Monday, December 23, 2024

ज्ञान का साहित्य

 

           

                                 

अनेकानेक कारणों से हिंदी में ज्ञान का लेखन विभिन्न माध्यमों से प्रकट हो रहा है । उल्लिखित काल में इसमें गति आयी है । इसे हिंदी की सामर्थ्य के बतौर भी देखा जा रहा है । नवउदारवाद के आगमन के साथ जो बदलाव आये उनका असर उल्लिखित काल में हिंदी के लेखन में नजर आने लगा । पहले तो इन बदलावों को केवल सामाजिक स्तर पर महसूस किया जा रहा था लेकिन किसी भी सामाजिक बदलाव की तरह इसने हिंदी के नये तरह के पाठकों को जन्म दिया । इन पाठकों की रुचि पुराने पाठकों से भिन्न थी । जल्दी ही इसका प्रभाव हिंदी के लेखन और प्रकाशन पर पड़ा ।   

इसके तहत बहुत पहले की परम्परा की कड़ी में कु नये कोश छपे समाज विज्ञान विश्वकोश (महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की परियोजना के तहत अभय कुमार दुबे द्वारा तैयार किये गये छह खंडों के इस पूरी तरह से नये तरह के ग्रंथ को राजकमल प्रकाशन ने 2013 में छापा), अहिंसा विश्वकोश (प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ने नन्द किशोर आचार्य के संपादन में तैयार इस कोश का प्रकाशन किया) महत्वपूर्ण हैं । अहिंसा विश्वकोश में बौद्ध और जैन धर्म से संबंधित अहिंसापरक विचारों पर विद्वानों की संक्षिप्त प्रविष्टियों के अतिरिक्त आधुनिक काल के गांधी जैसे राजनेताओं तथा उनके देशी विदेशी अनुयायियों के अतिरिक्त बहुतेरे ऐसे अंतर्राष्ट्रीय विचारकों से जुड़ी टिप्पणियों को भी शामिल किया गया था जिनके वाणी और कर्म में अहिंसा की मौजूदगी रही । इस कोश की तैयारी के दौरान जिन विचारों या व्यक्तियों के बारे में संक्षिप्त टीपें दर्ज की गयी थीं उन पर स्वतंत्र पुस्तकों की एक श्रृंखलाअहिंसा-शांति ग्रंथमाला’ का भी प्रकाशन हुआ । इसके तहत बीस से अधिक किताबें छप चुकी हैं

दिल्ली में स्थापित विकासशील समाज अध्ययन केंद्र ने हिंदी में समाज विज्ञान के प्रसारण में मौलिक योगदान किया है । इसके लिए उसने भारतीय भाषाओं में खास कार्यक्रम की पहल की और उनमें भी हिंदी को प्रमुखता प्रदान किया । उसकी ओर से प्रकाशित पत्रिका ‘प्रतिमान’ ने लम्बे समय से मौलिक लेखन के साथ ही समीक्षा तथा अनूदित समग्री के सहारे इसे आगे बढ़ाया । इसी तरह इलाहाबाद के गोविंद वल्लभ पंत समाज विज्ञान संस्थान ने राजकमल प्रकाशन के साथ मिलकर ‘सामाजिकी’ का प्रकाशन शुरू किया । इसमें भी उपरोक्त तीनों प्रकार की सामग्री होती है । 

