मार्क्स के प्रकृति संबंधी लेखन पर निगाह नहीं जाती थी लूकाच और ग्राम्शी की परम्परा के चलते प्रकृति के विश्लेषण में द्वंद्वात्मक नजरिया अपनाने वालों से लेखक की दूरी बनी रही थी वे राजनीति के क्षेत्र में भौतिकवाद के अनुप्रयोग से तो परिचित थे लेकिन विज्ञान में इसकी मौजूदगी से उतना घनिष्ठ परिचय नहीं था यांत्रिक भौतिकवाद से मार्क्स ने संबंध विच्छेद जिस आधार पर किया था उसके बारे में गहरी जानकारी मार्क्सवादी परम्परा में भी कम ही है इस दिशा में आगे बढ़ते ही उन्हें लगा कि मार्क्स की विश्वदृष्टि गहरे और व्यवस्थित रूप से पारिस्थितिकीय है और इसकी जड़ें उनके भौतिकवाद में हैं          

2006 में ब्रिल प्रकाशन ने पाल बुर्केट लिखितमार्क्सिज्म ऐंड इकोलाजिकल इकोनामिक्स: टुवर्ड रेड ऐंड ग्रीन पोलिटिकल इकोनामीशीर्षक किताब छापी किताब का मकसद मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र और पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्र के बीच संवाद स्थापित करना है इसके लिए प्रकृति और आर्थिक मूल्य के बीच संबंध, प्रकृति के साथ पूंजी जैसा बरताव और टिकाऊ विकास की धारणा आदि पर विचार किया गया है लेखक ने ऐसे तर्कों से परहेज किया है जिनसे मार्क्सवाद और पारिस्थितिकी के बीच बौद्धिक लेनदेन में बाधा आती है उनको उम्मीद है कि इस किताब से दोनों के बीच संवाद में बढ़ोत्तरी होगी साथ ही पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्र की आलोचनात्मक समझ के लिए भी उन्हें यह किताब उपयोगी प्रतीत होती है 2014 में हेमार्केट बुक्स से पाल बुर्केट की इस किताब के नए संस्करण का प्रकाशन हुआ इसकी भूमिका जान बेलामी फ़ास्टर ने तो लिखी ही, खुद लेखक ने भी नया विषय प्रवेश लिखा है

जोएल कोवेल की किताब एनेमी आफ़ नेचर: एंड आफ़ कैपिटलिज्म आर एंड आफ़ वर्ल्ड?’ का प्रकाशन ज़ेड बुक्स से मूल रूप से 2002 में हुआ था, फिर 2007 में इसका नवीकृत और विस्तारित संस्करण प्रकाशित हुआ असल में पर्यावरण के सवाल पर मार्क्सवाद का हस्तक्षेप इस रूप में हुआ है कि पूंजीवाद की आलोचना का पर्यावरण विनाशक पहलू भी मुखर हुआ है नए संस्करण की भूमिका में लेखक ने बताया है कि बार बार सबूत मिलने के बावजूद वैश्विक तापवृद्धि की सच्चाई को लोग स्वीकार नहीं करना चाहते हैं लेखक का कहना है कि सच्चाई जानने से दुनिया के बारे में हमें स्पष्टता और परिभाषा प्राप्त होती है इससे बाहरी ताकतों पर हमारी निर्भरता खत्म होती है अगर यह भयानक हुई तो इससे जूझने की सामूहिक शक्ति पैदा होती है इससे यह आशा उपजती है कि हम अपने भविष्य का निर्माण स्वयं कर सकते हैं पूंजीवादी व्यवस्था जिस अंधकार में हमें रखना चाहती है उस अज्ञात भय के मुकाबले यह स्पष्टता मुक्तिकारी हो सकती है इसी आदर्श के लिए यह किताब लिखी गई है सिद्ध है कि सर्वविजयी पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली ही प्रकृति का सबसे बड़ा दुश्मन है   

