पिछली सदी में मार्क्सवाद के खात्मे के शोर की समाप्ति के बाद नई सदी के आरम्भ में ही कुछ नए लेखकों ने मार्क्सवाद संबंधी सोच विचार के नए क्षेत्र खोल दिए । इनमें एक क्षेत्र मार्क्स के लेखन को नए संदर्भों में समझने की दिशा में कोशिशों का था । इस नए उभार के सिलसिले में ध्यान देने की बात यह है कि सोवियत संघ के बिखराव से इन चिंतकों ने ऊर्जा ग्रहण की । उनका कहना था कि नई पीढ़ी पर पुरानी समस्याओं का बोझ नहीं है । वे नए हालात को नई समझ के साथ व्याख्यायित करेंगे और नए दौर के सवालों को हल करने के लिए अपने समय की ताकतों पर भरोसा करेंगे । स्वाभाविक है कि इसके लिए उन्हें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में आने वाले बदलावों का न केवल संज्ञान लेना पड़ रहा है बल्कि नए आंदोलनों के मुद्दों की पहचान भी करनी पड़ रही है ।
नये दौर
में मार्क्सवाद के अध्ययन के सिलसिले में जो नयी बातें हुई हैं उनमें एंडी और राब
लुकास ने अप्रैल 2005 में एक पहल की है जिसमें ‘मार्क्स: मिथ्स ऐंड लीजेंड्स’ नाम से लेखमाला शुरू हुई है । उनका कहना है कि मार्क्स के
लेखन को पिछले डेढ़ सौ सालों में जितने मिथकों का शिकार होना पड़ा है उतना किसी भी
अन्य विचारक के साथ नहीं हुआ है इसलिए उनके आलोचनात्मक अध्ययन के लिए इनकी सफाई
जरूरी है । वैसे तो इसमें ज्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि उनका समस्त लेखन उपलब्ध
है लेकिन इसकी इच्छा बहुतेरे लोगों को नहीं होती । असल में इन मिथकों के निर्माण
का कारण उनकी अपार सफलता है । उनका नाम बीसवीं सदी को न केवल बदलने बल्कि परिभाषित
करने वाले युगांतरकारी आंदोलन का पर्याय बन गया । कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को
उनके प्रति निष्ठा सिद्ध करनी पड़ती जबकि उनके विरोधी सभी तरह की नफरत भरी चीजों के
लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराते । उनके लेखन की व्याख्या अनिवार्य रूप से राजनीतिक
होती, निस्संग अध्ययन संभव नहीं रह गया । कहने
का मतलब यह नहीं कि आंदोलनों ने उनकी तथाकथित शुद्धता को दूषित कर दिया, न ही किसी ‘सही’ मार्क्स को उनकी विरासत का दावा करने वाले बीसवीं सदी के
संघर्षों के बरक्स खड़ा कर दिया जाय । विकृतियों की सफाई के नाम पर किसी एकाश्मी
मार्क्स को इतिहास की धूल धक्कड़ से बचाकर ‘मार्क्सवाद’ से पूरी तरह से अलगाना ठीक नहीं होगा । फिर भी उनके लेखन और
इतिहास पर ध्यान देने से ढेर सारी चीजों पर भ्रम दूर हो सकते हैं । मार्क्स के
बारे में जिन मिथकों का निर्माण हुआ है वे दो तरह के हैं । एक तो वे जिनका प्रचार
समाजवाद के विरोधियों ने दुर्भावनापूर्वक किया । दूसरे वे जिनका निर्माण उनके
अनुयायियों ने किया । इनका निर्माण अनेक ऐतिहासिक कारकों के चलते हुआ और इसकी