प्रकाशन की दुनिया में ज्ञानपरक पुस्तकों की छपाई के सिलसिले में ग्रंथशिल्पी का नाम अविस्मरणीय है । इसने शिक्षा और विज्ञान से जुड़ी विश्वप्रसिद्ध किताबों के हिंदी अनुवाद छापने से अपनी शुरुआत की लेकिन जल्दी ही मूल लेखन भी छापना शुरू किया । इस तरह की सामग्री का प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट भी बहुत पहले से करता आ रहा है । सरकारी प्रकाशन होने के कारण उसके पास संसाधन भी पर्याप्त थे । पर्यावरण से लेकर ढेर सारे ज्ञानपरक विषयों तक पर उसने बहुत उत्कृष्ट किताबों का प्रकाशन किया । इस सिलसिले में कुछ गैर सरकारी प्रकाशनों का भी उल्लेख जरूरी है । नवारुण ने विज्ञान से जुड़ी लोकप्रिय किताबों को छापा । सम्यक प्रकाशन अरसे से दलित समुदाय से जुड़ा साहित्य छाप रहा है । इसमें दर्शन आदि की किताबें भी शामिल हैं । उसने घोषित रूप से खुद को आंबेडकर, अशोक, जोतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी तथा देश के अन्य सामाजिक क्रांतिकारियों, समाज सुधारको व महान विभूतियों से संबंधित साहित्य के प्रकाशन एवं उनके मिशन के व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु समर्पित किया है । इस प्रकाशन ने डाक्टर रूपचन्द गौतम (बामसेफ की पत्रकारिता), प्रकाश रत्न गौतम (भारत में वर्ण और जाति व्यवस्था का इतिहास), डाक्टर जयप्रकाश कर्दम (बौद्ध धर्म के आधार स्तंभ), भिक्खु धर्मरक्षित महाथेरो (कुशीनगर का इतिहास, सुखी गृहस्थी के लिए बुद्ध उपदेश), डाक्टर जगन्नाथ उपाध्याय (बौद्ध संस्कृति बनाम ब्राह्मणवाद), डाक्टर भरतसिंह उपाध्याय (बुद्धकालीन भारतीय भूगोल), डाक्टर सुरेन्द्र अज्ञात (बुद्ध धम्म, बुद्धिवाद व आंबेडकर, बुद्ध और शंकर, बुद्ध और आंबेडकर निन्दकों की क्षय), सोहनलाल शास्त्री, विद्यावाचस्पति (हिंदू कोड बिल और डाक्टर आंबेडकर), परिनिब्बुत्त नानकचंद रत्तू (डाक्टर आंबेडकर के कुछ अंतिम वर्ष), प्रोफ़ेसर (डाक्टर) विमलकीर्ति (श्रमण संस्कृति बनाम ब्राह्मण संस्कृति), मधुकर पिपलायन (बौद्ध महिलाओं के प्रेरणा प्रसंग), डाक्टर धर्मकीर्ति (महान बौद्ध दार्शनिक, बुद्ध का समाज दर्शन, बुद्ध का नीतिशास्त्र, बौद्ध धर्म में अनात्मवाद, बौद्ध धर्म में शून्यवाद, गांधी व गांधीवाद की दार्शनिक समीक्षा, जगत सत्यम, ब्रह्म मिथ्या), आचार्य भद्रशील रावत (धम्मपद: सत्य का खजाना, बाबासाहेब डाक्टर आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं का रहस्य, दलितों के हक सम्मान में बाबासाहेब मैदान में), आचार्य जुगल किशोर बौद्ध (बोधगया: अतीत से वर्तमान तक), डाक्टर माता प्रसाद (भारत में दलित जागरण और उसके अग्रदूत, उत्तराखण्ड व उत्तर प्रदेश की दलित जातियों का दस्तावेज, चक्रव्यूह में जातियां), स्वरूप चन्द्र बौद्ध (महाड क्रांति का अमर इतिहास), शीलप्रिय बौद्ध (पूना पैक्ट क्या, क्यों और किसके लिए, महाप्राण जोगेंद्रनाथ मंडल- जीवन और विचार), डाक्टर सतनाम सिंह (चमार जाति का गौरवशाली इतिहास, 1857 की क्रांति में दलितों का योगदान), एच एल दुसाध (हिन्दू आरक्षण और बहुजन संघर्ष, सामाजिक परिवर्तन और बीएसपी, वर्ण व्यवस्था-एक वितरण व्यवस्था), परिनिब्बुत्त श्याम सिंह (संविधान सभा में डाक्टर आंबेडकर), संतराम बी ए (अलबेरूनी का भारत), डाक्टर बनवारीलाल सुमन (कृषि, वन-वृक्ष, पर्यावरण व बौद्ध धम्म), डाक्टर संजय गजभिये (बाबासाहेब डाक्टर आंबेडकर और अछूतों का आंदोलन), स्वामी धर्मतीर्थ (हिन्दू साम्राज्यवाद के खतरे), एडवोकेट के सी धीर (बहुजन विरोधी भारतीय राजनीति का काला इतिहास) जैसी महत्वपूर्ण किताबों का प्रकाशन किया । इसी तरह एकलव्य न केवल विज्ञान को लोकप्रिय बनाने वाली संस्था है वरन उसने इस तरह की सामग्री भी छापी है । इनके साथ ही वाम प्रकाशन का भी जिक्र जरूरी है जिसने अनुवाद के साथ ही मूल हिंदी में भी ज्ञानपरक लेखन छापा है । इन प्रमुख प्रकाशनों के अतिरिक्त भी दूर दराज के इलाकों से बहुत सारी निजी कोशिशों से इस तरह की किताबों की छपाई होती रहती है जिनमें समाज की जरूरत के अनुरूप ज्ञान और विश्लेषण का लेखन और प्रकाशन लगातार होता रहता है ।  

इस प्रसंग में फ़ारवर्ड प्रेस नामक प्रयास का जिक्र जरूरी है । 2009 से यह मासिक पत्रिका के रूप में छपता रहा । इस पत्रिका में एक ही सामग्री हिंदी के साथ अंग्रेजी भाषा में भी अनूदित होती थी । 2016 से इसने प्रकाशन के रूप में किताबें छापनी शुरू की । स्वाभाविक रूप से इस प्रकाशन ने वंचित समुदाय की दृष्टि को प्रधानता देने वाली किताबों को छापा । इनमें संपादित और अनूदित किताबों के अतिरिक्त कँवल भारती (आरएसएस और बहुजन चिंतन), संजय कुमार (बिहार की चुनावी राजनीति: जाति-वर्ग का समीकरण 1990-2015) और प्रेमकुमार मणि (चिंतन के जन सरोकार) की किताबों को इस कोटि में रखा जा सकता है ।        