2010 में मंथली रिव्यू प्रेस से जान बेलामी फ़ास्टर, ब्रेट क्लार्क और रिचर्ड यार्क की किताब इकोलाजिकल रिफ़्ट: कैपिटलिज्म वार आन अर्थका प्रकाशन हुआ किताब इस बात पर जोर देती है कि प्रकृति और मनुष्य के बीच टूट पैदा हो चुकी है देखा जाए तो सम्पूर्ण विश्व अविभाज्य एकत्व है मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे पर जीवन हेतु निर्भर हैं इन दोनों के बीच अलगाव का सबसे बड़ा कारण वर्तमान पूंजीवादी समाज है इसके बावजूद पर्यावरणिक समस्या के अधिकांश विश्लेषणों में धरती या जीवन या मानवता को बचाने की चिंता कम उस पूंजीवाद को बचाने की चिंता अधिक नजर आती है जो पर्यावरण की समस्याओं की जड़ है संसार के विनाश की सम्भावना से उतना परेशानी नहीं महसूस होती जितनी औद्योगिक पूंजीवाद के विनाश की सम्भावना से होती है लोग चाहते हैं कि वैश्विक तापवृद्धि में कमी तो आए लेकिन उसके लिए जिम्मेदार जीवन शैली को बदले बिना ही ऐसा हो मूल बात यह है कि औद्योगिक पूंजीवाद का सातत्य असम्भव है क्योंकि इसने हमेशा उसी जमीन को बरबाद किया है जिस पर कच्चे माल के लिए इसे निर्भर रहना पड़ता है अगर यह रहता है तो जमीन या हवा या पानी का शोषण करता ही रहेगा इनको बचाने के लिए औद्योगिक पूंजीवाद को नष्ट करना होगा किताब को लिखने का मकसद धरती की हत्यारी व्यवस्था से अलग वैकल्पिक रास्ते की खोज करना है

लेखक अपने आपको पर्यावरणिक समाजशास्त्री कहते हैं और मानते हैं कि इस विद्या का जन्म धरती के समक्ष उपस्थित इस संकट के चलते हुआ है इस हालिया अनुशासन के भीतर दो दृष्टियां मौजूद हैं     

2010 में ही हेमार्केट बुक्स से क्रिस विलियम्स की किताबइकोलाजी ऐंड सोशलिज्म: सोल्यूशंस टु कैपिटलिस्ट इकोलाजिकल क्राइसिसका प्रकाशन हुआ किताब के मुखपृष्ठ पर हीसिस्टम चेन्ज, नाट क्लाइमेट चेन्जलिखा हुआ एक बैनर है जो किताब के मुख्य तर्क को अच्छी तरह से व्यक्त करता है

2010 में प्लूटो प्रेस से डेरेक वाल की किताब राइज आफ़ ग्रीन लेफ़्ट: इनसाइड वर्ल्डवाइड इकोसोशलिस्ट मूवमेंटका प्रकाशन हुआ किताब की भूमिका ह्यूगो ब्लांको ने लिखी है किताब पूंजीवाद और पर्यावरण के बीच के असमाधेय अंतर्विरोध को उजागर करने के लिए लिखी गई है

2011 में नेशन बुक्स से क्रिश्चियन परेन्ती की किताबट्रापिक आफ़ केआस: क्लाइमेट चेंज ऐंड न्यू जियोग्राफी आफ़ वायलेन्सका प्रकाशन हुआ किताब पर्यावरणिक बदलावों को युद्धों के नए दौर से जोड़ती है और इस मामले को देखने का नया नजरिया देती है