जिम्मेदारी तय करना जटिल काम है । कुछ मिथ इन दोनों में साझा भी हैं । इससे जुड़ा
हुआ खंड उन मिथकों का है जो मार्क्स को ‘राजकीय समाजवाद’ का निर्माता ठहराते हैं । विरोधियों द्वारा प्रचारित मिथकों
का बड़ा हिस्सा उनके चरित्र हनन के मकसद से जुड़ा हुआ है इसलिए इनका दूसरा खंड
मार्क्स के ‘चरित्र’ से जुड़े मिथकों का है । इसके तहत उन्हें महत्वोन्मादी, मरखाहा, यहूदी-विरोधी और नस्लवादी, घमंडी, स्त्रीलोभी,
उबाऊ लेखक और
दूसरों के लिखे की नकल मारनेवाला साबित किया गया । उनके बारे में बने मिथकों के
खंडन के लिए ध्यान से तथ्यों को देखना होगा । असल में मार्क्स के विचारों का
निर्माण जिन संदर्भों में हुआ उनसे पूरी तरह भिन्न संदर्भों में उनका अभिग्रहण हुआ
। मिथक निर्माण की एक बड़ी वजह शायद यह भी है । असल में मार्क्स के सोचने का तरीका
उनके समय के भी प्रचलित बौद्धिक तरीकों से काफी अलग था । उनके मूल पाठकों में से
अधिकतर लोग उस आलोचनात्मक चिंतन धारा से अपरिचित थे जिसमें युवा हेगेलपंथियों का
बौद्धिक विकास हुआ था । इसलिए जो कुछ उन्होंने लिखा उसे तत्क्षण ही उन्नीसवीं सदी
में प्रचलित समाजवाद के संदर्भ में समझा गया और उसके हेगेलपंथी पहलुओं की उपेक्षा
हुई । इसके कारण मार्क्स को उन्नीसवीं सदी के समाजवाद और प्रत्यक्षवाद से जोड़कर
देखने की गलतफहमियों का जन्म हुआ । इसी से आर्थिक निर्धारणवादी व्याख्याओं का भी
जन्म हुआ । इन मिथकों को चिन्हित करने के बाद इस परियोजना के संचालकों ने उम्मीद
जताई है कि भविष्य में अन्य विषयों पर भी साफ सफाई होगी ।
इस परियोजना के तहत
विभिन्न मिथों की सफाई में जिन लोगों के लेख संकलित हैं वे हैं- 1) राजकीय समाजवाद
के साथ मार्क्स को जोड़ने के मिथ, जिसके सिलसिले में परेश चट्टोपाध्याय और हाल
ड्रेपर के लेख हैं । 2) मार्क्स के चरित्र के बारे में मिथ, जिनके सिलसिले में
फ़्रांसिस ह्वीन, टेरेल कारवेर, हाल ड्रेपर और हम्फ्री मैकक्वीन के लेख हैं । 3)
उन्नीसवीं सदी के समाजवाद और प्रत्यक्षवाद के साथ मार्क्स को जोड़नेवाले मिथों के
सिलसिले में जान हैलोवे और सीरिल स्मिथ के लेख हैं । 4) द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के
मिथों के सिलसिले में ज़ेड ए जोर्डन और मैक्समिलियन रूबेल के लेख हैं । 5)
मार्क्सवाद के अन्य मिथों के सिलसिले में हैरी क्लीवर, पीटर स्टिलमैन, सीरिल स्मिथ
और क्रिस्टोफर जे आर्थर के लेख हैं । 6) सबसे अंत में हालिया मिथों के सिलसिले में
क्रिस्टोफर जे आर्थर, जोसेफ मैककार्नी और लारेंस विल्डे के लेख प्रस्तुत किए गए
हैं । हालांकि कुछ लेख निश्चित ही भ्रम दूर करते हैं लेकिन इन लेखों पर सोवियत
परंपरा के मुकाबले पश्चिमी दुनिया के विद्वानों के बीच प्रचलित बहसों की छाया है ।
परियोजना के तहत
उपलब्ध लेखों में से एक मैक्समिलियन रूबेल द्वारा ‘द लीजेंड आफ़ मार्क्स, आर