यह समय ऐसा भी रहा जब निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की आंधी ने भारत को हिलाकर रख दिया । इस समय की आर्थिकी ने समाज के वंचित समूहों के भीतर हाशियाकरण को तेज करने के साथ ही हिस्सेदारी की आकांक्षा को भी जन्म दिया । सरकार पर भी कल्याणकारी कदम उठाने का दबाव पैदा हुआ । उसने तमाम योजनाओं की घोषणा भी की लेकिन इन योजनाओं और अधिकारों के सदुपयोग हेतु आंदोलनकारी जागरण की आवश्यकता थी । सूचना का अधिकार, भोजन का अधिकार और मनरेगा तथा पंचायती राज जैसी उसकी योजनाओं के लाभ को लोगों तक पहुंचाने के मकसद से कुछ किताबों का भी प्रकाशन हुआ । विष्णु राजगढ़िया और अरविंद केजरीवाल (सूचना का अधिकार: व्यावहारिक मार्गदर्शिका) तथा विष्णु राजगढ़िया (मनरेगा), वीरेंद्र कुमार भारती (सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी द्वारा कृषक महिलाओं का सशक्तीकरण) का उल्लेख इस प्रसंग में किया जा सकता है        

हिंदी प्रकाशन की दुनिया में आनलाइन प्रकाशन ने भी दस्तक दी है इस क्षेत्र में नाटनल नामक प्रकाशन ने बहुतेरी किताबों का प्रकाशन किया है इसकी शुरुआत 2016 में हुई । इनके अतिरिक्त इस प्रकाशन ने मुख्य रूप से हिंदी की लोकप्रिय पत्रिकाओं का वितरण किया है ।

हिंदी प्रकाशन में बहुतेरे विचारकों और लेखकों ने समय समय पर व्यावसायिक प्रकाशकों के विरोध में अपने प्रकाशन खोले और उनसे अपनी ही किताबें छापीं । भोपाल से ऐसा ही ‘जन प्रेरणा प्रकाशन’ चलता है जिससे द्रगचन्द्र प्रजापति ने अपनी ही किताबें छापी हैं और वे सभी ज्ञानपरक पुस्तकें हैं । राजनीति, विचारधारा, बहुजन और वामपंथ, कृषि और किसान तथा ट्रेड यूनियन आंदोलन उनकी प्रमुख किताबें हैं ।                

इस दौर में विज्ञान संबंधी लेखन पाठ्यक्रमों से बाहर भी पर्याप्त हुआ । इनमें रोचकता पर जोर रहा । इसका कारण शायद समाज में बड़े पैमाने पर व्याप्त अवैज्ञानिक सोच और अंधविश्वास का मुकाबला करना था । इस क्षेत्र में चंद्रभूषण (नयी सदी में विज्ञान), गौहर रज़ा (मिथकों से विज्ञान तक), महेश भारती (चाँद के पार चलो), देवेन्द्र मेवाड़ी (विज्ञान की दुनिया), गिरीश चन्द्र जोशी (विज्ञान और ब्रह्मांड) कुछ प्रमुख लेखक रहे । इनके अतिरिक्त अनिल सदगोपाल (जन आंदोलन में विज्ञान की भूमिका) से विज्ञान के एक अन्य पहलू का पता चलता है ।   

ज्ञानपरक लेखन के क्षेत्र में सबसे बड़ी चुनौती दर्शन संबंधी लेखन है । इस मामले में प्रसन्न कुमार चौधरी (अतिक्रमण की अंतर्कथा) ने मनुष्य की चेतना के विकास की दीर्घ यात्रा को नवीनतम शोधों की रोशनी में प्रस्तुत किया है सुधा चौधरी (दर्शन की सामाजिक भूमिका और भारतीय जीवनदृष्टि) ने दर्शन की अमूर्तता पर बल देने की जगह उसके सामाजिक पहलू का विवेचन-विश्लेषण किया है ।  अरुण माहेश्वरी (अथातो चित्त जिज्ञासा, प्रमाता का आवास) ने अपनी इन किताबों में उत्तर आधुनिक दार्शनिक प्रत्ययों के सहारे वर्तमान मनुष्य को समझने का प्रयास किया है । दर्शन की दुनिया में मुकुंद लाठ (प्राश्निक, प्रत्यङमुख, सिसृक्षा का तत्त्व दर्शन) अपने मौलिक चिंतन के लिए मशहूर हैं ।  अरुण भोले (देवतुल्य नास्तिक ) ने बुद्ध के व्यक्तित्व निरूपण के साथ उनके सिद्धांतों की झलक प्रस्तुत की है ।   