2011 में ही मंथली रिव्यू प्रेस से फ़्रेड मैगडाफ़ और जान बेलामी फ़ास्टर की किताबह्वाट एवरी एनवाइरनमेंटलिस्ट नीड्स टु नो एबाउट कैपिटलिज्म: सिटिजेन्स गाइड टु कैपिटलिज्म ऐंड इन्वाइरनमेंटका प्रकाशन हुआ शीर्षक से ही साफ है कि इस मसले पर यह किताब सुबोध तरीके से समझाने के लिए लिखी गई है असल में पर्यावरण के सवाल पर आंदोलन करने वाले लोग बहुत दिनों तक मार्क्सवादियों से दूरी बरतते रहे क्योंकि वे पूंजीवाद के साथ सीधा टकराव नहीं चाहते थे और पूंजीवादी सरकारों से उन्हें उम्मीद थी तथा दबाव समूह के रूप में ही काम करने में उनकी दिलचस्पी थी किताब इन दोनों के बीच संवाद पैदा करने और साझा जमीन खोजने के मकसद से लिखी गई है

2012 में पालग्रेव मैकमिलन से कार्ल बाग्स की किताबइकोलाजी ऐंड रेवोल्यूशन: ग्लोबल क्राइसिस ऐंड पोलिटिकल चैलेन्जका प्रकाशन हुआ इसकी प्रस्तावना माइकेल परान्ती ने लिखी है उनका कहना है कि साठ के दशक में जब पर्यावरणिक आंदोलन उफान पर था तो राजनीतिक प्रभाव और संपत्ति की सत्ता के सवालों के प्रति उदासीनता बरत रहा था उसे पर्यावरण की मुख्य समस्या प्रदूषण ही प्रतीत होती थी और इसलिए नदियों, झीलों और जमीन की सफाई के अभियान चलाना उसे अपना कर्तव्य महसूस होता था उस समय भी कुछ लोगों को पर्यावरण की बर्बादी और मुनाफ़े के लिए कारपोरेट की लूट के बीच संबंध दिखाई पड़ता था उन्हें यकीन था कि पर्यावरण की रक्षा करने वालों को बड़े कारपोरेट घरानों और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने वालों से लड़ना पड़ेगा फिर भी पर्यावरणवादी उनकी बात नहीं सुनना चाहते थे उनकी कार्यसूची में समाजवाद शामिल नहीं था वे कहते थे कि कम्यूनिस्ट पार्टी शासित देशों में भी पर्यावरण का क्षरण हो रहा है इसलिए इस मसले पर वामपंथी बोलने लायक नहीं हैं दूसरी ओर वामपंथी लोग भी कहते थे कि पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के उनके संघर्ष में एक सामाजिक सांस्कृतिक मुद्दा जोड़ने की जरूरत नहीं है उस जमाने में यदि यह किताब उपलब्ध होती तो इनके बीच संवाद हो सकता था   

2014 में मार्टिन एम्पसन की किताबलैंड ऐंड लेबर: मार्क्सिज्म, इकोलाजी एंड ह्यूमन हिस्ट्रीका प्रकाशन बुकमार्क्स पब्लिकेशन से हुआ भूमिका में लेखक का कहना है कि आगामी कुछेक दशकों में तय हो जाएगा कि मानव प्रजाति इस धरती पर जी सकेगी या नहीं इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है जीवन पद्धति में अगर बुनियादी बदलाव नहीं किए जाते तो औद्योगिक युग के आरम्भ से ही पर्यावरण पर जो असर मानव गतिविधियों का पड़ रहा है उससे जलवायु में विनाशकारी बदलाव आने तय हैं इसकी निश्चित तारीख बताना संभव नहीं लेकिन कार्बन उत्सर्जन में कटौती में होने वाली देरी से वह दिन नजदीक आता जा रहा है जलवायु के बदलावों की समझ तो बढ़ी है लेकिन उसे रोकने के लिए कुछ ठोस होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा इसके लिए आयोजित संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठकें भी निष्फल साबित हुई हैं ये सम्मेलन राजनीतिक लड़ाई के मैदान बन गए हैं उत्सर्जन में कटौती के समझौते को दफ़नाने की कोशिश विकसित देश कर रहे हैं समस्या यह नहीं है कि राजनेता कुछ करना नहीं चाहते या उत्सर्जन में कटौती के लिए मुफ़ीद तकनीक नहीं है असल समस्या पूंजीवाद है पर्यावरणिक संकट से निपटने में पूंजीवाद की अक्षमता को समझने के लिए हमें मानव समाज और प्रकृति के रिश्तों के गति विज्ञान को समझना होगा मनुष्य ने प्रकृति में शुरू से बदलाव किए उसने फल बटोरे, शिकार किए, उपकरण बनाए, पेड़ काटे और फसलें उगाईं जब से उसने खेती की शुरुआत की तबसे इसके लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे इन सबके मुकाबले पूंजीवादी प्रणाली बेहद नई है कुछ सौ सालों में ही यह पूंजीवाद दुनिया भर में फैल गया और इसने मानव समाज तथा धरती को बदल दिया पूंजीवाद में उत्पादक शक्तियों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई फलस्वरूप प्रकृति को बदलने की हमारी क्षमता भी बढ़ी इससे पारिस्थितिकीय और पर्यावरणिक प्रणालियों के लिए खतरा पैदा हो गया है पूंजीवाद ऐसी व्यवस्था है जो चोटी के मुट्ठी भर लोगों को फायदा पहुंचाती है वैसे मानव इतिहास में सामाजिक विषमता कोई नई बात नहीं, पूंजीवाद की खासियत इसका उत्पादन का तरीका है संपदा के संचय के लिए पागलपन इसकी चालक शक्ति है इसी के चलते पूंजीवाद इतना विध्वंसक हो जाता है