“एंगेल्स द फ़ाउंडर”’ शीर्षक से लिखित है । इन्होंने मार्क्स की एक जीवनी भी
‘मार्क्स विदाउट मिथ्स’ नाम से लिखी है । उक्त लेख में रूबेल ने मार्क्स के
विचारों के प्रसंग में एंगेल्स की भूमिका की जांच-पड़ताल की है । उन्होंने मार्क्स
के अधूरे काम को संपादित करने में एंगेल्स की क्षमता पर सवाल उठाया है । असल में
उनका एतराज ‘मार्क्सवाद’ की प्रस्तुति पर है । साथ में उन्होंने इस मान्यता को भी
परखने की कोशिश की है जिसके मुताबिक मार्क्स के मुकाबले एंगेल्स द्वंद्ववादी
पद्धति में कम कुशल थे । लेखक मार्क्सवाद की कोटि को ही बनावटी मानते हैं । उनके
अनुसार कार्ल कोर्श ने ‘टेन थीसिस आन मार्क्सिज्म टुडे’ में इसी भ्रम में बार बार
‘मार्क्स-एंगेल्स की शिक्षा’, ‘मार्क्स के सिद्धांत’,’मार्क्सवादी सिद्धांत’,
‘मार्क्सवाद’ आदि का व्यवहार किया है । पांचवीं थीसिस में तो उन्होंने संस्थापकों
में एंगेल्स का नाम भी नहीं लिया । लेखक का प्रस्ताव है कि ‘मार्क्सवाद’ पद को छोड़
देना ही उचित होगा । आश्चर्यजनक नहीं कि इन्होंने ही ‘मार्क्सोलोजी’ पदबंध का आविष्कार किया जिसे आजकल ‘मार्क्सवाद’ की जगह इस्तेमाल किया जाता है । इसी तरह के नजरिए से
आजकल मार्क्स के लेखन-चिंतन पर सोच-विचार हो भी रहा है ।
पूंजीवाद ने जिस तरह प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट मचाई उसके कारण पर्यावरण एक महत्वपूर्ण सरोकार के रूप में उभरा है । इस मोर्चे पर पहले तो पर्यावरण के आंदोलनकारियों और मार्क्सवादियों के बीच आपसी संदेह का वातावरण रहा लेकिन फिर संवाद शुरू हुआ । इस संवाद की दिशा में सबसे पहले जिस किताब का जिक्र जरूरी है वह है 1999 में मंथली रिव्यू प्रेस से जान बेलामी फ़ास्टर की किताब ‘द वल्नरेबल प्लैनेट: ए शार्ट इकोनामिक हिस्ट्री
आफ़ द एनवायरनमेंट’ के नए संस्करण का प्रकाशन । भूमिका में फ़ास्टर ने उस
प्रक्रिया का वर्णन किया है जिसके जरिए वे पर्यावरण की चिंता के करीब आए । 1950 और
1960 के दशक में वे ऐसे इलाके में रहे जो अपने पर्यावरण की गुणवत्ता के लिए मशहूर
था । जब अप्रैल 1970 में पहली बार पृथ्वी दिवस मनाया जा रहा था तो वे इसमें शामिल
तो हुए लेकिन बहुत मन से नहीं । उस समय उनकी चिंता के केंद्र में वियतनाम युद्ध था
। लगता था कि जहां नापाम बम बरसाए जा रहे हैं वहां पर्यावरण की बात अय्याशी है ।
1970 दशक के मध्य से 1980 दशक के मध्य तक आर्थिक संकट और तीसरी दुनिया के
अल्पविकास के बारे में वे सोचते बोलते रहे । रीगन युग में आर्थिक गतिरोध का बोझ
मजदूरों, बेरोजगारों, महिलाओं, अश्वेतों और तीसरी दुनिया की जनता की पीठ पर लादने
का विरोध करना अधिक जरूरी लगता था । पूंजीवाद का विरोध मानवता की रक्षा का
निर्णायक रूप प्रतीत होता था । लेकिन धरती के भविष्य के साथ जोड़कर इसको देखने में