हमारे समय का सबसे बड़ा सरोकार  पर्यावरण का विनाश है इस क्षेत्र में सबसे अधिक महत्व का प्रकाशन सुषमा नैथानी (अन्न कहाँ से आता है) था घोषित तौर पर खेती का इतिहास होने के बावजूद इसमें लेखिका ने बहुत व्यापक दृश्य प्रस्तुत किया है सोपान जोशी (जल, थल, मल)  भी घोषित रूप से पर्यावरण की किताब होने के बावजूद मल व्ययन की समस्या को बहुत बड़े फलक पर विश्लेषित करती है अनुपम मिश्र (साफ माथे का समाज) ने पर्यावरण को समाज से जोड़कर देखा है पंकज चतुर्वेदी (दफ़न होते दरिया, जल मांगता जीवन, धरती को बचाओ, लोक, आस्था और पर्यावरण) ने पर्यावरण को बहुआयामी निगाह से देखा और परखा है शेखर पाठक (दास्तान-ए-हिमालय- 2 खंड) की विशेषता हिमालय को पूरी तरह से खंगाल लेना है इसी सिलसिले में हिमालय की पिछली त्रासदी के बारे में हृदयेश जोशी (तुम चुप क्यों रहे केदार: हिमालय की सबसे बड़ी त्रासदी से उठे सवाल) भी महत्वपूर्ण किताब रही । इसके अतिरिक्त वेंकटेश दत्ता (तलाश तालाबों की: लखनऊ के भूले-बिसरे तालाब और झील), अमित कुमार (हमारे राज्य पक्षी), अरविंद गुप्ता (पेड़), कृष्ण कुमार मिश्र (जल-जीवन का आधार), कादम्बरी मेहरा (भारत के मूक प्रवासी), कालू राम शर्मा (प्रकाश और जीवन), विपुल कीर्ति शर्मा (मकड़ियों का अद्भुत संसार) आदि ऐसी किताबें हैं जो पर्यावरण के इन उपेक्षित पहलुओं की ओर ध्यान दिलाती हैं ।

इस अवधि में विचार के क्षेत्र में भी अत्यंत उत्तेजक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ । मणीन्द्र नाथ ठाकुर (ज्ञान की राजनीति: समाज अध्ययन और भारतीय चिन्तन), अभय कुमार दुबे (हिंदू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति), अजय कुमार (अधीनस्थ की ज्ञानमीमांसा), रविभूषण (वैकल्पिक भारत की तलाश, कहां आ गये हम वोट देते-देते, बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी, आज़ादी: सपना और हकीकत, फ़ासीवाद की दस्तक, राजनीतिक शक्ति का प्रयोजन, आज जो सुनना जरूरी है, बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे), वी के सिंह (नयी दुनिया की ओर, राष्ट्रवाद और राष्ट्र-राज्य, भारत में राष्ट्रवाद, पूंजी के तर्कों से परे), भरत प्रसाद (भारत एक स्वप्न), विनोद अग्निहोत्री (आन्दोलनजीवी), आदित्य निगम (आसमां और भी हैं), शंकर शरण (साम्यवाद: बुद्धिजीवियों की अफीम) आदि ऐसी किताबें रहीं जिन्होंने हिंदी के वैचारिक जगत को समृद्ध बनाया ।  

पत्रकारिता की दुनिया भी एकाधिक कारणों से चर्चा में रही । सभी जानते हैं कि सूचना और संचार की क्रांति ने हमारे समय को इससे पहले के समय से अलगा दिया है । टेलीविजन, मोबाइल फोन और इंटरनेट ने पत्रकारिता का समूचा ढांचा ही बदल दिया । इसी कारण आनंद प्रधान (तमाशा मेरे आगे, न्यूज़ चैनलों का जनतन्त्र), विनीत (मंडी में मीडिया, मीडिया का लोकतंत्र), दिलीप मंडल (मीडिया का अंडरवर्ल्ड, कारपोरेट मीडिया दलाल स्ट्रीट, अनसोशल नेटवर्क), विष्णु राजगढ़िया (जनसंचार: सिद्धांत और अनुप्रयोग), रविकांत (मीडिया की भाषा-लीला), जगदीश्वर चतुर्वेदी (डिजिटल मोदी और लोकतंत्र, सर्वसत्तावाद और लोकतंत्र), प्रांजल धर (समकालीन वैश्विक पत्रकारिता में अखबार, मीडिया और हमारा समय), रवीश कुमार (बोलना ही है: लोकतंत्र, संस्कृति और राष्ट्र के बारे में, मीडिया का लोकतंत्र), हरजिंदर (चुनाव के छल प्रपंच: मतदाताओं की सोच बदलने का कारोबार), अच्युतानंद मिश्र (तीन श्रेष्ठ कवियों का हिंदी पत्रकारिता में अवदान), जवाहर कर्नावट (विदेश में हिंदी पत्रकारिता: 27 देशों की हिंदी पत्रकारिता का सिंहावलोकन), अरुण कुमार भगत (पत्रकारिता: सर्जनात्मक लेखन और रचना-प्रक्रिया), गौरव त्यागी (वैश्वीकरण के दौर में समाचार पत्र), आनंद स्वरूप वर्मा (पत्रकारिता का अंधा युग), कविता भाटिया (सोशल मीडिया: वर्चुअल से वास्तविक) आदि किताबों का प्रकाशन हुआ । इनसे पत्रकारिता की विविधता का पता चलता है ।   