2014 में सिमोन & शूस्टर से नाओमी क्लीन की किताबदिस चेंजेज एवरीथिंग: कैपिटलिज्म वर्सस क्लाइमेटका प्रकाशन हुआ किताब की शुरुआत एक कहानी से होती है जिसमें 2012 में वाशिंगटन में गरमी के चलते वहां से चलनेवाले एक हवाई जहाज की उड़ान स्थगित करनी पड़ी क्योंकि उसके पहिए चार इंच पिघले हुए कोलतार में धंसे थे विमान में सवार पैंतीस यात्रियों को उतारकर उसे खींचकर निकालने की कोशिश हुई लेकिन सम्भव नहीं हो सका तीन घंटे बाद क्रेन की सहायता से उसे बाहर निकालकर रवाना किया गया इस घटना की रपटों में कहीं जलवायु परिवर्तन का नाम नहीं लिया गया जबकि इस बढ़ी हुई गर्मी को जलवायु परिवर्तन का ही लक्षण मानना उचित होगा यह बदलाव जीवाश्म ईंधन को जलाने के कारण रहा है जीवाश्म ईंधन धरती के भीतर से निकाले हुए ईंधन को कहते हैं धरती के नीचे दबाव और तापमान के अलग अलग स्तरों पर कोयला, डीजल-पेट्रोल और गैस आदि होते हैं जिन्हें खुदाई करके निकाला जाता है यह ईंधन धरती के नीचे हजारों साल तमाम चीजों के दबे रहने के बाद स्वाभाविक प्रक्रिया में पैदा होता है         

2014 में ही पालग्रेव मैकमिलन से साल्वातोर एंगेल-डी माउरो की किताबइकोलाजी, स्वायल्स, ऐंड लेफ़्ट: ऐन इको-सोशल अप्रोचका प्रकाशन हुआ भूमिका में लेखक का कहना है कि जीवभौतिकी की किसी भी प्रक्रिया के अध्ययन को वाम हलकों में रुचि के साथ नहीं देखा जाता है जबकि यह विद्या पर्याप्त राजनीतिक है अलग बात है कि उसकी राजनीति वस्तुनिष्ठता के परदे में छिपी रहती है इसीलिए इसे पूंजीवाद समर्थक माना जाता है फिर भी कुछ वैज्ञानिक अवश्य ऐसे रहे हैं जो वामपंथी तो नहीं लेकिन वाम समर्थक माने जा सकते हैं ऐसे ही लोगों की प्रेरणा से लेखक को जमीन का अध्ययन करने में रुचि पैदा हुई उनको लगता है कि आज के हालात किसी भी समतामूलक विकल्प की संभावना की इजाजत नहीं देते