मुश्किल पेश आती थी । एक दशक तक बाहर रहने के बाद 1985 में जब वे फिर अपने बचपन के
रहने की जगहों पर गए तो उनके सम्मुख पर्यावरणिक संकट के वैश्विक आयाम स्पष्ट हुए ।
वहां ऐसे बदलाव आ चुके थे जिन्हें पलटना संभव नहीं रह गया था । जिस जंगल में
दुनिया के सबसे पुराने और लंबे पेड़ थे उसे भयानक रफ़्तार से काटा जा रहा था । जो
नदी थी उसकी धारा सूखने की कगार पर थी । उल्लुओं से लेकर मछलियां तक विलुप्त होने
की स्थिति में थे । परमाणविक संशाधन के लिए जो परिक्षेत्र निर्मित किया गया था वह
रेडियोधर्मी प्रदूषण का दुनिया का सबसे खतरनाक स्रोत साबित हुआ । आर्थिक विस्तार
की ताकतों और पर्यावरणवादियों के बीच हर जगह युद्ध छिड़ा हुआ था । 1980 दशक के
उत्तरार्ध में ही तापवृद्धि, ओज़ोन परत के छीजने, उष्णकटिबंधीय जंगलों के खात्मे से
पैदा होने वाले खतरों और विभिन्न प्रजातियों के लोप के प्रति सचेतनता तेजी से बढ़ी
। इन सबका प्रभाव यह हुआ कि उन्हें धरती के लिए बढ़ते खतरों के बारे में सोचने के
लिए बाध्य होना पड़ा । उनका कहना है कि लेकिन इस पर्यावरणिक सचेतनता से युवावस्था
के मेरे सामाजिक सरोकारों में कोई कमी नहीं आई । जो लोग सामाजिक विषमता को दूर
करने में अपनी पूरी ताकत लगाए हुए थे वे पर्यावरणिक न्याय की लड़ाई में भी शामिल
हुए । 1970 और 1980 के दशक में युद्ध, आर्थिक विषमता और तीसरी दुनिया का अल्प विकास
जैसी परिघटनाओं ने उनका ज्यादातर ध्यान खींचे रखा था । अब उन्हें महसूस हुआ कि ये
परिघटनाएं पृथ्वी और दुनिया की बहुसंख्यक जनता की जीवन स्थितियों के व्यवस्थित
विनाश के व्यापक सवाल से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं । मुख्य धारा के पर्यावरणवाद
की प्रमुख समस्या इस संबंध को न समझ पाना है । उनका मत है कि अगर हमें पर्यावरणीय
संकट को समझना है तो क्रांतिकारी सामाजिक सरोकारों को छोड़ना नहीं, बल्कि उन्हें
इतना व्यापक और गंभीर बनाना होगा ताकि पृथ्वी के विनाश की चिंता भी उसमें समा जाए
। बदलाव का कोई भी सक्षम आंदोलन सामाजिक और पर्यावरणिक समस्याओं की आपसी संबद्धता
की बुनियाद पर ही खड़ा किया जा सकता है ।
इस सवाल पर एक और
किताब की बात करना अप्रासंगिक न होगा । अगले साल 2000 में पालग्रेव मैकमिलन से
रोनाल्डो मुन्क लिखित ‘मार्क्स@2000: लेट मार्क्सिस्ट
पर्सपेक्टिव्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब न केवल अपने शीर्षक के नाते ध्यानाकर्षक
है, बल्कि प्रकृति, विकास, मजदूर वर्ग, स्त्री प्रश्न, संस्कृति, राष्ट्रवाद और
उत्तरआधुनिकता जैसे नये समय के सवालों के संदर्भ में मार्क्सवाद को देखने का गंभीर
प्रयास भी करती है । भूमिका में लेखक ने बताया है कि किताब के शीर्षक से मार्क्स
कंप्यूटर पर एशियाई शेरों के आर्थिक ढांचे के पतन या इंडोनेशिया के सामाजिक