इसी तरह खास तरह का हिंदी लेखन समाज रपट के रूप में सामने आया । इनमें भाषा सिंह (अदृश्य भारत, शाहीन बाग), बजरंग बिहारी तिवारी (हिंसा की जाति), रमाशंकर सिंह (नदी पुत्र), नवल किशोर कुमार (बिहार की छत्तीस कौमें, जातियों की आत्मकथा), मनीषा भल्ला और अमानुल्ला खान (बाइज्जत बरी), विभूति नारायण राय (हाशिमपुरा 22 मई), महेंद्र मिश्र, प्रदीप सिंह, उपेन्द्र चौधरी (सत्ता की सूली), सुभाष गाताडे (मोदीनामा: हिंदुत्व का उन्माद), अभय कुमार दुबे (फ़ुटपाथ पर कामसूत्र: नारीवाद और सेक्सुअलिटी), सुरेश प्रताप (उड़ता बनारस), वसंती रामन (मिज़ाज-ए-बनारस: बनारस के बुनकर), प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत (स्वर्ग पर धावा: बिहार में दलित आंदोलन, 1912-200), रोहिण कुमार (लाल चौक: दिल्ली और कश्मीर के बीच मुसलसल चल रही ‘जंग’ की दास्ताँ) आदि महत्वपूर्ण किताबें रहीं । इसके अलावे राज्यसभा के वर्तमान उपाध्यक्ष हरिवंश लम्बे समय से पत्रकार रहे । इस जीवन के उनके लेखन के आधार पर ‘समय के सवाल’ शीर्षक से दस किताबों का प्रकाशन हुआ । इनमें बिहार और झारखंड से जुड़ी किताबें उनके प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित होने के कारण उल्लेखनीय हैं ।    

कला और सिनेमा संबंधी हिंदी लेखन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । इनमें अशोक भौमिक (समकालीन चित्रकला: हुसैन के बहाने, अकाल की कला और जैनुल आबेदीन, चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला, महामारी और चित्रकला, भारतीय चित्रकला का सच,  चित्रकला, चित्र और चित्रकार) ने कला के विभिन्न माध्यमों का गहन विश्लेषण करके हिंदी पाठक की समझ का विस्तार किया है । मिहिर पंड्या (शहर और सिनेमा वाया दिल्ली), अनिरुद्ध शर्मा (सिनेमा सप्तक), जयप्रकाश चौकसे (सिनेमा जलसाघर) आदि का महत्व इसलिए है कि हिंदी में सबसे अधिक फ़िल्म बनने के बावजूद उसके बारे में हिंदी में बहुत कम विचार होता है । जबरीमल्ल पारख (जनसंचार माध्यमों का राजनीतिक चरित्र, जनसंचार माध्यम और सांस्कृतिक विमर्श, जनसंचार माध्यमों का वैचारिक परिप्रेक्ष्य, साझा संस्कृति, सांप्रदायिक आतंकवाद और हिंदी सिनेमा, लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ, हिंदी सिनेमा में बदलते यथार्थ की अभिव्यक्ति, भूमंडलीकरण और सिनेमा में समसामयिक यथार्थ), विनोद भारद्वाज (सिनेमा: कल, आज, कल), शिवानी राकेश (सिनेमा को पढ़ते हुए), पंकज राग (धुनों की यात्रा: हिंदी फ़िल्मों के संगीतकार 1931-2005) ने भी इस दिशा में योगदान किया है । ज्योतिष जोशी (आधुनिक कला आन्दोलन: विश्वकला की आधुनिक यात्रा 1400-1965), राजेश कुमार व्यास (कलाओं की अंतर्दृष्टि), भाऊ समर्थ (चित्रकला और समाज), वर्षा दास (कला और कलाकार), अरविन्द मोहन (गांधी और कला) ने कला जगत के बारे में व्यापक नजर डाली है ।     