2014 में वर्सो से अलफ़्रेड श्मिड्ट की 1962 में छपी जर्मन किताब का अंग्रेजी अनुवाद कान्सेप्ट आफ़ नेचर इन मार्क्सका प्रकाशन हुआ अनुवाद बेन फ़ाक्स ने किया है किताब का लेखन होर्खाइमर और अडोर्नो के निर्देशन में शोधग्रंथ के रूप में 1957 से 1960 के बीच हुआ था

2014 में न्यू कम्पास प्रेस से ब्रायन टोकर की किताबटुवर्ड क्लाइमेट जस्टिस: पर्सपेक्टिव्स आन क्लाइमेट क्राइसिस ऐंड सोशल चेन्जका प्रकाशन हुआ लेखक का कहना है कि वैश्विक तापवृद्धि मानव गतिविधि के चलते हो तो रही है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इसके लिए हम सब समान रूप से जिम्मेदार हैं इसके लिए उद्योगीकृत विकसित देश अधिक जिम्मेदार हैं असल में जीवाश्म ईंधन के प्रचुर इस्तेमाल से ही तकनीकी सम्पदा अर्जित की और वैश्विक प्रभुत्व कायम किया है विडम्बना यह है कि इससे पैदा जलवायु संकट का असर अविकसित देशों की जनता को भुगतना होगा जिन लोगों ने पर्यावरण को दूषित करने में सबसे कम योगदान किया है उन पर ही मौसम के उलटफेर और समुद्र के बढ़ते जलस्तर की मार सबसे बुरी पड़ेगी और इसको झेलने की तकनीकी तैयारी भी उनकी ही सबसे कम होगी इसलिए जलवायु संकट की चुनौती सामान्य रूप से समूचे समाज के समक्ष तो है, इसके साथ सामाजिक न्याय का सवाल भी जुड़ गया है यह तो भारी अन्याय है कि जो लोग संकट के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं उन्हें ही इसकी मार सबसे अधिक झेलनी होगी आगामी वर्षों में पारिस्थितिकी आंदोलन के सामने वैश्विक तापवृद्धि और सामाजिक न्याय की लड़ाई सबसे कठिन मुद्दा होगा  

2015 में वर्सो से मैकेंज़ी वार्क की किताबमोलेक्यूलर रेड: थियरी फ़ार एंथ्रोपोसीनका प्रकाशन हुआ विज्ञान की दुनिया में एंथ्रोपोसीन नामक शब्द का प्रयोग धरती के इतिहास में एक नए युग के आगमन को व्यक्त करने के लिए हो रहा है किताब में चिंता जाहिर की गई है कि संसार की प्रत्येक वस्तु इस कदर उपभोग्य बना दी गई है कि पृथ्वी नामक इस ग्रह की सीमाओं में हमारी उपभोक्ता जरूरतों की संतुष्टि सम्भव नहीं प्रतीत होती इस अर्थ में यह प्राक-इतिहास का अंत है   

2016 में ब्रिल से जान बेलामी फ़ास्टर और पाल बुर्केट की किताबमार्क्स ऐंड अर्थ: ऐन एन्टी-क्रिटीकका प्रकाशन हुआ किताब में रयान विशार्ट का संपादकीय सहयोग है लेखकों ने किताब के शुरू में ही बताया है कि रोजा लक्जेमबर्ग के मुताबिक मार्क्स के वैज्ञानिक लेखन की उपलब्धि के कुछ जरूरी पहलू तत्कालीन समाजवादी आंदोलन की तात्कालिक भागमभाग में उपेक्षित रह गए थे और जैसे जैसे पूंजीवादी व्यवस्था के ऐतिहासिक अंतर्विरोध परिपक्व होंगे वैसे वैसे ये पहलू खुलकर सामने आएंगे रोजा की यह भविष्यवाणी मार्क्स के पारिस्थितिकीय चिंतन के प्रसंग में पूरी तरह सही साबित हो रही है       