विस्फोट या डेनमार्क की आम हड़ताल के बारे में ताजा खबर देखते प्रतीत होते हैं ।
उन्हें यह सब आशा के अनुरूप ही लगता और उनका विश्लेषण भी वैसा ही तीक्ष्ण होता ।
कुछ बरस पहले मार्क्स की सदी के अंत की घोषणा करने में कोई समस्या नहीं थी । लगता
था कुछ पुरातत्ववेत्ता पुरानी किताबों की दूकान से उनके विचारों को समझने की कोशिश
कर रहे हैं । लेकिन अब तो मार्क्स के बिना भविष्य की कल्पना भी मुश्किल हो गई है ।
किताब का उद्देश्य इस समय के सवालों के संदर्भ में मार्क्स को जिन्दा करना है । इसके
लिए लेखक का मानना है कि मार्क्सवाद को महज पूंजीवाद के संकटों और समस्याओं पर सोचने
की जगह खुद की समस्याओं की भी छानबीन करनी चाहिए । किताब वर्तमान सवालों के परिप्रेक्ष्य
को कभी निगाह से ओझल नहीं होने देती । इसी लिहाज से लेखक ने सबसे पहले मार्क्स की मृत्यु
के दावों की परीक्षा की है और पाया कि अगर सही तरीके से देखा-समझा जाए तो मार्क्स अब भी जीवित और कारगर हैं ।
नए चिंतकों में डेविड
हार्वे का नाम सबसे महत्वपूर्ण माना जा सकता है । 2000 में एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी प्रेस से डेविड हार्वे की किताब ‘स्पेसेज आफ़ होप’ का प्रकाशन हुआ । लेखक चूंकि काफी वर्षों से मार्क्स
को पढ़ाते रहे हैं इसलिए किताब का पहला अध्याय पीढ़ी दर पीढ़ी मार्क्स की समझ में
बदलाव पर केंद्रित है । उनका कहना है कि 70 दशक के पूर्वार्ध में काफी राजनीतिक
उत्साह रहा करता था । उस जमाने की उथल पुथल में बौद्धिक-राजनीतिक दिशा की बेचैन
तलाश थी । चूंकि अमेरिका में लंबे दिनों तक मार्क्स का नाम प्रतिबंधित जैसा रहा था
इसीलिए उनके प्रति आकर्षण भी था । कक्षाओं में युवा अध्यापक और विद्यार्थी शरीक
होते थे । जिन लोगों ने बाद में पाला बदल लिया वे भी उन दिनों के रचनात्मक योगदान
के लिए कृतज्ञ महसूस करते हैं । विद्यार्थी विभिन्न अनुशासनों और राजनीतिक रुचियों
के होते थे । इसके बाद कार्यकर्ताओं और ट्रेड यूनियन नेताओं को भी पढ़ाना पड़ा । उस
समय की क्रांतिकारिता का एक तत्व बुद्धिजीवियों द्वारा विरोध का प्रदर्शन भी था ।
उन्हें शिक्षा संस्थान दमन का केंद्र महसूस होते । किसी भी किस्म की किताबी पढ़ाई
को दीक्षा और प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश समझा जाता । उसके मुकाबले वर्तमान
परिस्थिति बहुत अलग है । अब अध्यापक नहीं पढ़ने आते, जो विद्यार्थी पढ़ने आते हैं वे
भी स्नातक-स्तरीय नहीं होते । बर्लिन की दीवार गिरने से पहले ही 80 दशक के
पूर्वार्ध में मार्क्स शैक्षिक और राजनीतिक चलन से बाहर चले गए थे । अस्मिता
विमर्श और उत्तर-आधुनिकता के जमाने में मार्क्सवादी परंपरा की भूमिका नकारात्मक
समझी जाती थी । इस विचारधारा के विरुद्ध लड़ना जरूरी समझा जाता था क्योंकि भ्रामक