इतिहास के क्षेत्र में हितेंद्र पटेल (आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ: संदर्भ भगवती चरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर और गुरुदत्त के राजनीतिक उपन्यास), शुभनीत कौशिक (इतिहास, भाषा और राष्ट्र), सुधीर विद्यार्थी (आज का भारत और भगत सिंह, क्रांतिकारी आंदोलन: एक पुनर्पाठ, भगत सिंह के बहाने, क्रांति की इबारतें, भूले बिसरे क्रांतिकारी), सुभाष चंद्र कुशवाहा (चौरी चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन, चौरी-चौरा पर औपनिवेशिक न्याय, भील विद्रोह: संघर्ष के सवा सौ साल), अशोक कुमार पांडेय (कश्मीरनामा, कश्मीर और कश्मीरी पंडित: बसने और बिखरने के 1500 साल), प्रियंवद (भारत विभाजन की अंत:कथा, भारतीय राजनीति के दो आख्यान), भगवान सिंह (भारत: तब से अब तक), अशोक तिवारी (सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज), चंद्रभूषण (भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म), प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत (बिहार में सामाजिक परिवर्तन, 1857: बिहार-झारखंड में महायुद्ध), प्रकाशचंद भट्ट (इतिहास बोध प्रतिरोध और संस्कृति), चन्द्रशेखर प्रसाद यादव (मजदूर आंदोलन का इतिहास, जमशेदपुर 1920-2000), वी के सिंह (भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन के सौ वर्ष), डाक्टर अर्जुनदास केसरी (विन्ध्याचल मण्डल समग्र), उबैदुर्रहमान सिद्दीकी (ग़ाज़ीपुर का राजनैतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अवलोकन 1500-1778), आनंद कुमार (इमरजेंसी राज की अन्तर्कथा), महेश भारती (नील से निलहे तक, हरसाई: एक ऐतिहासिक तथ्य), मदालसा मणि त्रिपाठी (भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मणिपुर की भूमिका), अटूट संतोष (ससन: आजादी के अज्ञात मतवाले मुंडा आदिवासियों की कहानी), धर्मराज गुप्ता (याद करूँ तो---1942: बलिया की क्रांति), दिनेश मंडोरा (भारतीय वैज्ञानिक और स्वतंत्रता संग्राम), मनोज कुमार कपरदार (झारखंड के भूले-बिसरे क्रांतिवीर), राजगोपाल सिंह वर्मा (आख़िरी मुग़ल बादशाह का कोर्ट-मारशल, चिनहट 1857, औपनिवेशिक भारत की जुनूनी महिलाएँ, दुर्गावती: गढ़ा की पराक्रमी रानी, नवाबी-बादशाही काल और 1857 की क्रांति की गाथा), चौधरी लौटनराम निषाद (निषाद समाज का वृहत इतिहास), डाक्टर राकेश पाठक (सिंधिया और 1857), पुष्यमित्र (जब नील का दाग मिटा: चंपारण 1917), हेरम्ब चतुर्वेदी (मध्यकालीन भारत में राजनीति ), भगवान सिंह (कोसम्बी: कल्पना से यथार्थ तक) आदि किताबों ने पाठ्य पुस्तकों की दुनिया से निकालकर इतिहास को समकालिक बनाया है ।     

शिक्षा  के मामले में भी हिंदी में कृष्ण कुमार (गुलामी की शिक्षा और राष्ट्रवाद, दीवार का इस्तेमाल और अन्य लेख, मेरा देश तुम्हारा देश, शांति का सफर, सपनों का पेड़), प्रेमपाल शर्मा (पढ़ने का आनंद, विकल्प की तलाश,भाषा का भविष्य, भाषा, शिक्षा और समाज, शिक्षा, सत्ता और लोकतंत्र), महेशचन्द्र पुनेठा (शिक्षा के सवाल, दीवार पत्रिका और रचनात्मकता), दिनेश कर्नाटक (शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ), आलोक कुमार मिश्रा (बच्चे मशीन नहीं हैं), जगमोहन सिंह राजपूत (भारतीय विरासत और वैश्विक समस्याएं: व्यग्रता, उग्रता और समग्रता, शिक्षा: मानवीय संवेदनाएँ एवं सरोकार, भारतीय संस्कृति के आलोक में शिक्षा, शिक्षा की सार्थकता, शिक्षा की गतिशीलता, क्यों तनावग्रस्त है शिक्षा-व्यवस्था?), सुशील जोशी (जश्न-ए-तालीम), कमलानंद झा (पाठ्य पुस्तक की राजनीति, मस्ती की पाठशाला), शिरीष खरे (उम्मीद की पाठशाला), संजीव राय (इंटरनेट युग: बच्चे, अभिभावक और शिक्षकों की चुनौतियाँ, कोरोना काल में शिक्षा: बदलाव और नए प्रयोग), ॠषभ कुमार मिश्र (विद्यालय में समाज), गोविंद प्रसाद शर्मा (शिक्षा और समाज), प्रकाश देव (विद्यालयीन शिक्षा और कानून), शत्रुघ्न प्रसाद सिंह (सलीब पर शिक्षा), रवींद्रनाथ प्रसाद सिंह (शिक्षा का अर्थ एवं चित्य), केदारनाथ पांडेय (शिक्षा के सामाजिक सरोकार), देवी प्रसाद (सृजनात्मक और शांतिमय जीवन के लिए शिक्षा), आशुतोष दुबे (प्रारम्भिक शिक्षा: व्यक्तित्व विकास के विविध चरण), मुकेश किशोर (मुझे ऐसे पढ़ाओ) जैसी किताबों से पाठकों के सरोकार संपन्न हुए            

इस समय एकाधिक कारणों से  संविधान से जुड़े सवाल सार्वजनिक दुनिया में बहस के केंद्र में रहे बहुत समय के बाद  इससे जुड़ी औपचारिकता की जगह सार्थक लेखन हो रहा है इस मामले में कनक तिवारी (संविधान और हम भारत के लोग, यह देश किसका है?), अनूप बरनवाल ‘देशबन्धु’ (भारतीय संविधान की निर्माण-यात्रा) ने सामान्य जानकारी बढ़ाने में मदद की    