2016 में ही पी एम प्रेस से जेसन डब्ल्यू मूर के संपादन मेंएंथ्रोपोसीन आर कैपिटलोसीन?: नेचर, हिस्ट्री, ऐंड क्राइसिस आफ़ कैपिटलिज्मका प्रकाशन हुआ संपादक की भूमिका के अतिरिक्त किताब में तीन भाग हैं पहले भाग में धरती के वर्तमान संकट की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त एंथ्रोपोसीन नामक शब्द की समस्याओं पर दो लेखों के सहारे विचार किया गया है दूसरे भाग के तीन लेखों में पूंजी और धरती के आपसी रिश्तों को परखा गया है जिनके तहत धरती के संसाधनों को पूंजी, सस्ता माल समझकर दूह लेती है तीसरे भाग के दो लेखों में संस्कृति और राजनीतिक पारिस्थितिकी के संदर्भ में धरती और पूंजी के वर्तमान संकट पर विचार किया गया है

2016 में वर्सो से इयान आंगुस की किताबफ़ेसिंग एन्थ्रोपोसीन: फ़ासिल कैपिटलिज्म ऐंड क्राइसिस आफ़ अर्थ सिस्टमका प्रकाशन हुआ किताब की भूमिका जान बेलामी फ़ास्टर ने लिखी है भूमिका में उन्होंने पर्यावरण के लिए होने वाले आंदोलन के इतिहास का जायजा लिया है द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब धरती की सतह पर परमाणु बम का परीक्षण किया गया तो वैज्ञानिकों ने इसका घनघोर विरोध किया 1962 में राचेल कारसन की किताब साइलेन्ट स्प्रिंग के प्रकाशन के बाद इस आंदोलन में काफी व्यापकता आई इसके बाद सोवियत संघ और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में तापमान में ऐसी तेज वृद्धि की चेतावनी दी जिसमें दुबारा कमी आने की कोई आशा नहीं थी इस किताब में धरती की जलवायु और उसके तापमान में मानवजन्य अपरिवर्तनीय बदलावों और उन बदलावों की प्रतिक्रिया में चलने वाले पर्यावरण के आंदोलनों के द्वंद्वात्मक संबंध की छानबीन की गई है आंगुस ने मनुष्य और प्रकृति के बीच अंत:क्रिया के नए उदीयमान स्तर के बतौर एन्थ्रोपोसीन का चित्रण किया है और बताया है कि इसके कारण ही पारिस्थितिकी की नई कल्पना की जरूरत पैदा हुई है लगता है कि विज्ञान में एन्थ्रोपोसीन को खासकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के समय से ही जोड़कर देखा जाएगा हालांकि इसकी शुरुआत के निशान औद्योगिक क्रान्ति से ही मिलने लगते हैं इस धारणा का उभार पूरी तरह से पृथ्वी प्रणाली की वैज्ञानिक सोच के साथ हुआ है इसे पूंजीवाद, उद्योगीकरण, उपनिवेशीकरण और जीवाश्म ईंधन के उपयोग के साथ मनुष्य और पर्यावरण के बीच संबंध में बदलाव से भी जोड़कर देखा जाता है

2016 में वर्सो से क्रिस्ताफ़ बोनुइल और ज्यां-बापतिस्ते फ़्रेसोज़ की स्पेनी में 2013 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद शाक आफ़ एन्थ्रोपोसीन: अर्थ, हिस्ट्री ऐंड असका प्रकाशन हुआ अनुवाद डेविड फ़ेर्नबाख ने किया है । लेखक का कहना है कि हमारा समय इसी नाम से पुकारा जाना चाहिए । इसे मनुष्य की शक्ति और अक्षमता दोनों का नमूना कहा जा सकता है । शक्ति इस अर्थ में कि पृथ्वी पर सभी बदलाव अब हम मनुष्यों के कारण हो रहे हैं और अक्षमता इस अर्थ में कि इसे रोकना हमारे लिए संभव नहीं रह गया है । भविष्य की दुनिया का तापमान अधिक होगा, प्राकृतिक आपदाएं अधिक होंगी, बर्फ कम होती जाएगी, समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और जलवायु बेकाबू होगी । यह केवल पर्यावरणिक संकट नहीं, बल्कि मानव जन्य भूगर्भीय क्रांति है । औद्योगिक क्रांति के उन्नायकों ने बेझिझक इसे जन्म दिया था । अब इससे आंख चुराकर नहीं, बल्कि इसकी सचाई को स्वीकार करके ही आगे की राह निकाली जा सकती है ।     