रूप से इसे प्रभुत्वशाली माना जाता था । कहा जाता था कि मार्क्स और ‘पारंपरिक
मार्क्सवाद’ लिंग, नस्ल, सेक्स, इच्छा, धर्म, नृजाति, औपनिवेशिकता, पर्यावरण आदि
अधिक जरूरी सवालों पर कम ध्यान देते हैं । सांस्कृतिक ताकतों और आंदोलनों को भी
वर्गीय गोलबंदियों के जितना ही जरूरी माना जाने लगा था । इनमें अनेक आलोचनाएं जायज
थीं लेकिन यह कहना नाजायज था कि मार्क्सवादी चिंतन प्रक्रिया इन सवालों पर होने
वाले आंदोलनों से दुश्मनी ही रख सकती है । कुल मिलाकर सांस्कृतिक विश्लेषण को
राजनीतिक अर्थशास्त्र का स्थानापन्न बना दिया गया था । इसके बाद बर्लिन की दीवार
गिरी । 1989 के बाद तो यह कहना कि मार्क्सवाद रुचिकर हो सकता है लुप्तप्राय
प्रजाति डायनासोर के जीवित होने पर यकीन करने जैसा महसूस होता था । 90 दशक के
पूर्वार्ध में मार्क्सवादी सिद्धांतों में बौद्धिक रुचि भी समाप्त होने लगी थी ।
लेकिन हार्वे को अब हालात बदले महसूस हो रहे हैं ।
इस समय की एक और
विशेषता यह भी है कि न केवल मार्क्स बल्कि पूरी मार्क्सवादी परंपरा का ही
पुनरुत्थान हुआ है । इसी क्रम में राबर्ट सर्विस ने लेनिन और रूस की क्रांति से
जुड़ी चीजों पर काम किया है । 2000 में मैकमिलन से उनकी किताब ‘लेनिन: ए
बायोग्राफी’ का प्रकाशन हुआ । फिर 2002 में पैन बुक्स से उसका
प्रकाशन हुआ और 2008 में पैन बुक्स ने ही उसका इलेक्ट्रानिक संस्करण जारी
किया । लेखक का कहना है कि सोवियत संघ में कम्यूनिस्ट पार्टी के संग्रहालय को शोध हेतु
खोल देने से उन्हें लेनिन की बाकी जीवनियों के मुकाबले ज्यादा सामग्री देखने का सौभाग्य
प्राप्त हुआ । लेनिन के व्यक्तित्व की उपलब्धियों को गिनाते हुए लेखक ने बोल्शेविक
नामक एक गुट को ऐसी पार्टी में बदल देने का उल्लेख किया है जिसने 1917 की क्रांति को संपन्न किया । यह वर्ष उसी क्रांति का शताब्दी वर्ष है ।
क्रांति के परिणामस्वरूप दुनिया के इतिहास की पहली समाजवादी सत्ता की स्थापना हुई और
तमाम विपरीत स्थितियों में भी कायम रही । प्रथम विश्व युद्ध और गृह युद्ध से सफलतापूर्वक
देश को निकाला गया । कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल की स्थापना करके पूरे महाद्वीप की राजनीति
को इस सत्ता ने प्रभावित किया । इन सबका कारण यह था कि लेनिन का शुरुआती जीवन रूसी
समाज के इतिहास के एक विचित्र समय में गुजरा । उन्नीसवीं सदी के उत्तारार्ध में रूसी
साम्राज्य बुनियादी बदलाव से गुजर रहा था और उसी के साथ लेनिन की पीढ़ी ऐतिहासिक बदलावों
के भंवर में उलझी हुई थी । भौगोलिक रूप से दुनिया का सबसे बड़ा देश अपनी संभावनाओं को
खोल और परख रहा था । पुराने सामाजिक और सांस्कृतिक बंधन ढीले पड़ रहे थे । अंतर्राष्ट्रीय
संपर्क बढ़ रहा था और रूस की सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उपलब्धियों को सारा संसार अचम्भे
से देख रहा था ।