समाज में हुए बदलावों ने सतेंद्र कुमार (बदलता गाँव बदलता देहात: नयी सामाजिकता का उदय आक्सफ़ोर्ड), सत्येन्द्र पीएस (मंडल कमीशन: राष्ट्रनिर्माण की सबसे बड़ी पहल), भूषण भावे (गोवा के पारंपरिक खेल), जयसिंह रावत (बदलाव के दौर से गुजरती जनजातियाँ), वेदप्रताप वैदिक (भाजपा हिंदुत्त्व और मुसलमान) में अभिव्यक्ति पायी

  

नरेन्द्र पाठक (कर्पूरी ठाकुर और समाजवाद), पीयूष बेबेले (नेहरू: मिथक और सत्य), पंकज चतुर्वेदी (जवाहरलाल नेहरू, हाजिर हो), रामायन राम (डाक्टर अंबेडकर: चिंतन के बुनियादी सरोकार),  सुभाष गाताडे (बीसवीं सदी में डाक्टर अम्बेडकर का सवाल), मोनिका कुमारी मिश्र (महात्मा गांधी: स्वतंत्र भारत का सपना), नन्दकिशोर आचार्य (लोहिया: मानव-सामीप्य का दर्शन), कुमार मुकुल (डाक्टर लोहिया और उनका जीवन-दर्शन), शोक पंकज (लोहिया के सपनों का भारत: भारतीय समाजवाद की रूपरेखा), अमरनाथ शर्मा (आजाद भारत के असली सितारे), संजय जोठे (आधुनिक भारत के निर्माता पेरियार), कनक लता (सावित्री बाई फुले: देश की पहली अध्यापिका का जीवन संघर्ष), कमलाकान्त त्रिपाठी (विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक), शंकर दयाल तिवारी (कार्ल मार्क्स: जीवन परिचय), महेश तिवारी (ग्रामसभा से लोकसभा: रामजीवन सिंह), सीमा आजाद (मौलवी लियाकत अली), वी के सिंह (फिदेल कास्त्रो, चे गुवेरा, हो ची मिन्ह, ह्यूगो चावेज), सांवरमल सांगानेरिया (ज्योति की आलोक यात्रा), रमा (माहात्मा हंसराज), राजेश बादल (क्रांतिदूत पंडित परमानंद), अरविंद मोहन (बापू की महिला ब्रिगेड), ईशा पांडेय (देशानुरागी बीबी कौर), रीतिका बिष्ट (बिशनी देवी साह: गाथा एक वीरांगना की), उत्कर्ष आनंद (गांधी-भगत के साथी रामबिनोद सिंह), कपिल मेवाड़ा (मालवा के महानायक कुंवर चैन सिंह), इंदु वर्मा (सोनाखान के सपूत शहीद वीर नारायण सिंह), अनुज मिश्र (भगतराम तलवार: विस्मृत देशभक्त जासूस की गौरव-गाथा), प्रभात ओझा (शहीद पत्रकार रामदहिन ओझा), मनोज कुमार मिश्र (नानाजी देशमुख: एक महामानव), धनंजय चोपड़ा (गणेश शंकर विद्यार्थी), रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ (पेशावर के महानायक: वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली), विष्णु प्रभाकर (सरदार वल्लभभाई पटेल), कृष्ण नारायण प्रसाद ‘मागध’ (माधवदेव: व्यक्तित्व और कृतित्व), राजगोपाल सिंह वर्मा (इतिहास पुरुष: बख़्त ख़ान ), अनिल माहेश्वरी (मस्लक-ए-आला हजरत बरेलवी), जयन्त जिज्ञासु (द किंग मेकर: लालू प्रसाद यादव की अनकही दास्तान), रशीद किदवई (भारत के प्रधानमंत्री: देश, दशा, दिशा)  जैसी किताबों से वर्तमान कशमकश का पता चलता है ।        