2017 में मंथली रिव्यू प्रेस से कोहेइ सैतो की 2016 में जर्मन में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवादकार्ल मार्क्सइकोसोशलिज्म: कैपिटलिज्म, नेचर, ऐंड अनफ़िनिश्ड क्रिटीक आफ़ पोलिटिकल इकोनामीका प्रकाशन हुआ मेगा से इस किताब में भरपूर मदद ली गई है लेखक का कहना है कि बहुत दिनों तक मार्क्स की पारिस्थितिकी के बारे में सोचना भी विरोधाभासी समझा जाता ढेर सारे मार्क्स के अनुयायी भी मानते थे कि असीम आर्थिक और तकनीकी विकास को मार्क्स इतिहास की स्वाभाविक गति समझते थे और प्रकृति पर कब्जे के पक्ष में थे ऐसी किसी भी समझ के आधार पर पारिस्थितिकीय सवालों पर सोचा नहीं जा सकता 1970 दशक मे पश्चिमी देशों में मानव सभ्यता के लिए पर्यावरणिक खतरे नजर आने लगे और इसी के साथ प्रकृति पर कब्जे का पक्षधर होने के लिए उदीयमान पर्यावरण आंदोलन की ओर से मार्क्स की घनघोर आलोचना भी शुरू हुई आलोचकों का कहना था कि प्रकृति पर मनुष्य के कब्जे के जरिए विकास में अपने इसी यकीन के चलते औद्योगिक उत्पादन और उपभोग के साथ जुड़ी तकनीक में निहित विध्वंसक क्षमता की उन्होंने उपेक्षा की

2017 में मंथली रिव्यू प्रेस से फ़्रेड मैगडाफ़ और क्रिस विलियम्स की किताबक्रीएटिंग ऐन इकोलाजिकल सोसाइटी: टुवर्ड रेवोल्यूशनरी ट्रान्सफ़ार्मेशनका प्रकाशन हुआ । इस किताब की भूमिका जान बेलामी फ़ास्टर ने लिखी है । इसमें उनका कहना है कि पारिस्थितिकी और अर्थशास्त्र के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्दों का मूल ग्रीक भाषा का एक ही शब्द है । इसलिए पारिस्थितिकी को प्रकृति का अर्थशास्त्र भी कहा जा सकता है । लेकिन सबसे बड़ी बात कि ग्रीक साहित्य से भी पर्यावरणीय संकट के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है । इसमें प्रकृति और समाज के बीच दूरी पैदा होने का कारण व्यापारिक मौद्रिक अर्थतंत्र को बताया गया है । इस अर्थतंत्र के आगमन के बाद संपत्ति की आकांक्षा तो असीम हो गई लेकिन संसार की प्राकृतिक सीमाओं से उसका टकराव होता रहा । यह टकराव ग्रीक लेखकों की रचनाओं में अक्सर प्रकट हुआ है । मिडास का मिथक भी इसी विडम्बना को व्यक्त करता है । एक और मिथक में राजा जब अपने महल के निर्माण के लिए पेड़ कटवा देता है तो पेड़ की आत्मा दंड देने के लिए उसके भीतर संपत्ति और उपभोग की अनंत तृषा का प्रवेश करा देती है । प्रकृति और संसार से सब कुछ वसूल कर लेने की उसकी प्यास आखिरकार उसे अपनी पुत्री को भी बेच देने के लिए बाध्य करती है ।