बदलाव की रफ़्तार फिर
भी शिक्षित लोगों को बेहद सुस्त महसूस हो रही थी । उन्हें लगता था कि रूस इतना
विराट, इतना विविध और इतना परंपराबद्ध है कि बदल नहीं सकता । रूसी समाज बदलाव का
आदी नहीं था । 1861 में अलेक्सान्द्र द्वितीय ने कुछ बदलाव लाने की कोशिश की थी
लेकिन मुश्किलें बहुत थीं । अमीर-गरीब के बीच चौड़ी खाई थी । देहात की किसान आबादी
अपनी दुनिया से बाहर कुछ नहीं सोचती थी । सरकारी अधिकारियों और संपत्तिशाली लोगों
के विरुद्ध विक्षोभ फैला हुआ था । दूसरी ओर कोयला, लोहा, हीरा, सोना और तेल का
विशाल भंडार था । विशाल भूक्षेत्रों में प्रचुर अन्न पैदा होता था । सुसंस्कृत
कुलीन तबका था । महान उपन्यासकार, वैज्ञानिक, संगीतज्ञ और चित्रकार थे । पेशेवर
मध्यवर्ग की तादाद में बढ़ोत्तरी हो रही थी । स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं विकसित
हो रही थीं । नौकरशाही में कुलीनों के मुकाबले पेशेवर लोग अधिक दाखिल हो रहे थे ।
इस संक्रमण से उथल पुथल पैदा हो रहा था । यथास्थिति के विरोधी सदियों से समाज का
दमन करनेवाली बादशाहत के विरोध में हिंसक उपाय अपना रहे थे । किसानी समाजवाद के
पक्षधर अपनी विचारधारा का प्रचार करते थे । उदारपंथी भी थे लेकिन सदी का अंत आते
आते जार की तानाशाही के विरुद्ध सबसे प्रभावी विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद
स्थापित हो गया । जार और पूंजीवाद के अनेक पहलुओं के विरुद्ध बौद्धिक और मेहनतकश हलकों
में व्याप्त माहौल से लेनिन को बहुत लाभ मिला । प्रथम विश्व युद्ध में रूस की हालत
ने शासन विरोधी माहौल बनाने में मदद की ।
लेनिन अपने समय के प्रभाव
में तो थे ही, समय पर उनका प्रभाव भी कुछ कम गहरा नहीं था । पैतृक घर
में शिक्षा को उन्नति की राह समझा जाता था । शिक्षा के चलते उन्हें विदेशी भाषाओं को
सीखने का मौका मिला, विज्ञान के प्रति लगाव पैदा हुआ और समाज को समझने में
सहायक विचारधाराओं से प्रेम हुआ । उन्हें अपनी भावनाओं को काबू में रखना आता था और
अपने क्रोध को जुझारू आक्रामकता का रूप देकर लंबे समय तक राजनीतिक लड़ाई वे लड़ सकते
थे । अपनी बुनियादी मान्यताओं को उन्होंने दृढ़ता के साथ पकड़े रखा । मार्क्सवाद के अलावा
रूसी साहित्य का भी उन पर अमिट असर पड़ा था । छपे हुए शब्दों से उनका नाता अधिक गहरा
था । घनघोर पढ़ाकू और प्रचंड लिक्खाड़ थे, वक्ता उतने प्रभावी न थे
। अध्ययन और राजनीतिक संवेदनशीलता के कारण ही 1917 में उन्होंने सत्ता दखल की अप्रैल थीसिस लिखी और अक्टूबर में सत्ता दखल को अंजाम
दिया । मार्च 1918 में ब्रेस्त-लितोव्स्क की संधि के जरिए रूस पर जर्मनी के हमले को रोका । 1921 में नई आर्थिक नीति लागू करके सोवियत संघ को जन विक्षोभ से उबारा । इन सभी मौकों
पर लेनिन द्वारा संचालित अभियानों ने घटनाओं की दिशा तय की ।