देश में पिछले कुछ वर्षों से सांप्रदायिक माहौल में विषाक्तता फैली है । दूसरी ओर वंचित समुदायों के भीतर विकास के लाभ में भागीदारी की आकांक्षा भी बलवती हुई है । इस वातावरण ने विभिन्न सामाजिक समूहों की हालत के प्रति लेखन को बढ़ावा दिया है । इसमें राघव शरण शर्मा और आदित्य (जंगे आज़ादी में मुस्लिम समाज) ने स्वाधीनता संग्राम में मुसलमानों की भागीदारी को दर्ज किया है । हिलाल अहमद (अल्लाह: नाम की सियासत) ने राजनीतिक वातावरण पर निगाह डाली है । पंकज चतुर्वेदी (क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?) ने मुस्लिम समुदाय के बारे में बद्धमूल धारणाओं की पड़ताल की । कनक तिवारी (आदिवासी उपेक्षा की अंतर्कथा: ब्रिटिश हुकूमत से इक्कीसवीं सदी तक) ने देश के मूलवासियों के साथ बरताव की छानबीन की । हिमांशु कुमार (विकास आदिवासी और हिंसा: किसका विकास- किसका विनाश?) ने भी इस समुदाय के सवाल उठाये । प्रमोद भार्गव (सहरिया आदिवासी: जीवन और संस्कृति) ने एक खास समुदाय की जानकारी दी । ज्ञानचंद बागड़ी (दसनामी नागा साधु) ने बहुत समय के बाद समाज के हाशिये पर अवस्थित एक समूह की ओर ध्यान खींचा । कृष्ण कुमार (चूड़ी बाजार में लड़की) ने अतिशय रोचक तरीके से स्त्री की स्थिति का बयान किया । अरविंद जैन (बचपन से बलात्कार, औरत होने की सजा, बेड़ियां तोड़ती स्त्री) और ममता मलहोत्रा (महिला अधिकार) ने स्त्री प्रश्न के आलोक में कानून की परख की । ओम प्रकाश कश्यप (स्त्रियों को गुलाम क्यों बनाया गया) ने स्त्री पराधीनता की वजह खोजने का प्रयास किया । सुधा सिंह (ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ) ने स्त्री की नजर से एक और क्षेत्र की पड़ताल की । वी के सिंह (पश्चिम में फेमिनिज्म, भारत में औरत के सपने और संघर्ष) ने स्त्री के प्रश्न पर पश्चिमी और भारतीय विचारों का परिचय दिया । अली अनवर (सम्पूर्ण दलित आंदोलन: पसमान्दा तसव्वुर) और नाइश हसन (मुताह: एक शोधपरक अध्ययन) ने मुस्लिम समुदाय के इन पहलुओं का अध्ययन किया । पुष्पिता अवस्थी (भारतवंशी: भाषा एवं संस्कृति) ने प्रवासी भारत की छवियों को दर्ज किया । मुकुल शर्मा (दलित और प्रकृति: जाति और पर्यावरण) ने जाति के प्रसंग में नया कोण पैदा किया । अरविंद मोहन (बिहारी मजदूरों की पीड़ा) ने कामगारों के विशेष समुदाय की समस्या को प्रस्तुत किया । श्याम सुंदर दुबे (लोक राम-कथा) ने वर्तमान विमर्श का नया पहलू उजागर किया । इसी क्रम में डाक्टर योगेंद्र प्रताप सिंह (प्रयाग की रामलीला) को भी देखा जा सकता है ।          

हिंदी पत्रिकाओं में भी कुछ ऐसी हैं जो साहित्य के मुकाबले अन्य विषयों से संबंधित सामग्री का प्रकाशन करती हैं । इनमें सामयिक नेहा (चिकित्सा केंद्रित गोरखपुर से प्रकाशित), अनौपचारिका (राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति जयपुर से प्रकाशित), पाठशाला (अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, भोपाल से प्रकाशित) प्रमुख हैं । इस तरह की पत्रिकाओं में ‘पहाड़’ का विशेष स्थान है क्योंकि किसी एक पहाड़ पर केंद्रित ऐसी पत्रिका दुर्लभ है । हिमालय पर केंद्रित यह पत्रिका लम्बे समय से नैनीताल से इतिहासकार शेखर पाठक के नेतृत्व में छपती रही है । इस पत्रिका में हिमालय से जुड़े लगभग सभी विशेष पहलुओं पर गुणवत्तापूर्ण सामग्री मिल सकती है । इसकी सामग्री में पर्यावरण से लेकर पर्वतारोहण तक बहुत ही विविधता रहती है ।        

ज्ञान के साहित्य की लोकप्रियता ने ऐसा दबाव बना दिया कि राजकमल प्रकाशन ने 2023 में ‘विचार का आईना’ नामक पुस्तक श्रृंखला बद्री नारायण के संपादन में छापी जिसमें हिंदी के ज्ञानपरक लेखन के अतिरिक्त हिंदी के एकाधिक साहित्यकारों के भी वैचारिक लेखन को संग्रहित किया गया । इसी साल सेतु प्रकाशन ने भी सेतु विचार के तहत इसी तरह ज्ञान श्रृंखला की शुरुआत की और विभिन्न विद्वानों के लेखन के बहुत सारे संग्रह छापे । इसके अतिरिक्त भी इस प्रकाशन से ओम प्रकाश कश्यप (भारतीय चिंतन की बहुजन परम्परा), धनंजय सिंह (लोकायन की सामाजिकता) जैसी बहुतेरा ज्ञान का साहित्य प्रकाशित हुआ जिसका जिक्र यथास्थान हुआ है । इससे पहले ही भारतीय भाषा परिषद की ओर से शम्भुनाथ के प्रधान संपादन में 2019 में जब एक कोश तैयार किया गया तो उसका नाम शायद इसी दबाववश ‘हिंदी साहित्य ज्ञानकोश’ रखा गया ।      

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